विज्ञान वार्ता

रोवर बग्घियों के आगे
डा . गुरूदयाल प्रदीप

मंगल ग्रह और रोवर बग्घी

नाम : स्पिरिट एवं अपॉरच्युनिटी।
जन्म : 2003, जेट प्रपोल्सन लैबेरेटरी, कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी।
कार्य : मंगल ग्रह का सर्वेक्षण।
अनुमानित कार्यकाल : मंगल ग्रह पर अवतरण के पश्चात लगभग तीन महीने।

सौर ऊर्जा से संचालित एवं नाना प्रकार के उच्च दक्षता वाले सूक्ष्म उपकरणों से लैस, गोल्फ के मैदान में खेल का सामान ढोने वाली छोटी सी गाड़ी के आकार वाली इन बग्गियों के निर्माण में वर्षों के अथक श्रम के साथ–साथ लगभग 800 करोड़ डॉलर की लागत भी शामिल थी। पृथ्वी एवं मंगल ग्रह के बीच की लाखों किलोमीटर की दूरी तय करने में इन्हें लगभग सात महीने लगे थे। इनके निर्माण में प्रयुक्त उत्कृष्ट वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान, मंगल ग्रह की सतह पर इनका सफल अवतरण एवं अपेक्षा से कहीं ज्यादा कार्यक्षमता ने इन्हें न केवल वर्ष 2004 की सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक उपलब्धियों में शामिल कर दिया था बल्कि आज भी हमारे लिए ये गर्व का कारण बने हुए हैं।

वास्तव में इन बग्गियों से अपेक्षा थी कि ये 40 मीटर प्रतिदिन की रफ्तार से चल कर अधिक से अधिक लगभग एक किलोमीटर की दूरी तय कर पाएंगे अर्थात इनका अनुमानित कार्यकाल था, मात्र तीन महीने। लेकिन तीन महीने की कौन कहे, ये तो तीन साल पूरा करने की ओर अग्रसर हैं! जनवरी 2007 में ये मंगल–प्रवास के तीन साल पूरे कर लेंगे। इस दौरान इन दोनों यानों ने मंगल ग्रह के सर्वेक्षण एवं अनुसंधानों की जो आंकड़े और तस्वीरें हमें प्रेषित की है, उसने मंगल ग्रह के बारे में हमारी अवधारणा ही बदल दी है।

ये रोबो–भूवैज्ञानिक बग्गियां 'नेवर डाई' तो नहीं, लेकिन 'आसां नहीं हमारी हस्ती को यों मिटाना' जैसा संदेश अवश्य दे रही हैं। लेकिन समय की मार के आगे कौन टिका है। विषम परिस्थितियों में ऊबड़–खाबड़ धरातलों, कठोर चट्टानों एवं ऊंची–नीची खाइयों से जूझते हुए इनमें भी समय के साथ–साथ टूट–फूट हो ही रही है, जो इनकी दक्षता में कमी ला रही है। 'स्पिरिट' का शक्तिशाली ग्राइंडर 'रॉक एबरेशन टूल', जो कठोर ज्वालामुखीय चट्टानों में भी 2 इंच के व्यास तथा 0.2 इंच की गहराई वाला गड्ढा दो घंटे के अंदर कर सकता था, अब इसके दरातों की धार नहीं के बराबर रह गई है। यह उपकरण मात्र तीन पत्थरों के तोड़ने के लिए बना था, लेकिन दरातों के ख़राब होने के पूर्व यह तीन नहीं, बल्कि पंद्रह पत्थरों को तोड़ चुका है। इसके 'वायर ब्रिसिल' अब भी पत्थरों की ढीली–ढाली ऊपरी सतह को हटाने में सक्षम है। 'अपॉरच्युनिटी' के अगले दाएं पहिये को चलाने वाला मोटर 14 महीने पहले ही बंद हो चुका था। इसके 'रोबॉटिक बांह' के मोटर के वाइंडिंग में भी टूटे तार दिख रहे हैं। फिर भी, शेष तीन पहियों के बल पर ही यह गतिमान है तथा इसकी 'रोबॉटिक बांह' बिना मोटर के भी उपयोगी है। वैज्ञानिक इनकी बची–खुची क्षमता का अधिकतम उपयोग करने लगे हुए हैं और आशा करते हैं कि ये बग्गियां अपने कार्यकाल के तीन साल तो पूरे कर ही लेंगी।

अभूतपूर्व तकनीकी ज्ञान एवं चमत्कारी उपलब्धियों का नमूना होने के बाद भी ये बग्गियां ग्रहों तथा अंतरिक्ष की खोज के अंतिम साधन नहीं है। कमियां इन बग्गियों में भी हैं, यथा :

  • एक बार में केवल एक ही बग्गी को मंगल की धरती पर अवतरित करा पाना। साथ ही, जिस तकनीकी द्वारा इन्हें वहां उतारा गया वह काफ़ी खतरनाक है। वहां की धरती से टकराने के प्रारंभिक दौर में यदि इसके चारों ओर लगे हवा से भरे थैलों का संपर्क किसी नुकीली चट्टान से हो जाता तो सारे किए कराए पर पानी फिर जाता। संयोग से ऐसा नहीं हुआ, लेकिन आगे क्या गारंटी है?

  • इसके अवतरण का स्थान भी उतना सुनिश्चित नहीं था। हवा भरे थैलों के साथ उछलते–उछलते यह किस स्थान पर स्थिर होगा, यह सुनिश्चित करना कठिन था।

  • सौर–ऊर्जा के बल कार्य करने के कारण, इनकी सक्रियता सूर्य के प्रकाश की तीव्रता एवं कालावधि पर निर्भर करती है। अंधकार अथवा लंबे अंतराल वाले ठंड के मौसम में ये प्रायः निष्क्रिय रहने के लिए बाध्य हो जाते हैं।

  • धीमी गति, मात्र 40 मीटर प्रतिदिन अर्थात एक किलोमीटर की दूरी तय करने में लगभग तीन महीने का लंबा समय लगना। 'नौ दिन चले ढ़ाई कोस' जैसी कहावत को चरितार्थ करने वाली इन रोबो–बग्गियों के बल मंगल ग्रह के विशाल धरातल का सर्वेक्षण भला कैसे संभव है?

(विस्तृत जानकारी के लिए देखें विज्ञानवार्ता का फरवरी 2004 का अंक : मंगल ग्रह का कुशल–मंगल)

अनुसंधान की दुनियां कभी रूकती नहीं है। इस परियोजना तथा इन रोबो–बग्गियों में परिलक्षित कमियों को दूर करने एवं नए वैकल्पिक उपायों पर लगातार काम हो रहा है ताकि भविष्य में मंगल ग्रह की जांच–पड़ताल और भी सक्षम एवं प्रभावी रूप से की जा सके। इस कड़ी में 'स्पिरिट एवं अपॉरच्युनिटी' जैसे रोवर–बग्गियों के परिष्कृत रूप 'मार्स साइंस लैबोरेटरी' को 2009 के अंत तक पृथ्वी से प्रक्षेपित कर अक्तूबर, 2010 तक मंगल ग्रह की सतह पर अवतरित कराने की परियोजना पर कार्य चल रहा है। यह परिष्कृत रोवर–बग्गी पिछली रोवर बग्गियों के उपयोगी तकनीक के साथ–साथ तमाम उच्चकोटि की नयी एवं परिष्कृत तकनिकियों के समिश्रण का शानदार नमूना होगी।

स्पिरिट अथवा अपॉरच्युनिटी के समान ही 'मार्स साइंस लैबोरेटरी' में भी छः पहिए होंगे। इसमें 'रॉकर–बोगी सस्पेंशन प्रणाली' का उपयोग भी होगा एवं इसके मस्तूल पर 'परिदृश्य अवलोकन उपकरण' भी लगे होंगे परंतु इसका आकार उनकी तुलना में दुगना होगा और वजन तिगुना। जो नया होगा, उनमें से एक है, लेज़र उपकरण। इस उपकरण की सहायता से किसी भी चट्टान के ऊपरी सतह को वाष्पिकृत किया जा सकता है। वाष्पिकृत नमूने की प्रारंभिक जांच कर यह रोवर उसके निर्माण में प्रयुक्त तत्वों के बारे में प्रारंभिक जानकारी प्राप्त करने के बाद ही चट्टान अथवा मिट्टी के नमूने एकत्र कर उन्हें चूर्ण करेगा और फिर उन्हें रसायनिक विश्लेषण के लिए बग्गी पर ही लगे विभिन्न 'परीक्षण कक्षों' में वितरित करेगा। इसकी रचना में ऐसे उपकरणों की श्रृंखला शामिल होगी जो जीवन के लिए आवश्यक प्रोटींस, एमीनो एसिड्स तथा अन्य रसायनों की पहचान आसानी से कर सकेंगे। साथ ही, ये वातावरण में उपस्थित उन गैसों को भी पहचानने की क्षमता से युक्त होंगे जो इस ग्रह पर जीवन की ओर इंगित करती हों। इन अत्याधुनिक एवं सटीक उपकरणों के बल, यह रोवर बग्गी मंगल ग्रह की मिट्टी एवं चट्टानों की विस्तृत जांच–परख कर उनके भौगोलिक निर्माण की प्रक्रिया की सटीक जानकारी जुटानें में सहायक तो होगा ही, साथ ही वहां के वायुमंडल के अध्ययन तथा किसी भी रूप में उपस्थित पानी एवं कार्बन–डाई–आक्साइड के बारे में भी जानकारी एकत्रित करेगा। ये सारी जानकारियां इस ग्रह पर वर्तमान, भूत या भविष्य में किसी भी प्रकार के जीवन के होने एवं भविष्य में यह हमारे निवास के लिए कितना उपयोगी होगा, जैसी बातों के सुनिश्चत करने के काम आएंगी।

मार्स साइंस लैबोरेटरी की परियोजना में उपरोक्त खूबियों के अलावा कुछ अन्य विशेषताएं भी हैं, जो इसे पिछले रोवर्स से अलग करती हैं, यथा :

  • सैकड़ों किलोमीटर के अनिश्चित क्षेत्र की तुलना में मात्र 20 किलोमीटर के दायरे में इसके सुरक्षित अवतरण को सुनिश्चित करने का प्राविधान करना। जिस अंतरिक्ष यान द्वारा इसे मंगल ग्रह तक ले जाया जाएगा, उसके मंगल ग्रह के वातावरण में प्रवेश करने से लेकर धरातल के बिल्कुल पास तक पहुंचने तक उसी अधिकतम परिशुद्धता वाली तकनीक का उपयोग किया जाएगा जिसके द्वारा स्पेस शटल का पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश को नियंत्रित किया जाता है। इस प्रकार रोवर को लाने वाले अंतरिक्ष यान को नियंत्रित ढंग से इच्छित स्थान के उपर तक लाया जा सकता है। इसके मंगल के धरातल पर स्वयं के अवतरण की प्रक्रिया के अंतिम क्षणों जब इसके पैराशूट खुल जाएंगे एवं रिट्रो रॉकेट्स सक्रिय हो जाएंगे तो उसके थोड़ी देर बाद ही रोवर को एक रस्सी के सहारे धरातल पर उसी प्रकार उतार दिया जाएगा जैसा 'स्काई क्रेन हेलिकॉप्टर' में सामान को रस्सी से जोड़कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाया जाता है। साथ ही इसे धरती पर उतारने की प्रक्रिया मे इसके पहियों का भी उपयोग किया जाएगा। धरातल पर उतरते समय रोवर कहीं किसी नुकीले पत्थर से न टकरा जाए या फिर ऊबड़–खाबड़, पथरीले या फिर भुरभुरी सतह पर न अवतरित हो जाए और इसके अवयव क्षतिग्रस्त न हो जाएं , इसके लिए अति संवेदनशील 'सेंसर्स' की व्यवस्था करने का प्राविधान किया जा रहा है।

  • मंगल की धरती पर यह रोवर तेज़ गति से चल सके, अधिक से अधिक क्षेत्र का सर्वेक्षण कर सके एवं दीर्घ काल तक निर्बाधित रूप से क्रियाशील रहे, इसके लिए इसमें नाभिकीय ऊर्जा के स्रोत की व्यवस्था करने का प्रयास किया जा रहा है। इस रोवर के साथ यूएस डिपार्टमेंट ऑफ इनर्जी प्रदत रेडियो आइसोटोप प्रणाली संलग्न की जा सकती है, जहां प्लूटोनियम के रेडियोएक्टिव अपक्षय से प्राप्त ताप का उपयोग विद्युत उत्पन्न कर रोवर को अबाधित रूप से ऊर्जा प्रदान की जा सकती है। इस अनवरत ऊर्जा आपूर्ति केे बल रोवर बिना रूके दो वर्ष या उससे भी अधिक समय तक क्रियाशील रह सकता है।

  • बड़े आकार के पहिए एवं शक्तिशाली मोटर्स के बल, न केवल यह 90 मीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से चल कर थोड़े समय में लंबी दूरी तय कर सकता है, बल्कि ढ़ाई फीट ऊंचे एवं 30 डिग्री तक ढलान वाली चट्टानों पर भी आसानी से चढ़ सकता है। इस प्रकार, इसके सर्वेक्षण का क्षेत्र स्पिरिट एवं अपॉरच्युनिटी की तुलना में काफ़ी बड़ा हो सकता है।

नासा के जेट प्रपोल्सन लैबेरेटरी, कैलिफोर्निया के तत्वाधान में चल रहे इस आभियान की इतनी सारी खूबियों के बावज़ूद 'मार्स साइंस लैबोरेटरी' नामक यह रोवर मार्स के अन्वेषण की दिशा में अंतिम पड़ाव नहीं है, बल्कि यह तो मात्र शुरूआत है। सोच तो इसके आगे की भी है। तरह–तरह के अभूतपूर्व नवप्रवर्तित परियोजनाओं पर काम चल रहा है, जिनमें दस वर्ष या फिर उससे भी आगे की सोच है। नमूने के लिए, एक की बानगी प्रस्तुत हैः

मैसाच्यूसेट इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के मेकेनिकल विभाग के प्रोफेसर स्टीवेन ड्युबोस्की के तत्वाधान में चल रही एक परियोजना का लक्ष्य है, बेसबाल जैसे छोटे आकार एवं मात्र 100 ग्राम के वज़न वाले हल्के–फुल्के 'प्रोब्स' का निर्माण करना। 'फ्युएल सेल्स' द्वारा संचालित एवं कृत्रिम मांसपेशियों से युक्त ये प्रोब्स फुदकने, लुढ़कने एवं उछलने में सक्षम होंगे। इसके अतिरिक्त, इनमें ऐसे उपकरण भी होंगे जिनकी सहायता से ये सर्वेक्षण स्थल से नमूने एकत्र कर उनके तमाम भौतिक एवं रसायनिक गुणों का परीक्षण भी कर सकेंगें। यही नहीं, 'लोकल एरिया नेटवर्क' द्वारा ये एक दूसरे के संपर्क में भी रहेंगे तथा एकत्रित आंकड़ों एवं तस्वीरों को बेस स्टेशन तक संप्रेषित भी कर सकेंगे। जहां से इन आंकड़ों एवं तस्वीरों को धरती पर आसानी से संप्रेषित किया जा सकता है।

आकार में छोटे एवं वज़न में हल्के होने के कारण, जितने भार वाले एक रोवर को मंगल की सतह पर उतारा गया है, उतने में 1000 से अधिक संख्या में इन्हें वहां उतारा जा सकता है। हर प्रोब में अलग–अलग प्रकार के उपकरण यथा किसी में कैमरा तो, किसी में सेंसर, तो किसी परीक्षण उपकरण लगाए जा सकते हैं। अपने कृत्रिम मांसपेशियों के बल ये एक घंटे में औसतन 6 बार फुदक सकते हैं और एक फुदक में कम से काम डेढ़ मीटर की दूरी तय कर सकते हैं। लुढ़कने एवं उछलने का काम तो ये सतत कर सकते हैं। अपने इन गुणों के बल खड़ी चढ़ाई वाले खंदकों एवं गुफ़ानुमा पतले लावा–ट्यूब्स जैसी विषम जगहों के अंदर घुस कर वहां का सर्वेक्षण भी कर सकते हैं। ऐसी विषम जगहों पर रोवरर्स का पहुंचना असंभव है। अपनी तेज़ रफ्तार के बल मात्र 1000 प्रोब्स ही एक महीने में लगभग 50 वर्ग मील क्षेत्र का सर्वेक्षण कर सकते हैं। हल्के, परंतु अधिक समय तक टिकने वाले प्लास्टिक से बने होने के कारण इनमें टूट–फूट भी कम होगी, ख़राब मौसम का कुप्र्रभाव भी कम होगा एवं इनका कार्यकाल भी काफ़ी लंबा होगा।

इनके उपयोग से मंगल के सर्वेक्षण मे कार्य में कल्पनातीत तेज़ी आएगी। यही नहीं, इनका उपयोग धरती पर भी खदान के क्षेत्र से लेकर भूकंप के बाद मलबों में दबे लोगों का पता लगाने के लिए किया जा सकता है। फिलहाल, दिल्ली अभी दूर है। अभी तो आगामी शरद ऋतु तक धरती पर ही इनके 'प्रोटोटाइप्स' के परीक्षण की योजना पर कार्य चल रहा है। आगे आने वाली पीढ़ी विज्ञान के कैसे–कैसे चमत्कार देखेगी इसकी तो हम मात्र कल्पना ही कर सकते हैं।

24 सितंबर 2006