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कहानियाँ 

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
भूपेन्द्र कुमार दवे की कहानी- 'जेबकतरे'


बॉम्बे हावड़ा मेल जब स्टेशन पर रुकी तब ख्याल आया कि इसी ट्रेन का मुझे इंतजार था। वर्माजी से बातें करते मैं भूल गया था कि मुझे किसी ट्रेन का इंतजार था। वर्माजी से बातें करते समय प्रायः ऐसा ही होता था। वे चुटकुले गढ़ने में माहिर थे। उनके साथ समय बड़ी आसानी से कट जाया करता था। यही कारण था कि जब कभी मैं उन्हें स्टेशन पर देखता तो हर्षित हो उठता था। सफर मस्त हो जाएगा, यही सोच मैं उनकी ओर लपक पड़ता था। गाड़ी के जिस डिब्बे में वे चढ़ते उसी में मैं कदम रखता।

वर्माजी गाड़ी में चढ़कर बैठने की एकदम कोशिश कभी नहीं करते। पहले इधर उधर देखते। पी डब्लू डी. के सुपरवाइजर के पद पर होने के कारण इस तरह से मुआयना करने की उनकी आदत पड़ गई थी। उन्होंने मुझे छुआ और कहा, 'उधर बैठा जाए'। एक खाली सीट की तरफ उन्होंने इशारा किया था। इस सीट के सामने तीन लोग बैठे थे... अच्छी तरह पसरकर, ताकि कोई चौथा आदमी वहीं आकर न बैठ जाए।

उन दिनों देश की आजादी का ज़्यादा असर लोगों पर नहीं पड़ा था। गाँव के लोगों में सभ्यता बाकी थी। वे शहरी लोगों को धक्का–मुक्की देकर जगह हथियाने की कोशिश नहीं करते थे। अपनी मैली–कुचैली पोटली से आपको धक्का देकर आपको परेशानी महसूस नहीं होने देते थे।

उन दिनों सभी को आदर मिलने का अधिकार था ...आज की तरह सिर्फ नेताओं तक यह अधिकार सीमित नहीं था। इस कारण मुझे तीसरी श्रेणी के डिब्बे में बैठना भी आरामप्रद लगता था। मेरी जेब में प्रथम श्रेणी का टिकिट रहने पर भी मैं वर्माजी के साथ यात्रा करना पसंद करता क्योंकि मुझे उनकी संगत प्रथम श्रेणी के मनहूस डिब्बे से कहीं बेहतर लगती।

वर्माजी सीट पर चुपचाप बैठकर सामने बैठे यात्रियों को देखकर मुस्कुराने लगे। उनका यह लहजा अजनबी को अपनी ओर आकृष्ट करता था। उन तीनों यात्रियों ने एक के बाद एक उन्हें नमस्कार किया। सच में, हमारे देश में नमस्कार एक चमत्कारी जड़ी–बूटी है। यह सारी झिझक एक क्षण में फुर्र से उड़ा देती है और उस खाली शाख पर मित्रता की चिड़िया बैठ बतियाने लगती है। बातों का सिलसिला एक संक्षिप्त परिचय के बाद शुरू होते देर नहीं लगती। मैं एक मूक दर्शक की तरह उनकी बातें सुनता रहा। तभी एक दो सौ पौंड का भारी भरकम शरीर धम्म से हमारी सीट पर आ धमका। वर्माजी उन्हें देखकर बोले, 'नमस्कार सेठ जी'। सेठजी ने अपने फूलते दम के बीच कुछ ताकत को बटोरा और नमस्कार का उत्तर दिया और अपने हाथ पे टँगे छोटे–से थैले को सीट के नीचे खिसकाने का प्रयास करने लगे। पर उनकी तोंद अड़ंगा बन रही थी। यह देख वर्माजी के चहरे पर मुस्कुराहट खिल उठी।

सेठजी के हाथ में एक बड़ा–सा पीतल का टिफिन भी था जो उन्होंने अपने और वर्माजी के बीच सीट पर फँसा कर रख दिया। तभी एक झटके के साथ ट्रेन चल पड़ी। मुझे राहत का अहसास हुआ क्योंकि जब तक गाड़ी खड़ी रहती है तब तक यात्रियों के धकम्म–पेल से अपनी सीट को संकुचित होने का डर बना रहता है। ट्रेन चालू हुई तो भीड़ का बढ़ना थम जाता है और लोग अपने लिए पास की किसी सीट को चुन लेते हैं। इसी प्रयास में एक लड़का सामने की सीट पर बैठ गया। हम सब उसे घूर कर देखने लगे। वह तंग पेंट और नीली टी शर्ट के ऊपर लाल रुमाल गले पर बाँधे था। उसके इस हुलिये को देखकर ही शायद उन तीनों ने उसे बैठने की जगह अपनी बेंच पर दे दी थी।

पर हमारे वर्माजी उस लड़के को देखकर कब चुप रहने वाले थे। मन में उठी आशंका को उजागर करने उन्होंने जेबकतरों की बातें चालू कर दीं। वे कहने लगे, 'इस ट्रेन में जेबकतरों की चाँदी रहती है।' बस क्या था, बातों का सिलसिला चालू हो गया। 'बंबई से हावड़ा तक इस ट्रेन पर जेबकतरों का बोलबाला रहता है' सामने खड़े टिकिट चेकर ने कहा। वह कब आ गया था हमें मालूम नहीं पड़ा। मेरा प्रथम श्रेणी का टिकिट देखकर उसने पूछा, 'आप यहाँ?' वर्माजी तपाक से बोल पड़े, 'आजकल पिक्चरों में आपने देखा होगा कि कैसे हीरो प्रथम श्रेणी की जगह तृतीय श्रेणी में चल कर हीरोइन को ढूँढ निकालता है।' टिकिट चेकर इन बातों में मजा लेने वहीं सामने की बैंच पर बैठ गया।

बातें घूम फिर कर जेबकतरों पर आ गई। सेठजी कहने लगे, 'इन जेबकतरों ने अपनी–अपनी टीम बना रखी है और इलाके भी तय कर रखे हैं। प्रत्येक टीम बड़ी ईमानदारी से अपने ही इलाकों में काम करती है। एक टीम बिलासपुर में उतरती है तो दूसरी इसका चार्ज ले लेती है जो रायगढ़ तक काम करती है। इनमें इतनी ईमानदारी होती है कि यदि एक मुर्गा किसी टीम से बच निकलता है तो उसकी जानकारी आगे की टीम को दे दी जाती है और वह टीम उसके पीछे लग जाती है।' सेठजी यह बात कह कर उस छोकरे की तरफ देखने लगे। वैसे हम सभी उस लड़के को लगातार घूर रहे थे। सभी उसे जेबकतरा समझ रहे थे। सेठजी अपने घुटने पर फैली धोती पर हाथ फेरते हुए कहे जा रहे थे, 'गाँव के सीधे–साधे छोकरे शहर में आकर फुलपेंट क्या पहनने लगे कि सब के सब जेबकतरे बन बैठे हैं।'

'सेठजी,' वर्माजी तपाक से बोले, 'वे धोती पहने रहते तो ठग बने रहजनों को लठ्ठ मारकर लूटते रहते।'
'ठग तो पूरी तरह से लूट लेते हैं। जेबकतरे तो छोटा–मोटा पर्स मारकर ही संतोष कर लेते हैं,' सामने बैठे तिवारीजी बोल पड़े।
यह सुन सेठजी ने अपनी धोती की तह ठीक करते हाथ को हटा लिया। बेचारे करते भी क्या? पूरे कंपार्टमेंट में सिर्फ वे ही तो धोती पहने हुए थे।

जेबकतरों की बातें किस्सों में बदल गईं। किसी ने कहा कि अमरनाथ की यात्रा के दौरान उनका जेब काट लिया गया था। धार्मिक स्थलों में ऐसा धंधा नहीं करना चाहिए। पर जेबकतरों का क्या? जहाँ भीड़ दिखी वहीं हाथ साफ करने लगते हैं। हमारे देश में धर्म के नाम पर भीड़ उमड़ना आम बात है। कभी कोई जत्था चादर चढ़ाने निकल पड़ता है तो बैंड बजाते लोग पीछे हो लेते हैं। हनुमानजी के मंदिर पर झंडा चढ़ाना हो तो भीड़ उमड़ पड़ती है। कभी साईंजी की तस्वीर लेकर लोग फेरी पर निकलते हैं तो उनके पीछे भी भीड़ चल पड़ती है। मंदिर पर चढ़ावे के लिए टोली निकली तो पीछे लड़के चमचमाती तलवारें लेकर दौड़ने लगते हैं। दशहरा, जन्माष्टमी या रामनवमी हो, मुहर्रम हो या बड़ा दिन हो तो झाँकियाँ निकलना जरूरी है। इस सब का मतलब है भीड़ का जमा होना। भीड़ में जेबकतरों की एकतरह से दिवाली हो जाती है। यहाँ बेचारे पुलिसवाले ...

'उँहू, ये पुलिसवाले तो जेबकतरों से मिले रहते हैं', वह छोकरा भी हम लोगों की बातों में भाग लेने लगा। मैंने देखा कि वह जेबकतरों की बातें बेझिझक कर रहा था। अपनी बात पर वजन देने वह आगे झुक जाता और बड़े नपे–तुले शब्दों का इस्तेमाल करता।

सेठजी के पास तो जेबकतरों के किस्सों का अपार भंड़ार था। वे कह रहे थे कि उनकी जिंदगी सफर की जिंदगी रही है। पर मजाल कि किसी जेबकतरे ने उनका जेब काटा हो। सेठजी ने यह बात बड़े गर्व से कही। इतना कहकर वे सीट के नीचे रखी अपनी झोली फिर एक बार पीछे धकेलने का उपक्रम करने लगे। 'रहने दीजिए', उस लड़के ने कहा और आगे बढ़कर उनकी झोली ठीक से सीट के नीचे जमा दी। अब सेठजी और भी निश्चिंत होकर बातों में लग गए। कहने लगे, 'जेबकतरों को मैं तो सूँघ कर पहचान लेता हूँ।' वे कुछ देर बाद शेखी बघारते हुए बोले, 'मैंने तो कई बार जेबकतरों को रंगे हाथ पकड़ा है। मैं अगर जेबकतरे की कलाई पकड़ लूँ तो बेचारा छटपटाकर रह जाता है।'

मुझे लगा कि सेठजी कुछ ज़्यादा ही हाँक रहे थे। कहने लगे, 'एक जेबकतरा जब जेब काट ही रहा था कि मैंने उसकी गर्दन पर यों मारा कि वह लुढ़ककर नीचे गिर पड़ा। वह जिस आदमी की जेब काट रहा था उसका पेंट जेबकतरे की तेज रेजर से नीचे तक कट गया। उसका पर्स तो मेरे कारण बच गया पर पूरे सफर वह अपनी कटी पेंट के कारण परेशान रहा और मुझे कोसता रहा।'

तभी अकलतरा स्टेशन आ गया और गाड़ी रुकने को ही थी कि वह लड़का अपनी सीट पर से उठा और बोला, 'सेठजी माफ करना। आप बड़ी ऊँची डीगें हाँक रहे हैं जब कि आपकी जेब में सिर्फ सत्ताईस रुपये अस्सी पैसे हैं।' इतना कहकर वह जाने लगा। सेठजी भी उसके पीछे हो लिए।

कुछ देर बाद सेठजी वापस आ गए। आते ही कहने लगे, 'स्साला, शातिर जेबकतरा था। चलती गाड़ी से कूदकर भाग निकला।' इतना कहकर सेठजी ने अपने कुर्ते से पैसे निकाल कर गिने। वे पूरे सत्ताईस रुपये अस्सी पैसे थे। हम सब किं–कर्तव्य–विमूढ़ हो एक दूसरे को ताकते रह गए। तभी सामने बैठे तिवारीजी ने अपनी जेब टटोली। उनका पर्स गायब था। दूसरे दो सज्जनों ने भी अपनी जेब से पर्स नदारद पाए और उनके चेहरे पीले पड़ गए। पर वर्माजी और मैंने अपने पर्स सुरक्षित पाए। तभी सेठजी ने अपना पीतल का टिफिन आगे रखा और कहा, 'यह देखो।' टिफिन में सेठजी ने नोट की गठ्ठियाँ भर रखी थीं। वे कहने लगे, 'मैं जेबकतरों को खूब पहचानता हूँ। वह लड़का जब यहाँ आया था तब ही मैंने उसे पहचान लिया था।'

'तो हमें क्यों नहीं बताया?' सामने बैठे तीनों सज्जनों ने एक साथ पूछा। सेठजी ने कहा, 'घबराने की कोई बात नहीं।' उन्होंने अपने कुर्ते की जेब से तीन पर्स निकाल कर दिखाए। 'ये पर्स तुम्हारे हैं ना? वह जब गाड़ी से कूद रहा था तब मैंने उसकी जेब से ये पर्स मार दिए। हूँ ना मैं धोती वाला कमाल का!

'लेकिन आपकी इतनी बड़ी तोंद ने यह काम करने कैसे दिया?' वर्माजी ने कहा। सेठजी ठहाका मार कर हँसने लगे और बोले, 'इस तोंद ने ही उसे चलती गाड़ी से कूदने में मदद की थी।'

९ अप्रैल २००६

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