साहित्य संगम

साहित्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है सरोजिनी साहू की ओड़िया कहानी का हिन्दी रूपांतर- "प्रतिबिंब"। रूपांतरकार है दिनेशकुमार माली।

जब वे पहुँचे थे, तब नीपा अपनी दिनचर्या में अत्यंत व्यस्त थी। एक हाथ में उसके टोस्ट था, तो दूसरे हाथ में पानी का गिलास। डाइनिंग-टेबल के पास खडी होकर, वह किसी भी तरह टोस्ट को गटक लेना चाहती थी। इस प्रकार उसने सुबह का नाश्ता खत्म कर लिया। फिर शेल्फ से निकाल कर चप्पलें पहन ली, हाथ-घड़ी बाँध ली, नौकरानी को दो-तीन कामों के बारे में आदेश भी दे दिये और सोने के कमरे का ताला भी लगा दिया।

अब वह सोच रही थी कि घर से निकल कर ड्यूटी पर चले जाना चाहिये। ऐसे हड़बड़ी के समय में शरीर की तुलना में मन कुछ ज्यादा ही सक्रिय होता है। मन के साथ ताल-मेल मिलाकर काम करते समय अगर कोई उसे रोक दे, यहाँ तक कि अगर टेलिफोन की घंटी भी बज उठे तो उसके लिये असहनीय हो जाता है, वह तुरंत ही तनाव-ग्रस्त हो जाती है और मन ही मन नाराज हो उठती है और भीतर का यह द्वंद्व उसके बाहरी व्यवहार में भी छुपाए नहीं छुपता। कभी-कभी तो वह इतनी झुँझला उठती है, कि नौकरानी को ही रिसीवर उठाने के लिये बोल देती है और खुद काम पर निकल जाती है। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है, जब अनजाने में रिसीवर उठा लेने पर इधर-उधर की असंगत बातें करके जल्दी जल्दी जल्दी काम के लिए निकलना पडा है।

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