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आधुनिक
हिन्दी साहित्य का इतिहास
- पूर्णिमा वर्मन
हिंदी साहित्य का आधुनिक काल भारत के इतिहास के बदलते हुए
स्वरूप से प्रभावित था। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता
की भावना का प्रभाव साहित्य में भी आया। भारत में औद्योगीकरण
का प्रारंभ होने लगा था। आवागमन के साधनों का विकास हुआ।
अंग्रेज़ी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढ़ा और जीवन में
बदलाव आने लगा। ईश्वर के साथ साथ मानव को समान महत्व दिया
गया। भावना के साथ साथ विचारों को पर्याप्त प्रधानता मिली।
पद्य के साथ साथ गद्य का भी विकास हुआ और छापेखाने के आते ही
साहित्य के संसार में एक नयी क्रांति हुई।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में गद्य का विकास
आधुनिक हिन्दी गद्य का विकास केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक
ही सीमित नहीं रहा। पूरे देश में और हर प्रदेश में हिन्दी की
लोकप्रियता फैली और अनेक अन्य भाषी लेखकों ने हिन्दी में
साहित्य रचना करके इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।
हिन्दी गद्य के विकास को विभिन्न सोपानों में विभक्त किया जा
सकता है।
१. |
भारतेंदु पूर्व युग |
१८०० ईस्वी से १८५० ईस्वी तक |
२. |
भारतेंदु युग |
१८५० ईस्वी से १९०० ईस्वी तक |
३. |
द्विवेदी युग |
१९०० ईस्वी से १९२० ईस्वी तक |
४. |
रामचंद्र शुक्ल व प्रेमचंद युग |
१९२० ईस्वी से १९३६ ईस्वी तक |
५. |
अद्यतन युग |
१९३६ ईस्वी से आजतक |
भारतेंदु पूर्व युग
हिन्दी में गद्य का
विकास १९वीं शताब्दी के आसपास हुआ। इस विकास में कलकत्ता
के फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इस
कॉलेज के दो विद्वानों लल्लूलाल जी तथा सदल मिश्र ने
गिलक्राइस्ट के निर्देशन में क्रमश: प्रेमसागर तथा
नासिकेतोपाख्यान नामक पुस्तकें तैयार कीं। इसी समय
सदासुखलाल ने सुखसागर तथा मुंशी
इंशा अल्ला खां ने
रानी केतकी की कहानी
की रचना की इन सभी ग्रंथों की भाषा में उस समय प्रयोग में
आनेवाली खड़ी बोली को स्थान मिला।
आधुनिक खड़ी बोली के गद्य के विकास में विभिन्न धर्मों की
परिचयात्मक पुस्तकों का खूब सहयोग रहा जिसमें ईसाई धर्म का
भी योगदान रहा। बंगाल के राजा राम मोहन राय ने १८१५ ईस्वी
में वेदांतसूत्र का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवाया। इसके बाद
उन्होंने १८२९ में बंगदूत नामक पत्र हिन्दी में निकाला। इसके
पहले ही १८२६ में कानपुर के पं जुगल किशोर ने हिन्दी का पहला
समाचार पत्र उदंतमार्तंड कलकत्ता से निकाला। इसी समय गुजराती
भाषी आर्यसमाज संस्थापक स्वामी दयानंद ने अपना प्रसिद्ध
ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी में लिखा।
भारतेंदु युग
भारतेंदु हरिश्चंद्र (१८५५-१८८५) को हिन्दी-साहित्य के
आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। उन्होंने कविवचन
सुधा, हरिश्चन्द्र मैगज़ीन और हरिश्चंद्र पत्रिका निकाली।
साथ ही अनेक नाटकों की रचना की। उनके प्रसिद्ध नाटक हैं -
चंद्रावली, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी। ये नाटक रंगमंच पर भी
बहुत लोकप्रिय हुए। इस काल में निबंध नाटक उपन्यास तथा
कहानियों की रचना हुई। इस काल के लेखकों में बालकृष्ण भट्ट,
प्रताप नारायण मिश्र, राधा चरण गोस्वामी, उपाध्याय बदरीनाथ
चौधरी 'प्रेमघन', लाला श्रीनिवास दास, बाबू देवकी नंदन
खत्री, और किशोरी लाल गोस्वामी आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें से
अधिकांश लेखक होने के साथ साथ पत्रकार भी थे।
श्रीनिवासदास के उपन्यास परीक्षागुरू को हिन्दी का पहला
उपन्यास कहा जाता है। कुछ विद्वान श्रद्धाराम फुल्लौरी के
उपन्यास भाग्यवती को हिन्दी का पहला उपन्यास मानते हैं। बाबू
देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता तथा चंद्रकांता संतति आदि इस
युग के प्रमुख उपन्यास हैं। ये उपन्यास इतने लोकप्रिय हुए कि
इनको पढ़ने के लिये बहुत से अहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी।
इस युग की कहानियों में 'शिवप्रसाद सितारे हिन्द' की राजा
भोज का सपना महत्त्वपूर्ण है।
द्विवेदी युग
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के नाम पर ही इस युग का नाम
'द्विवेदी युग' रखा गया। सन १९०३ ईस्वी में द्विवेदी जी ने
सरस्वती पत्रिका के संपादन का भार संभाला। उन्होंने खड़ी
बोली गद्य के स्वरूप को स्थिर किया और पत्रिका के माध्यम से
रचनाकारों के एक बड़े समुदाय को खड़ी बोली में लिखने को
प्रेरित किया। इस काल में निबंध, उपन्यास, कहानी, नाटक एवं
समालोचना का अच्छा विकास हुआ।
इस युग के निबंधकारों में पं महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधव
प्रसाद मिश्र, श्याम सुंदर दास,
चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाल
मुकंद गुप्त और अध्यापक पूर्ण सिंह आदि उल्लेखनीय हैं। इनके
निबंध गंभीर, ललित एवं विचारात्मक हैं,
किशोरीलाल गोस्वामी और बाबू गोपाल राम गहमरी के उपन्यासों
में मनोरंजन और घटनाओं की रोचकता है।
हिंदी कहानी का वास्तविक विकास 'द्विवेदी युग' से ही शुरू
हुआ। किशोरी लाल गोस्वामी की इंदुमती कहानी को कुछ विद्वान
हिंदी की पहली कहानी मानते हैं। अन्य कहानियों में बंग महिला
की दुलाई वाली, शुक्ल जी की ग्यारह वर्ष का समय, प्रसाद जी
की ग्राम और चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था
महत्त्वपूर्ण हैं।
समालोचना के क्षेत्र में पद्मसिंह शर्मा उल्लेखनीय हैं।
"हरिऔध", शिवनंदन सहाय तथा राय देवीप्रसाद पूर्ण द्वारा कुछ
नाटक लिखे गए।
रामचंद्र शुक्ल एवं प्रेमचंद युग
गद्य के विकास में इस युग का विशेष महत्त्व है। पं रामचंद्र
शुक्ल (१८८४-१९४१) ने निबंध, हिन्दी साहित्य के इतिहास और
समालोचना के क्षेत्र में गंभीर लेखन किया। उन्होंने
मनोविकारों पर हिंदी में पहली बार निबंध लेखन किया। साहित्य
समीक्षा से संबंधित निबंधों की भी रचना की। उनके निबंधों
में भाव और विचार अर्थात् बुद्धि और हृदय दोनों का समन्वय
है। हिंदी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा गया उनका
इतिहास आज भी अपनी सार्थकता बनाए हुए है। जायसी, तुलसीदास और
सूरदास पर लिखी गयी उनकी आलोचनाओं ने भावी आलोचकों का
मार्गदर्शन किया। इस काल के अन्य निबंधकारों में जैनेन्द्र
कुमार जैन, सियारामशरण गुप्त, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और
जयशंकर प्रसाद आदि उल्लेखनीय हैं।
कथा साहित्य के क्षेत्र
में प्रेमचंद ने क्रांति ही कर डाली। अब कथा साहित्य केवल
मनोरंजन, कौतूहल और नीति का विषय ही नहीं रहा बल्कि सीधे
जीवन की समस्याओं से जुड़ गया। उन्होंने सेवा सदन,
रंगभूमि, निर्मला, गबन एवं गोदान आदि उपन्यासों की रचना
की। उनकी तीन सौ से अधिक कहानियां मानसरोवर के आठ भागों
में तथा गुप्तधन के दो भागों में संग्रहित हैं। पूस की
रात,
कफ़न, शतरंज के खिलाड़ी, पंच परमेश्वर,
नमक का दरोगा तथा ईदगाह आदि उनकी कहानियां खूब लोकप्रिय
हुयीं। इसकाल के अन्य कथाकारों में विश्वंभर शर्मा
'कौशिक", वृंदावनलाल वर्मा,
राहुल सांकृत्यायन, पांडेय बेचन शर्मा
'उग्र',
उपेन्द्रनाथ अश्क,
जयशंकर प्रसाद,
भगवतीचरण वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय
हैं।
नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद का विशेष स्थान है। इनके
चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी जैसे ऐतिहासिक नाटकों
में इतिहास और कल्पना तथा भारतीय और पाश्चात्य नाट्य
पद्यतियों का समन्वय हुआ है। लक्ष्मीनारायण मिश्र, हरिकृष्ण
प्रेमी, जगदीशचंद्र माथुर आदि इस काल के उल्लेखनीय नाटककार
हैं।
अद्यतन काल
इस काल
में गद्य का चहुंमुखी विकास हुआ। पं हजारी प्रसाद
द्विवेदी, जैनेन्द्र,
अज्ञेय,
यशपाल, नंददुलारे वाजपेयी,
नगेंद्र, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा डा रामविलास शर्मा आदि ने
विचारात्मक निबंधों की रचना की है। हजारी प्रसाद द्विवेदी,
विद्यानिवास मिश्र, कन्हैयालाल
मिश्र प्रभाकर, विवेकी राय, और कुबेरनाथ राय ने ललित
निबंधों की रचना की है।
हरिशंकर परसांई,
शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवींन्द्रनाथ
त्यागी, तथा के पी सक्सेना, के व्यंग्य आज के जीवन की
विद्रूपताओं के उद्घाटन में सफल हुए हैं।
जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर,
रांगेय राघव और
भगवती चरण वर्मा ने उल्लेखनीय उपन्यासों की
रचना की।
नागार्जुन,
फणीश्वर नाथ रेणु, अमृतराय, तथा राही
मासूम रज़ा ने लोकप्रिय आंचलिक उपन्यास लिखे हैं।
मोहन
राकेश, राजेन्द्र यादव,
मन्नू भंडारी,
कमलेश्वर,
भीष्म
साहनी, भैरव प्रसाद गुप्त, आदि ने आधुनिक भाव बोध वाले अनेक
उपन्यासों और कहानियों की रचना की है। अमरकांत, निर्मल वर्मा
तथा ज्ञानरंजन आदि भी नए कथा साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ
हैं।
प्रसादोत्तर नाटकों के क्षेत्र में लक्ष्मीनारायण लाल,
लक्ष्मीकांत वर्मा, तथा मोहन राकेश के नाम उल्लेखनीय हैं।
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा बनारसीदास
चतुर्वेदी आदि ने संस्मरण रेखाचित्र व जीवनी आदि की रचना की
है। शुक्ल जी के बाद पं हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, नंद दुलारे
वाजपेयी, नगेन्द्र, रामविलास शर्मा तथा नामवर सिंह ने हिंदी
समालोचना को समृद्ध किया।
आज गद्य की अनेक नयी विधाओं जैसे यात्रा वृत्तांत,
रिपोर्ताज, रेडियो रूपक, आलेख आदि में विपुल साहित्य की रचना
हो रही है और गद्य की विधाएं एक दूसरे से मिल रही हैं।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में पद्य का विकास
आधुनिक काल की कविता के विकास को निम्नलिखित धाराओं में बांट
सकते हैं।
१. |
नवजागरण काल (भारतेंदु युग) |
१८५० ईस्वी से १९०० ईस्वी तक |
२. |
सुधार काल (द्विवेदी युग) |
१९०० ईस्वी से १९२० ईस्वी तक |
३. |
छायावाद |
१९२० ईस्वी से १९३६ ईस्वी तक |
४. |
प्रगतिवाद प्रयोगवाद |
१९३६ ईस्वी से १९५३ ईस्वी तक |
५. |
नई कविता व समकालीन कविता |
१९५३ ईस्वी से आजतक |
नवजागरण काल (भारतेंदु युग)
इस काल की कविता की
सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पहली बार जन-जीवन की
समस्याओं से सीधे जुड़ती है। इसमें भक्ति और श्रंगार के
साथ साथ समाज सुधार की भावना भी अभिव्यक्त हुई। पारंपरिक
विषयों की कविता का माध्यम ब्रजभाषा ही रही लेकिन जहां ये
कविताएं नव जागरण के स्वर की अभिव्यक्ति करती हैं, वहां
इनकी भाषा हिन्दी हो जाती है। कवियों में
भारतेंदु हरिश्चंद्र का
व्यक्तित्व प्रधान रहा। उन्हें नवजागरण का अग्रदूत कहा
जाता है। प्रताप नारायण मिश्र ने हिंदी हिंदू हिंदुस्तान
की वकालत की। अन्य कवियों में उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी
'पेमघन' के नाम उल्लेखनीय हैं।
सुधार काल (द्विवेदी युग)
हिंदी कविता को नया रंगरूप देने में
श्रीघर पाठक का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्हें प्रथम
स्वच्छंदतावादी कवि कहा जाता है। उनकी एकांत योगी और
कश्मीर सुषमा खड़ी बोली की सुप्रसिद्ध रचनाएं हैं। रामनरेश
द्विवेदी ने अपने पथिक मिलन और स्वप्न महाकाव्यों में इस
धारा का विकास किया।
अयोध्यासिंह
उपाध्याय 'हरिऔध'
के प्रिय प्रवास को
खड़ी बोली का पहला महाकाव्य माना गया
है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से
मैथिलीशरण गुप्त ने खड़ी बोली में
अनेक काव्यों की रचना की। इन काव्यों
में भारत भारती, साकेत, जयद्रथ वध
पंचवटी और जयभारत आदि उल्लेखनीय हैं।
उनकी 'भारत भारती' में स्वाधीनता
आंदोलन की ललकार है। राष्ट्रीय प्रेम
उनकी कविताओं का प्रमुख स्वर है।
इस काल के अन्य कवियों में सियाराम
शरण गुप्त,
सुभद्राकुमारी चौहान, नाथूराम
शंकर शर्मा तथा गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' आदि के नाम
उल्लेखनीय हैं।
छायावाद
कविता की दृष्टि से यह मह इस काल में
एक दूसरी धारा भी थी जो सीधे सीधे
स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थी। इसमें
माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा
'नवीन',
नरेन्द्र शर्मा,
रामधारी सिंह
दिनकर,
श्रीकृष्ण सरल आदि के नाम
उल्लेखनीय हैं।
इस युग की प्रमुख कृतियों में
जय शंकर
प्रसाद
की कामायनी और आंसू,
सुमित्रानंदन पंत का पल्लव, गुंजन और
वीणा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की
गीतिका और अनामिका, तथा
महादेवी वर्मा
की यामा, दीपशिखा और सांध्यगीत आदि
कृतियां महत्वपूर्ण हैं। कामयनी को
आधुनिक काल का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य
कहा जाता है।
छायावादोत्तर काल में हरिवंशराय बच्चन
का नाम उल्लेखनीय है। छायावादी काव्य
में आत्मपरकता, प्रकृति के अनेक रूपों
का सजीव चित्रण, विश्व मानवता के
प्रति प्रेम आदि की अभिव्यक्ति हुई
है। इसी काल में मानव मन सूक्ष्म
भावों को प्रकट करने की क्षमता हिंदी
भाषा में विकसित हुई।
प्रगतिवाद
सन १९३६ को आसपास से कविता के क्षेत्र
में बड़ा परिवर्तन दिखाई पड़ा
प्रगतिवाद ने कविता को जीवन के यथार्थ
से जोड़ा। प्रगतिवादी कवि कार्ल
मार्क्स की समाजवादी विचारधारा से
प्रभावित हैं।
युग की मांग के अनुरूप छायावादी कवि
सुमित्रानंदन पंत और
सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला
ने अपनी बाद की
रचनाओं में प्रगतिवाद का साथ दिया।
नरेंद्र शर्मा और
दिनकर ने भी अनेक
प्रगतिवादी रचनाएं कीं। प्रगतिवाद के
प्रति समर्पित कवियों में केदारनाथ
अग्रवाल,
नागार्जुन, शमशेर बहादुर
सिंह, रामविलास शर्मा,
त्रिलोचन
शास्त्री और मुक्तिबोध के नाम
उल्लेखनीय हैं।
इस धारा में समाज के शोषित वर्ग
-मज़दूर और किसानों-के प्रति
सहानुभूति व्यक्त की गयी, धार्मिक
रूढ़ियों और सामाजिक विषमता पर चोट की
गयी और हिंदी कविता एक बार फिर खेतों
और खलिहानों से जुड़ी।
प्रयोगवाद
प्रगतिवाद के समानांतर प्रयोगवाद की
धारा भी प्रवाहित हुई। अज्ञेय को इस
धारा का प्रवर्तक स्वीकर किया गया। सन
१९४३ में अज्ञेय ने तार सप्तक का
प्रकाशन किया। इसके सात कवियों में
प्रगतिवादी कवि अधिक थे। रामविलास
शर्मा, प्रभाकर माचवे, नेमिचंद जैन,
गजानन माधव मुक्तिबोध,
गिरिजाकुमार माथुर
और भारतभूषण अग्रवाल ये सभी
कवि प्रगतिवादी हैं। इन कवियों ने
कथ्य और अभिव्यक्ति की दृष्टि से अनेक
नए नए प्रयोग किये। अत: तारसप्तक को
प्रयोगवाद का आधार ग्रंथ माना गया।
अज्ञेय द्वारा संपादित प्रतीक में इन
कवियों की अनेक रचनाएं प्रकाशित
हुयीं।
नई कविता और समकालीन कविता
सन
१९५३ ईस्वी में इलाहाबाद से "नई
कविता" पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस
पत्रिका में नई कविता को प्रयोगवाद
से भिन्न रूप में प्रतिष्ठित किया
गया। दूसरा सप्तक(१९५१), तीसरा
सप्तक(१९५९) तथा चौथे सप्तक के
कवियों को भी नए कवि कहा गया।
वस्तुत: नई कविता को प्रयोगवाद का
ही भिन्न रूप माना जाता है। इसमें
भी दो धराएं परिलक्षित होती हैं।
वैयक्तिकता को सुरक्षित रखने का
प्रयत्न करने वाली धारा जिसमें
अज्ञेय,
धर्मवीर भारती, कुंवर नारायण,
श्रीकांत वर्मा,
जगदीश गुप्त प्रमुख हैं तथा
प्रगतिशील धारा जिसमें गजानन माधव
मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा,
नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह,
त्रिलोचन शास्त्री, रघुवीर
सहाय, केदारनाथ सिंह तथा
सुदामा पांडेय धूमिल आदि
उल्लेखनीय हैं।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
में इन दोनों धराओं का मेल दिखाई
पड़ता है। इन दोनो ही धाराओं में
अनुभव की प्रामाणिकता, लघुमानव की
प्रतिष्ठा तथा बौधिकता का आग्रह आदि
प्रमुख प्रवृत्तियां हैं। साधारण
बोलचाल की शब्दावली में असाधारण
अर्थ भर देना इनकी भाषा की विशेषता
है।
समकालीन कविता मे गीत नवगीत और गज़ल
की ओर रूझान बढ़ा है। आज हिंदी की
निरंतर गतिशील और व्यापक होती हुई
काव्यधारा में संपूर्ण भारत के सभी
प्रदेशों के साथ ही साथ संपूर्ण
विश्व में लोकिप्रिय हो रही है।
इसमें आज देश विदेश में रहने वाले
अनेक नागरिकताओं के असंख्य
विद्वानों और प्रवासी भारतीयों का
योगदान निरंतर जारी है। |