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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से संतोष गोयल की कहानी— 'भटकन'


मुझसे पहले तीन नंबर थे। १७, १८, १९, मेरा नंबर बीस था। जब तक मैं सोचूँ कि बाहर निकल जाऊँ मार्किट में चहलकदमी ही सही कि अठारह नंबर वाली तेज़ी से मेरे करीब आर्ई। मेरे हाथ में थमा बीस नंबर पकड़ा और बोली, "आप मेरा नंबर ले लीजिए। मैं जरा मार्किट तक हो आऊँ फटाफट। माइंड न करे बहन जी।" बोलते हुए वह तेज़ी से बाहर निकल गई मुझे कुछ बोलने का मौका दिए बिना। प्रतिक्रिया का अवसर ही कहाँ था।

अवसर... सचमुच अवसर तो सभी को ज़िंदगी में मिलते हैं। उनका सही वक्त पर सही तरीके से इस्तेमाल कितने कर पाते हैं। मैं तो हमेशा ही ऐसी हूँ। अवसर सामने खड़ा रहता है और मैं सोचती रह जाती हूँ। अब अवसर को क्या पड़ी है कि रुका रहे या लौट कर आ जाए। आज भी यही हुआ था।
हालाँकि बात छोटी–सी थी। मार्किट चले जाना कोई बड़ा अवसर था भी नहीं। हर तीन दिन में मार्किट जाना ही पड़ता था। कभी फल, कभी सब्ज़ी, कभी घर का छुटपुट, फिर कभी यों ही तफरीह करने। बिंदा तो हमेशा हैरान रहती कि आख़िर हर दिन मार्किट में किसी को क्या काम हो सकता है। इस तरह के रिमार्क पर मैं मुस्करा कर कह उठती, हालाँकि कहना चाहती,
"वही जो तुम्हें हर दिन कूड़े के ढेर को टटोलने का रहता है।"

ह कथन कहा और खुद ही मज़ा लिया। अपनी इस सोच पर मज़ा तो बहुत आया। उपमा अच्छी लगी। मार्किट का दूसरा पर्याय बाज़ार तो हो सकता है पर 'कूड़े का ढेर'। जब से ये उपमा मन में आई है तब से जितनी बार मार्किट गई हूँ वहाँ पड़ी चीज़ों को देखकर मन ही मन लिस्ट बनाती रही हूँ कि किन को कूड़ा माना जाए और किन को कूड़े के ढेर में पड़ी नायाब चीज। हालाँकि यह भी एक सच है कि कूड़े के ढेर में पड़ी नायाब चीज के लिए कोई कीमत चुकानी नहीं पड़ती जबकि मार्किट में पसंद आई वस्तु के लिए मोल–भाव करने के पश्चात पैसा निकालना पड़ता है। पर... ये सच है कि जो मेरे लिए कूड़ा है... ढेर–सा कूड़ा – वही दूसरों के लिए नायाब हो सकता है। असल में हर चीज की कीमत व्यक्ति की जेब और जरूरत के अनुसार होती है और शायद उसी के अनुसार वह अच्छी या बुरी होती है। एक यथार्थ यह भी है कि मैं बार–बार उस ढेर को टटोलती रहती हूँ, कुछ खास खोज लेने का मोह त्याग नहीं पाती हूँ।

आजकल तो एक और भी मानसिकता पनप उठी है। शाम को सैर करने के लिए कोई साथ ढूँढते हुए अनेक बार सैर करने का वक्त निकल जाने लगा था और अकेले घूम लूँ ये आदत आज तक न बना पाई थी। यही नहीं सैर से बचने के अनेक बहाने तक मन में तैयार हो जाते थे, उन्हीं में से किसी का साथ न मिलना एक था। अवचेतन मन का एक कोना ये जानता था। ढेर–सा वक्त और ढेर–से मौके होते हुए भी प्रायः पलभर के काम को पाते ही सैर मुल्तवी कर दी जाती। तिस पर ड्राईवर बाहर खड़ा रहता, फिर कुछ ठंडक भी होने लगी थी। मार्किट चलना भारी न रह गया था। न पसीना, न गर्मी, न घबराहट, न प्यास की किल्लत। बस, मार्किट में घूम लूँगी। किसी के साथ की किल्लत भी नहीं। इसी मानसिकता के तहत अब मैं साँझ होते ही निकल पड़ती– भटकती यात्रा पर। इस तरह मेरी भटकती आत्मा बाज़ार के लोगों के साथ–साथ कोई साथ खोज लेती जो बेकार की चीज़ों का होता कभी लोगों के चेहरों का कभी कोई जानकार
मिल भी जाता। ऐसे अकेली शाम बीत जाने लगी थी।

उस दिन जबरन दिए अठारह नंबर ने मार्किट टहल लेने की इच्छा उस समय विशेष के लिए दबा चाहे दी पर हुआ यों कि सत्रह नंबर वाली को दवा मात्र दुबारा लिखवानी थी अतः एक मिनट में ही रीपीट हो गई। मेरा नंबर आ गया। दवा लेकर बाहर निकली तो साढ़े सात ही बजे थे। अभी से घर जाकर क्या होगा सोचती हुई मार्किट की तरफ चल दी। बड़ी दुकानें बंद हो चुकी थी या हो रही थीं। पटरियों पर की दुकानें आबाद थीं। पैट्रोमेक्स के लैंप जला कर रोशनी कर लकड़ी के तख्त पर या जमीन पर चटाई बिछाकर दुकानें पूरी साज–सज्जा के साथ लग रही थीं या लगने की तैयारी में थीं। क्या कलाकार हैं ये लोग भी। पटरी पर हो या पट्टे पर सामान सजाना एक पूरी कला है। छोटे–छोटे ठेले वाले जामुन सेव चाट पकौड़ी लेकर खड़े थे। आस–पास के घरों से निकल कर आए बच्चे इधर–उधर छितरे मस्ती के आलम में घूम रहे थे।
मुख्य बाज़ार बंद हो चुका था। पटरियों का बाज़ार अपने यौवन पर था।
हाँ पड़े कपड़ों के ढेर पर निगाह डालते हुए ही मैं रुकी थी। दुकानदार ने मेरी ठिठकन से ही मुझे थाम लिया।

'देख लें बीबी जी। देखने में तो कोई मोल नहीं लगता। ये देखिए खासा गर्म है। ठंडी में काम आएगा।'
कपड़े के जाने कितने रंग और डिज़ाईन उसने खोलने शुरू कर दिए। न चाहते हुए या फिर चाहते हुए मैं रुक गई।
'ये देखिए। दीदी, साढ़े चार मीटर है। बिल्कुल नया डिज़ाइन। आज ही आया है।'
'कपड़ा साढ़े चार मीटर नये डिज़ाइन का गर्म या फिर कुछ और विशेष। मुझे खरीदना तो नहीं है।' मैंने मन ही मन सोचा। पर दुकानदार तो दुकानदारी करने के लिए बैठा था। उसे तो अपनी वाक–कला दिखाने या तह खोलने लगाने की मेहनत करनी पड़े तो क्या। उसने तत्परता से कपड़ों की तह खोलनी शुरू कर दी। मुझे मजबूरन रुक जाना पड़ा। सच तो यह था कि मेरा सबसे बड़ा दुश्मन वक्त ही मेरे पास बहुतायत में था। मुझे तो वही काटना था कारण कोई हो कुछ भी हो।
'कुछ और डिज़ाइन दिखाएँ।"
दुकानदार की बाँछे खिल गई। सुस्ती भाग गई। वक्त का भी ख्याल न आया। पता नहीं वह कब घर से चला होगा कब
से ग्राहक के इंतज़ार में बैठा होगा।

"इसमें तो कुछ सिल्कन टच है। ऐसा नहीं वो जो गर्म जैसा लगे।" मैंने दुकानदार की ओर देखा कि वह मेरी बात समझ रहा है या नहीं। शायद उसने मेरी बात समझ कर भी न समझ रहा था। हो सकता उसके पास वैसा कपड़ा हो ही न।

"ये ज्यादा अच्छा है दीदी जी। इसकी चमक देखिए। पता ही न चलेगा कि पटरी पर से लिया है। गरमाई भी बहुत है। वैसे तो अब दिल्ली में इतनी ठंड ही कहाँ पड़े हैगी। ज्यादा गर्म की जरूरत क्या।"

उसने मेरी दिलचस्पी को कम न होने दिया न ही खुद को निराश होने दिया। सचमुच कितना कठिन है दुकानदारी का ये काम। हर वक्त हर दिन हर पल ये निराशा और आशा के झूले में झूलते रहते हैं। कितना कम फासला होता है खुशी और गम में सिर्फ ग्राहक के आने और जाने का। खाली समय में ये लोग हिसाब लगाते रहते होंगे अपनी कमाई और
खर्चे का मन ही मन। दुकानदार ने लड़के को आवाज दी।

"लड़के, ये नीचे वाली गठरियाँ खोल दीजो। बाँध के क्या रख दिया। सारे बाहर निकाल। सारे रंग और डिज़ाईन दिखा।"
"ये देखिए दीदी। कितने रंग है कितने डिज़ाइन... सारे नये। अभी मार्किट में आए ही नहीं किसी के पास। आजकल यह कपड़ा चलता भी बहुत है। अभी ही वो दीदी दो पीस ले कर गई है। दो पांच सौ के दिए हैं। आप भी इतने के ही ले लीजिए। सुबह से पौने तीन सौ से कम के नहीं बेचे हैं।"

एक सेल्समैन की खूबियों से भरपूर दुकानदार मुझे अच्छे लगते थे। मैं उनके इस गुण से प्रायः मुत्तसिल हो कर कुछ न कुछ खरीद लेती फिर घर पहुँच कर खुद को कोसती रहती हालाँकि जानती ये उसके गुण से ज्यादा मेरी कमज़ोरी थी। शापिंग मेरी कमज़ोरी से अधिक मेरी जीजिविषा थी। यों चाहे जिंदगी के चार कदम ही बचे थे पर फिर क्या।
पड़े के रंग डिज़ाइन देखते–देखते उस छोटे बच्चे के बारे में सोचने लगी। इतनी छोटी उम्र के बच्चों को काम करता देख मेरे भीतर हमेशा दुख की लहर लहराती। अपने देश की गरीबी दुखी करती इन छोटे बच्चों के काम करने की मजबूरी कचोटती। सरकार की कानून व्यवस्था का ढीलापन खलता पर सब और कामों में व्यस्त होकर भूल जाती।

"कितना छोटा बच्चा है... दस साल का मात्र रहा होगा बस। सुबह से जाने कितनी बार तह खोली और लगाई होगी कितना बोरिंग होगा सब। फिर डाँट खाने का तो कोई अंत नहीं। कितना टूटा थका लग रहा है। बहुत तरस आ रहा था उस पर। हम कर भी क्या सकते हैं। सोच भर सकते हैं। वह घर जाने को आतुर होगा।"
उसके लिए कुछ करने की सोचने पर मैंने जल्दी से एक कपड़ा खरीदा पैसे दिए और कहते हुए चल दी, "चलो। बच्चे अब घर जाओ। छुट्टी तुम्हारी।"
भीतर एक शांति की लहर उठी।

घड़ी में देखा। अभी पंद्रह मिनट ही बीते थे। बच्चे के कारण झटपट मचा दी थी। इसका मतलब बहुत वक्त नहीं लगाया मैंने। तो अब क्या किया जाए। सोचती रही।

"
पौने आठ। अभी से घर जाकर भी क्या करूं। कौन इंतज़ार करता बैठा है। चली भी जाऊँ तो कैंपस के बाग में अकेले ही घूमती रहूँगी। बातों के जंगल में घुस पड़ने से बेहतर था यहाँ दुकानों के जंगल में घूमना। कम–ज–कम चीज़ों को देखने परखने में मसरूफ तो रहूँगी। जलती तपती बातों में न कूद पड़ूँगी। न ही मन ही मन भटकूँगी। मन में रहट–सा चलता रहता। कोई अंत नही इस चक्की का।

दीपावली के आसपास का मौसम त्यौहारों का मौसम होता है। मार्किट साढ़े सात बजे चाहे बंद हो जाए पर पटरियाँ आबाद रहने लग जाती। इधर धुंधलका बढ़ता, उधर पटरियों पर रोशनी की कतार लग जाती। उजाला झिलमिलाने लगता। गैस के लैंप पेट्रोमेक्स मोमबत्तियाँ जल उठती। चटाइयाँ बिछ जाती। रंग बिरंगी दरियाँ सज जाती। जाने कितनी चमकदार चीज़ों की बहार आ जाती। पटरी का दुकानदार है तो क्या उसके लिए तो उसका माल नायाब है न। इन लोगों
की खासियत है कि सजाने की कला जानते हैं।

जोधपुर में देखा था घर की बिल्कुल अनपढ़ गँवार दीखती औरतें, लड़कियाँ दरवाज़े पर जो पेंटिग बनाती और जिस गति से बनाती आश्चर्यजनक लगता पर उनकी कला देखते ही बनती। मुझे राजस्थान की कलात्मकता याद आ रही थी। मज़ा ये कि ये लोग ग्राहक की नब्ज़ भी पकड़ना जानते हैं। तिस पर इनका रंगों के तालमेल का ज्ञान भी कमाल है। कौन सी चीज किसके साथ खिलेगी, कौन सा रंग कहाँ सजाया जाए, किस को कौन सी चीज फबेगी पहचान लेते हैं। इंसान की अच्छी पहचान थी इनके पास। कितना हुनर बिखरा पड़ा है यहाँ वहाँ चहुँ ओर। प्रायः सोचती कितने गुणी होते हैं ये लोग।

मेरे मन में सदा से ये प्रश्न गूँजता रहता। आख़िर ये पटरी पर दुकानें लगानेवाले कौन लोग हैं और यहाँ क्यों लगाने को विवश है अपनी दुकानें। क्या इसकी कमाई पर इनकी पूरी गृहस्थी टिकी है या इनका पार्ट टाईम धंधा है। ये भी सोचती कि आख़िर इनकी कमाई भी कितनी होती होगी। कितना तो ठुल्लों को देना पड़ता होगा कितना इन दुकानदारों को जो अपनी जगह इस्तेमाल करने देते हैं। आजकल की दुनिया में मुफ़्त तो कोई कुछ भी नहीं देता। म्यूनिसिपालिटी की गाड़ी भी आ ही धमकती है कभी न कभी। पता नहीं इनकी बिक्री हो भी पाती है कि इन सब खर्चों को कर सकें। पर कुछ तो बचाते ही होंगे। मैं सोचती जा रही थी। फिर ये भी सोचा कि फिर ये लोग कीमतें शुरू में ही दुगना तिगुना रखते होंगे। कितना मोल भाव किया जाना चाहिए इनसे।

यही सोचती चलती हुई मैं पटरी पर लगी रंग बिरंगी दूर से ही चमकती चीज़ों की ओर देखती उस दुकान पर रुक गई। पास गई तो बिखरे रंगो की चौंध ने दिल लुभा दिया। राजस्थानी कढ़ाई वाले और कांच से सजे तोरण, मेजपोश दीवार पर लटकाए जा सकने वाले चौकोर तथा आयताकार छोटे बड़े कपड़े के टुकड़ों पर बने गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती आदि। मन मोह लिया उन चीज़ों नें। हटाना भी चाहूँ तो निगाह हटा न पाऊँ। आकर्षक बनावट लुभावने रंग त्यौहार के मौके के अनुकूल सजावट।

मन की भटकन को सब रंगो के फैलाव ने अपने भीतर समा लिया। कितना आसान होता है मन को थामना पर उतना ही आसान होता उसका भटक जाना।

रंगीन काँच के भीतर डुबकियाँ लगाती रही जाने कितनी देर। दुकान की मालकिन भी चटक–जटक रंगो में चमक रही थी। लाल हरे नीले रंगो में सराबोर। चटक चुनरी में लगे काँच जल रहे गैस के बल्ब में धमक मार रहे थे। गले में मोटे–मोटे लाल हरे दानों की माला थी जो रौशनी में चमक रही थी। कानों में भी बड़ी लटकन वाले झुमके थे। मतलब खासा च
मक–धमक का इंतज़ाम था तिस पर त्यौहार का मौका। मार्किट की भी सज–धज देखने लायक थी। दीवार पर सजे व लटके रंगो में लिपटी मैं वहाँ रुक ही गई उन्हें निहारती और सराहती।
"रोज इसी टाईम दुकान लगाती हो? पहले कभी देखा नहीं।"
"जी बीब्बी जी लगावें तो रोज हैगे पर ये चीजां अज्ज ही रक्खी हैगी। इब दीवाली दसरा हैगा ना। हम तो विहाँ मेंहदी लगावे जी। वो सामने के दरख्त की छाँह में।"
"आज न लगाई मेंहदी।"
"लगाई थीगी जी। काम तो सारा दिन ना करैं जी तो घर कैसे चल सकै बीब्बी जी।"
थोड़ा रुक के उसने पूछा, "आप न लगवाओ जी कभी मेंहदी जी।"
"नहीं। मुझे मेंहदी का शौक नहीं है।"
"लो जी ये कोई शौक की बात हैगी। ये तो सगुण होबै जी। इब सुहागिने करवा चौथ पे कइसे ना लगवावै। अजी ये अपसगुण होवेगा ना जी।"
मैं मुस्करा भर दी। उसे क्या और कैसे समझाती कि सारे शगुन और रीति–रिवाजों के हिसाब से चल कर सब कुछ बिगड़ सकता है। जिंदगी वक्त के हाथ में है। हमारे हाथ में कहाँ। पर कहा कुछ नहीं। चीजें देखती रही फिर पूछा, "मेंहदी से तो अ
च्छी कमाई हो जाती है ना। क्या लेती हो एक हाथ का। आजकल तो मेंहदी, बिंदी, टिकुली, लाली, आलता, चूड़ियाँ सब बहुत महँगा हो गया है।"

"कहाँ बीब्बी जी। लोग कहाँ खरचे हैगे दिल से। इब ये नयी–नयी बिहाता छोरियाँ तो फिर भी कुछ ना कैवे। बाकी बाल बच्चां वाली तो बड़ा मोल भाव करैगी, सुहाग की चीज़ों में भी कंजूसी।"
मैं मुसकरा पड़ी। अब उसे क्या कहती। सुहाग का मतलब क्या है। सौभाग्य किस का किस से जुड़ा है। तभी उसे मेरा प्रश्न याद आ गया कमाई के बार में बोली, "और कमाई का के पूच्छो बीब्बी जी। तीन बालक हैंगे। वो सास ससुरा ननद और हम दोनों। क्या कमाय लै कै खरच लै। बच्चौ के इसकूल की फीस देन में जान काढ़ी जावै हैगी।"

मेरे सामने उसने सभी चमकती धमकती लटकनों कुशन कवर्स मेजपोश बेडकवर का ढेर खोल कर रख दिया था पर उसकी ज्यादा दिलचस्पी अपने घर की बातें करने में थी। खोलते हुए बोलती रही, "विहाँ बिरला इसकूल में पढ़े हैगी जी बालक। पूरी फीस हैगी। फीस माफ़ी की अर्जी दे राखी हैगी पर... " फिर धीरे से बोली, "वो बतावै कि कुछ दे दवाओ तो
ही अर्जी पे धियान दैवेगे।"
"छोड़ो बीब्बी जी। आप बोल्लो आप कै लोगी।"

मुझे कुछ लेना ही कहाँ था। फिर सोचा चलो कोई सौ–दो सौ तक का कुछ अच्छा–सा वाल हैगिंग मिल जाए तो ले लूँगी।
"ये गणेश जी कितने तक के होंगे।"
"हैगे तो चार सौ के पर पता नाहीं आप अपनी सी लगौ हो आप तीनसौ पचास दे देवो।"
इतना तो मेरा बजट ही न था। मोल भाव करने का मन न था। असल में तो इतनी जल्दी न तो फ़ैसला करना चाह रही न ही अभी से कुछ खरीदना ही।

अचानक निगाह सामने बैठी उस लड़की पर चली गई और उसी के चेहरे पर टिक गई। उसके पास लकड़ी के मोर, हाथी, चिड़िया, तोता, टोकरी जिसमें लकड़ी के बरतन भरे थे कुछ और चीज़ें लकड़ी की बनी चकला बेलन तो दूर से दीख रहा था। अपना भी और बच्चों का बचपन भी याद आ गया। तब यहाँ नहीं मिलती थी ये सब चीजें। कितने खेले थे बच्चे उन सस्ते से खिलौने से। बिन्नी ने तो कितनी बार गुड़िया शादी करने के भोज में मुझसे पूरी हल्वा बनवाया होगा।
सोचती रही और उसकी ओर देखती रही मैं।

उसकी ओर देखता पाकर ही वह बोली थी, "उसकी ओर क्या देखो हो बीब्बी जी। बड़ी अपसगुनी हैगी। बियाह के दो महीना में ही खसम ने खा गई। उधर बाप भी मर गया फिर माँ ने दम तोड़ दिया। इब्ब छोरी का ना खसम ना बाप ना माँ कै करैगी। कइसे रहैवगी पता ना। सास ससुरा सब पराये होवै जी। खान पीन खरचा बढ़ाने वाली तो नौकरानी भी ना चाहिए किसी नै।"
मैं तो उसकी ओर देखती ही रह गई। इतना सूखा इतना उदास इतना अकेला चेहरा किसी का हो सकता है। इतनी छोटी उम्र और इतनी अपरिचित उदासी इतना गुम सन्नाटा।
"क्या।" मेरे मुँह से निकला।
"जी बीब्बी जी। इतनी दुखियारी इतनी अकेली इतनी सताई भगवान किस्से ना बनावै। वीरबानिया की तो खसम और पूत बिना गति ना जी। खसम रहया को ना पूत होन का वक्त को ना मिल्या। पड़ी रहैवे चौक में लावारिस लास सी। पड़ौसिया की मेहरबानी से इहाँ बैठी हैगी। पता नही घरां पहुँचेगी तो सास ससुर के लानत ठावैगे। पर वो खुदे कहाँ
सोचन जोगी हैगी।"

"घर में और कोई नहीं है जो देख ले।"
"है जी एक देवर हैगा। वो थोड़ा बौत आन लग्या इसके पास। नाम धर दिया सब ने कि उससे रिश्ता जोड़न लाग री हैगी। देवर भी इबी ग्यारह साल का हैगा जी।"
मैं गुपचुप हो आई।
अपने ही दुख में सिमटी अपने अकेलेपन में भटकती सोहम के असमय चले जाने पर भरी गृहस्थी और बच्चों के बीच भी बेचारा महसूसती जिंदगी से जाने कितने शिकवे पालती रही थी।

कितना छोटा है मेरा दुख। कम से कम उतना डूब जाने लायक तो नहीं जितना मैं डूबती हूँ।

लकड़ी की खिलौनानुमा गाड़ी जिसमें रस्सी बाँधो तो टक–टक करती चलती थी, बरतनों वाली टोकरी बाँसुरी और भी कुछ छुटपुट खिलौने लेकर मैं चलने लगी तो वो बोली, "बड़ा सबाब मिलेगा बीब्बी जी। कुछ तो पइसे हाथ में आवैगे तो शायद सास ससुर कुछ देख लैवे इसकी तरफ। हम लुगाइयाँ की जिनगी में तो उस उपर वाले ने ही भटकन लिक्खी हैगी जी।"
कहते हुए उसने दूसरी मुँह करके अपनी आँख की कोर पोंछ ली।

१ सितंबर २००६

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