जिंघम की रंग-उड़ी नीली फ्राक में लिपटी ममा किसी प्रागैतिहासिक फासिल की तरह आरामकुर्सी पर उकडू बैठी थी दृष्टिहीन सलेटी आँखें दरवाज़े की ओर मुड़ी -
"कौन? सैम्युअल है क्या? आज तो तूने ब्रेकफास्ट ही नहीं - "
"नहीं मैं हूँ ममा!" - मारी खिड़की के पास रखी दूसरी कुर्सी पर बैठ गई - "कैसी तबीयत हूँ तेरी अब? दवा ले ली थी क्या?"
"क्या दवा-दारू करूँ बेटा, अब तो बस दिन ही कट रहे हैं " ममा की सूखी झुर्रीदार उँगलियाँ मकड़ों की तरह अपनी गर्दन सहला रहीं थीं - "न बदन में ताकत हैं, न आँखों में रोशनी या मेरे ईसू!"
एक क्षण को मारिया के भीतर दया-सा कुछ सिहर गया - "डाक्टर लाल को फ़ोन करूँ क्या? शायद दवा बदलने से - "अरे दवा-हवा क्या, अब तो ऐसे ही ठेलना है बेटा - " ममा ने पलकें झपकाई - "ऊपर से और एक लम्बा बिल थमा जाएगा कम्बख्त! मैं इन लालची नेटिव डाक्टरों को खूब जानती हूँ! यहाँ पैसे-पैसे को सोच-कर खर्च करना पड़ता है कि किसी तरह महीना कट जाए दवा का बिल कौन... "

मारिया ने गले के पास घृणा का ठण्डा-हरा स्वाद महसूस किया- "तेरा ब्रेकफास्ट मँगा दूँ ममा?" बूढ़ी की अंधी आँखों में एक लोलुप चमक गहराई - "पुकारना तो जरा कम्बख्त को बेटा, मेरी तो सुनता ही नहीं मैं तो कहती हूँ मेरी मारिया न हो तो " मारिया ने क्रूरता से ठोकर मारकर दरवाज़ा खोल दिया और बाहर आ गई हँह यह घर। - "अरे सैम्युअल! अभी तक तेरा ब्रेकफास्ट नहीं बना क्या?"

बाहर बारिश यकायक और तेज़ हो गई तूफ़ान की साँय-साँय में पूरा घर हिल-सा रहा था - "सैम्युअल!" वह फिर चीखी।
"सुन लिया जी, आ रही हूँ अभी!" झुँझलाई आवाज़ सीढ़ियों के मोड़ पर से ही आई। सैम्युअल ट्रे में ममा का नाश्ता लिए आ ही रहा था - " अब लकड़ियाँ ही ऐसी सीली हुई हैं तो मैं क्या करूँ?"
मारिया चुपचाप कमरे में फिर घुस गई - "ले, आ गया तेरा ब्रेकफास्ट भी - यहाँ रख दो सैम्युअल" , उसने इशारे से तिपाई दिखा दी।

सैम्युअल चुपचाप ट्रे रख कर, बाहर निकल गया। पुतली-सी बैठी ममा यकायक चैतन्य हो आई - "टोस्ट गरम तो हैं ना मारी?" मारी नि:शब्द टोस्ट पर मक्खन लगाती रही। बस, खाने की गंध मिली नहीं कि बुढ्ढी की पाँचों इन्द्रियाँ जाग पड़ती है! ममा जबाब न पाकर भी चहके जा रही थी - "सैकरीन की तीन गोली डालना मेरी चाय में! एक-दो गोली से तो मिठास ही नहीं आती " मारिया ने टोस्ट बढ़ा दिया - "ले!"

एक घृणास्पद उत्सुकता से झुर्रीदार हाथ प्लेंट तलाशने लगे। टोस्ट पर हाथ पड़ते ही एक बेताबी से ममा ने दबोच लिया और पोपले मसूढ़े परम तृप्ति से उसे चुभाने लगे - "मक्खन कम लगाया है मारी बेटा, ज़रा और दे देना!"
ममा डाक्टर ने मना किया है - " ममा का निचला होंठ रूठे बच्चों की तरह फूल आया - "तो कल से खाना भी बन्द कर देना कि वो भी नुकसान करेगा। अपने लिए तो कोई कमी नहीं करोगे तुम लोग, बस मेरे ही लिए सब चीज़ की मनाही है। मैं सब समझती नहीं क्या? - " उसकी अंधी ही आँखों से आँसू टपकने लगे - "पैसे देकर भी खाना मयस्सर नहीं होता, या मेरे ईसू, कैसी मजबूरी है! अरे मेरे ही पैसों से सब लोग खाते हो और मुझी पर सारी रोक-टोक भी लगाते हो! इतना ही पैसा किसी होटल को देती तो - " ममा ने फ्राक उठाकर, नाक सुड़क ली!

एक क्षण को मारिया का मन हुआ कि बुढ़िया की गर्दन के पीछे की झुर्रीदार खाल चुटकी में पकड़ कर उसे ऊपर उठा ले, जैसे कुत्ते के पिल्लों को उठाया जाता है, और फिर झकझोर-झकझोर कर मक्खन की तश्तरी में उसकी नाक रगड़ डाले - 'जा किसी होटल में और दो आउंस की टिकिया को हफ्ते-भर चला ले!' अपने ही गुस्से के उफान से पस्त वह बाहर निकल आई - "सैम्युअल! पानी गर्म हो गया हो तो रख देना बाथरूम में!"

सैम्युअल ने पता नहीं सुना भी या नहीं मारिया चुपचाप बाहर ताकने लगी, बरसात निढाल होकर थम गई थी। बस, एक हल्की बौछार-सी पड़ रही थी। झीने पड़ते बादलों के पीछे से कहीं-कहीं आसमान की सलेटी झाँई भी नज़र आने लगी थी ! चले, गीला तौलिया तो बाहर डाल दे कम से कम। थके पैरों मारी कमरे में घुस गई! सोनिया ने हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल लिए थे और गुनगुनाती हुई बाल ब्रश कर रही थी। मूड शायद कुछ बेहतर था, मारिया ने हल्के से खँखारा - "कहीं बाहर जा रही है क्या?"
"कहाँ जाऊँगी ऐसे मौसम में - " सोनिया ने तुनक कर कंधा रख दिया और उँगली पर टूटे बाल लपेटने लगी - "एक ढंग का छाता तक तो पास में हैं नहीं, कौन बैठा है मेरा जिसके पास जाऊँगी? थू :" आदतन उसने बालों के गुच्छे पर थूका और खिड़की के बाहर फेंक दिया। "तो जा फिर जहन्नुम में ही -" मारिया ने मन-ही-मन दाँत पीस लिए...

सोनिया बाहर चली गई तो चादर बिछाते-बिछाते उसने सिर को झटका - हँह , बेकार ही वह भी इन लोगों को लेकर पागल होती हैं। चलें, नहा लें! अल्मारी से कपड़े निकालती, वह चौंक पड़ी - सड़ाक्! सड़ाक् - बाहर से ऐसी आवाज आ रही थी, जैसे कोई बेरहमी से पेड़ों को झकझोर रहा हो उसने दौड़ कर खिड़की खोल दी, और झाँकने लगी। अन्दाज़ ठीक ही था, फिर वही स्कूली छोकरे लग्गी लेकर फल झड़ा रहे थे - "सैम्युअल!" उसकी तीखी आवाज़ कोड़े-सी लपलपाई - "ज़रा देखना इन कम्बख्तों को!" बच्चों ने अचकचा कर ऊपर ताका। खिड़की पर मारिया का विराट आकार काले हाउसकोट में लिपटा टँका था

रसोई से सैम्युअल लकड़ी लेकर काँखता हुआ लपका - "नाश हो इन छोकरों का! ईसू कसम, एक-एक की कमर नहीं तोड़ी तो" मारिया उत्तेजना से पँजों पर झूल रही थी, - "पकड़ लो बदमाशों को, जाने न पायें" बच्चों के हुजूम ने अपनी लग्गी वहीं पटकी और पल-भर में पूरा झुंड खरगोशों की तरह बिला गया प़ोपले मुँह से चिंघाड़ता सेम्युअल पेड़ों के व्यर्थ चक्कर काट रहा था - "भाग गए बदमाश सब के सब! न पढ़ाई, न लिखाई, बस चोरी-चमारी में अव्वल! आएँ अब आगे कभी!" लकड़ी को झुलाता वह वापस रसोई में घुस गया। एक शान्ति की साँस लेकर मारिया ने हाउसकोट की पेटी कस ली। वह तो उसने देख लिया वर्ना एक भी फल नहीं रहने देते ये छोकरे -

टप्! - वह चौंक कर पीछे हटी , एक कंकड़ी ठीक उसी के पैरों के पास, आकर गिरी - 'चिमगादड़! चिमगादड़!" छ़ोकरों का झुण्ड अब सड़क को खुली सुरक्षा में घिरा खड़ा था उनके अगुआ ने बाँहें फटफटाते चिमगादड़ का आकार बनाया - "वो देखो, काली चिमगादड़!"
हो-हो-हो अपने लीडर की रसिकता से अभिभूत जत्था आगे भागने लगा देर तक मोड़ से उनकी पतली बचकानी आवाजें कंकरियों की तरह उछल-उछल कर आती रहीं - 'चिमगादड़! चिमगादड़!" मारी ने पाया कि उससे हाथ से कपड़ों का गट्ठर न जाने कब फ़र्श पर गिर पड़ा है। खिड़की बन्द कर उन्हें उठाने को झुको तो चप्पल का आखिरी फ़ीता भी तड़ाक से टूट गया! एक बेबसी से उसने टूटी चप्पल को ताका और वहीं फ़र्श पर बैठ गई चुँधी आँखों से आँसुओं के मोटे-मोटे कतरे फूले गालों पर ढुलकने लगे। काला हाउसकोट डैनों की तरह उसके ईद-गिर्द फैला पड़ा था।

हवा का एक भटका झोंका आकर खिड़की को फिर खोल गया। बाहर आसमान बच्चे की पहली रूलाई-सा नंगा और तीखा हो आया था...

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 २८ जुलाई २००८