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दूसरा और अंतिम भाग

सिपाही उन लोगों के नाम बताने लगा जो इस तीन साल के लड़के को यहाँ लाए थे। मैंने उनके नाम और सारे मालूमात नोट कर लिए। खालिद सही कहता था, खान का घर कंधार के पास का एक छोटा-सा कस्बा जाबेह था। उसके साथ आए लोगों को ढूँढने में मुझे ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी। इतने बड़े कैंप में जहाँ सब कुछ बेतरतीब और लाखों लोगों की भीड़ से अटा पड़ा था, यह एक दुष्कर काम था। मैं सबसे पुरानी वाली खेप को जहाँ बसाया गया था, उस हिस्से में तीन दिनों तक ढूँढ़ता रहा और अंत में मुझे वह आदमी मिला उसका नाम हबीबुल था, उम्र लगभग पचपन साल। उसने एक साँस में जो कुछ पता था, बताया -
'उसका बाप शफीक उल्ला ऊन का धंधा करता था। पूरे कंधार में मशहूर था। क्या देसी, क्या विलायती, सब तरह की ऊन, पशमीना, खुर्दब से लेकर विदेशों की बारीक सिल्की ऊन तक सब कुछ। वल्लाह बड़ा अमीर सौदागर था। मैं उसका मुख्तयार था, सारे कोर्ट कचहरी के मामलों से लेकर सौदागरी के हिसाब तक सब कुछ मेरे हवाले। हम सब खुश थे। जाबेह एक खुशमिजाज़ बस्ती थी। जाबेह की शबे बारात की बड़ी तारीफ़ थी। पर सब मिट्टी में मिल गया। लोग बताते हैं, अब सिर्फ़ पुराने घरों की कुछ दीवारें रह गई हैं, जहाँ मुजाहेदीन जंग करते हैं। हमारी औलादें ख़ाक हो गईं। हमारा घर जल गया। मैं ही इसे यहाँ लाया था। पर लगता है, ग़लत किया। वहीं मरने छोड़ देता तो उसे यह हिक़ारत भरा दिन तो ना दिखता। उसका कोई नहीं। मैं उसको मरने के लिए नहीं छोड़ पाया। खान तीन साल का था, और मुझे पहचानता था। जब भी हम शफीकउल्लाह की बारादरी में बैठते वह मेरे पास आकर बैठ जाता...। मैं उसे मरने के लिए नहीं छोड़ पाया।'

हबीबुल दूसरे शरणार्थियों से अलग नहीं था। वही फटेहाल, खाने के लिए मारामारी, वही धूल और गंदगी, वही गंदी-सी बदबू...पर वह बोलता था, कुछ ज़्यादा ही। उसके चेहरे पर एक अदेखी और अनहोनी-सी हताशा हमेशा दीख पड़ती थी।
'खान खामोश रहता है। इधर तीन साल के बच्चे को बचे रहने काफ़ी गुर सीखने होते हैं। शुरू-शुरू में जब वो पाँच एक साल का था, लोगों से खूब मार खाता था। कई बार इतनी मार कि उसका दम निकलने को होता और उसे कोई बेहोश हालत में कैंप से बाहर पटक आता। पर वह नहीं मरा। वह जान गया एकदम से झपटने और माँगने से कुछ नहीं मिलता। पहले जुगत बैठानी पड़ती है। मतलब सामने वाले का मूड़ कैसा है, पहले जान लो फिर उसी के मुताबिक चलो। अगर कमज़ोर है, बूढ़ा है और चेहरे से बीमार दिखता है, तो छीन सकते हो और अगर जवान है, दुरुस्त है तो देखो कि मूड़ कैसा है। मूड के माफ़िक उससे माँगो...। इधर कुछ लोग सुअर की तरह खाना खाते हैं। बस नाक घुसाए घिघयाते रहेंगे। ऐसे लोगों से दूर रहो। अगर खान यह ना सीखता तो एक रोज़ सही में किसी लुटेरे के हाथ हलाक हो जाता, और सिपाही उसे मिट्टी में दफ़ना आते। पर जो आइडिया जान जाए, वो थोड़े मरेगा। एक तरह से मैंने ही उसे यह सब सिखाने की शुरुआत की। लूटना, छीनना और रिरयाना, पहले घूर लो...फिर आगे चलो। ट्रेनिंग माशा अल्लाह दुरुस्त रही...।'
वह मुस्कुराया पचपन साल की उम्र में वह फिर से मुस्कुराना सीख रहा है।
'वह बात करता है। हकलाता है और डरता भी है, पर बात कर लेता है। यहाँ किसी से क्या बात करो। सब मारामारी है। लोग बोलना भूल गए लगता है। खान अच्छा बोलता है। पर उसका डर, उसकी घिघ्घी, उसकी बेशरमी, उसका ढीठपना, सब कुछ अगर तुम थोड़ा कम कर पाए, तो वह बोलेगा।'
हबीबुल सही था। खान बात करता था। अभी कुछ ही दिनों पहले वह क़ादिर से बतिया रहा था।
खान को क़ादिर अच्छा लगता है, एक रहनुमा की तरह। उसकी जुबान, ज़मीन और तहजीब वाला आदमी। वह उसे उस दिन से और अच्छा लगने लगा जब उसने उसे उसके गाँव जाबेह की और उसके अब्बू की कुछ बातें बताईं।
'वह तालीबान का ख़ैरख्वाह था। पक्का मुसलमान।'
'अब्बू को तुम जानते थे।'
'क्या बंदा था, वह...।'
'अब्बू से तुम्हारी दोस्ती थी।'
'वह खुदगर्ज़ नहीं था। जब रूसी काफ़िर हमारे मुल्क के, हमारे अफ़ग़ानिस्तान के दूसरे शहरों में बम बरसा रहे थे, उसने तब से तालीबान का साथ दिया। कभी रकम तो कभी असद। उसने नहीं सोचा कि उसका शहर तो महफ़ूज़ है, फिर क्या लेना देना दूसरे शहरों से...।'
'तुमने अब्बू को देखा था?'
'खूब...कई बार। वह कई बार हमारे खेमे पर हमसे मिलने आता था।'
'मुझे बस अब्बू थोड़ा-सा याद है।'
खान ने अपनी उँगलियों के बीच ज़रा-सी जगह बनाकर कहा-
'बस इतना...बस इतना ही।'
क़ादिर मुस्कुरा दिया। उँगलियों के बीच की वह जगह थोड़ी देर तक बनी रही...खान थोड़ी देर तक उस जगह को देखता रहा। क़ादिर ने अचानक मुस्कुराना बंद कर दिया।
'क़ादिर भाई तुम अच्छे हो।'
'क्यों?'
'तुम मुझे गाली जो नहीं देते हो....पागल जो नहीं कहते हो।'
'क्यों और कहते हैं, क्या?'
'हाँ। कहते हैं मेरे अब्बू के कारण ही जाबेह तबाह हुआ। मेरे अब्बू के कारण ही रुसी काफ़िरों ने बम गिराया था। मेरा अब्बू जाबेह के लिए नासूर था...।'
'अपने मुल्क की ख़ातिर, अपने घर, अपने लोगों के खातिर यह फर्ज़ होता है। उसने निभाया...।'
'क़ादिर मुझे डर लगता है।'
'क्यों?'
'अगर रूसियों को यह पता चल गया कि अब्बू का एक लड़का ज़िंदा है, तो वे मुझे मार डालेंगे। है ना...।'
'अरे नहीं वो यहाँ नहीं आ सकते।'
'क्यों?'
'यह दूसरा मुल्क है।'
'पर इसमें पूरे जाबेह का क्या?'
'जाबेह ही क्या? पूरे अफ़ग़ानिस्तान का क्या? हमने इनका क्या बिगाड़ा था, जो ये हमारे लोगों को मारने को पिल गये...। बताओ...।'

खान को लगा जैसे पुराने दिन लौट आएँगे, क़ादिर लौटा लाएगा उन सारे दिनों को। उसे लगा कि वह क़ादिर को बता सकता है कि वह क्यों पागलों की तरह और डरा हुआ रहता है...अक्सर जब उसे अब्बू, माँ और बहनों के अधजले बदबू मारते और कचरे की तरह गड्ढे में फेंके जाते शरीर याद आते हैं, जिसका मतलब वह बहुत दिनों बाद जान पाया था...तब उसे कुछ हो जाता है। अक्सर जब सिपाही उसका चेहरा पकड़कर उसे आकाश दिखाते हैं तो वह पागल-सा हो जाता है। डाक्टर अब्राहम ने उसे कुछ कहा था...अंग्रेज़ी बीमारी...। पर वह क़ादिर से कह नहीं पाया। उसे लगा वह फिर से पागलों जैसे करने लगेगा। वह हड़बड़ाकर क़ादिर से लिपट गया। शायद उसके लबादे से आज भी अब्बू की खुशबू आती हो।
'हर कोई दुश्मन हो गया है। हमारे ये लोग भी।'
क़ादिर ने कैंप की ओर इशारा करके कहा।
'हमारे अपने ही लोगों को हमारा दुश्मन बना डाला।'
'क़ादिर मुझे डर लगता है।'
उसने क़ादिर से लिपटे हुए कहा। क़ादिर ने अपनी पोटली खोली। उसमें बहुत से हथियार रखे थे। उसने एक डेरा में बनी क्लैशनेकौफ निकाली और खान को थमा दी...अब मत डरना...यह कहते हुए क़ादिर के चेहरे से पत्थर निकल आया।
'सब दुश्मन हैं...सब।'
'सिपाही भी दुश्मन हैं।'
'ना खान। सिपाही तो दोस्त हैं।'
खान चुप हो गया।
'क्यों तुझे किसी ने मारा। बता कौन है...आज ही स्साले को ठीक करता हूँ।'
'ना। ऐसी बात नहीं है।'

खान चुप्पी लगा गया। उसे अपनी जाँघों के बीच कुछ घुसता हुआ महसूस हुआ। गोश्त और रोटी का लालच उसे चुप करा देता है।
यू.एन.ओ.(संयुक्त राष्ट्र संघ)की सफ़ेद गाड़ियाँ जो किसी बड़ी जीप की तरह होती हैं, अपने पूरे हुजूम के साथ यहाँ चक्कर लगाती हैं। सिपाहियों के टैंटों में से तीन टैंट यू.एन.ओ. वालों के हैं। दो टैंटों में तरह-तरह का सामान, दवायें, चद्दरें, डिब्बाबंद खाना, कपड़े, टार्च आदि बेतरतीब तरीके से पड़े हैं। एक टैंट में डाक्टर एब्राहिम रहते हैं। डाक्टर एब्राहिम मूलत: बेल्जियम के हैं। अंग्रेज‍ी जानते हैं। हफ्ते में एक दो दिन कैंप में चक्कर लगा आते हैं। आगे-आगे डाक्टर एब्राहिम और पीछे-पीछे दवाओं का बैग पकड़े एक सिपाही। बहुत कम लोग एब्राहिम तक आ पाते हैं, सो वे ही यहाँ आ जाते हैं। टैंट में अक्सर वे खाली रहते हैं...ज़्यादातर कोई नावेल पढ़ते हुए।
'इट्स टू हाट टुडे...।'
उस दिन सुबह ही मिल गए। रोड़ पर चहलकदमी करते हुए।
'इट्स काल्ड लू...ए हाट विंड...आलमोस्ट बर्निंग।'
डाक्टर अब्राहिम से मेरी मुलाक़ात हाल ही हुई। वे यहाँ दो सालों से हैं।
'लू।'
'इट्स ए सीजनल विंड हाट एंड ड्राय।'
'हाउलांग इट बी हियर।'
'एबाउट टू मंथ्स मोर।'
'व्हाट ए हैल...आई हैव एप्पलाइड फार ए लीव। ए लाँग वन...।'
मैंने अपनी उत्सुकता एब्राहिम के साथ बाँटनी चाही। मुझे खान की कहानी जो पूरी करनी थी।
'हैव यू सीन खान।'
'दैट व्हाइट टाल गाय।'
'या...द सेम।'
'ही इज माई पेशेंट।'
'पेशेंट...।'
'यस, एक्चुअली ही इज़ सिडिरोफोबिक एंड आलसो हैलियोफोबिक।'
'व्हाट।'
'इट्स ए मैंटल डिसआर्डर। ए काइंड आफ़ ल्यूनैटिक पर्सनैलिटी।'
'ल्यूनैटिक...।'
मुझे अजीब लगा। मैंने कभी खान को इस तरह नहीं देखा था कि वह पागल है। खान पागल है...एब्राहिम ने सहजता से कहा और मेरे अचरज को भाँप गया।
'इट कैन बी सैड...'
उसने बात को थोड़ा-सा आल्टर कर दिया...इट कैन बी...।
...एक्चुअली सिडेरोफोबिक इज वन हू फियर द नाइट स्काई, एंड स्टार्स। फोबिया मीन्स फियर एंड सिडेरोस इट्स ए ग्रीक ओरिजिन सिनानिम आफ़ स्टार्स।'
'अमेज़िंग...आई नेवर हर्ड दिस।'

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