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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से गुरमीत बेदी की कहानी— 'बुधवार का दिन'


फ़ोन की घंटी बजते ही उसने बड़ी अधीरता से रिसीवर उठाया। जैसे उसे पहले से ही मालूम था कि फ़ोन किसका हो सकता है। "सॉरी सर! आप इंतज़ार कर रहे होंगे। लेकिन मैं यहाँ काम से निजात नहीं पा सकी हूँ। आप शाम को कितने बजे तक ऑफ़िस में बैठते हैं। मैं साढ़े चार बजे तक पहुँच सकती हूँ।" फ़ोन पर कह रही थी।

"मैं सवा पाँच–साढ़े पाँच बजे तक ऑफ़िस में ही हूँ। आप इसी बीच कभी भी आ सकती हैं।" कह कर रिसीवर रखते हुए उसके होठों पर मुस्कराहट खिल उठी। उसने सामने दीवार घड़ी की तरफ़ देखा। उस समय दोपहर के दो बज रहे थे। साढ़े चार बजने में अभी अढ़ाई घंटे बाकी थे। जिस जगह वह नौकरी करती थी, उस जगह से उसके ऑफ़िस का पैदल रास्ता मुश्किल से दस मिनट का था। "अगर वह साढ़े चार बजे अपने ऑफ़िस से निकल पड़े तो ज़्यादा से ज़्यादा पौने पाँच बजे तक यहाँ पहुँच सकती है।" वह हिसाब–किताब लगाने लगा।

फिर उसने घंटी बजा कर चपरासी हेमराज को बुलाया और उसे सौ रुपए का नोट थमाते हुए कहा– "देखो मुझ से मिलने कोई आ रहा है। तुम साढ़े चार बजे जाकर
कोल्ड ड्रिंक ले आना और साथ ही बढ़िया से बिस्कुट भी।"

"सर कोल्ड ड्रिंक कौन सा लाऊँ?" उसने नोट हाथ में लेते हुए पूछा।
"पैप्सी ले आना या फिर लिम्का। पी कर गले से धुआँ भी तो निकलना चाहिए।" वह उसे हिदायत देते हुए बोला।
हेमराज के बाहर जाते ही कैशियर ने भीतर दस्तक दी।
"सर, मैंने सोमवार को नहीं आना है। आप इन बिलों पर हस्ताक्षर कर दें तो कश्मीरा सोमवार को पैसे ड्रॉ करवा लेगा। टैक्सी वालों की भी काफ़ी पेमैंट देने को हो गई है। उनके फ़ोन भी आने लगे हैं। कुछ पेमैंट आप की भी है।" कहते हुए
उसने बिलों की फ़ाइल उसके सामने रख दी।

उसने आँख मूँद कर बिलों पर हस्ताक्षर करने शुरू कर दिए। वह आज सारे काम जल्दी से निबटा लेना चाहता था, ताकि साढ़े चार बजे के बाद वह पूरी तरह फुरसत में हो और तब कोई फ़ाइल उसके सामने न लाई जाए। इसी बीच टेलीफ़ोन की घंटियाँ थोड़ी–थोड़ी देर में घनघनाती रहीं। ज़्यादातर फ़ोन पत्रकारों के थे, जो यह जानना चाह रहे थे कि आज कौन–सा प्रेस नोट दे रहे हो। कुछ फ़ोन फालतू किस्म के थे। कई फ़ोन ऐसे भी आए, जिसमें उसके "हैलो" कहते ही दूसरी तरफ़ से फ़ोन काट दिया गया। उसे याद आया कि एक लड़की ने उसे कुछ दिन पहले कहा था कि वह सिर्फ़ उसकी आवाज़ सुनने के लिए ही फ़ोन करती है। तब से उसे लगने लगा कि ऑफ़िस में आई हर ब्लैंक कॉल उसी लड़की की होती है। उस लड़की ने यह बात उसे इतनी साफ़गोई से कैसे कह दी थी कि वह फ़ोन पर सिर्फ़ उसकी आवाज़ ही सुनना चाहती है, इस सवाल को लेकर वह कई बार माथापच्ची कर चुका था और आज वह फिर से इस सवाल के भँवर में नहीं उलझना चाहता था।

आज उसे इंतज़ार था घड़ी की सूइयों के साढ़े चार के गणित तक पहुँचने का। थोड़ी–थोड़ी देर बाद उसकी निगाहें दीवार घड़ी की ओर उठ जातीं। कहीं सेकंड का समय बताने वाली सूई की चाल आज धीमी तो नहीं पड़ गई। यह मुगालता होते ही वह अपनी घड़ी से दीवार घड़ी के समय का मिलान करने लगता। दोनों में समय एक जैसा पाकर उसकी बेचैनी बढ़ जाती।

जैसे ही दीवार घड़ी ने साढ़े चार बजे का समय दर्शाया, रिवॉलविंग चेयर के सहारे घूमते हुए उसने अपने कमरे के प्रवेश
द्वार की ओर पीठ कर ली और खिड़कियों का पर्दा पीछे सरका कर सामने पगडंडी की ओर झाँकने लगा। उसे इसी पगडंडी से होकर उसके ऑफ़िस आना था। साढ़े चार से पौने पाँच बजे के बीच वह कभी भी आ सकती है, यह हिसाब तो उसने पहले ही लगा लिया था, लेकिन जब समय इससे ऊपर हो गया तो उसकी अधीरता बढ़ने लगी।
"ठंडा ले आऊँ सर।" चपरासी ने जानना चाहा।
"अभी रुको।" उसने पगडंडी की ओर ही निगाहें जमाए हुए कहा। चपरासी कमरे से बाहर लौट गया।
घड़ी की सूइयाँ अब पाँच बजने की गवाही दे रही थीं। उसकी अधीरता अब निराशा में बदलने लगी। दफ़्तर के कर्मचारी अपने टिफिन और थैले उठाकर एक–एक करके जाने लगे थे। वह अपने कमरे से उठ कर बाहर बड़े हाल में चहल–कदमी करने लगा। यहाँ से पगडंडी ही नहीं, पगडंडी से जुड़ी सड़क भी दिखती थी। उसकी निगाहें अब पगडंडी की बजाय, सड़क पर उसे तलाशने लगी थीं।

निराशा की स्थिति अब झुँझलाहट और गुस्से में तबदील होने लगी थी। "आज के बाद मैं उससे कभी बात नहीं करूँगा। उसने आख़िर मुझे समझ क्या रखा है। क्या मैं उसके इंतज़ार में यहीं रात भर बैठा रहूँ। क्या वह जानबूझ कर नहीं आई
या फिर उसे याद ही नहीं रहा।" सोचते–सोचते वह गुस्से से उफनने लगा।

सवा पाँच बजे वह हॉल से निकल कर फिर अपने कमरे में आ गया। कुर्सी पर बैठते ही उसे लगा कि घड़ी की सूइयाँ उसका मुँह चिढ़ा रही हैं। सहसा उसकी निगाह मेज़ पर रखे उन पन्नों पर पड़ी, जिन्हें कुछ ही देर पहले स्टैनो टाईप करके रख गई थी। साथ ही फलयूड की शीशी भी पड़ी थी। यह पन्ने उसकी कहानी के थे, जिसे उसने आज ही पूरा किया था। वह यह कहानी उस लड़की को पढ़ाना चाहता था, जिसे साढ़े चार बजे आना था। लेकिन वह नहीं आई थी। वह बार–बार कहानी के पन्ने उलटने–पलटने लगा।

तभी पदचाप से कमरे का सन्नाटा टूटा और साथ ही इंतज़ार की डोर भी। गुस्सा, क्षोभ, निराशा, झुँझलाहट न जाने किन कब्रों में जाकर गुम हो गई। वह सामने खड़ी मुस्करा रही थी।

"सॉरी सर, मैं लेट हो गई। बस काम ही इतना ज़्यादा था।" देर से आने की शर्मिंदगी भी उसके शब्दों में थी और सपाटबयानी भी।
"मुझे सचमुच बहुत गुस्सा आ रहा था आप पर।" मुस्कराते हुए वह सिर्फ़ इतना ही बोला।
वह एकटक उसे देखती रही। लगा, कमरे में हवा बहना भूल गई हो और समय ठिठक गया हो। कुछ देर संवादहीनता की सी स्थिति रही। वह उन चित्रों को देखने में मशगूल हो गई थी, जिनमें प्रकृति के रंगों के बीच उसकी मुस्कराहट के रंग
भी थे। यह रंग शोख भी थे, चटख भी और चटकीले भी। कोई भी रंग फीका नहीं था। हर रंग में ज़िंदगी के सपने दर्ज थे।

वह उसके चेहरे की तरफ़ देखता रहा। प्रकृति के रंग उसके चेहरे पर भी खिल उठे थे। उसे लगा पूरे कमरे में इन रंगों की रोशनी फैल गई है। इस रोशनी में भीनी–भीनी महक भी थी। यह महक किस फूल की हो सकती है, वह सोचने लगा।
हेमराज कोल्ड ड्रिंक रख गया था। साथ ही एक प्लेट में नमकीन बिस्कुट भी।
"लीजिए ठंडा।" उसने संवादहीनता की स्थिति को तोड़ा।
वह सिप करने लगी। बोली कुछ नहीं। कोई सवाल भी उसने नहीं पूछा। बड़ा आग्रह करने पर उसने दो बार एक–एक नमकीन बिस्कुट उठाया। तीसरी बार प्लेट आगे बढ़ाने पर वह बोली,
"आप खुद तो खा नहीं रहे। मुझे ही खिलाए जा रहे हैं।"
ह झेंप गया।
 
दाँतों से बिस्कुट कतरने की आवाज़ ही कमरे की खामोशी को तोड़ रही थी।
"मैं ज़िंदगी में बहुत कम लोगों से प्रभावित हुआ हूँ, लेकिन जिन्होंने मुझे प्रभावित किया है, आप उनमें से एक हैं। आपकी प्रतिभा, आप की सरलता, आपकी भावुकता का मैं कायल हो गया हूँ। आप मुझे एक खुली किताब की तरह लगती हैं। मैं दावे से कह सकता हूँ, आप की ज़िंदगी खुशियों से भरपूर रहेगी..." खामोशी तोड़ते हुए उसने बोलना शुरू किया तो बोलता चला गया।
वह चुपचाप सुनती रही। कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई।
"मैं एक उपन्यास लिखने की सोच रहा हूँ। उस उपन्यास की एक पात्र आप भी होंगी। शायद उपन्यास का मुख्य पात्र। कुछ सालों के बाद शायद आपको वह उपन्यास पढ़ने को मिले।" उसने बोलना जारी रखा।
उसकी आँखों में हैरानी के भाव उग आए।
"पिछले दिनों आपने मेरी जिस कहानी को पढ़ा था, वह कहानी मेरी कॉलेज की ज़िंदगी के इर्द–गिर्द घूमती है। कहानी में जिस लड़की सुम्मी का ज़िक्र आया है, उसका वास्तविक नाम सुनीता था, उससे कॉलेज के दिनों में कोई लंबी गुफ़्तगू भी नहीं हुई, कोई वायदा भी नहीं और न ही कोई प्रणय निवेदन दर्ज़ कराया गया। बस उससे जुड़ी कुछ स्मृतियाँ थीं, जिनमें थी बारिश की रिमझिम भी...। शायद अब जो उपन्यास लिखूँ, उसकी पात्र कोई भारती नाम की लड़की हो।" आगे की
बात उसने अधूरी छोड़ दी।

उसकी आँखों में कल्पनाओं का झरना झरने लगा। इस झरने का संगीत उसने हवा में भी बजता महसूस किया।
"आप बोलती कुछ नहीं हैं। सिर्फ़ सुनती रहती हैं। क्या कोई सवाल नहीं है आपके पास?" वह उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला।
"मैं बस सुनना ही चाहती हूँ। अच्छी श्रोता हूँ न इसलिए।" कह कर हँस दी।
"फिर भी कोई बात तो होनी चाहिए।" उसने दलील दी।
"आज बुधवार है न! और बुधवार मेरा लक्की दिन है। मेरे ससुराल वाले मुझे देखने भी बुधवार को आए थे। मेरी सगाई भी बुधवार को ही हुई। इस बार मेरा जन्मदिन भी बुधवार को था।" कह कर वह चुप हो गई।
वह भी समझ नहीं पाया कि बातों का क्रम कैसे आगे बढ़ाए। घड़ी की सूइयाँ शाम के साढ़े छह बजा रही थीं । उसे आए हुए सवा घंटा बीत चुका था। "अब चलना चाहिए।" कहते हुए उसने उसकी तरफ़ देखा।
"हाँ! अब चलते हैं।" उसने भी हामी भरी।
गे
ट से बाहर निकलते समय उसने उससे मुखातिब होते हुए कहा, "आप मेरे साथ चलना पसंद करेंगी या अकेले जाना चाहेंगी?"
"बस अड्डे तक आपके साथ चलती हूँ। लेकिन इससे पहले रास्ते में अपने ऑफ़िस से अपना बैग भी लेना है।" उसने सहजता से कहा।

उसकी बात सुनकर उसे आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हुई। उसे उम्मीद नहीं थी कि वह उसकी गाड़ी में चलने की हामी भर सकती है। वह सोच रहा था कि शायद वह विनम्रता से यह कहेगी कि "सर, आप चलिए। मुझे साथ ही मार्केट में कुछ ख़रीदारी भी करनी है।"

लेकिन उसने ऐसा बहाना नहीं बनाया। गाड़ी चलाते समय वह सोचने लगा कि क्या वह महज़ शिष्टाचारवश उसके साथ चलने की हामी भर बैठी है या फिर संकोच से मना नहीं कर पाई। यह भी हो सकता है कि वह उसे सच्चे अर्थों में अपना दोस्त मानती हो। लेकिन दोस्त को तो सर नहीं कहा जाता। वह खुद से ही सवाल–जवाब करने लगा। "यह भी तो हो सकता है कि वह उसे "सर" कह कर सम्मान देती हो। आख़िर उम्र का भी तो फासला है और यह भी हो सकता है कि वह उसे बहुत बड़ा लेखक मानती हो।" वह खुद से सवाल–जवाब का सिलसिला जारी रखता है।

उसे बस स्टैंड के पास ड्रॉप करने के बाद वह गाड़ी ड्राइव करते समय फिर से प्रश्नों के भँवर में उलझ जाता है। "वह दफ़्तर में उसके आने की बात सुनकर क्यों खिल उठा था? उसके आने में विलंब होने पर वह क्यों निराश हो गया और क्यों वह निराशा गुस्से में तबदील होने लगी थी? वह क्यों उस पर उपन्यास लिखना चाहता है? अगर लिखना ही चाहता
है तो उसे पहले से क्यों बता दिया? वह उस पर आख़िर क्या ज़ाहिर करना चाहता है?"

प्रश्नों के इसी भँवर में चकरघिन्नी की तरह घूमते हुए वह कब घर पहुँच जाता है, उसे पता नहीं चलता। प्रश्नों की खूँटी पर ही अपने कपड़े टाँगता है और बिस्तर पर लेट जाता है। दीवार के हर कोने पर उसे प्रश्न टँगे दिखते हैं। "क्या उसने सचमुच इस ज़िंदगी में एक ऐसा सच्चा दोस्त पा लिया है, जिसकी उसे मुद्दत से तलाश थी? कहीं वह किसी बाहरी आकर्षण के सम्मोहन में तो नहीं बँध गया? कहीं उसकी ज़िंदगी का कोई खाली कोना तो उसे कल्पनाओं के इस जंगल में नहीं ले जा रहा? कहीं वह अपने–आप से साक्षात्कार तो नहीं कर रहा?" दीवार पर हर सवाल उसे चमकता दिखाई देता है। उसके भीतर धुआँ–सा उठने लगता है। वह करवट बदल कर सिरहाना अपने सीने के नीचे रख लेता है। उसे लगता है कि उसकी साँसें धौंकनी की तरह चल रही हैं। पसीने की बूँदे उसे माथे पर छलक आती हैं।
तभी फ़ो
न घनघनाता है। वह लपक कर रिसीवर उठा लेता है।

"सर, मैं रितु बोल रही हूँ। मेरे लिए बुधवार का दिन एक और खुशी की सौग़ात लेकर आया है। पिछले दिनों मैंने एक कहानी लिखी थी, वह लौटी नहीं बल्कि उसकी स्वीकृति की चिठ्ठी भिजवाई है संपादक ने। मैंने वह कहानी आपको दो कारणों से नहीं पढ़ाई थी। इस कहानी के छपने की सूरत में मैं आपको सरप्राइज़ देना चाहती थी और वापस लौट आने की सूरत में वह कहानी आपको माथापच्ची करने के लिए सौंपना चाहती थी। सर, मैं अब एक उपन्यास भी लिखूँगी, जिसका मुख्य पात्र एक ऐसा लेखक होगा, जो एक पाठिका के भीतर लेखकीय ऊर्जा भर कर उसे लेखकों की कतार में खड़ा कर देता है।" भावातिरेक में वह बोलती चली गई।
"और जो कहानी स्वीकृत हुई है, उसकी विषय वस्तु क्या है?" वह उत्सुकता से पूछता है।

"कुछ नहीं सर। बस कहानी यों ही आगे बढ़ती जाती है।"
"कहानी का अंत क्या है?" उसे अधीर होते हुए पूछा।
"सर, आप हैरान हो जाएँगे। कहानी का अंत ऐसा है जैसे कहानी अभी शुरू हुई हो।" कहकर वह खिलखिलाने लगती है।
फ़ोन पर कितनी ही देर उसकी हँसी गूँजती रहती है। हँसी की वह खनक फिर उसके कमरे में भी फैल जाती है। दीवारों पर उगे प्रश्नचिन्ह यों गायब हो जाते हैं, जैसे वे कभी उगे ही न हों।

 

९ मई २००६

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