पर्यटन

भंगाहल का तिलिस्मी संसार

गुरमीत बेदी

शिखरों के आगोश में हरियावल घाटियां

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भी इस दुर्गम घाटी का दौरा किया था और अपने संस्मरणों में उन्होंने लिखा था–'भंगाहल सिर्फ़ एक गांव है, जो उपत्यका के सबसे निचले हिस्से में समुद्रतल से 8,500 फुट की ऊंचाई पर बसा हुआ है। यहां चार–पांच दर्जन कनैत लोगों के घर हैं। जाड़ों में हिमपुंज यहां गिरते रहते हैं, जिस के कारण कई बार कितने ही घर बह जाते हैं। उपत्यका की तीन दिशाओं में रावी के क़रीब–क़रीब किनारे कितने ही शिखर हैं, जिनकी ऊंचाइयां 17,000 फुट से 20,000 फुट हैं। निचले भागों में कितने ही सुंदर देवदार के जंगल हैं और ऊपर कितनी ही हिमानियां हैं। भंगाहल तालुके का आधा भाग छोटा भंगाहल कहा जाता है जो धोलाधार के दक्षिण की ओर फेंकी दस हज़ार फुट ऊंची एक पर्वत श्रेणी द्वारा दो हिस्सों में बांट दी जाती है। यह पर्वत श्रेणी बीड़ और कोमांद के ऊपर से फताकाल होती मंडी की ओर जाती है। इस पर्वत श्रेणी के पूर्व के भू–भाग को कोठी कोहड़ और कोठी सवाड़ अथवा अंदरला और बाहरला बाढ़गढ़ कहते हैं। इसी में ऊहल नदी का स्रोत है।'

भंगाहल जिला कांगड़ा का आख़िरी गांव है। इसके एक तरफ़ लाहौलफ़स्पीति, दूसरी तरफ़ कुल्लू और तीसरी तरफ़ चंबा की सीमाएं हैं। भंगाहल पहुंचने के रास्ते भी तीन हैं। कांगड़ा जिला के बीड़ के अलावा दूसरा रास्ता चंबा से है और यहां से 45 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। तीसरा रास्ता कुल्लू जिला के पतली कूहल से जाता है। यहां से भंगाहल की दूरी 85 किलोमीटर है और रास्ते कालीहणी दरिया पार करना पड़ता है। यहां के लोग व्यापारिक आदान–प्रदान के लिए इन्हीं रूटों का प्रयोग करते हैं।

भंगाहल की आबादी 500 के आसपास है। लकड़ी से निर्मित अधिकांश घर दो मंज़िला हैं। नीचे भेड़–बकरियां और ऊपर लोग खुद रहते हैं। देवदार के शहतीरों पर की गई नक्काशी देखते ही बनती है। पत्थरों और लकड़ी के शहतीरों को डालकर बनाए गए इन घरों की छतें ढलानदार हैं ताकि बर्फ़ इन पर टिक न सके। सर्दियों में जब बाहरी दुनिया से भंगाहल का संपर्क कट जाता है तो यहां के लोग अपेक्षाकृत मैदानी घाटियों की तरफ़ पलायन नहीं करते बल्कि यहीं अपनी दुनियां में मौज मनाते हैं। नाच–गानों के दौर से माहौल को जीवंत रखते हैं। चूंकि यहां गज़ब की सर्दी होती है अतः लोग प्रायः ग़र्म कपड़े ही पहनते हैं। पुरूष टोपी या पगड़ी और महिलाएं 'चादरू' लपेटती हैं। क्योंकि सिर को नंगा रखना यहां अपशकुन समझा जाता है। 'लुआंचड़ी' यहां की महिलाओं के परंपरागत परिधान का नाम है। औरतें डोरा भी लगाती हैं। डोरा एक मोटा काला रस्सा होता है और इसे काली भेड़ों की ऊन से बनाया जाता है। यह डोरा 15 से 20 मीटर लंबा होता है और चौले पर इस ढंग से बांधा जाता है कि इस पर असंख्य सिलवटें बन जाती हैं। यह डोरा महिलाओं के वस्त्रों को यथा स्थान रखने के अलावा उन्हें चुस्त–दुरूस्त भी रखता है।

देवी देवताओं की इस समाज में बहुत मान्यता है और हर महत्वपूर्ण काम, यहां तक कि फसल की बिजाई भी देवता की अनुमति से होती है। 'अजय पाल' और 'गोहरी' इस घाटी के प्रमुख ग्रामीण देवता हैं। ये देवता प्रतीकात्मक रूप से मंदिरों में बिराजमान हैं और अपने चेलों, जिन्हें 'गूर' कहा जाता है, के माध्यम से जनता को आदेश सुनाते हैं।  

24 सितंबर 2005