बाप का मुँह दाढ़ी-भरा था और जबड़ा चौड़ा था। उसने गाड़ी के नीचे मुँह डाले-डाले खुरदुरी आवाज़ में जवाब दिया, ''चले जाएँगे।'' और लड़की से कहा, ''बेटे, तू तनिक उतर तो आ?''
बेटी ने बाप के कंधेपर एक हाथ रक्खा, एक से अपने सेब को कस कर पकड़े रही और नीचे उतर कर गाड़ी से कुछ दूर हट कर खड़ी हो गई। मैं बहुत द्रवित हो उठा। बिचारी बीमार है, उसे शायद सूखा हो गया है- या तपेदिक। इससे कम इसे कोई बीमारी होनी ही नहीं चाहिए, और वह खड़ी भी नहीं रह पाएगी, काँपती रहेगी, कहीं गिर न पड़े। हे भगवान, जल्दी से बोल्ट में तार बँध जाएँ।

मगर लड़की सीधी खड़ी रही। सिर्फ़ एक बार उसने नाक सिड़की। बीच-बीच में अपने नंगे पैरों को देखकर पंजे सिकोड़ती रही और अधीरता से गाड़ी की धुरी को देखती रही, यह तो स्पष्ट था ही कि वह अपने बाप की कारीगरी से बहुत प्रभावित हो उठी है। वह बहुत दुबली थी, छड़ी-सी, और साँवली थी, एक नए प्रकार का सौंदर्य उसमें था, वह जो कष्ट उठाने से आता है। पर फिर मेरे मन ने मुझे फालतू बातें सोचने से रोक दिया।
मैंने पूछा, ''यह बीमार है?''
बाप ने लड़की को पुकारा, ''आ बेटे, बैठ जा, ठीक हो गई।''
धीर-धीरे चलकर अपने ढीले पैजामे को समेट कर लड़की परेंबुलेटर में चढ़ रही थी, तभी मुझे गाड़ी के पेंदे में एक छोटी-सी ढिबरी पड़ी दिख गई। झट उसे उठाकर मैंने बाप को दिया, ''यह कैसी है, इससे काम नहीं चलेगा?''
''ओ नहीं जी, ये तो बहुत छोटी है। वो तो मैंने बना लिया जी।''

मैं अपनी करुणा से परेशान था। फिर मैंने पूछा, ''इसे क्या हुआ है?'' और उसके दुखी उत्तर के लिए तैयार हो गया। मैंने सोचा था कि जब वह कहेगा, साहब मर्ज़ तो कुछ समझ में नहीं आता किसी के, तो डॉक्टर हुक्कू का नाम सुझाऊँगा।
बाप हँसकर बोला, ''अब तो ठीक है यह, इसे मोतीझाला हुआ था बहुत दिन हुए, तबसे कमज़ोर बहुत हो गई है। सुइयाँ लगती हैं इसे।''

गाड़ी चूँ-चूँ करके चलने लगी थी। अब लौंडिया को शरम लगने लगी कि इतनी बड़ी हो कर प्रैम में बैठी है।
''कहाँ रहते हो?''
''यहीं, सरकंडा बाज़ार में।'' और अपनी मांसल बाँह उठा कर उसने सरकंडा बाज़ार को इंगित किया जो सामने धूप में चमकता दिख रहा था।
मुझे कुछ न सूझा तो पूछा, ''वहाँ तो रोज़ यहाँ तक आते हो? तब तो बड़ी तकलीफ़ उठाते हो।''

वह हँसा तो नहीं, पर कुछ ऐसे मुस्कुराया जैसे कह रहा हो कि अपनी करुणा का श्रेय लेना चाहते हो तो हमारी व्यथा को क्यों अतिरंजित कर रहे हो। मैंने यह भी पूछा था, ''सुइयों में तो बड़ा खरचा होता होगा।''
वैसे ही उत्तर आया, ''कोई छब्बीस लगवा चुका हूँ, अभी कोई ख़ास फ़ायदा नहीं है। धीरे-धीरे होगा। ३ रु. ६ आ. की एक लगती है।''

अब भी मैं और कुछ पूछना चाहता था क्योंकि मेरा मन कह रहा था कि मेरी काम अभी खतम नहीं हुआ। मगर मैं यह भी देख रहा था कि उस लड़की की व्यथा कितनी सादी थी, मामूली थी, कोई ख़ास बात थी ही नहीं। मैं संवेदना दे सकता था तो अधिक से अधिक देना चाहता था, इसलिए मेरे मुँह से निकला, ''घबराओ नहीं ठीक हो जाएगी लड़की।'' अब सोचता हूँ कि बजाय इसके अगर मैं पूछता, आज कौन-सा दिन है, तो कोई फ़र्क न पड़ता।

बाप ने मानो मुझे सुना ही नहीं। लड़की ने अपने सेब की तरफ़ देखा, पूछा, ''बप्पा?'' बाप ने बड़े प्यार से मना कर दिया।
बीमार लड़की धैर्य से अपने सेब को पकड़े रही। उसने खाने के लिए ज़िद नहीं की। चमकती हुई काली-सफ़ेद चूड़ियों से उसकी कलाइयाँ खूब ढँकी हुई थीं। मुट्ठी में वह लाल चिकना छोटा-सा सेब था जो उसे बीमार होने के कारण नसीब हो गया था और इस वक्त उसके निढाल शरीर पर खूब खिल रहा था।

मैं जल्दी-जल्दी चलकर आगे निकल आया। अब मैं वहाँ बिलकुल फालतू था।

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('सीढ़ियों पर धूप में' कहानी संग्रह से साभार)

२८ अप्रैल २००८