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कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से महेशचंद्र द्विवेदी की कहानी—"मनिला की योगिनी"।


कई बातें ऐसी थीं जो मीता के स्वभाव के प्रतिकूल थीं– उनमें से एक थी ब्रह्मवेला के पश्चात चारपाई तोड़ते रहना। अनुज से इस विषय में अनेक बार उससे बहस हुई थी और यदा–कदा मानमनौवल से मिट जाने वाला अस्थाई किस्म का मनमुटाव भी हो गया था, परंतु सहरी की अजान अथवा मुर्गे की बाँग सुन लेने के बाद मीता कभी बिस्तर पर नहीं लेटी थी। देर से सोने वाला अनुज उस समय गहरी नींद में होते हुए भी मीता के शरीर की उष्णता की कमी शिद्दत से महसूस करता था और मन मसोस कर रह जाता था।

अन्य कुछ बातें भी मीता के स्वभाव के प्रतिकूल थीं जैसे अनुज के समान एकाग्रचित्तता– दिन भर के काम के बाद अनुज रात्रि भोज के उपरांत पुनः कंप्यूटर स्क्रीन के सामने बकुल दृष्टि लगाकर बैठ जाता था, तब मीता पलंग पर तकिये के सहारे बैठकर उसके हाथ में हाथ डालकर 'शांति' सीरियल देखने, चंद्रमुखी के देवदास के प्रति अप्रतिम प्रेम पर बतियाने, 'गुनाहों के देवता' की सुधा के चंदर के प्रति चिरनियंत्रित प्रेम पर बहस करने, अथवा बड़े भैया के पुत्र बंटी की बर्थडे पर मायके जाने हेतु इसरार करने हेतु तरसती रहती थी। अनुज के मन को उसके कंप्यूटर के माउस की उछल–कूद आह्लादित करती थी, तो मीता के मन को कोयल की प्रत्येक कूक पर उसे चिढ़ाना, अमराई की महक को नथुनों में भरकर आँखें बंद कर लेना, बादल की गरज को आकाशीय ढोल समझकर सुनना, वर्षा की फुहार शरीर पर पड़ने पर रोमांच का अनुभव करना, हेमंत की ठिठुरन में रजाई की गर्मी को अंतस्तल में भर लेना अनुप्राणित करते थे।

कई बातें ऐसी थीं जो मीता के स्वभाव के विशेष अनुकूल थीं जिनमें कुछ थीं प्रेम के नवप्रस्फुटन की कथाओं को दत्तचित्त होकर पढ़ना, प्रेमाधारित पिक्चर देखना, प्रेम करने लायक हर व्यक्ति से प्रेमपूर्वक बतियाना, आदि। संभवतः इसी मनोभाव के वशीभूत होकर मीता ने अपनी बड़ी बेटी का नाम रखा था सुधा और छोटी बेटी का नाम रखा था पारो। कंप्यूटर पर अपनी व्यस्तता के क्षणों में उनके लाड़ लड़ाने हेतु आ जाने पर अनुज प्रायः उन्हें झिड़क देता था, तब प्यार से पुचकारते हुए उन्हें अपने सीने से लगा लेना भी मीता की प्रकृति के अनुकूल था। मीता आयु से युवा थी पर मन से चंचला किशोरी।

मानिला गाँव अल्मोड़ा जनपद में छः हजार फीट की ऊँचाई पर घनी पहाड़ियों के बीच स्थित है। मैदान से जाने पर कौर्बेट नेशनल पार्क के बाहर स्थित रामनगर कस्बे से सघन वन प्रारंभ हो जाता है। फिर गरजिया, जहाँ से कौर्बेट पार्क का प्रवेश द्वार है, होते हुए मोहान पड़ता है। मोहान से मुख्य मार्ग छूट जाता है और बायीं ओर की पतली सड़क पर चलना पड़ता है। यहाँ से ऊँचाई प्रारंभ हो जाती है, और लगभग साठ किलोमीटर की निर्जन पहाड़ी यात्रा के उपरांत चीड़ एवं बाँझ के वनों से घिरा गाँव मानिला आता है। बस से उतरने पर गाँव का कोई घर नहीं दिखाई देता है वरन बायीं ओर बनी पाँच पक्की दुकानें और उन पर बने छोटे–छोटे घरों को देखकर एक कस्बे जैसा भान होता है, परंतु ये दूकानें और घर आधुनिकता की देन हैं। मानिला गाँव के घर तो नीचे पहाड़ की ढलान पर दूर–दूर ऐसे छितरे हुए बने हैं, कि गाँव के ऊपर के किसी स्थान से संपूर्ण गाँव का अवलोकन संभव ही नहीं है।

मानिला में अभी सुबह नहीं हुई थी परंतु उच्चतम पहाड़ी के शिखर पर धुँधलका छँटने लगा था। रामनगर की ओर जाने वाली एकमात्र सड़क सुनसान थी– केवल मीता के चलने से उत्पन्न किसी की उपस्थिति के भान को छोड़कर। मीता भी अपनी गति को इतना सधा हुआ एवं शांत बनाए हुई थी कि जैसे अपने चारों ओर व्याप्त नैसर्गिक छटा के सागर को कंपित कर देने से डर रही हो। बीती सायं को वह बस से मानिला आई थी। गर्मियों की छुट्टियों में उसकी बेटियों को उसके बाबा दादी अपने पास गाँव ले गए थे और फिर उसके पति को डेढ़ माह की ट्रेनिंग पर बंगलौर जाना पड़ गया था। दो वर्ष पूर्व उसकी चचेरी बहन के पति मानिला में नये खुले कालेज में प्राध्यापक नियुक्त हो गए थे और तब से उसकी बहन बार–बार उससे सपरिवार मानिला आने का आग्रह करती रही थी। अपने पत्रों में वह मानिला की कुँवारी सुषमा की प्रशंसा करते नहीं थकती थी।

मीता ने अनेक बार अपने पति के समक्ष मानिला चलने का प्रस्ताव रखा था परंतु उनके पास न तो समय था और न पर्वतों में रुचि। वह जब ट्रेनिंग पर बंगलौर जाने लगे थे तो उन्होंने मीता से कह दिया था कि इन दिनों तुम यहाँ अकेली क्या करोगी, चाहो तो अपनी बहन के पास मानिला चली जाओ। प्रथम बार अकेले इतनी लंबी एवं दुर्गम यात्रा की कल्पना से मीता के मन में जितनी घबराहट हुई थी, उतना ही अनजाने अनोखे अनुभवों का रोमांच भी उत्पन्न हुआ था, और उसकी बस के रामनगर पार करने के पश्चात सघन वन में घुसते ही यह रोमांच क्षण–प्रतिक्षण द्विगुणित होता रहा था।
मीता की बस जब मानिला पहुँची थी तब सूर्य अस्त होने के निकट था। मीता की बहन एवं उसके पति उसे बस स्टैंड पर ही मिल गए थे और उन्होंने मीता का हृदय से स्वागत किया था। उनका घर बाजार में एक दूकान के ऊपर बना हुआ था, जिसके पीछे से रम्य घाटी एवं उसके उपरांत अनेक पर्वत शिखरों की शृंखला दिखाई देती थी। उस रात्रि में वहाँ से गैरसेंण, भिकियासेंण आदि दूर–दूर के कस्बों एवं निकटस्थ ग्रामों में झिलमिलाते प्रकाश को मीता तब तक देखती रही थी जब तक आकाश में घटाटोप बादल नहीं छा गए थे। मीता के गहरी नींद सो जाने पर घनघोर वर्षा हुई थी जो ब्रह्मवेला के कुछ समय पूर्व थम गई थी। जब मीता की नींद खुली तब उसकी बहन के घर में सब गहरी नींद में सो रहे थे। किसी प्रकार की आहट किए बिना वह निवृत होकर चुपचाप घर से बाहर निकल आई थी। अपने घर में भी ब्रह्मवेला में अकेले ही जागने के पश्चात घर के सूनेपन को सह पाना मीता के लिए कठिन होता था और उससे बचने के उद्देश्य से वह मुँह अँधेरे अपनी गली में टहलने निकल जाती थी।

सड़क के दोनों ओर गगनचुंबी चीड़ के वृक्षों का सघन वन एवं आकाश में छाए बादल अंधकार उत्पन्न कर अनजान के आकर्षण को बढ़ा रहे थे और मीता के बदन की पाँचों इंद्रियाँ पूर्णतः जाग्रत थीं। चीड़ की काँटेनुमा पत्तियों के बीच से बहने वाली बयार मीता के कानों में सरसराहट का अनहद नाद उत्पन्न कर रही थी एवं चीड़ की खुशबू उसके नथुनों से प्रवेश कर उसके तन–मन को उल्लसित कर रही थी। प्रातःकालीन ठिठुरन का स्पर्श उसके रोम–रोम को कंपित कर रहा था। कुछ दूर चलने पर सड़क दायीं ओर मुड़ गई थी और मीता के सामने मानिला के आस–पास के समस्त पर्वतीय शिखरों में उच्चतम शिखर खड़ा था। शनैः शनैः उस पर प्रकाश बढ़ रहा था।

कुछ तो उच्चतम शिखर के आकर्षण और दूसरे कुछ नया करने की लालसा के वशीभूत हो मीता सीधे उस शिखर पर चढ़ने लगी थी। मीता जब लगभग एक तिहाई ऊँचाई चढ़ चुकी थी तब उसे भान हुआ कि आगे चढ़ाई न केवल खड़ी है वरन अत्यंत दुर्गम भी। उस पहाड़ पर प्रारंभ में तो कुछ चीड़ के वृक्ष एवं झाड़ियाँ थीं, परंतु आगे पहाड़ बंजर था और मिट्टी गीली और फिसलनी। उसकी हिम्मत जवाब देने लगी और उसने नीचे वापस जाने का निश्चय किया परंतु उसके नीचे पैर रखते ही वर्षा के कारण गीली हुई्र मिट्टी खिसकने लगी। दो एक बार प्रयत्न करने पर उसकी समझ मे आ गया ऊपर चढ़ने की अपेक्षा नीचे उतरना कहीं अधिक खतरनाक है। वह पुनः ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करने लगी, परंतु कुछ कदम चढ़ने के पश्चात ही चढ़ाई इतनी खड़ी हो चुकी थी कि एक कदम भी ऊपर बढ़ाने का परिणाम होता सैकड़ों फुट नीचे घाटी में लुढ़क जाना। अब जहाँ पहुँचकर मीता एक टाँग पर खड़ी थी वहाँ पर न तो कोई समतल भूमि थी और न पर्वत पर उगने वाली झाड़ियाँ। एक लटकते से पत्थर के
सहारे मीता जीवन और मृत्यु की सीमा रेखा पर झूलते हुए सोचने लगी–

'हे भगवान यहाँ सहायता के लिए किसे पुकारूँ?, यहाँ फिसल गई तो घाटी में मेरे पार्थिव शरीर का किसी को पता भी नहीं चलेगा, मेरी बेटियों का क्या होगा?, अनुज पता नहीं क्या सोचेंगे?, और कैसे रहेंगे?, मैं भी कैसी बेवकूफ हूँ कि बिना जाँचे पूछे यहाँ अकेली चढ़ने लगी? ...क्या सचमुच आज यह मेरा अंतिम दिन है?
मीता का धैर्य जवाब देने लगा था और वह शनैः शनैः अपने अवसान की निश्चितता को स्वीकार कर शिथिल होने लगी थी कि उसे लगा कि कहीं से अकस्मात आकाशवाणी हुई,
'अपनी जगह पर चुपचाप खड़ी रहिए, मैं आता हूँ।'

और सचमुच कुछ देर में बायीं ओर से एक अधेड़ परंतु बलिष्ठ पुरुष प्रकट हो गया। उसने अपना हाथ बढ़ा कर मीता की बाँह पकड़ ली और जिस दिशा से आया था, मीता को सहारा देते हुए और ढाढ़स बँधाते हुए उसी मार्ग से बायीं ओर ले जाने लगा। वह लगभग पंद्रह मिनट के प्रयत्न के पश्चात मीता को ऐेसे स्थान पर ले आया जहाँ खड़े होने के लिए पर्याप्त समतल भूमि थी और ऊपर पहाड़ की चढ़ाई आसान थी। मृत्यु का इतनी निकटता से आभास एवं फिर बच निकलने के ज्ञान द्वारा उत्पन्न भावातिरेक से मीता शिथिल होकर मूर्छित होने लगी और उस व्यक्ति के कंधे पर लुढक गई थी। जब मीता की जान में जान आई तब उसने लजाकर अपने को उसके कंधे से अलग किया और देखा कि वह एक अधेड़ आयु का पहाड़ी व्यक्ति था। मीता के रोम–रोम से उस व्यक्ति के प्रति आभार टपक रहा था और ऐसे में शब्दों से आभार व्यक्त करना सर्वथा अर्थहीन था। उस व्यक्ति को भी मीता के बिना कुछ बोले ही उसके आभार–भाव, अपने पर उसकी पूर्ण निर्भरता, एवं उसकी लज्जा का तीक्ष्णता से भान हो रहा था।

सामान्य होने पर उस व्यक्ति के कहने पर मीता उसके पीछे–पीछे स्वयं पहाड़ पर चढ़ने लगी, केवल यदा–कदा दुरूह स्थान पर वह व्यक्ति मीता का हाथ पकड़कर उसे सहारा दे देता था। पहाड़ की चोटी पर पहुँचने पर मीता ने पाया कि वह एक अनिर्वचनीय रमणीक स्थान पर पहुँच गई है– घने वन के बीच सबसे ऊपर एक प्राचीन मंदिर, जिसके नीचे बायीं ओर एक रंगा–पुता हुआ भवन जिसके चारों ओर अनेक पुष्पलतायें फैली हुईं थीं। वह व्यक्ति बोला, 'मैं भुवनचंद्र हूँ। यहीं मानिला गाँव का रहने वाला हूँ। यहाँ माँ अनिला के दर्शन करने आ रहा था, जब आपको लटके हुए देखा। माँ अनिला अत्यंत दयालु हैं और सबकी रक्षा करतीं हैं। उन्हींने ठीक समय पर आप के पास पहुँचा दिया। आपको आज पहली बार मानिला में देख रहा हूँ– आप बिना किसीसे पूछे उस पर्वत पर क्यों चढ़ गईं?'
फिर जैसे उसे अपने समस्त प्रश्नों का उत्तर पहले से ज्ञात हो, मीता के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना आगे कहने लगा,
'अब आप यहाँ आ गईं हैं तो माँ अनिला के दर्शन तो अवश्य करेंगी।'

और मीता की स्वीकृति मानते हुए मंदिर की ओर चलने लगा। मीता आज देवी दर्शन को कैसे मना कर सकती थी? और उस व्यक्ति के पीछे–पीछे चुपचाप चल दी। मंदिर में वह देवी माँ के दर्शन में देर तक ध्यानस्थ रही और उसकी प्राणरक्षा हेतु उस व्यक्ति को समय पर भेज देने के लिए उन्हें मन ही मन धन्यवाद देती रही। उसके पीछे खड़े उस व्यक्ति को मीता के मनोभावों का अनुमान हो रहा था और मीता की रक्षा का निमित्त बनने हेतु वह मन ही मन प्रसन्न हो रहा था। मंदिर से बाहर निकलने पर भुवनचंद्र ने प्रस्ताव रखा, 'यहाँ के स्वामी जी बहुत माने हुए संत हैं। वह प्रतिप्रातः ग्रामवासियों एवं अन्य दर्शनार्थ आए हुए साधकों को योगाभ्यास भी कराते हैं। आप यहाँ तक आईं हैं तो उनके दर्शन भी कर लें।'

वह पुनः मीता की स्वीकृति मानते हुए नीचे स्थित भवन की ओर चल दिया और मीता उसके पीछे हो ली। मुख्य द्वार पर भुवनचंद्र ने जूते उतारे और उसे देखकर मीता ने भी चप्पल उतार दी।
'ओम मित्राय नमः'– द्वार से अंदर जाने पर मीता ने देखा कि एक बड़े से हाल में एक वयोवृद्ध स्वामी जी सूर्य नमस्कार कर रहे थे एवं उनके सामने दस–ग्यारह साधक-साधिकाएँ उनका अनुसरण कर रहे थे। उन्हीं का समवेत स्वर मीता को सुनाई दिया था। पूरे हाल में दरी बिछी हुई थी और भुवनचंद्र एवं उसके निकट मीता भी दरी पर खड़े हो गए। सूर्य नमस्कार की विभिन्न मुद्राओं में आने हेतु स्वामी जी बड़े मनोयोग से निर्देश दे रहे थे। उनका स्वर अत्यंत धीर गंभीर था एवं मीता के अंतस्तल को स्पर्श कर रहा था। यद्यपि उसने पहले कभी योगाभ्यास नहीं किया था तथापि उनके मुख से निकले प्रत्येक शब्द के साथ उसे लगता कि जैसे उसे ही वैसा करने को निर्देशित किया जा रहा है और उसके बदन में तदनुसार क्रिया करने को कंपन हो जाता था। सूर्य नमस्कार की समाप्ति पर सूर्य भगवान को धन्यवाद देने हेतु प्रणाम की मुद्रा में आने का जब स्वामी जी ने निर्देश दिया, तब मीता अपने को न रोक पाई एवं स्वयं भी प्रणाम मुद्रा में आ गई। फिर वह साधकों के समूह के साथ शवासन में लेट गई। उस मुद्रा में आने पर स्वामी जी निर्देश देने लगे,
'शवासन में पीठ के बल लेट जाएँ, आँखें कोमलता से बंद करें, दोनों टाँगों एवं दोनों हाथों को सुविधानुसार फैला लें, एक दो गहरी साँसें लें एवं मन को विचार–शून्य करें। अब पैर के अँगूठे से सिर की चोटी तक प्रत्येक अंग का अपने मन की आँखों से अवलोकन करें एवं शरीर के प्रत्येक अंग के निरोग होने का ध्यान करें।'

मन की आँखों से शरीर के अंगों के निरोग होने का ध्यान करने की बात पर मीता को ध्यान आया कि इस समय उसके इन अंगों की क्या दशा होती, यदि भुवन चंद्र ने समय पर प्रकट होकर उसे बचा न लिया होता। यह ध्यान आते ही उसने एक आँख थोड़ी–सी खोलकर भुवनचंद्र को देखा और पाया कि अपने स्थान पर खड़ा रहकर वह मीता के अंगों का इस प्रकार अवलोकन कर रहा था जैसे स्वामी जी ने उसको खुली आँखों से मीता के अंगों का निरीक्षण करने का निर्देश दिया हो। मीता पुनः उसी प्रकार लजा गई जैसे अर्धमूर्छा जैसी अवस्था में भुवनचंद्र के कंधे का सहारा लेने के पश्चात स्थितिप्रज्ञ होने पर लजा गई थी। भुवन चंद्र ने अपने मन की आँखों से उस लाज को देख लिया था और उसके हृदय में एक अनोखी सी गुदगुदी होने लगी थी। शवासन के उपरांत जब पदमासन, अर्धपदमासन अथवा सुखासन लगाकर ओ3म ध्वनि करने और फिर भस्त्रिका प्राणायाम करने हेतु कहा गया, तो मीता के अतिरिक्त भुवनचंद्र भी सुखासन में बैठकर स्वामी जी के निर्देशों का अनुसरण करने का प्रयत्न करने लगा।

स्वामी जी नयी आई साधिका मीता की क्रियाओं पर विशेष ध्यान दे रहे थे एवं किसी प्रकार की त्रुटि होने पर उस क्रिया को पुनः समझाते थे। उन्होंने यह तो समझ लिया था कि इस साधिका ने पूर्व में योगाभ्यास नहीं किया है तथापि वह इस साधिका की योगासनों को समझने की क्षमता एवं बच्चों जैसे लोचदार अपने अंगों से उन्हें उत्कृष्टता से करने की पटुता को देखकर अत्यंत प्रभावित थे। आज भुवन चंद्र द्वारा योग–साधना प्रारंभ कर देने से भी स्वामी जी प्रसन्न थे। मीता को भी ऐसा लग रहा था कि जैसे यौगिक क्रियाएँ उसके शरीर एवं स्वभाव की अनुकूलता को ध्यान में रखते हुए ही निर्धारित हुई हैं। अंत में जब शांति मंत्र का सामूहिक पाठ प्रारंभ हुआ, तो भुवनचंद्र सहित सबने पाया कि मीता के मंत्रोच्चारण में संगीत गायिका के स्वर–सा गांभीर्य है। उसके मुख से निकले प्रत्येक शब्द के नाद एवं उनके अर्थ में शत–प्रतिशत सामंजस्य है। मीता द्वारा उच्चारित शांति–मंत्र के अंत के शब्द 'शांति रे ...वः, शांति सा ...मः, शांति रे ...धिः ओम शां ...तिः, शां ...तिः, शां ...तिः' स्वामी जी सहित सबके कर्णों में अमृतवर्षा कर रहे थे। भुवनचंद्र के मन में मीता को वहाँ लाने का निमित्त बनने हेतु गर्वानुभूति हो रही थी और मीता के प्रति अप्रयास ही आत्मभाव उत्पन्न हो रहा था।

योग साधना के उपरांत स्वामी जी ने मीता से उसका नाम–ग्राम पूछा, उसकी यौगिक क्रियाएँ करने की पटुता की प्रशंसा की एवं यह जानकर कि वह अभी लगभग डेढ़ माह मानिला में रुकेगी उसे प्रतिदिन योगसाधना हेतु आने का आमंत्रण दिया। उन्होंने भुवनचंद्र द्वारा साधना प्रारंभ करने पर भी प्रसन्नता जताई एवं उसको भी प्रतिदिन साधना हेतु आने को कहा।

तत्पश्चात मीता ओर भुवनचंद्र मंदिर से वापस ग्राम की ओर चल दिए। आकाश में बादल छँट चुका था और वह पूर्णतः निर्मल हो गया था। हवा में ठंडक थी परंतु सूर्य भगवान तपने लगे थे। दोनों चुपचाप चल रहे थे। भुवनचंद्र का अंतस्तल एक अनोखी अभिलाषा के अंकुरण की तपन अनुभव कर रहा था एवं मीता अपनी छठी इंद्रिय से उस तपन का कुछ–कुछ आभास पा रही थी। मीता आश्चर्यचकित थी कि तपन का वह आभास उसके मन में भुवनचंद्र के प्रति कोई दुर्भाव उत्पन्न करने के बजाय गुदगुदी उत्पन्न कर रहा था– उसने सोचा कि संभवतः अनजान परिवेष में द्रुतगति से घटित अनोखी घटनाओं ने उसके मन को विचलित कर रखा है।

रास्ते का अंत निकट आने पर भुवन चंद्र ने बताया कि मानिला में माँ अनिला के दो मंदिर हैं एक निचाई पर स्थित है जिसे मानिला तल्ला मंदिर कहते हैं और दूसरा यह मंदिर ऊँचाई पर स्थित होने के कारण मानिला मल्ला मंदिर कहलाता है। यहाँ आने वाले दर्शनार्थियों को दोनों मंदिरों के दर्शन करना अनिवार्य समझा जाता है। फिर उसने प्रस्तावित किया कि मीता चाहे तो वह उसे किसी दिन मानिला तल्ला मंदिर दिखाने ले चलेगा। मीता तो घूमने ही आई थी और उसने मानिला पहुँचने पर पहले दिन जब दीदी के सामने घर से बाहर चलकर घूमने का प्रस्ताव रखा था तब दीदी ने स्पष्ट कह दिया था कि घूमने उसे अकेले ही जाना पड़ेगा क्योंकि उन्हें पहाड़ चढ़ने में कमर में दर्द हो जाता है और जीजाजी परीक्षाएँ कराने में व्यस्त हैं। अतः उसने भुवनचंद्र के प्रस्ताव पर हल्का–सा सिर हिलाते हुए हामी भर दी थी।
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'सबेरे–सबेरे बिना बताए कहाँ चली गई थी मुन्नी?' मीता की बहन उससे आयु में बड़ी थीं और उसे बचपन के नाम से ही पुकारतीं थीं।
जब वह घर लौटी थी, तब तक घर के सब लोग जागकर नाश्ते के लिए तैयार हो चुके थे एवं उसकी बहन व उसके पति इतनी देर हो जाने के कारण कुछ–कुछ चिंतित भी होने लगे थे। मीता बोली, 'क्या करती दीदी? तुम तो जानती हो कि प्रातः जल्दी जागने की अपनी पुरानी आदत है। घर में सबको गहरी नींद में सोते पाकर टहलने हेतु निकल गई थी। पर आज अनजान के आकर्षण ने मेरी जान ही ले ली होती।'
दीदी एवं जीजा जी चिंतित मुद्रा में उसकी ओर ध्यान से देखने लगे। फिर मीता ने मानिला मल्ला पर चढने से प्रारंभ कर आगे की घटना का वर्णन किया एवं भुवनचंद्र के अकस्मात प्रकट हो जाने एवं
उसको बचा लेने पर आश्चर्य व्यक्त किया। उसकी बात समाप्त होते होते दीदी की आँखों में अश्रु भर आए और वह बोलीं,
'माँ अनिला ने ही कृपा कर भुवनचंद्र को भेज दिया होगा। भुवन चंद्र है ही ऐसा। वह तो जैसे इस गाँव में हर समय हर स्थान पर उपस्थित रहता है– जहाँ किसी को कोई आवश्यकता हुई, वहीं नारद के समान मुस्कराता हुआ प्रकट हो जाता है। यद्यपि वह अधिक पढ़ा–लिखा नहीं है पर है माँ अनिला का बड़ा भक्त। घर की आर्थिक दशा भी अत्यंत साधरण है और संभवतः इसी कारण उसका विवाह भी नहीं हुआ है। वैसे कुछ लोगों का यह भी कहना है कि नवयुवा होने पर वह अपने गाँव की दूसरी जाति की एक लड़की से प्रेम कर बैठा था। एक तो अपने गाँव की एवं दूसरे विजातीय– ऐसे विवाह की सामाजिक स्वीकार्यता की यहाँ कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। उस लड़की के घरवालों ने उसे डरा धमका कर उसका विवाह कहीं दूर कर दिया था। तब से भुवनच्रंद्र ने विवाह नहीं किया है, परंतु उसकी मस्ती एवं जीवंतता में कोई कमी नहीं पाई गई है।'

भुवनचंद्र द्वारा स्वयं को जोखिम में डालकर मीता को बचाने, उसके आत्मविश्वास पूरित आचारण एवं मीता के प्रति आत्मीय भाव होने के तथ्यों से मीता पहले ही प्रभावित हो चुकी थी जीजी से उसके व्यक्तित्व के विषय में यह सब सुनकर मीता की दिलचस्पी उसके प्रति और बढ़ गई।
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दूसरी प्रातः जब मीता टहलने निकली तो उसके मन में अनायास यह लालसा उठ रही थी कि भुवनचंद्र का साथ मंदिर जाते हुए पुनः हो जाए और वह उससे उसके बारे में बातें करे। भुवनचंद्र ने उसे बताया था कि माँ अनिला की विशेषता यह है कि वह उनके दर्शन हेतु आने वाले की मनोकामना बिना मुँह से माँगे ही पूरी कर देतीं हैं– और सचमुच पीछे से तेज़ी से चलता हुआ भुवनवचंद्र आ पहुँचा और बोला, 'जय माँ अनिला'। मीता का मन प्रसन्नता से खिल उठा और उसने उस प्रसन्नता को अपनी मुस्कराहट में प्रकट करते हुए उत्तर दिया, 'जय माँ अनिला'।
फिर भुवनचंद्र आज के मिलन का स्पष्टीकरण सा देता हुआ बोला,
‘मैं रोज सबेरे इसी समय माँ अनिला के दर्शन के लिए आता हूँ। लगता है कि आप को भी इसी समय घूमने की आदत है।'
और मीता के सिर हिलाकर हामी भरने पर वह आगे के दिनों में बिना किसी संकोच एवं बिना आकस्मिकता के मीता का साथ सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बोला,
'तब तो जब तक आप यहाँ है, सुबह का मेरा अकेलापन दूर रहेगा।'

मीता पिछले दिन ही भुवनचंद्र को बता चुकी थी कि वह लगभग डेढ़ माह के लिए वहाँ आई है, और उसने पुनः मंद स्मित के साथ सिर हिलाकर हामी भर दी। फिर दोनों संकोचरहित होकर साथ–साथ मंदिर की ओर बढ़ते रहे। यद्यपि भुवनचंद्र मौन था, परंतु उसका हृदय मीता के साहचर्य से उद्वेलित था और मीता उस उद्वेलन से प्रवाहित होने वाली तरंगों का आभास पा रही थी। दर्शन के उपरांत दोनों आश्रम में चले गए, जहाँ योग–प्राणायाम प्रारंभ होने जा रहा था। उन्होंने स्वामी जी को अभिवादन किया और स्वामी जी ने उनके आगमन पर प्रसन्नता का भाव प्रकट किया। आज मीता ने समस्त आसनों को न केवल बड़े मनोयोग से किया वरन स्वामी जी द्वारा उच्चारित एक–एक शब्द को आत्मसात भी किया। स्वामी जी मीता की इस तन्मयता को ध्यान से अवलोकित करते रहे। भुवनचंद्र योगासनों को तो बहुत अच्छी भाँति नहीं कर पाया, परंतु उसका मन आनंदातिरेक में डूबा रहा। सिंहासन के पश्चात जब सब साधकों को दिल खोलकर हँसने को कहा गया, तब भुवनचंद्र की हँसी उसके अंतर्तम से फूट रही थी।

मंदिर से घर वापस आते समय भुवनचंद्र ने मीता से धीरे से कहा, 'मानिला तल्ला मंदिर की भी बड़ी महत्ता है, वहाँ की माँ की मूर्ति अत्यंत प्राचीन है। आज सायंकाल मानिला तल्ला मंदिर में दर्शन हेतु चलना चाहें, तो सायं छः बजे बस स्टैंड पर आ जाएँ, मैं वहीं आसपास मिल जाऊँगा।'
भुवनचंद्र अपनी बात पूरी कर मीता की ओर उसकी प्रतिक्रिया जानने हेतु देखने लगा था। मीता को पहले लगा कि भुवनचंद्र के प्रस्ताव में उसे घर आकर ले जाने के बजाय बस स्टेशन पर मिलने की बात में कुछ छिपाने की बात अंतर्निहित है परंतु तब स्वयं पर आश्चर्य हुआ जब उसके मुख से स्वतः 'हाँ' निकल गई। अब उसे लग रहा था कि उसके स्वयं के द्वारा भुवनचंद्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लेने में उस छुपाव को मान्यता देने की बात अंतर्निहित है।
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मीता दिन में अपनी दीदी के साथ घर के काम में हाथ बँटाती रही, परंतु दोपहर के भोजन के उपरांत विश्राम के दौरान मीता को भुवनचंद्र के साथ मंदिर जाने की बात याद आने लगी। उसने दीदी से इस विषय में कुछ भी नहीं कहा– पता नहीं कौन सा चोर उसके मन में प्रवेश कर गया था। बस छः बजने से दस मिनट पूर्व बोली,
'दीदी! मैं घूमने जा रही हूँ।'
दीदी उसके इस घूमने के स्वभाव से परिचित थीं। उन्होंने बस इतना कहा,
'ठीक है, परंतु अँधेरा होने से पहले ही लौट आना।'

मीता जब घर से ऊपर जाती पगडंडी पर चढ़ते हुए बस–स्टैंड पहुँची, तब भुवनचंद्र बस स्टैंड के शेड में खड़ा होकर पगडंडी की ओर ही देख रहा था। रामनगर एवं भिकियासेंण दोनों ओर से आने वाली अंतिम बसें आधा घंटा पहले ही आ चुकीं थीं और हेमंत चायवाला भी अपनी दूकान बंद कर जा चुका था। एक–दो मटरगश्ती करने वाले कुत्तों के अतिरिक्त वहाँ सुनसान था। सूर्य अभी अस्ताचल में नहीं गया था परंतु पहाड़ के काफ़ी नीचे घाटी में पहुँच चुका था। बस स्टेंड के ऊपर बने प्राथमिक चिकित्सा केंद्र के भवन पर अभी भी पीली होती हुई सूर्य की किरणें पड़ रहीं थीं, परंतु नीचे घाटी में सूर्यास्त होने जैसा दृश्य था– भूरे, ललछौंहें शनैः शनैः रंग बदलते बादल के टुकड़े, पर्वतीय ढलान पर खड़े वृक्षों के मध्य बढ़ती हुई कालिमा एवं दिन भर के श्रम से थकित मंद–मंद बहती बयार।

मीता को देखकर भुवनचंद्र के मुख पर सशंक प्रतीक्षा का तनाव विलीन होकर स्मित बिखर गई और वह मंदिर की ओर चल दिया। मीता भी उसके कदम से कदम मिलाकर तेज़ी से चलने लगी। पूरा रास्ता ढलान का था और सड़क पक्की बनी हुई थी, अतः जल्दी–जल्दी चलने में मीता को आनंद आ रहा था। सड़क के दोनों ओर चीड़ के गगनचुंबी वृक्ष सतर खड़े हुए थे। आस–पास कोई घर नहीं था, दूर ढलान पर कोई घर दिख जाने पर भुवनचंद्र बताता था कि वह किस जोशी, पांडे, या रावत का घर है और झोपड़ियाँ दिख जाने पर वह बताता था कि इनमें गाँव के डूम रहते हैं। लगभग आधा किलोमीटर चलने के पश्चात सड़क के बायीं ओर चीड़ का घना वन था और दायीं ओर देवदार का घना वन था। चीड़ के वन के नीचे उसकी काँटे सी लंबी पत्तियाँ छितराई हुई सी पड़ीं थीं, उन पत्तियों के अतिरिक्त घास तक नहीं उगी थी, जब कि देवदार के वन में उसके द्वारा सहअस्तित्व को अंगीकार करने के कारण न केवल अनेक प्रकार की झाड़ियाँ थीं वरन कहीं–कहीं बाँझ, बुरुंश आदि के वृक्ष भी थे। इस अंतर के विषय में मीता की जिज्ञासा को समझकर भुवनचंद्र ने उसे बताया,

'चीड़ का गुण है अपने के अतिरिक्त अन्य सभी वृक्षों की जड़ों में अपने शरीर से निष्कासित विष घोल देना, जबकि देवदार अपनी छत्रछाया में अन्य वृक्षों को पोषित कर प्रसन्न होता है। शायद इसीलिये चीड़ की लकड़ी का उपयोग सस्ती वस्तुएँ भरने के बक्से अथवा कुर्सी मेज बनाने के लिए होता है, जबकि देवदार का उपयोग घर की चौखट बनाने एवं हवन की समिधा हेतु होता है। आपने संभवतः पढ़ा होगा कि एक पर्यावरण–विद ने तो अपनी पुस्तक में यहाँ तक लिख दिया है कि चीड़–वन की प्रचुरता के कारण कुमायूँ का अधिकांश भाग आग के ज्वालामुखी पर बैठा है। आप जानतीं होंगी कि आग लगने पर चीड़ की लकड़ी धू–धू कर जल उठती है।'

मीता भुवनचंद्र की बातों को ध्यान से सुन रही थी कि तभी ढलान पर एक जगह बड़े गुड़हल जैसे आकार के एक वृक्ष में अनेक बड़े–बड़े लाल गुलाब जैसे पुष्प लगे दिखाई दिए। मीता उनकी सुंदरता का भलीभाँति आनंद लेने हेतु खड़ी हो गई तो भुवनचंद्र कहने लगा, 'ये बुरांश के फूल हैं– अत्यंत सुंदर एवं स्वास्थ्यवर्धक। इनका शर्बत बनाया जाता है और बाजार में भी मिलता है।'
आगे बाँये थोड़ी ऊँचाई पर मानिला मंदिर दिखाई दिया। अब भुवनचंद्र चुप हो गया और श्रद्धावनत होकर मीता के आगे–आगे मंदिर की ओर चल दिया। मंदिर के प्रवेश द्वार पर वह रुक गया और मीता के अंदर पुजारी के निकट जाने पर वह द्वार पर हीं खड़ा हो गया। मीता भी समझ गई कि भुवनचंद्र के रुकने का कारण यह मान्यता थी कि देवी के मंदिर में केवल पति–पत्नी ही साथ–साथ खड़े हो सकते हैं। यह ध्यान आने पर मीता के मन में जो अनोखा भाव उभरा, उसको न तो वह तब समझ पाई और न बाद में।

दर्शन के उपरांत वे दोनों शीघ्रता से वापस हो लिए और रास्ते में दोनों ही मौन रहे– केवल बस स्टैंड पर पहुँचने पर भुवनचंद्र ने इतना कहा, 'मेरा घर इस मंदिर के निकट ही नीचे है। आज तो देर हो गई थी, पर कल आप पाँच बजे बस स्टैंड पर आ जाएँ और मेरी कुटिया को पवित्र करें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगीं।'
मीता ने आँखों से हाँ कर दी और अपनी दीदी के घर की ओर जल्दी से चल दी।
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प्रतिदिन योगासनों के मध्य में सिंहासन के उपरांत सब साधकों को जी खोलकर हँसने को कहा जाता था एवं उसके उपरांत कोई साधक एक हँसी का किस्सा कहता था। स्वामी जी भुवनचंद्र की हँसोड़ प्रवृत्ति से परिचित थे अतः अगली प्रातः जब सभी साधक सिंहासन कर चुके थे, और उसकी समाप्ति के पश्चात खुलकर हास्य भी हो चुका था तो स्वामी जी ने भुवनचंद्र से कोई किस्सा सुनाने को कहा, तो उसने सुनाया, 'जब मैं नवयुवक था तब एक विदेशी गोरी युवती अपनी पर्वतीय यात्रा के दौरान मानिला आई थी और दिन भर यहाँ रुकी थी। मैंने देखा कि उसकी गोद में एक छोटा सा कुत्ता था जो थोड़ी–थोड़ी देर में उसका मुँह चाट लेता था और उसके ऐसा करने पर वह उसे दुत्कारने के बजाय स्वयं उसका चुंबन लेकर उसे शांत कर देती थीं। यह दृश्य देखकर पहले तो मुझे बड़ा अजीब–सा लगा था और वितृष्णा भी हुई थी, परंतु आप जानते हैं कि दूसरी प्रातः माँ अनिला के दर्शन करने हेतु यहाँ आने पर मैंने उनसे क्या माँगा था? ...माँ! अगले जन्म में तू मुझे किसी गोरी मेम का कुत्ता बनाना।'
भुवनचंद्र के किस्से पर सभी साधक खूब हँसे थे और मीता तो आगे कराए जाने वाले आसनों के दौरान भी बड़ी कठिनाई से अपनी हँसी रोक पा रही थी। फिर उस दिन के पश्चात आने वाले दिनों में भी स्वामी जी प्रायः भुवनचंद्र से किस्सा सुनाने को कह देते थे और वह कोई न कोई रुचिकर प्रहसन सुना देता था। मीता के मन में वे प्रहसन रच–बस जाते थे और कभी–कभी वह उनमें से कोई प्रहसन अपनी दीदी को भी सुना देती थी।

उस सायं को पाँच बजे ही मीता अपनी दीदी से बोली,
'मुझे कल मानिला तल्ला जाने पर बहुत अच्छा लगा था और मैं आज फिर जा रही हूँ। कल की तरह अधिक देर न होने लगे, अतः अभी से चली जाती हूँ।'
यह कहकर वह पैरों में चप्पल डालकर चल दी थी। आज भुवनचंद्र बस स्टैंड से कुछ आगे चलकर आड़ में सड़क के किनारे पर खड़ा था और मीता उसे देखकर उसकी ओर चल दी। तब भुवनचंद्र आगे मंदिर की दिशा में चल दिया। कुछ दूर चलने पर ही सड़क सुनसान हो गई थी और भुवनचंद्र मानिला के निवासियों के विश्वासों, मान्यताओं, समस्याओं एवं राजनैतिक व्यक्तियों तथा पटवारियों के द्वारा किए जाने वाले शोषण के विषय में अनेक बातें बताने लगा। मीता को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ पुलिस–व्यवस्था नहीं है और वहाँ के पटवारी में राजस्व एवं पुलिस दोनों के अधिकार निहित हैं और वह न केवल जमीन जायदाद के रिकार्ड में हेर फेर करता रहता था वरन किसी के द्वारा चूँ–चपड़ करने पर उसे किसी अपराध मे फँसाकर बंद भी कर देता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत वहाँ के लोगों में शैक्षिक एवं राजनैतिक जागृति अवश्य आई है और वे पटवारी के अत्याचारों का विरोध भी पहले से अधिक करने लगे हैं, परंतु अब पलड़ा उसी का भारी रहता है जिसके पक्ष में राजनैतिक हस्तियाँ खड़ी होतीं हैं।

मंदिर के निकट पहुँचने पर भुवनचंद्र ने दूर से माँ को प्रणाम किया और मीता से उसके घर चलने को कहा। मीता भी वहीं से माँ को प्रणाम कर भुवनचंद्र के साथ चल दी। अब सड़क के बायीं ओर नीचे उतरना था एवं कच्चा पहाड़ी मार्ग था। यद्यपि मीता को उतरने में कुछ कठिनाई हो रही थी परंतु पहाड़ी ग्रामीण मार्ग पर चलने का रोमांच उसे उत्साहित कर रहा था। एक स्थान पर उसकी चप्पल पत्थरों के टुकड़ों पर फिसलने लगी तो भुवनचंद्र ने पीछे मुड़कर उसका हाथ थाम लिया। मीता के मुख पर लज्जा की एक लालिमा क्षण भर को दौड़ गई, परंतु वह शीघ्र ही प्रकृतिस्थ हो गई और भुवनचंद्र ने यह कहते हुए उसका हाथ छोड़ दिया कि आगे मार्ग में फिसलन नहीं है। आगे वन–वृक्षों के बजाय सेब, आडू, अंजीर, नाशपाती आदि के बाग लगे हुए थे जिन्हें प्रथम बार देखकर मीता का मन प्रफुल्लित हो रहा था। कुछ दूर चलने पर उपवन और घना हो गया था और मीता को लगने लगा था कि भुवनचंद्र ने पहले क्यों नहीं बताया कि उसका घर इतनी दूर है। तभी वृक्षों से पूर्णतः छिपा हुआ एकांत में एक छोटा सा घर दिखाई दिया और भुवनचंद्र बोला,
'यही है मेरी कुटिया जो आज आप की चरणरज पाकर धन्य होगी।'

मीता खड़े होकर भुवनचंद्र के घर को निहारने लगी– ढलान पर एक छोटे से समतल किए गए स्थान पर पत्थर व मिट्टी की छोटी–छोटी दीवालों पर खड़ा हुआ एक कमरा, एक बरामदा एवं उसके सामने लिपा पुता चबूतरा जिसमें लगे पौधों में गुलदाउदी जैसे फूल खिल रहे थे। कमरे से सटा हुआ छः फुट से भी कम ऊँचाई का एक शेड जैसा कमरा और था जिसका दरवाजा बाहर से बंद था। मीता को उस शेड की ओर देखते हुए पाकर भुवनचंद्र ने उसका दरवाजा खोल दिया और मीता को अंदर देखने को बुलाया। मीता के अंदर घुसते ही वहाँ बँधी एक छोटे कद की भैंस एकदम चौकन्नी हो गई और उसने उस अँधेरे कमरे में अपने कान खड़ेकर अपनी आँखें ऐसे फैलाईं जैसे भूत देख लिया हो। भुवनचंद्र द्वारा पुचकारे जाने पर ही वह आश्वस्त हुई। अपनी जिज्ञासा शांत करने को मीता ने भुवनचंद्र से पूछा,
'भैंस के कमरे को बंद क्यों रखते हैं?'
'यहाँ जंगली जानवरों का खतरा रहता है। उनके हमले से बचाने के लिए कमरा बंद रखना पड़ता है।'

कमरे से निकलकर मीता चबूतरे के चारों ओर दूर–दूर तक फैले फलों के वृक्षों को अभिभूत होकर देखती रही। वह दृश्य उसके मन में रच–बस रहा था और भुवनचंद्र उसकी इस तन्मयता पर अभिभूत था। फिर भुवनचंद्र मीता को अंदर बरामदे में ले गया और उसमें पड़ी एकमात्र कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया। उससे सटे कमरे का दरवाजा खुला हुआ था और आधे से अधिक कमरा वहाँ से दिखाई पड़ रहा था। मीता ने देखा कि कमरा व बरामदा दोनों लिपे पुते स्वच्छ हैं और कमरे में पड़ी एकमात्र चारपाई पर बिस्तर करीने से समेटा हुआ रखा है। अभी तक मीता सोच रही थी कि कोई शर्मीली स्त्री अंदर होगी परंतु वहाँ किसी को न पाकर मीता ने पूछा,
'इस निर्जन स्थान में क्या तुम अकेले रहते हो?'
भुवनचंद्र ने हृदय मे एक बोझ–सा छिपाते हुए उत्तर दिया,
'हाँ। मैं अपने माता पिता की इकलौती संतान हूँ और वे तभी चल बसे थे जब मैं 11 साल का था। मेरा विवाह हुआ नहीं। मैं बचपन से अकेला ही निर्जन के भूत के समान यहाँ रहता हूँ। गाँव के अन्य घर दूरी पर हैं और यहाँ से दिखाई नहीं देते हैं।'

मीता उसकी ओर एकटक देखते हुए उसकी बात सुन रही थी। यद्यपि उसने कोई उत्तर नहीं दिया तथापि उसके चेहरे से स्पष्ट था कि वह भुवनचंद्र के प्रति संवेदनाग्रस्त हो रही थी। भुवनचंद्र मीता के हृदय में उमड़ने वाली संवेदना को समझ रहा था और वह द्विअर्थी चतुराई के भाव से आगे बोला,
'मेरी कुटिया में अब आप का पदार्पण हो गया है तो मुझे लगता है कि अब मेरा अकेलापन दूर हो जाएगा।'

यह सुनकर मीता सामने दीवाल की ओर देखने लगी, कुछ बोली नहीं। माहौल कुछ भारी होने लगा था अतः भुवनचंद्र फिक्क से हँसकर कहने लगा, 'अरे मैं भी कैसा लापरवाह हूँ– चाय को तो पूछा ही नहीं?' और यह कहकर वह चूल्हे पर चाय का भगौना चढ़ाने लगा। इतना चलकर आने पर मीता को सचमुच प्यास लग रही थी और वह भुवनचंद्र को चाय बनाते हुए देखती रही एवं उसकी सहजता पर मुग्ध होती रही।
भुवनचंद्र ने एक प्याला चाय और एक प्लेट में कुछ दालमोठ मीता के सामने स्टूल पर रख दी एवं एक प्याला चाय अपने हाथ में लेकर खड़े–खड़े ही पीने लगा। चाय स्वादिष्ट बनी थी– बस चीनी कुछ अधिक थी परंतु आज मीता को चाय की वह अतिरिक्त मिठास भी आनंदित कर रही थी। तभी मीता का ध्यान गया कि भुवनचंद्र ने दालमोठ तो ली ही नहीं है और उसने प्लेट उठाकर भुवनचंद्र की ओर बढ़ाई। भुवनचंद्र जब उस प्लेट से दालमोठ उठाने लगा तो उसकी उँगलियों का स्पर्श मीता की उँगलियों से हो गया। अपने को नियंत्रित करते हुए भी मीता के बदन में मछलियाँ–सी तैरने लगीं और मीता को लगा कि भुवनचंद्र की उँगलियाँ आवश्यकता से अधिक पलों के लिए मीता की उँगलियों पर थम गईं हैं। मीता ने तुरंत प्लेट को वापस स्टूल पर रख दिया और जल्दी से चाय पीकर वापस जाने को उठ खड़ी हुई। भुवनचंद्र उसके पीछे–पीछे चुपचाप चल दिया– रास्ते में कोई कुछ नहीं बोला।
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अगले दिन योगासन की अंतिम क्रियाओं– अग्निसार प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम, एवं शांतिपाठ– से पूर्व स्वामी जी ने मीता को अपने निकट बुला लिया एवं उससे इन क्रियाओं को कराने को कहा। मीता ने न केवल प्रत्येक क्रिया को उत्कृष्टता से करके दिखाया वरन स्वामी जी की भाँति स्पष्टतः से प्रत्येक क्रिया का वर्णन अपने कोकिलकंठी स्वर में किया। मीता के इस असाधारण कौशल की स्वामी जी ने प्रशंसा की एवं सभी साधक अत्यंत प्रभावित हुए– भुवनचंद्र तो मन ही मन ऐसे गदगद हो रहा था जैसे उस प्रशंसा का केंद्र बिंदु वही हो। भविष्य में स्वामी जी प्रतिदिन प्रारंभ के आधे आसन स्वयं कराते एवं शेष आधे मीता से करवाने लगे। इससे साधकगण उसे योगिनी कहने लगे।

इस प्रकार मीता की लगभग प्रत्येक प्रातः एवं सायं भुवनचंद्र के साथ बीतने लगी। भुवनचंद्र कभी उसे कोई शिखर दिखाने ले जाता तो कभी कोई घाटी दिखाने। अब दोनों एक दूसरे से काफ़ी खुल गए थे। बातों–बातों में वे प्रायः अपने मन की अंतरंग बाते भी बोल जाते थे। भुवनचंद्र उसके पति एवं बच्चों के विषय में भी बहुत कुछ जान गया था।
जब मीता की वापसी का दिन निकट आने लगा तो भुवनचंद्र का मन उदास रहने लगा, परंतु मीता के हाव–भाव में कोई परिवर्तन भुवनचंद्र को दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अतः उसके मन की थाह लेने को एक सायं गाँव से कुछ दूर घूमते हुए भुवनचंद्र अकस्मात बोला, 'यहाँ आप को पति एवं बच्चों की बहुत याद आती होगी?'
मीता ने संक्षिप्त–सा उत्तर दिया, 'हाँ, कभी–कभी बच्चों की याद आती तो है, परंतु मैं जानती हूँ वे बाबा–दादी के पास मस्त होंगे।'

पति के विषय में मीता ने कुछ नहीं कहा और भुवनचंद्र ने उसे कुरेदा भी नहीं। मीता द्वारा पति के विषय में कुछ न बोलने पर भुवनचंद्र के मन में उस रात देर तक ज्वार भाटा आता रहा।
उसी सायं टहलकर लौटने पर जैसे ही मीता अंदर घर में घुसी, उसकी दीदी ने उसके हाथ में एक टेलीग्राम थमा दिया।
'तुम पहली बस से वापस आ जाओ। मैं ट्रेनिंग से वापस आ गया हूँ। पारो को तेज बुखार है।'
मीता पारो के लिए अत्यंत चिंतित हो गई और दीदी से पूछा,
'कल पहली बस कितने बजे जाएगी?'

दीदी के यह बताने पर कि पहली बस सुबह साढ़े पाँच बजे छूट जाती है, और दूसरी दोपहर बाद जाती है, मीता तुरंत अपना सामान बाँधने लगी। उसे रात भर नींद नहीं आई, परंतु यह ध्यान कर उसे आश्चर्य हो रहा था कि उसके मन में पारो की बीमारी के विषय में जितने चिंताजनक विचार आ रहे थे उससे कहीं अधिक भुवनचंद्र के विषय में आते थे– उसके इस तरह अकस्मात चले जाने पर भुवनचंद्र को पता नहीं कैसा लगेगा? मैं भी भुवनचंद्र को कैसे भूल पाऊँगी?, इस जीवन में उससे अब कभी मिलना हो पाएगा भी या नहीं?, कल मेरे न मिलने पर वह दीदी के पास मेरे बारे में पूछने आ सकता है और पता नहीं दीदी से क्या पूछ दे और वह उसका वह क्या अर्थ लगाएँ?’

प्रातःकाल दीदी ओर जीजाजी दोनों उसे बस स्टैंड पर विदा करने आए। वह दीदी से गले लगकर रो पड़ी, परंतु उसे लगा कि उसके अश्रुओं की अविरलता दीदी से बिछुड़ने के बजाय भुवनचंद्र से बिछुड़ने के कारण अधिक है। बस में खिड़की के बगल की सीट पर बैठकर उसके नेत्र तब तक भुवनचंद्र के आकस्मिक दिखाई पड़ जाने की आशा में भटकते रहे जब तक इस आकस्मिकता की संभावना पूर्णतः समाप्त नहीं हो गईं।

उस दिन प्रातःकाल भुवनचंद्र को जब मानिला मल्ला मंदिर जाते हुए रास्ते में मीता नहीं मिली और मंदिर में भी नहीं मिली, तो उसे लगा कि हो न हो मीता अस्वस्थ है और उसका मन प्राणायाम के दौरान उचटा रहा– उस दिन उसने कोई चुटकुला भी नहीं सुनाया। समाप्ति पर वह जल्दी से मीता के विषय में पता लगाने को लौटा, परंतु फिर संकोचवश मीता की दीदी के घर नहीं जा सका, बस स्टैंड के निकट देर तक खोया–खोया–सा बैठा रहा। सायंकाल प्रतिदिन के निश्चित समय पर वह पुनः बस स्टैंड पर आया, परंतु मीता कहीं न दिखाई दी। तब उसको संदेह हुआ कि कहीं मीता वापस तो नहीं चली गई है। उसने बस स्टैंड के निकट स्थित चाय की दूकान पर जाकर हेमंत चायवाले से पूछा,
'आज सबेरे की बस से कौन–कौन सवारियाँ रामनगर गईं थीं?'

आती जाती सवारियों के कारण ही वह चाय की दूकान चलती थी अतः हर सवारी को आशापूर्ण दृष्टि से देखना चायवाले छोकरे की आदत बन गई थी। वह बोला, 'आज सबेरे तो बस दो ही सवारियाँ गर्इं हैं– एक तो डाक्टर साहब और दूसरी प्रोफेसर साहब की मेहमान।'
बिना बताये मीता के अकस्मात चले जाने की बात जानकर भुवनचंद्र का चेहरा आश्चर्य, क्षोभ एवं अवहेलना की चोट से विवर्ण हो गया, उसका मन हुआ कि वह अविलंब प्रोफेसर साहब के यहाँ जाकर मीता के अचानक वापस चले जाने का कारण पूछे, परंतु साहस जवाब दे गया। वह गुमसुम–सा अपने घर की ओर चल दिया।

उस दिन के पश्चात भुवनचंद्र को किसी ने मानिला में नहीं देखा– तरह–तरह की अफवाहें उड़ीं। जितने मुँह उतनी बातें– बसंत रावत कहता कि सोते समय बाघ उठा ले गया, तो दानसिंह कहता कि वह घरबार खुला छोड़कर मोहमाया त्याग कर निर्जन कंदराओं में तप करने हेतु बर्फ के पर्वतों पर चला गया है, और हेमंत चायवाला मन ही मन सोचता कि मैंने उसे प्रोफेसर साहब के यहाँ आई मेहमान के साथ अनेक बार प्रेम से बतियाते देखा था और वह अवश्य ही उन्हीं से मिलने नीचे चला गया होगा।
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बीस वर्ष बीत चुके हैं– इन बीस वर्षों में मानिला ने अनेक परिवर्तन देखे हैं। अब यह उत्तर प्रदेश के बजाय उत्तरांचल में स्थित है, रामनगर एवं भिकियासेंण जाने वाली सड़कों की दशा सुधर गई है, मानिला बाजार में कुछ नयी दूकानें बन गई हैं, राजकीय इंटर कालिज अब राजकीय परास्नातक महाविद्यालय बन गया है, अब यहाँ के अधिकांश लोग सीधे सच्चे पहाड़ी नहीं रह गए हैं वरन राजनैतिक दाँव–पेंच, विकास योजनाओं में कमीशन खाने के खेल, एवं दबंगई के बल पर चुनाव जीतने की कला में माहिर हो गए हैं। भुवनचंद्र के मकान एवं जमीन पर दबंगों ने पटवारी से मिलकर कब्ज़ा कर लिया है। उसकी भैंस को पटवारी स्वयं खोल ले गया था जो अब मर चुकी है– उसकी पड़िया बड़ी हो गई है और ढेर–सा दूध देकर पटवारी के नाती–पोतों की सेहत बढ़ा रही है। उसके बाग़ों में पहले से कहीं अधिक फल होते हैं परंतु अधपके ही टूटकर नीचे बिकने चले जाते हैं।

मानिला मल्ला मंदिर के स्वामी जी का गत वर्ष देहावसान हों चुका है, चूँकि उन्होंने किसी को अपना शिष्य नहीं बनाया था अतः उनकी मृत्यु के कुछ माह पश्चात तक उनकी गद्दी खाली रही और योगासन का कार्यक्रम भी स्थगित रहा। फिर एक रात्रि एक जटा–जूट धारी वयोवृद्ध परंतु स्वस्थ, बलिष्ठ, एवं प्रभावशाली मुखमंडल वाले साधु मंदिर पर आकर रुक गए। उनके व्यक्तित्व में इतना प्रभाव था कि गाँव वालों ने उनसे अनुरोध कर उन्हें वहीं रोक लिया और नया स्वामी घोषित कर दिया। उन्होंने अपने पूर्वाधिकारी की भाँति योगासन का कार्यक्रम पुनः प्रारंभ कर दिया। फिर गत माह पीत वस्त्रधारी एक सुमुखी योगिनी मंदिर पर आईं और वहीं की होकर रह गईं। तब से यौगिक क्रियाओं का प्रथम भाग स्वामी जी द्वारा एवं द्वितीय भाग योगिनी द्वारा कराया जाता है।
प्रोफेसर साहब और मीता के जीजाजी का स्थानांतरण वर्षों पहले हो चुका है और मानिला में किसी को ज्ञात नहीं कि अब वह कहाँ हैं। मीता की तो किसी को याद भी नहीं है– बस हेमंत चायवाले को छोड़कर। मीता जब मानिला आई थी तब वह किशोरावस्था में था और जब भुवनचंद्र बस स्टैंड के आस–पास रहकर मीता की प्रतीक्षा करता था तब अपनी चाय की दूकान के सामने से भुवनचंद्र को मिलने जाती मीता को वह कनखियों से देखा करता था। उस समय उसे भुवनचंद्र की आतुरता एवं मीता की मधुर मुस्कान देखकर बड़ा रस मिलता था।
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ग्रामवासियों में स्वामी जी एवं योगिनी के प्रति अटूट श्रद्धा है परंतु हेमंत चायवाला उनके विषय में अपने वक्ष में एक रहस्य छुपाए हुए है। जिस दिन कोई्र गाँववाला उसकी दूकान पर चाय की चुस्की लेते हुए स्वामी जी एवं योगिनी के अत्यंत पहुँचे हुए होने के विषय में बहुत बोल जाता है उस दिन उसे अपने रहस्य को छिपाए रखने में बड़ी कठिनाई होती है, और उस रात्रि वह उनके विषय में अपने ज्ञान को मन ही मन दुहराकर अपने मन को शांत करता है।
'गाँव के लोग उन्हें चाहे कुछ भी मानें, पर अकेला मैं जानता हूँ कि स्वामी जी भुवनचंद्र और योगिनी जी प्रोफेसर साहब की साली मीता हैं। जब यह पहली बार मानिला आईं थीं, तब मैने मंदिर में दर्शन करने के पश्चात नीचे आते हुए इनके द्वारा बोले जाने वाला शांति–मंत्र सुना था और वह मेरे कानों में रच–बस गया था। अब की जब यह सन्यासिनी के रूप में आईं तब पुनः प्रातःकाल मंदिर से लौटते समय उस स्वर को सुनते ही मुझे लगा था कि यह तो वही प्रोफेसर साहब की साली का हृदय के अंतरतम तक प्रवेश कर जाने वाला स्वर है। फिर मैंने उसी सायं मंदिर जाकर स्वामी जी एवं योगिनी जी के क्रिया–कलाप को निरखने का प्रयत्न किया था। जब मैं मंदिर की परिक्रमा करते हुए पीछे पहुँचकर घाटी में देख रहा था तो थोड़ी–सी दूरी पर एक वृक्ष की आड़ में स्वामी जी और योगिनी जी एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले अंतरंग वार्तालाप में निमग्न दिखाई्र दिए थे। उस समय मंदिर में मैं अकेला दर्शनार्थी था अतः एक खंभे के पीछे खड़े होकर मैं उनकी बातें सुनने लगा था। स्वामी जी योगिनी जी की आँखों में झाँकते हुए बोले थे– 'इतने वर्ष कैसे बिताए मीता?'

पुरानी यादों में खोई्र हुई सी मीता ने उत्तर दिया था– 'एक मशीन की तरह। यहाँ से वापस जाने पर पहले पारो के ज्वर ने दिन रात व्यस्त रखा। पारो का ज्वर मेरे वापस पहुँचने के पश्चात कई दिन तक चला था। बाबा–दादी के पास गाँव में एक विवाह समारोह में खाना खा लेने से उसे टायफायड हो गया था। बुखार ठीक होने से पूर्व ही स्कूल की छुट्टियाँ समाप्त हो चुकीं थीं, अतः उसके ठीक होने पर अनुज सहित दोनों बेटियों के पालने पोसने से लेकर बेटियों का होम–वर्क कराने और उन्हें सुयोग्य बनाने का सारा उत्तरदायित्व मेरे कंधे पर था। बेटियाँ बढ़ने लगीं तो उनके विवाह की चिंता और विवाह तय होने पर उसका समस्त प्रबंध भी मेरे हिस्से में ही रहा। पहले सुधा विवाह के पश्चात अपने पति के साथ आस्ट्रेलिया जाकर वहीं की हो गई और फिर पारो अपने पति के साथ जर्मनी जाकर वहाँ की हो गई। पारो के विवाह के उपरांत जब व्यस्तता कम हुई तो एक प्रकार का खालीपन मेरे जीवन में भरने लगा। तभी एक दिन अनुज बोले कि उनकी कंपनी उन्हें तीन वर्ष के लिए अमेरिका भेज रही है, दस दिन में जाना है। वह वहाँ जाकर मकान आदि का प्रबंध कर मुझे बुला लेंगे। वह शीघ्रता से अपना बचा हुआ काम पूरा करने में और व्यस्त हो गए। फिर जल्दी–जल्दी चले गए।

तब मुझे लगने लगा कि मैं संपूर्ण संसार में अकेली हूँ। उन दिनों तुम्हारे साथ बिताए मधुर क्षणों की याद प्रायः आने लगी, परंतु मुझे तो यह भी ज्ञात नहीं था कि अब तुम कहाँ हो। अमेरिका जाने के पश्चात प्रारंभिक महीनों में अनुज मुझे फ़ोन करके कहते रहे कि अभी उपयुक्त मकान नहीं मिल पाया है। फिर उनके फ़ोन आने कम होने लगे। नौ–दस माह के उपरांत फ़ोन आना बिल्कुल बंद हो गया और मेरे द्वारा फ़ोन मिलाने पर ज्ञात हुआ कि वह नंबर कटवा दिया गया है। फिर उड़ती हुई खबर मिली कि उन्होंने कंपनी बदल ली है और एक गोरी मेम के साथ उसके फ्लैट में रहने लगे हैं। मेरे लिए यह समाचार एक ऐसे झंझावात के समान था जो वृक्ष की शाखा को उससे तोड़कर अलग फेंक देता है। मुझे अपना घर काटने को दौड़ता हुआ लगने लगा। मेरे मुहल्ले में मेरी एक पड़ोसन रहतीं थीं जो प्रायः हरिद्वार जाकर शांति–कुंज में रहती थीं और लौटकर वहाँ की व्यवस्था की प्रशंसा करतीं थीं। अतः मुझे अभी तक के अपने समस्त बंधन त्यागकर संन्यासिनी बनकर हरिद्वार में शांति–कुंज में शेष जीवन बिताने का विचार आया और एक दिन मुँह अँधेरे मैंने संन्यासिनी का वेष धारणकर रेलवे स्टेशन की राह पकड़ ली। परंतु क्या संन्यासिनी भी समस्त माया मोह से मुक्त हो पाती है? जब टिकट खरीदने पंक्ति में खड़ी हुई्र तो पता नहीं कैसे तुम्हारा ध्यान आ गया और टिकट–विंडो पर अप्रयास ही मुँह से 'हरिद्वार' के बजाय 'रामनगर' निकल गया। आगे क्या बताऊँ– यह कहना कठिन है कि यहाँ हम दोनों में किसने दूसरे को पहले पहचान लिया था। उसके पश्चात तो आगे मेरे जीवन का एक–एक पल तुम्हारा अपना रहा है।'

यह कहकर योगिनी मीता स्वामी जी की आँखों में झाँकते हुए मुस्करा दी थीं। फिर स्वामी जी से प्रश्न किया था– 'आपने कैसे बिताए ये बीस वर्ष?'
स्वामी जी बोले थे– 'तुम्हारे बिना बताए चले जाने पर मैं विछोह, अवसाद, अवहेलना एवं अपमान के ऐसे सागर में डूब गया था कि यहाँ रहकर विक्षिप्त हो जाने अथवा आत्महत्या कर लेने के अतिरिक्त मेरी कोई अन्य गति हो ही नहीं सकती थी। अतः जिस दिन तुम गईं थीं, उसी रात्रि में मैंने किसी को कुछ बताए बिना वीतराग संन्यासी की भाँति घर छोड़ दिया था और केदारनाथ की ओर चल दिया था।

रास्ते में मुझे नागा साधुओं का एक समूह मिला जिनका साथ पकड़कर मैं केदारनाथ पहुँच गया था। मैं उन साधुओं की जमात में न तो अपने को रमा पा रहा था और न तुम्हारी याद को जड़ से निकाल फेंकने में सफल हो रहा था, अतः वापसी में कुछ दूर तक ही उनके साथ वापस लौटा था और गुप्तकाशी के निकट पहाड़ की एक कंदरा में कुटिया बनाकर रहने लगा था। मै वहाँ पर अपने को इतना व्यस्त रखने का प्रयत्न करता था कि तुम्हें अथवा तुम्हारे निर्मम बिछोह को याद करने का न तो समय मिले और न सामर्थ्य बचे। प्रातः–सायं लंबी योगसाधना करने के अतिरिक्त मैं दिन में केदारनाथ जाने वाले मार्ग पर आ जाता था एवं बूढे, अपाहिज एवं असहाय दर्शनार्थियों को सहारा देकर ऊपर से नीचे एवं नीचे से ऊपर ले जाता था। मैंने अपना खाना पीना मुख्यतः कंद, मूल, फल तक ही सीमित कर दिया था।

केदारनाथ–यात्रा का मौसम समाप्त होने पर मै ऊपर–ऊपर ही गंगोत्री, गोमुख, यमनोत्री, बद्रीनाथ, माणा, हेमकुंड आदि की ओर निकल जाता था। मैं वह प्रत्येक कष्ट ओढ़ना चाहता था, जो तुम्हारी स्मृति को मेरे मस्तिष्क से दूर रखे। परंतु क्या मैं सचमुच तुम्हें कभी भूल सका? कदाचित नहीं – तब भी नहीं जब बद्रीनाथ के ऊपर स्थित माणा गाँव में मैं भूख से त्रस्त होकर निमोनियाग्रस्त हो गया था और मुझे अपना अंत निकट लगने लगा था। सत्य तो यह है कि तब मुझे तुम्हारी इतनी अधिक याद आई थी कि मेरे अश्रु रुकने का नाम नहीं ले रहे थे– मेरे मन में बस एक विचार अंतिम इच्छा के रूप में आ रहा था कि इस संसार से विदा होने के पूर्व कम से कम एक बार तुम मेरे सामने आ जातीं और मैं तुम्हारे समक्ष अपना हृदय उँड़ेल कर रख सकता। और जब मैं निमोनिया से बच गया तब मुझे विश्वास हो गया कि मैं कहीं भी जाऊँ, तुम्हारी यादों से दूर नहीं जा सकता हूँ।
तब मैंने सोचा कि जब यादो से छुटकारा असंभव है तो क्यों न मानिला वापस चलकर तुम्हारा पता लगाया जाए? मेरे द्वारा पूछताछ से किसी को मेरे तुम्हारे संबंधों के विषय में कोई संदेह न हो, इस उद्देश्य से मैं साधु के वेष में ही मानिला आया। यहाँ आकर ज्ञात हुआ कि तुम्हारे जीजा जी कई वर्ष पहले ही कहीं स्थानांतरण पर चले गए हैं। रात्रि विश्राम हेतु मैं मंदिर पर चला आया। यहाँ ज्ञात हुआ कि स्वामी जी तो पहले ही गोलोकवासी हो चुके थे। दूसरी प्रातः यहाँ के गाँव वालों ने मुझे मंदिर पर सर्दी में कुड़कुड़ाते देखा और मुझमें न जाने क्या असाधारण शक्ति समझकर हाथोंहाथ ले लिया और मंदिर के स्वामी के रूप में प्रतिष्ठापित कर दिया।'
यह कहकर स्वामी जी चुप हो गए थे।

मैंने विस्फारित नेत्रों से यह प्रेमालाप देखा सुना था और जब मुझे लगा था कि भुवनचंद्र एवं मीता उठने वाले हैं तो मैं जल्दी से परिक्रमा पूर्ण करने हेतु आगे चल दिया था।'

यह दृश्य यादकर हेमंत को एक अनोखे गर्व का अनुभव होता है कि मानिला में ही नहीं संपूर्ण संसार में केवल वह ऐसा व्यक्ति है जो मानिला के स्वामी जी एवं योगिनी जी का रहस्य जानता है। उसने निश्चय किया है कि वह इस रहस्य को किसी को बताकर अपने गर्व को कभी कम नहीं होने देगा एवं उसके नेत्रों के समक्ष फले फूले भुवनचंद्र एवं मीता के प्रेम को दुनिया वालों की कलुषित निगाह से सदैव बचाके रखेगा।

२४ नवंबर २००६

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