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कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
वीणा विज उदित की कहानी- मोहभंग


धूप की हल्की तपिश जिस्म को सेंक देने लगी तो नीता की आँख लग गई। सबसे छोटे बेटे प्रवेश की शादी के बाद गिन्नी ने घर की ज़िम्मेवारी ठीक से ले ली थी। बड़ी बहू अमेरिका की थी, उसे भारत आने का कोई शौक नहीं था। हाँ, मँझली यहीं की थी, लेकिन आशीष के कुछ दोस्त ऑस्ट्रेलिया चले गए तो उसने भी वहीं जाने की ज़िद ठान ली। अच्छी खासी प्रैक्टिस छोड़कर वे भी वहीं बसने चले गए थे।

पापा का साथ दिया, सबसे छोटे बेटे प्रवेश ने। अंत में गिन्नी जैसी बहू पाकर नीता संतुष्ट थी। अचानक नींद में ही ऐसी खाँसी मचली कि नीता को एमरजैंसी में दाखिल कराना पड़ा। दमा बिगड़ने पर जानलेवा बन जाता है। कुछ ऐसे ही हालात बन गए थे।

रघु और नीता की जोड़ी 'लव बर्डस' के नाम से जानी जाती थी। उनकी आपसी समझ व प्रेम की मिसाल दी जाती थी जानने वालों में। आज रघु की नीता उसके समक्ष बेसुध पड़ी थी। उसकी ओर देख–देख कर रघु का दिल डूब रहा था। पिछले पैंतीस वर्षों से दोनों का दिन–रात का साथ था। जीवन के ढेरों उतार–चढ़ाव दोनों ने साथ–साथ देखे थे। फिर आज ...आज रघु क्या करे ...विरह–पीड़ा सहने के विचार मात्र से रघु के मन में एक अंजाना भय घर कर रहा था। नीता का विछोह उसके लिए अत्यंत पीड़ादायी है। इसकी कल्पना से ही उसका सारा शरीर सिहर उठा।

क्या नीता का साथ किसी भी क्षण समाप्त हो जाएगा ...रघु को चारों ओर से काले–काले साये अपने पर हावी होते दिखने लगे। अपने निराशावादी दृष्टिकोण से घबराकर उसने नीता के पास और पास हो उसका हाथ कस कर पकड़ लिया। यदि सावित्री अपने सत्यवान को मौत के मुँह से वापस ला सकती थी तो क्या ...क्या वो नहीं ... वह बैठा अपलक नीता को निहारता रहा। उसके भीतर के सन्नाटों से रघु को अपने लिए एक पुकार सुनाई दे रही थी जिसे वह अंतहीन दूरी से सुन सकता था। नीता की बंद आँखों में पलकों के नीचे पीड़ा ने डेरा डाल लिया था। जब वह बीच–बीच में कराहती तो रघु का सांत्वना व प्यार भरा स्पर्श उसे अपने अंग–संग होने का एहसास दिलाता। वह उसे जताता कि वह उसकी पीड़ा भी उसके साथ जी रहा है। नीता बीच–बीच में अपने बोझिल पलकों के किवाड़ खोलती तो उनमें छिपे निर्मल जल के कुछ मोती उसकी आँखों की कोर से बाहर ढुलक पड़ते और वह ऐसे मुस्करा पड़ती जैसे बारिश के बाद खिली हरी दूब, कुछ नयी दवाइयाँ दी गईं पर साँस ठीक नहीं चलती थी।

दिन–रात के लिए ऑक्सीजन लग गई थी। ग्लूकोज भी चढ़ाया जा रहा था। अपना काम–काज, खाना–पीना, सैर सभी कुछ भूलकर रघु नीता के सिरहाने बैठ गया। नीता की हालत में कोई सुधार नजर नहीं आ रहा था। प्रेम व सेवा से गिन्नी ने सास का मन जीत लिया था। दोनों में बहुत प्यार था। सो वह और प्रवेश भी दुखी थे। माँ को देखकर बार–बार उनकी आँखें भर आती थीं। प्रवेश ने अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया दोनों भाइयों को फ़ोन करके माँ के विषय में बताया। विनीष व आशीष सुनते ही माँ के प्यार में तड़प उठे। उन्होंने प्रवेश को सांत्वना दी कि धीरज रखे, माँ ठीक हो जाएगी। फ़ोन पर सभी रो रहे थे। वे उसी दिन वहाँ से चल पड़े। माँ का प्यार तो सबकी नाड़ी की डोर से सीधा जुड़ा था।

पापा को बताया कि सब आ रहे हैं। रघु ने सोचा कि सारे बच्चे क्या आख़िरी बार माँ से मिलेंगे। क्या फिर कभी उन्हें उनकी माँ नहीं मिलेगी। उससे अपने बच्चों के दुख की कल्पना भी असह्य थी। दुखातिरेक के कारण बिन माँ के बच्चों के दुख का वह सोच ही नहीं पा रहा था। बेटी अनन्या परिवार सहित उसी दिन पहुँच गई थी। उसके आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। वह हर वक्त पापा के साथ–साथ थी। देखने आए कुछ बुजुर्गों ने सलाह दी तो गंगाजल मँगा लिया गया। एक–एक बूँद नीता के मुँह में अनन्या डालती रही। अमृतवाणी के पाठ की कैसेट लगा दी गई। अस्पताल देखने आने वालों का ताँता बंध गया। दुख की रातें बड़ी लंबी मीलों का सफर तय करती लगती हैं। काटे नहीं कटती हैं। . .. ..सो आँखों में सबकी रात कटी। चारों ओर भयानक मौत सा सन्नाटा फैला हुआ था। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। अगले दिन रात को अमेरिका से विनीश व रूहेला दोनो बच्चों के साथ पहुँचे। विनीश माँ के पैरों से लिपटकर फूट–फूट कर रोया। सभी रो रहे थे। कहीं भी आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही थी।

आधी रात को आशीष व शुचि भी बेटे के साथ आ पहुँचे। माँ की हालत देखकर आशीष माँ के मुँह से मुँह जोड़कर रोने व माँ को प्यार करने लगा। बच्चों ने माँ को सदैव सुंदर व स्मार्ट बने ही देखा था। माँ की बेबसी व लाचारी किसी के गले नहीं उतर रही थी। डॉक्टर्स ने तो कह ही दिया था कि जिन्हें आप बुलाना चाहते हैं, बुला लें ...बचने की उम्मीद नहीं है। सो प्रवेश ने रोते हुए सब रिश्तेदारों व अपनों को फ़ोन कर दिए थे। वे सब भी पहुँच रहे थे। गिन्नी ने ड्रॉइंगरूम का फर्नीचर उठवा दिया – दरिया बिछवा दीं। सबके बच्चे इकट्ठे होकर धमा–चौकड़ी मचा रहे थे। गिन्नी सबको सँभाल रही थी। प्रवेश व उसके कुछ दोस्तों ने खाने का व बिस्तरों का इंतजाम अपने ज़िम्मे लिया। आखिरकार इतने लोगों को सँभालना भी तो था। पापा, अनन्या व दोनों भाई भी वहीं थे। तीसरी रात आ चली थी, नीता को होश नहीं आया था। और डॉक्टर्स सलाह मशवरा करने पहुँच गए थे। बोले कि बौडी रिसपौंड नहीं कर रही है। ईश्वर का जाप चल रहा था। लोगों की भीड़ बढ़ रही थी। किसी ने काले तिल को हाथ लगवाकर दान करवाया तो किसी ने काली साबुत दाल जिससे प्राण आसानी से निकल जाएँ। पर हाय री हमारी सामाजिक एवम दकियानूसी परंपराएँ अभी प्राण जाने का समय नहीं आया था तो कैसे ...

कमरे के बाहर बहुत भीड़ थी। जितना–जितना संबंध उतना ही दुख उतना ही दिखावा। ज्ञात हुआ कि रघु अपनी बीमार पत्नी के पास से उठे ही नहीं सिवाय शौच के। सो एकमत हो सब बोले कि तभी नीता के प्राण अटके पड़े हैं। अब रघु से यह कौन कहे कि कहो 'जा नीता, मैंने अपने मोह से तुझे आजाद किया'। अजीब हालात हैं कि मातमपुरसी के लिए सब तैयार खड़े हैं परंतु मातम नहीं हो रहा। जिस मौत से सब भय खाते हैं ...उसी का बेहद बेचैनी से हर पल इंतजार हो रहा है। क्या पता किस पल ...। दिखावे के लिए हर कोई वहीं ठहरना चाहता था। वहीं कुछ कमरे भी ले लिए गए। कोई वहीं सोया कोई घर गया। हालत न सुधरने पर स्पैशलिस्ट की टीम आई। उन्होंने बताया कि एक नयी दवाई आई है यदि आप लिखकर दें तो आजमाया जा सकता है। रघु ने एक पल की देर किए बिना आशा की इस किरण को अपने भाग्य का एक इशारा समझा औैर हामी भर दी। उसे लगा आकाश से देवगण उसकी पुकार सुनकर एकत्र होकर अमृत लेकर आए हैं। आगे जैसी हरि इच्छा। दवाई मँगवाकर दी गई। सब को घर जाकर इत्मीनान से सोने को कह दिया गया। रघु व अनन्या वहीं ठहरे।

बच्चे हालात से बेखबर घर में मस्ती कर रहे थे। जमीन पर बिछे गद्दों की उठा पटक में लगे थे। अपने ममी पापा को आया देखकर सबने बाहर खाना खाने की फरमाइश की। दौड़ पड़ी कारें फास्ट फूड के लिए। खाने के बाद सहज भाव से आशीष बिल चुकाने लगा तो उसकी पत्नी शुचि ने कोहनी मार के उसे मना कर दिया। उसी क्षण प्रवेश ने बिल चुकाया। उसने मँझली भाभी को इशारा करते देख लिया था। शुचि की यह हरकत उसके अंतस को जख्मी कर गई। खैर ...बात को

तूल देने का यह उचित समय नहीं था इसलिए वह चुप रहा। विनीश की पत्नी रूहेमा ने पति से कहा कि फलों के एक दो टोकरे मँगवा लो इकट्ठे. बच्चे कभी भी खाने को माँगते हैं। सुनते ही शुचि बोली, "चुप बैठी रहो भाभी। प्रवेश और गिन्नी से कहो क्या लाना है। पिताजी कमाते हैं अभी उनकी कमाई पर सब बच्चों का हक है। यहाँ इंडिया आकर घर में भी हम क्यों पैसे खर्च करें।" रूहेमा यह सुनकर चुप बैठ गई। नौकर रामू पानी देने आ रहा था। उसने यह सारी बात सुनी। रसोई में वापस जाकर वो धम्म से जमीन पर बैठकर रो पड़ा कि माँजी अस्पताल में मौत से जूझ रही हैं। इतना ढेर सारा पैसा खर्च हो रहा है। ये औलादें ...छिः ...छिः मदद करने की अपेक्षा क्यों आए हैं ये सब मात्र औपचारिकता निभाने ...या फिर अपने–अपने हिस्से का खर्चा करवाने। इससे अधिक वह सोच नहीं सका। उसके कानों में बहूजी की कर्कश आवाज सुनाई दी, "रामू बच्चों के लिए मिल्क शेक बना लाओ।"

तभी टन–टन–टन फ़ोन की घंटी बजी। अनन्या थी फ़ोन पर, ज़ोर–ज़ोर से रोए जा रही थी। गिन्नी ने फ़ोन उठाया। वो भी रोने लगी। उसी पैर सब अस्पताल के लिए भागे। वहाँ पंडितजी 'गीता' के आठवें अध्याय का पाठ कर रहे थे। रघु ने नीता का हाथ कसकर मुट्ठी में थामा हुआ था। बाकी सब जोर–जोर से हिचकियाँ लेकर रो रहे थे। मानो मृत शरीर को अभी नीचे उतार देंगे, यदि रघु हाथ छोड़ेंगे तो। अचानक विनीश ने देखा कि माँ के पैर का अँगूठा हिला। झट वह माँ के कान के पास जाकर बोला, 'मामा ...मामा ...आँखें खोलो। देखो हम सब आए हैं। वह कभी माँ का माथा चूमता, कभी कंधे हिलाता। जार–जार रो रहा था वह दीवाना सा और सब क्या देखते हैं कि माँ की आँखों से आँसू बह निकले। विनीश ने माँ के आँसू भरे तपते गालों को जो कि ऐसे ग़र्म हो गए थे जैसे बारिश के बाद हरी पत्तियाँ हो जाती हैं ...प्यार से पोंछा। हर्षातिरेक से सब ज़ोर–ज़ोर से ईश्वर का धन्यवाद करने लगे। रघु व बच्चों के चेहरे खुशी से चमक उठे। माँ में प्राण संचार हो रहे हैं, देखकर प्रवेश डॉक्टर के पास भागा। लेकिन फिर वही हालत ...।

बाहर बैठे रिश्तेदार फिर काना–फूसी करने लगे 'रघु नीता को छोड़ नहीं रहा तभी प्राण जा–जा कर वापस आ रहे हैं। इसका मोह–भंग होना आवश्यक है। इसने उसे प्रेमपाश में बाँधा हुआ है। भई इस कलयुग में कहीं सावित्री की तरह सत्यवान को मौत के मुँह से वापस लाया जा सकता है।' प्रत्यक्ष जाकर रघु से कहने की हिम्मत कोई नहीं कर सका। विधि के विधान में भला कौन हस्तक्षेप कर सकता है। बड़ी बेसब्री से सब होनी का तमाशा देख रहे थे। उधर बच्चों ने देखा कि पापा की आँखों से अविरल अश्रुधाराएँ बह रही हैं। वे एकटक माँ को देखे जा रहे थे। पास खड़ी दोनों बुआ भी पापा की हालत पर बिलख–बिलख कर रो रही थीं। चौथा दिन हो गया था, रघु को अपनी सुधि नहीं थी। न जाने आँखों ने आँखों को क्या मूक संदेश दिया कि मृतप्राय नीता की पलकों में स्पंदन हुआ जिसे रघु व अनन्या ने एकसाथ नोटिस किया। आश्चर्य व हर्ष से दोनों ने एक दूसरे को पकड़ लिया। हजारों उम्मीदों के चिराग उनके भीतर जगमगा उठे।

डॉक्टर्स की टीम आ गई। वे आशान्वित हो उठे। फटाफट इंजैक्शन्स दिए। इधर सभी नीता को देखने दौड़े। नीता ने आँखें खोलकर अपने चारों ओर देखा। यह देख डॉक्टर्स खुशी से बोले कि इनका शरीर मृत था, नयी दवाई ने असर तो दिखाया ही है लेकिन आप सब के प्रेम, प्रार्थना व सेवा ने इन्हें पुनः जीवन दिया है। यह तो करिश्मा हो गया है। अभी इन्हें कुछ दिन और अस्पताल में रखना पड़ेगा। वैसे अब ये खतरे से बाहर हैं। सब का मुँह मीठा कराया गया। घर में फर्नीचर पुनः सजा दिया गया। खुशी की रोशनी जगमगा उठी। रिश्तेदार भी वापस जाने लगे थे। मानो किसी काम को अंजाम तक पहुँचाने आए थे परंतु नाकामयाब होकर मायूस लौट रहे थे। रामू सुन रहा था, "हम यों ही ये ढेर सारे कपड़े लाए। अगली बार पता नहीं आना हो पाएगा भी कि नहीं।"

पापा और बच्चे सब के चेहरे चमक उठे थे। परदेसी बेटों के जाने का समय आ गया था।रघु को इंतजार था कि दोनों बेटे उसे पैसे पकड़ाएँगे। आखिर डॉलरों में कमाते हैं। फिर ऐसे मौकों पर ही तो बेटों का फर्ज़ होता है मदद करना। उनके जाने की घड़ी आ गई। आँखों में आँसू भरकर सबने माँ से प्यार किया। साथ ही कहा कि अपना ध्यान रखना। अब जल्दी आना नहीं होगा। दूर का मामला है। माँ अभी बात नहीं कर पाती थी सो रोते हुए सबको गले लगाया व पोते–पोतियों को छाती से चिपका लिया। रघु ने तो मानो विदाई की रस्म निभाई। अब जाकर उसका मोहभंग वास्तव में हो गया था। नीता की बीमारी ने उसको सांसारिक नातों से पहचान करवा दी थी। ज्यों–ज्यों समय बीत रहा था, रघु की वितृष्णा बढ़ती जा रही थी। लेकिन ...उसका लक्ष्य, उसका प्यार, उसका जीवन साथी अब उसके साथ था।

 

२४ फरवरी २००६

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