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आज सिरहाने

 

कथाकार
इला प्रसाद
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प्रकाशक
 भावना प्रकाशन
१०९-ए, पटपड़गंज,
दिल्ली-११००९१
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पृष्ठ - १२४
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मूल्य : भारत में २५० रुपये
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तुम इतना क्यों रोईं रूपाली (कहानी संग्रह)

एक कुशल रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से समाज को सकारात्मकता एवं सार्थकता प्रदान करता है, इसका साक्षात प्रमाण है- इला प्रसाद का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘तुम इतना क्यों रोई रूपाली'। यह पुस्तक उनकी चौदह बेहतरीन कहानियों का संग्रह है। ये कहानियाँ जीवन के अत्यंत करीब हैं। इनको पढ़ते हुए पाठक पूरी तरह डूब जाता है। इस संग्रह की कहानियाँ इतनी वास्तविक प्रतीत होती हैं कि यकीन ही नहीं होता कि उसमें कहीं कल्पना का मिश्रण भी है। इन कहानियों के विषय और परिवेश भिन्न हैं, किन्तु इला के लेखन-कला की यह खास विशेषता है कि ये सभी कहानियाँ पाठक के हृदय को भीतर गहरे तक छूती हैं।

संग्रह की प्रथम कहानी ‘वीजा’ के अंत तक पहुँचकर स्वतः ही पाठक की आँखों में आँसू आ जाते हैं। अमेरिका जैसे विकसित देशों में भारतीयों के साथ होने वाले भेद-भाव, कागजातों और नियमों की पाबंदियाँ, भारत में मृत पड़ी माता का अंतिम संस्कार करना तो दूर, अंतिम दर्शन तक न कर पाने की छटपटाहट और बेबसी, मातृ-शोक में बिलखती बहन को समय पर पहुँचकर ढाढ़स नहीं बँधा पाने का अफसोस, ये सारे भाव एक साथ मिलकर पाठक के मन में उथल-पुथल मचा देते हैं।

आवाजों की दुनिया’ कहानी का विषय एकदम भिन्न है। विकलांगता पर तो पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन आंशिक विकलांगता (कान की बीमारी के कारण उत्पन्न आंशिक बहरापन) को लेकर लिखी गयी यह एक सशक्त कहानी है। भारतीय समाज में लड़की यदि विकलांग हुई तो उसे “करेले ऊपर नीम” की तरह समझा जाता है। विकलांगता यदि आंशिक हुआ तो बजाय यह सोचने के कि इलाज से इसे ठीक किया जा सकता है, इसे दबाया-छिपाया जाता है।

लोग इसे सामाजिक प्रतिष्ठा में बाधा मानते हैं। घर और समाज में स्त्री के स्वास्थय और सुंदरता को सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ दिया जाता है। इतना ही नहीं सामाजिक प्रतिष्ठा का हौवा ऐसा होता है कि कम सुनाई देने पर, सुनने की मशीन नहीं लगवाते क्योंकि बिना मशीन के जो कमी ढकी-दबी है, वह मशीन लगवाते ही जगजाहिर हो जाएगी। ऐसी कठिन परिस्थितियों से जूझती हुई कोई लड़की जब अपनी बीमारी या विकलांगता पर विजय पाकर, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाती है, अपने इलाज का खर्च उठाने में भी सक्षम हो जाती है, तब भी उसका इलाज इस कारण से नहीं कराया जाता कि वह शारीरिक व मानसिक दुख-दर्द से छुटकारा प्राप्त कर सके, बल्कि तब भी प्राथमिकता सामाजिक प्रतिष्ठा को ही दी जाती है।

‘तुम इतना क्यों रोईं रूपाली’ एक भावुक लड़की की कहानी है, जो एक बार विवाह के असफल होने से इतना टूट गयी है कि दुबारा विवाह करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती है। यह कहानी प्रश्न उठाती है कि एक तलाकशुदा स्त्री के दुबारा विवाह से डरने के सिर्फ वैयक्तिक कारण हैं? कहीं सामाजिक कारण उसे अकेले रहने को विवश तो नहीं कर रहे हैं? आखिर यह समाज एक तलाकशुदा स्त्री को उस सहजता से क्यों नहीं स्वीकारती, जिस सहजता से तलाकशुदा पुरुष को? उसकी सहेली दिव्या उसकी उदासी और अकेलेपन से दुखी होती है व कामना करती है कि रूपाली के जीवन में जो थोड़ी सी खुशियाँ हैं, वे बची रहें। उसके सपने टूटें नहीं।

‘आधा पाठ’ ‘बुली’ एवं ‘यहाँ मत आना’ ये तीनों कहानियाँ अमेरिका के स्कूलों के वातावरण और शिक्षा-पद्धति पर आधारित हैं। अमेरिका के स्कूलों में अतिरिक्त शिक्षक के रूप में काम करने वाला व्यक्ति किस प्रकार की समस्याओं का सामना करता है, इसका बखूबी चित्रण इन कहानियों में हुआ है।

‘मम्मी मारती है’ कहानी में अपनी जन्मभूमि के प्रति अगाध प्रेम प्रकट किया गया है। कहानी का प्रस्तुतीकरण अत्यंत खूबसूरती से किया गया है। ट्रेन की यात्रा, बच्ची रश्मिप्रभा की चंचलता, लोगों की बातचीत इन सबके समन्वित संयोजन से कहानी अत्यंत सजीव बन गयी है। कहानी के अंत में जन्म-भूमि के प्रति लेखिका के प्रेमोद्गार प्रकट हुए हैं।

‘उसका सन्नाटा’ एक स्त्री के व्यक्तित्व के धीरे-धीरे खोने की कहानी है। पत्नी, माँ आदि भूमिकाओं का निर्वाह करती हुई एक स्त्री अपने व्यक्तित्व को खोती हुई नितांत अकेली होती जा रही है, जिससे उसके भीतर सन्नाटा छा गया है।
‘संताक्लौज हँसता है’ कहानी अमेरिका की एक संस्था ‘सीक्रेट सांता’ को केंद्र में रखकर लिखी गयी है, यह संस्था हर वर्ष क्रिसमस के अवसर पर गरीबों को खुशियाँ प्रदान करती है।

‘जन्मदिन मुबारक’ में दर्शाया गया है कि आज भी अमेरिका में “टेक्सास” राज्य और वहाँ के लोगों को हीन दृष्टि से देखा जाता है। अतीत में यह राज्य कृषि प्रधान था, आज भी उस राज्य को “काउबॉय्ज़ कंट्री” (चरवाहों का देश) कहा जाता है।

‘शिखा की डायरी’ में झारखंड के उन आदिवासियों की कहानी है, जिन्होंने ईसाई धर्म को स्वीकार नहीं किया तथा आज भी अपनी आस्था को सशक्त बनाए हुए अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

‘दर्द’ की नायिका एंजेला एक चालाक स्त्री है, जो अपनी जरूरत के लिए लोगों को बेवकूफ बनाना और उनका इस्तेमाल करना खूब जानती है।

‘परतें’ कहानी भारतीय समाज में व्याप्त जाति, गोत्र आदि के भेद-भाव को चित्रित करती है। जाति का भेद, गोत्र का भेद, ईसाई-गैर ईसाई का भेद। ये तमाम प्रकार के भेद-भाव परत-दर-परत जम कर इतने ठोस हो गए हैं कि उन्हे मिटाना आसान नहीं है। ठीक इसी प्रकार ‘लौटते हुए’ कहानी में अमेरिकी भारतीय द्वारा भारतीय को हीन समझे जाने का चित्रण है। अमेरिकी भारतीय लड़की, भारतीय लड़के के प्रेम को ठुकराने का अपराध-बोध दूर करने के लिए उसके हाथ पर एक हजार डॉलर रखती है, और भारतीय लड़का एक हजार डॉलर लौटाने के लिए दिन-रात परिश्रम करता है।

लेखिका इला प्रसाद ने अपनी कहानियों में आहत संवेदना एवं बिखरती आस्था से जूझकर अपनी अस्मिता कायम करने वाले पात्रों को चित्रित किया है। विभिन्न मनःस्थितियों का चित्रण अत्यंत सावधानीपूर्वक किया गया है। सबकुछ इतना सहज और स्वाभाविक है कि कहीं भी कृत्रिमता या काल्पनिकता का अहसास नहीं होता। पठनीयता ऐसी है कि पाठक बिना कहीं रुके, पुस्तक पूरी करके ही दम लेता है। संग्रह की कहानियों की स्वाभाविकता का कारण यह प्रतीत होता है कि ये कहानियाँ उन्होंने दैनिक जीवन से चुनीं हैं। भाषा की सहजता प्रशंसनीय है। इतनी सजीव कहानियों के लिए इला प्रसाद बधाई की पात्र हैं।

-डॉ. विभा कुमारी
१ सितंबर २०१४

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