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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
आशुतोष कुमार झा की कहानी— 'अविजित'


जून का महीना। तपती दोपहर। गर्मी का यह आलम था कि सड़क का अलकतरा पिघल गया था। पैदल चलने वाले लोग पूर्णिया शहर को बीचों-बीच बाँटने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग से उतर कर किनारे-किनारे चल रहे थे ताकि उनके पैर पिघले अलकतरे पर न पड़ें। सड़क पर गुड़कते रिक्शा एवं साइकिल के पहिए पिघले सड़क से चिपक रहे थे। तेज़ी से गुज़रते ट्रक एवं बस जैसे बड़े वाहन अजीब-सी गंभीर आवाज़ कर रहे थे। चार पहिये वाली छोटी तथा बड़ी सवारियों के अलावा इक्के-दुक्के रिक्शे, ऑटो-रिक्शे तथा धूप में झुलसते साइकिल सवार नज़र आ जाते थे। सिवाय उनके मानो पूरा शहर वीरान पड़ा था। चूँकि लाइन बाज़ार में जिला अस्पताल स्थित है तथा यहाँ पूर्वोत्तर बिहार के अधिकांश नामी-गिरामी डॉक्टरों के क्लीनिक भी हैं यहाँ बड़ी संख्या में मरीज़ एवं उनकी तीमारदारी करनेवालों का तांता लगा ही रहता है। इस तेज़ गर्मी एवं चिलचिलाती धूप से बचने के लिए ये लोग सड़क के किनारे, पेड़ों के नीचे या फिर जहाँ-तहाँ दुकानों एवं क्लीनिकों के बरामदों पर गमछा बिछा कर बैठे या पसरे हुए थे अथवा खड़े-खड़े ही बतिया रहे थे। यानी इन स्थानों पर सुबह या शाम में होने वाली गहमागहमी नदारत थी।

मैं अपने घर से निकला तथा क़रीब सौ गज की दूरी से गुज़रने वाले राजमार्ग पर जा पहुँचा। वहाँ कोने पर गगनदेव की दुकान पर पान की दो खिल्ली लगाने को कहा- एक खाने के लिए तथा दूसरा सखुए के पत्ते में लपेट कर दे देने के लिए।

पान की खिल्ली साथ में लपेट कर रखने की मेरी आदत तीस साल पुरानी है। वैसे मैं पान खाता पिछले बयालीस साल से हूँ किंतु नौकरी लगने के बाद पान लगवा कर रखने की आदत पड़ गई है क्यों कि ज़्यादातर लोग या तो पान घर में रखते ही नहीं और यदि रखते भी हैं तो उनका स्वाद शायद ही मेरी पसंद के लायक होता है। और मेज़बान यदि दुकान से मँगाकर ज़ोर देकर खिला भी दे तो ज़्यादातर उससे मुझे संतुष्टि नहीं मिलती। ऊपर से मेरी नौकरी भी ऐसी है कि मुझे अक्सर ही नए-नए स्थानों की यात्रा करनी पड़ती है, अनजाने लोगों के संपर्क में आना पड़ता है। ऐसे में मेरे स्वाद के अनुकूल पान हर जगह, हर बार मिल जाए उसकी गारंटी नहीं होती। अतः घर से या किसी परिचित पान वाले की दुकान से पान की खिल्लियाँ बनवाकर रख लेना मेरी आदत बन चुकी है। साथ में रखने के लिए एक ही पान लगवाया क्यों कि घर से बाहर ज़्यादा देर रुकने का मेरा इरादा नहीं था।

उधर गगनदेव जब पान लगा रहा था मैं बायीं और दायीं ओर राजमार्ग को देख लेता। बीच में पश्चिमोत्तर कोने से आने वाली तीसरी सड़क की तरफ़ भी देखने लगता। असल में मैं चाहता था कि कोई खाली रिक्शा वहाँ भूले-भटके आ जाए जिस पर सवार होकर मैं उत्तर-पश्चिम दिशा में पूर्णिया कोर्ट स्टेशन के पास स्थित अपने ममेरे भाई के आवास पर पहुँच सकूँ। असल में उसी दिन सुबह मेरे मामा गाँव से अपने बेटे के यहाँ आए थे। चूँकि उनका मुझसे गहरा लगाव है, आते ही उन्होंने मन्नू से मुझे टेलीफ़ोन कराया कि मैं उनसे तुरंत आकर मिलूँ। संयोगवश उस वक्त मेरे मकान के दूसरे तल्ले पर निर्माण कार्य चल रहा था। ऐसे में राजमिस्त्री एवं मजदूरों को छोड़कर बाहर निकलना मुझे उचित नहीं लगा। क्यों कि मेरी ज़रा-सी अनुपस्थिति में भी मजदूर वगैरह खामख़्वाह काम से देह चुराने लगते थे- कभी खैनी खाने के बहाने तो कभी पानी पीने के बहाने। इतना ही नहीं, पेशाब करने की उनकी आवृत्ति भी कुछ ज़्यादा ही बढ़ जाती थी। उधर दिन के भोजन से पहले मेरी पत्नी रसोई कार्य से रुख़सत नहीं हो पाती। अतः हमने फैसला किया कि जब वे दिन के भोजन के बाद रसोई कार्य से निश्चिंत हो जाएँगी तो मिस्त्री मजदूरों पर नज़र रखेंगी और मैं चंद घंटों के लिए मामा से मिल आऊँगा।

गगनदेव ने पान की एक खिल्ली उठाकर मुझे खाने के लिए दे दी तथा दूसरी खिल्ली सखुए के पत्ते में लपेट कर हाथ में थमा दिया। इसके बाद जर्दा की काली पत्ती, पीली पत्ती तथा कटी सुपारी जर्दे के डिब्बे के ढक्कन पर रखकर आधा मेरी हथेली पर उसने उड़ेल दिया तथा आधा एक काग़ज़ की पुड़िया में लपेट कर दे दिया, साथ में रखने के लिए पान। पान वाले को मैंने पैसे दिए और आगे बढ़कर पेड़ की छाँव में खड़ा होकर रिक्शे का इंतज़ार करने लगा। इस प्रकार क़रीब बीस मिनटों तक मैं खड़ा रहा किंतु निराशा ही हाथ लगी। लाइन बाज़ार मोहल्ले में चूँकि दिन में तथा रात में भी मरीज़ों का तांता लगा रहता है रिक्शा किसी भी समय उपलब्ध हो जाता है। किंतु इस झुलसती दोपहर में शायद ही कोई रिक्शा गुज़रता था। और जो गुज़रता भी था वह सवारियों से भरा होता। थक-हारकर मैं अपने गंतव्य स्थान के विपरीत पूर्व दिशा में लाइन बाज़ार चौक की ओर बढ़ने लगा। गगनदेव की पान की दुकान से लगभग तीन सौ गज पर सदर अस्पताल स्थित है। क़रीब पहुँचने पर मैंने देखा कि अस्पताल के गेट के ठीक सामने की दुकान की ओट में दो खाली रिक्शे खड़े हैं। उम्मीद बँधी कि चार-पाँच किलोमीटर धूप में पैदल चलने से अब शायद बच जाऊँगा। किंतु जब मैं पास पहुँचा तो पाया कि दोनों ही रिक्शा के चालक गायब थे। दो-चार बार घंटियाँ बजाई किंतु कोई जवाब नहीं मिला। मन बिल्कुल खिन्न हो गया। मैं चारों ओर सिर घुमा-घुमाकर रिक्शेवालों को खोजने लगा। क़रीब पाँच मिनट बाद उषा मेडिकल हॉल के बगल वाले चाय के ढाबे से आवाज़ आई।
''क्या बात है?'' वह दोनों में से कोई एक रिक्शे का चालक था। वह चाय पी रहा था।
''तुम्हारा रिक्शा है?'' प्रश्न का जवाब मैंने प्रश्न से दिया।
''कहाँ जाना है?'' प्रश्न का जवाब फिर प्रश्न ही था।
''कोशी कॉलोनी, रेलवे स्टेशन से थोड़ा पहले,'' मैंने जवाब दिया।
''दस रुपए,'' वह बोला।
''छः दूँगा। चलोगे?'' मैंने ज़ोर देकर कहा।
किंतु वह नौ रुपए से कम पर जाने को तैयार नहीं हो रहा था। अभी हमारे बीच पैसों को लेकर बकझक चल रही थी कि दूसरे रिक्शे का चालक वहाँ आ पहुँचा।
बोला- ''कहाँ जाएँगे बाबू?''
छोटा कद। दुबला-पतला शरीर। बड़े-बड़े सफ़ेद बाल। लंबी पका दाढ़ी। हरे रंग की ढीली-ढाली पतलून। पैर में काले रंग का चमड़े का नुकीला जूता जिस पर जगह-जगह चिप्पियाँ लगी थीं। चूँकि पतलून लंबाई में कम थी अतः भीतर से भूरे रंग का फटा-चिटा मोजा झाँक रहा था। उसने सफ़ेद रंग की धारीदार कमीज़ पहन रखी थी जिसकी केहुनियों पर काले रंग की चिप्पियाँ लगी थीं। शर्ट का कालर पूरी तरह से तुड़ा-मुड़ा एवं गरदन पर फटा हुआ था। उसने सिर पर एक गंदी फेल्ट हैट लगा रखी थी, शायद धूप से बचने के लिए।

कुल मिलाकर वह काफ़ी रहस्यमय दिख रहा था। मेरी आदत है कि मैं किसी असामान्य से दिखने वाले या दबंग रिक्शेवाले की सवारी पर नहीं चढ़ता। ज़्यादातर यात्रा ख़त्म होने पर ऐसे रिक्शावाले अधिक भाड़े की माँग करने लगते हैं तथा झगड़ने से भी नहीं हिचकते। किंतु मैं लाचार था। मैंने कहा-
''जाना कोसी कॉलोनी और स्टेशन के बीच में है। कितना भाड़ा लोगे?''
''बाबू आपके जितना भाड़ा बुझाय, दे दीजिएगा।''
''बाद में झंझट तो नहीं करोगे?''
''कैसा बात करते हैं बाबू आप जितने भाड़ा दे दीजिएगा, हम रख लेंगे।''
''अजीब आदमी हो. . .। मैं छः रुपए तक दे सकता हूँ,'' कहते हुए मैं रिक्शे पर बैठ गया। उसकी बातों पर अब मुझे विश्वास हो गया था।

बूढ़े ने रिक्शा मोड़ दिया और पैडिल चलाने लगा। वह बहुत धीमी गति से रिक्शा चला रहा था। मैंने महसूस किया कि उसे इस काम में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही थी। मैं उकता रहा था किंतु उसकी पकी उम्र एवं कमज़ोर शरीर को देखकर मुझे उस पर दया आ रही थी। नील पैथेलोजिकल सेंटर के निकट पहुँचने पर उसने बातचीत का सिलसिला शुरू किया। उसने मुझसे पूछा, ''कोसी कॉलोनी के पास घर है आपका बाबू साहब?''
''नहीं घर तो यहीं बगल में है। मैं वहाँ अपने मामा से मिलने जा रहा हूँ।''
''बाबू आप कितना इच्छा इंसान हैं। आप हमको पाँचे रुपैया दे दिजिएगा।''

उसकी बात सुनकर मुझे थोड़ा अचंभा हुआ। असल में यदि कोई यों ही मेरी तारीफ़ करने लगे तो मुझे उसकी नीयत पर संदेह होने लगता है। किंतु मैंने अपने मनोभाव को व्यक्त नहीं होने दिया। उसने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया, ''आपका मामा कितना भाग्यशाली है जो उनको आपके जैसा भगिना मिला है। कितना उमर है उनका?''
''बानवे साल।'' मैं गंभीरता से बोला।
''सोचिए, बेरानवे साल के मामा से इतना मोह है आपको। इतना कड़ा धूप में उनसे मिलने जा रहे हैं। कोनो ज़रूरी काम छोड़िए के आए होंगे ना।'' मुझे वह आदमी काफ़ी रोचक लगा। अभी तक मैं उससे बिल्कुल उदासीनता से बात कर रहा था। किंतु अपनी अनौपचारिकता से उसने मुझे निहत्था कर दिया था। मैंने महसूस किया कि मेरा इस प्रकार पेश आना उचित नहीं है। आख़िर वह इतना वृद्ध आदमी है और उसने मेरे प्रति ख़ास अपनापन महसूस किया है तभी तो इतने सरोकार से मुझसे मेरे बारे में पूछ रहा है। अतः एक विवेकी आदमी होने के नाते मुझे उससे सहानुभूति के साथ बात करनी चाहिए।
''क्या नाम है तुम्हारा?'' मैं अपने स्वर में नरमी लाते हुए बोला।
''हजूर इनरदेव यादव।''
''और उम्र?''
''पैंसठ साल. . .हजूर असरी में हम साठों के नहीं हुए हैं मगर सब कोई हमको पचहत्तर से कम का नहीं समझता है।''
''कहाँ के रहने वाले हो?''
''जोनपुर, यू.पी. के रहने वाले हैं।''
''फिर यहाँ?''
''नाना-नानी हियाँ पुरनियाँ में रहता था। हैजा में जब हमारा माय-बाप मर गया तो ऊ सब हमको बच्चे में हियाँ ले आया।''
''इस उम्र में रिक्शा चला रहे हो? घर में और कोई नहीं है क्या?''
''हज़ूर इसका कारन है,'' इतना कहकर वह चुप हो गया। उसके पैर निरंतर पैडिल पर ज़ोर लगा रहे थे। फिर उसने अपनी चुप्पी तोड़ी, ''हमारी संताने हमको नहीं पूछता है। बाबू जितना गेल गुजरल हम लगते हैं उतना असली में हम हैं नहीं। मगर विधाते हमको लावारिस बना दिया है। हमको दो बेटा, एक बेटी है। हियें पर रिक्सा चलाकर हम दोनों बेटा को पढ़ाए-लिखाए और लड़की का सादी कराए।''
''कहाँ रहते हैं वे?'' मैंने पूछा किंतु मुझे लगा कि वह मेरी बातें सुन नहीं रहा था। कहने लगा, ''तीस साल पहले वाइफ मर गया। मगर हम दूसरा सादी नहीं किए. . .सिरिफ ई बच्चा सब का ख़ातिर। ई सब याद करके कब्बो-कब्बो बड़ी अफ़सोस होता है।''

''अरे अपने बच्चों के लिए तुमने इतना सब किया। यह तो बड़ी अच्छी बात है। इसमें अफ़सोस करने की क्या बात है?'' मैंने उसे ढाढस बँधाने के लिहाज से कहा।
''हजूर क्या अच्छा बात रहेगा। आपे बताइए कौन रिक्शावाला अपना बेटा को पढ़ाता-लिखाता, अफ़सर बनाता है?''
''. . .हम अपना देह को देह नहीं समझे। हम भोरे अन्हारे से लेकर के रात तक गाड़ी चलाते थे जा हमारा बच्चा किताब-कापी कीने, टूसन पढ़े। ऐसा करके हम ऊ सबका खर्चा जुटाते थे। मैट्रीक पास करके एही पोलटेकनीक में बड़कवा बेटा ओसियरी पढ़ीस. . .ऊ पढ़ने में खब्बे तेज़ था. . .पास किया कि तुरते नौकरी ले लिया।''
''और छोटा बेटा?''

''छोटका लड़का रामबाघ कॉलेज से बी.ए. किया। मगर बहुत्ते दिन तक बेरोज़गार रहा। हम नहीं चाहते थे जो ऊ रिक्सा चलाए। उसका मन तो ख़ैर रिक्सा चलाने का नहिये था। ऊ एकदम हतास हो गया था। मगर हम हिम्मत नहीं हारे।. . .उसी बखत स्टेट बैंक का बड़ा साहब मुखरजी बाबू पुरनिया बदली होकर आए। हम रोज़ भोरे उनको घर से ऑफ़िस अपना गाड़ी से पहुँचाते थे। साम में तो ख़ैर ज़्यादा टैम हमको फुरसत नहीं रहता था। धीरे-धीरे उनको हमसे बहुत लगाव हो गया। एतने सोचिए जो ओतना बड़ा साहब का बीवी होकर भी मेम साहब रोज़ भोर में हमको चाय पिलाते थे। कब्बो-कब्बो जिद्द करके नास्तो करा देते थे। हमारा घर-परिवार बाल-बच्चा के बारे में साहब हरदम पूछते थे। एक दिन बेटवा के बारे में हम उनसे बोले। बात सुनकर ऊ उससे भेंट कराने के लिए कहे। जब उसको लेकर हम उनका पास गए तो ऊ उससे बात किए और बोले आदमी का काम तो हमको हइये हैं, इसको हमारा पास रहने दो। फिर अपना पास रख लिए। तीन बरस तक छौंड़वा उनका औफ़िस और घर का देखभाल करता था। जाते-जाते सर्भिस परमामेंट कर दिहिन। आज आप लोग का आसिरबाद से ऊ भी अच्छा कमाता है। बीबी है, दू ठो बेटी है. . .सहरसा में रहता है।''
''और बड़ा बेटा?''
''ऊ तो ख़ैर बड़का साहब हो गया है। खाली जीपे पर घुमता है. . .दू साल से पटना में पोस्टिंग है। खाली एक बेटे है उसको. . .सेंट माईकेल में पढ़ता है।'' यह सब बातें कहते हुए बूढ़े की आवाज़ में ग़ज़ब का उत्साह था। किंतु मेरे एक सवाल ने जैसे उसके उत्साह पर पानी उड़ेल दिया। मैं उससे पूछ बैठा, ''तुम्हारे बेटे तथा पोते-पोतिया इतने फल-फूल रहे हैं। क्या तुम्हें उनसे मिलने उन्हें देखने की इच्छा नहीं होती?''
''हमको ऊ सबसे क्या?'' वह कुछ देर रुकने के बाद बोला। उसका स्वर बिल्कुल उदास, निरुत्साह हो चुका था। कहने लगा, ''दोनों बेटा हमसे मुँह मो़ड़ लिया है। दोनों को इस बात से लाज लगता है कि उसका बाप रिक्सा चलाता है। आपे बताइये हम कि कौनों सौख से रिक्सा चलाते हैं? हम न ऊ सबसे कुछ माँगते हैं और न ऊ सब हमको कब्बो कुछ देता है। फेर हमारा गुज़ारा कैसे चलेगा?'' वह धीरे-धीरे परिश्रम के साथ पैडिल मारता जा रहा था। कुछ सोचते हुए कहने लगा, ''खुशी तो होबे करता है कि हमारा औलाद इतना सुखी है। उसका समाज में इतना इज़्‍ज़त है। मगर इस बेमार बूढ़ा सरीर को जब कस्ट पहुँचता है तो कुच्छो अच्छा नहीं लगता है। मन में अफ़सोस होने लगता है कि ई सब बेकार किये।''
''बेटी कहाँ रहता है तुम्हारी?'' मैंने अगला सवाल किया। हालाँकि धीरे-धीरे गुड़कते रिक्शे पर बैठा-बैठा मैं उकता रहा था।
''हमारा दामाद बी.डी.ओ. का डलेबर है।''
''इतना अच्छा लड़का तुम्हें मिल कैसे गया?''
''लड़का उसको अपने पसिन्न कर लिया था। असली में हमारा बेटी हइये है बहुत सुंदर! . . .उसका अभी कसबा बलोक में पोस्टिंग है। एक बेटी, एक बेटा है उसको. . .पिछला साल एक ठो जीप वाला हमको एहीं गिराज चौक पर धक्का मार दिया था। एक्सीडेंट एतना बेसी था कि जाने बच गया हमारा. . .बस एही समझ लीजिए।''

हम डी.आई.जी. के आवास के समीप पहुँच चुके थे। रिक्शा सहसा धीमा होने लगा और एक जगह जाकर रुक गया। रिक्शे वाले की बातों में मैं इतना तल्लीन था कि मेरी आँखें उसके हिलते सिर, गरदन तथा झुकी पीठ को छोड़कर शायद ही कुछ देख पा रही थी। सहसा मैंने देखा कि वह रिक्शे से उतरकर खड़ा हो गया और रोने लगा। उसने अपनी दाहिनी टाँग के ठेहुने तक पतलून उठा दी और कहने लगा, ''हजूर इस टाँग का भीतर में लोहा का छड़ लगा हूआ है। ई एकदम कमज़ोर हो गया है तब्बो हम रिक्सा चला रहे हैं। हम जब मर रहे थे पैसा-टका से मदद का बात तो दूर दोनों बेटा में से कोई झाँकने तक नहीं आया। असली दोनों को फैमिलियाँ वैसने मिल गया है।'' वह सुबकता जा रहा था और उसकी बूढ़ी, उदास आँखों में आँसू बह रहे थे। उसने कहना शुरू किया, ''दामादे हमारा इलाज कराया। दस महीना तक, हमको साथ रखा मगर ई कब्बो नै लगा जो हम उसका बाप नहीं ससूर हैं। और बेटी का सेवा? ऊ परेम और सिनेह. . .आपको बिसवास नहीं होगा, ऊ हमको बेटी जैसा नहीं माँ जैसा देखभाल किया. . .''
''सचमुच यह भाग्य की बात है कि ऐसे बेटी-दामाद मिले हैं तुमको।''
''सच्चे हजूर। मगर हमारा दुन्नू बेटा नमकहराम निकल गया। बेटी के हिया हम कब तक रहते? दू महीना पहिले आपस चले आए और रिक्सा चला रहे हैं।'' मेरी आँखें भर आई थीं। मैं उसे समझाने लगा, ''अरे साठ की उम्र कोई बहुत ज़्यादा नहीं होती। फिर इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि इस उम्र में भी तुम किसी पर बोझ बन कर नहीं जी रहे हो। फिर रोने की क्या बात है?''

मेरी बातें सुनकर वह बिल्कुल चुप हो गया।

रिक्शे की सीट पर वह बैठ गया और पैडिल मारने लगा। वह अब बिल्कुल संयत लग रहा था।
''रोज़ कितना कमा लेते हो?'' विषयांतर के लिए मैंने पूछा।
''रोज़ बीस ते तीस रुपया कमा लेते हैं। ओतना से ज़्यादा दरकार नहीं है। तीस रुपैया पुरता है कि गाड़ी लगा देते हैं, गाड़ी अपने है। आज पच्चीस रुपैया हो गया है। पाँच रुपया दे दीजिएगा जो आज का कमाय. . .पूरा हो जाएगा।'' कुछ देर का लिए वह रुका, फिर बोलने लगा, ''एहीं मधुबनी मोहल्ला में एक ठो झोपड़ा किराया पर ले लिए हैं, सौ रुपैया में. . .सुबह चार रोटी नास्ता में, एक कप चाय, दिन में एक प्लेट भात, साम में पाव रोटी. . .चाय और पाँच ठो रोटी रात का खाना में। दिन का खाना होटले में खा लेते हैं। रात में रोटी सेंक लेते हैं। महीना में दू-तीन सौ दवो-दारू पर खरच हो जाता है। सौ-दू सौ भवीसो के लिए बैंक में जमा करते जाते हैं. . .दुख-बेमारी. . .टाँग जो टूटा था तो एही बचलका रुपैया में से दू हज़्ज़ार निकाल करके दमाद को दिए थे।''
मेरा गंतव्य आ चुका था। मैंने धीरे से कहा, ''रोको।''

रिक्शा धीमा होता हुआ उस संकरी गली के ठीक सामने रुक गया जिसमें मुझे जाना था। मैंने पॉकेट से दस रुपए का एक कड़कड़ाता नोट निकालकर रिक्शेवाले के हाथ में थमाया और गली में आगे बढ़ गया। अभी क़रीब पचास कदम आगे बढ़ा होऊँगा कि पीछे से किसी की धीमा आवाज़ सुनाई दी, ''बाबू!'' मैंने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि वह उस दस के नोट को हाथ में लिए प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी ओर देख रहा था। मुझे खड़ा होता देख वह परिश्रम पूर्वक मेरी ओर बढ़ने लगा। मैंने सोचा कि बूढ़े ने अपना असली रूप दिखा ही दिया। यह समझने में भी मुझे देर नहीं लगी कि पिछले पंद्रह-बीस मिनटों तक जो उसने अपनी भावुकतापूर्ण, मनगढंत कहानी सुनाई थी वह मात्र मुझे मानसिक रूप से ब्लैक मेल कर मुझसे ज़्यादा से ज़्यादा पैसे ऐंठने के लिए। उसकी इन्हीं बातों ने मुझे पाँच रुपए के बदले उसे दस रुपए देने को मजबूर किया था। किंतु अब मैं चौकन्ना हो चुका था। मैंने निश्चय कर लिया कि अब आगे उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में नहीं आऊँगा। मुझे उस पर काफ़ी गुस्सा आ रहा था। मैं तेज़ी से उसकी ओर बढ़ा कि उसके लालची स्वभाव के लिए उसे झाड़ लगाऊँ। मैं समझ रहा था कि अपनी बीमारी तथा बुढ़ापे का वास्ता देकर वह मुझसे और पैसे पाने का प्रयास करेगा।

उसके पास पहुँचकर मैं कड़क स्वर में बोला, ''क्या बात है?''
''हजूर आप हमको पाँच के बदला में दस का नोट दे दिए हैं।'' मैं उसकी इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। अतः मैं थोड़ी देर हड़बड़ाहट के साथ बोला, ''असल में मैंने जान-बूझकर ये दस रुपए तुम्हें दिए थे।''
''नहीं बाबू हम आपसे कहे थे ना कि हम आपसे पाँच रुपए लेंगे।''
''अच्छा क्या होगा। बाकी पैसे की मेरी ओर से चाय पी लेना।''

अपने थके चेहरे पर हल्की मुस्कान लाकर वह बोला, ''भला पाँच रुपया में चाय मिलता है?'' मेरे लिए भी सिवाय मुस्कुराने के कोई चारा नहीं था। अपनी कमीज़ में हाथ डालकर उसने कुछ तुड़े-मुड़े नोट निकाले। उनमें से पाँच का एक नोट निकालकर उसने मुझे दे दिया और बोला, ''बाबू भगवान आपको सदा सुखी रखें।'' इतना कहकर वह रिक्शे पर सवार हुआ और धीरे-धीरे पैडिल मारता आगे बढ़ गया। मैं कुछ क्षणों तक यंत्रवत खड़ा रहा, फिर रुपए को कमीज़ की जेब में डालकर गली की ओर मुड़ गया।

1 जुलाई 2007  १ मई २०२१

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