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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से श्रीकान्त मिश्र कान्त की कहानी— अस्तित्व


इस बार बारिश खूब जम के हुई थी। सारे गाँव में खूब हलचल रही, पूरे मौसम भर..। बरसात का मौसम कब खत्म हुआ पता ही नहीं चला। लोगों के घरों में पुरानी रजाइयाँ आँगन में पड़ी खाट पर धूप के लिये फैलने लगीं। नये पुराने स्वेटरों की बुनावट और मरम्मत के लिये जानकार बहू बेटियों की तलाश उन दिनों जोरों पर होती। ऐसे में हम सब अपनी बाल मण्डली के साथ खाट पर फैली रजाइयों में नमी की चिर परिचित गन्ध सूँघते हुए लुका छिपी खेला करते। आसमान में उड़ते हुए बादलों और नयी पुरानी रुई समेटती हुई अपनी दादी के सामने धूप में चटाई पर फैली रुई के सफेद गालों में न जाने क्या क्या साम्य ढूँढा करते।

मेरे आँगन को बाहर के अहाते से अलग करने वाली कच्ची दीवार इस बार बरसात के मौसम में ढह गई थी। मौसम की भेंट चढ़ चुकी दीवार पर फिसलते हुये हम खूब खेला करते। अधगिरी दीवार की तुलना मैं पहाड़ की चोटियों से करते हुये अक्सर खुद को पर्वतारोही समझता। कई बार मैं भगवान से प्रार्थना करता कि हे भगवान..! इस दीवार को ऐसे ही रहने दिया जाय। लुका छिपी करते हुए हम सब बच्चों को न जाने कितनी डाँट पड़ती किन्तु खेल में मिलने वाले आनन्द की तुल
ना में यह बहुत छोटी सी कीमत होती। न जाने कितनी कल्पनाएँ घेरे रहती थीं उन दिनों।

एक दिन देखा, गिरी हुयी दीवार के ढेर से एक अंकुर फूटा था। ध्यान से देखा वह नीम का अंकुर था। अब मैंने अपने खेल को संयत कर लिया था। जब भी समय मिलता उस बढ़ते हुये अंकुर के पास दौड़ ज़ाता। बढ़ते हुये अंकुर को निहारते हुये घण्टों बीत जाते पता ही नहीं चलता। स्कूल से वापस आते ही बस्ता फेंकता और पहले वहीं पहुँचता। कोई उस छोटे से नीम के पेड़ को नोच न ले, मैं इसका विशेष ध्यान रखता। सींचने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। बस बचपन की लुका छिपी खेलते खेलते वह पेड़ और मैं कब बड़े होते गए पता ही नहीं चला।

अम्मा उस पर सवेरे की पूजा के बाद एक लोटा जल अवश्य चढ़ाती थीं। 'नीम के पेड़ में देवी का वास होता है ...एक दिन उन्होंने मुझे बताया था। जब भी फुरसत के क्षणों में नीम के पेड़ की ओर देखता वह अपनी डालों को हिला हिला कर मुझसे बातें करता प्रतीत होता। कभी लगता उसे मेरे बचपन की हर बात याद है। अक्सर अपने लौंछों के साथ झूम झू
म कर वह अपनी खुशी मुझसे प्रकट करता।

समय बीतते देर नहीं देर नहीं लगती। कस्बे के स्कूल से हाईस्कूल करने के बाद मैं कालेज की पढ़ाई के लिये शहर आ गया था। धीरे धीरे घर सूना होने लगा, अम्मा दादी से भी पहले चली गईं। नीम के पेड़ पर अब जल¸ कभी- कभार दादी ही चढ़ाती थीं। बार बार शेव करने से मेरी दाढ़ी के बाल कठोर होने लगे थे। साथ ही कठोर हो चली थी नीम के पेड़ की छाल भी। एक दिन दादी भी नीम के पेड़ के नीचे चिरनिद्रा में सो गईं। मिट्टी की दीवारें, कोठरी और दादी, सबके साथ छोड़ने के बाद नई बहुएँ घर में आ चुकी थीं । एक के बाद एक सारी कच्ची दीवारें पक्की होती चली गईं।

अब नीम के पेड़ पर कोई जल न चढ़ाता था। बस दादा की खटिया जरूर नीम के पेड़ के नीचे पड़ी रहती। उन्होंने भी मानो अघोषित सन्यास ले लिया था। घर में अब नीम के पेड़ के अलावा मेरा कोई पुराना साथी नहीं रहा था।

जब भी छुट्टियों में गाँव जाता नीम के पेड़ की छाँव में ही लेटता। मुझे लगता नीम का पेड़ और मैं, एक दूसरे से बातें कर स
कते थे। वह अपनी डालें हिला हिलाकर लौंछों के साथ झूम झूमकर मुझसे ढेर सारी पुरानी बातें करता प्रतीत होता।

पक्की दीवारों के नये घर में पक्के आँगन के साथ अब पीढ़ी भी बदल रही थी। बच्चों की संख्या काफी बढ़ चुकी थी। नीम के पेड़ की डालों पर अक्सर झूले पड़ते। वक्त जरूरत पर लकड़ी के लिये डालें भी काट ली जाती। मैं छुट्टियों में जब भी शहर से गाँव पहुँचता नीम अपनी मूक कहानी मुझे सुनाता। प्रायः शिकायत करता कि बाबूजी भी अब किसी से कुछ नहीं कहते। तने को घेरे वह चबूतरा जिसे हम होली दीवाली रंग पोत कर साफ सुथरा रखते थे, उजाड़ मिट्टी का ढेर हो चला था। सूने तने के साथ बाबू जी की गाय 'श्यामा' बँधी रहती। नीम का पेड़ उसे छाया और गाय उसे खाद देते हुये एक दूसरे के साथी थे। पेड़ की परवाह अब कोई नहीं करता। किन्तु नीम सब कुछ चुपचाप सहता रहता। आखिर उसका जन्म इसी घर में हुआ था। वह खुद को परिवार का अंग समझता।

हर साल पतझड़ में सारे पत्ते झड़ने के बाद नयी कोपलें आ जातीं और पेड़ फिर से हरा भरा हो जाता। परिवार के छोटे बच्चों को अपने नीचे किलकारियाँ भरते देख वह निबौरियों के साथ हवा में झूम कर अपनी खुशी प्रकट करता। परिवार में बाँटने के लिये उसके पास दूर तक फैली छाया और ढेर सारी खुशी ही थे। और फिर एक दिन बाबू जी भी उसकी छाया में सदा के लिये सो गए। गाय और नीम का पेड़ मूक एक दूसरे को चुपचाप देखते रह गए बस। गाय की आँखों से बहते आँसू और नीम के नीचे फैले सन्नाटे पर किसी का ध्यान न गया।

गाँ
व में टीवी और ट्रैक्टर के प्रवेश के साथ ही नया जमाना आया। पशुओं की संख्या कम होने लगी। अब घर में गाय नहीं है। कौन उठाता है गोबर, कहीं टिटनेस हो जाय तो...? आज के लोगों को सब कुछ मालूम है। पेड़ अब उदास रहता है। उसकी छाया में खड़े ट्रैक्टर से जब भी धुआँ निकलता है उसको घुटन होती है। इस बार पतझड़ के बाद उसकी दो शाखाओं में नन्हीं कोंपलें नहीं आयीं। नीम की दोनों डालें सूख गईं। शायद जमीन के नीचे जल स्तर काफी नीचे चला गया है। खेत खेत में बोरवेल हैं। अन्धाधुन्ध जलदोहन जारी है। पहले की तरह नहीं कि दो बैलों के पीछे तक-तक बाँ-बाँ करते रहो और फिर 'कारे बदरा कारे बदरा पानी तो बरसा रे' गाओ ढोल के साथ। आज की पीढ़ी का किसान¸ खेती और गाँव सब आधुनिक हैं।

नीम की डालें क्यों सूखीं किसी ने ध्यान नहीं दिया। हाँ एक दिन मजदूर बुलाकर दोनों डालें काट दी गईं। इस बार गाँव गया तो भुजाहीन मनुष्य की तरह दुखी लगा नीम। हवा के साथ झूम झूमकर मुझसे बातें करने वाला पेड़ बस चुपचाप¸ ठूँठ की भाँति खड़ा रहा। सब कुछ अप्रत्याशित लगा।

इस बार गाँव से कोई स्फूर्ति कोई नव उत्साह अथवा उर्जा लेकर नहीं लौटा था। वापस शहर की आपाधापी भरी जिन्दगी में आने पर भी वह भुजाहीन पेड़ मेरी आँखों से विस्मृत न होता। लगातार कहीं कुछ कचोटता रहता। आफिस में¸ घर में, स
ब कुछ सूना सूना लगता। लगता जीवन में कोई हादसा हो गया है। मन नहीं माना¸ पखवाड़े के भीतर ही छुट्टियाँ लेकर वापस गाँव लौटा।

गाँव पहुँचते ही मेरी कल्पना से परे दृश्य, मेरे सामने था। नीम का पेड़ पूरा काट दिया गया था। मुझे कोई खबर तक नहीं। शायद इसकी कोई जरूरत भी नहीं थी। मैं स्तंभित था। समझ नहीं आया किससे क्या कहूँ। जहाँ पर कभी नीम का भरा पूरा पेड़ हुआ करता था, अब वहाँ पर गढ्ढा था। कुल्हाडी की मार से छिटके हुये तने के छोटे छोटे टुकड़े चारों ओर छितरे थे। युद्ध के मैदान में लड़ते हुये शहीद होने वाले योद्धा के शवावशिष्टों की भाँति। किन्तु यह तो कोई युद्ध नहीं था। बेचैनी से पेड़ की जड़ों के पास गया। देखा वर्षों से जमी जड़ों के अवशेषों से हफ्तों बाद भी उसका जीवन रस पानी... अब तक रिस रहा था। मुझे लग रहा था... जैसे यह घर मेरा नहीं है। इस घर में मेरेपन की पहचान, मेरा बचपन का साथी, यह पेड़ ही तो था। लगता है अब कोई साथी, कोई पहचान नहीं है यहाँ पर। मिट्टी की दीवारें, वह बचपन की मेरी कोठरी, अम्मा, दादी, दादा सभी तो एक एक करके साथ छोड़ते चले गए थे। किन्तु यह पेड़... यह मरा तो नहीं था। मेरी अन्तिम साँस तक वह मेरी हर छुट्टी का इन्तजार करता रहेगा, मैं जानता था। परन्तु नई पीढ़ी को तो अपनी पसन्द का हॉल बनवाने के लिये उसी भूमि की आवश्यकता थी जहाँ यह अभागा पेड़ था।

अपनी जरूरतों के लिये नीम को बेदखल कर दिया गया। उसका अपराध क्या था। गली कूचे फुटपाथ और शमशान तक की भूमि पर कब्जा करने वाले मनुष्य उसे बेदखल करने वाले से मुआवजा माँगते हैं। किन्तु आज उसी सभ्य समाज में नीम के पेड़ को अपनी जरूरत के लिये उसकी भूमि से हटा दिया गया... हटा दिया ... नहीं नहीं काट दिया। क्या यह उसकी हत्या नहीं। कहीं कोई सुनवाई नहीं। पैतृक अधिकार की दुहाई देने वाले समाज में पेड़ पौधों को लगाने सींचने वाले पुरखों को क्या इस बात की वसीयत करनी पड़ेगी कि उनके बाद उनके लगाये पेड़ पौधों की रक्षा की जिम्मेदारी उनकी संपत्ति पाने वाले की होगी। अपने बच्चों के साथ-साथ मानव पेड़ पौधों को भी क्या बच्चों की तरह नहीं पालता है?

..वो झूले, वो सरसराती हवा के साथ झूम झूमकर बातें, कुछ भी आकृष्ट न कर सका, किसी को भी। हा रे! मानव! कहीं कोई कृतज्ञता नहीं। मेरा अन्तिम साथी भी चला गया। आखिर मनुष्य की भाँति पेड़ पौधों को पूरा जीवन जीने का अधिकार क्यों नहीं?

लगता है मेरा सारा शरीर शिथिल होता जा रहा है। क्या मेरे शिथिल शरीर को अपनी जरूरतों के आड़े आने पर ये लोग मुझे भी अपने रास्ते से हटा देंगे। नीम की जड़ों से निकलने वाला पानी उसके आँसू थे। शायद उसने अपने अन्तिम क्षणों में मुझे याद किया होगा कि मैं उसके बचपन का साथी काश उसकी रक्षा कर सकता। किन्तु ऐसा न हुआ। मैं उसके प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन न कर सका। हृदय विदीर्ण हो गया है आँखों में आँसू अब रुक नहीं पाते हैं। मेरा साथी मे
रा चिर मित्र चला गया। लगता है कोई मुझे झकझोर रहा है।

'अरे उठोगे नहीं क्या' पत्नी की आवाज से मैं जाग जाता हूँ। वह चाय का प्याला पास की टेबल पर रखती है। मैं जागकर उठ जाता हूँ। लगता है मेरी आँख की कोरों से तकिया गीला हो गया है।

'आज आफिस नहीं जाना है?’ वह शेविंग का सामान टेबल पर रखते हुये फिर पूछती है।

'आज शाम हम गाँव जा रहे हैं। तुम तैयारी कर लेना' मैं उसकी बात को अनसुना करते हुए अपनी बात कहता हूँ।

'कोई भयानक सपना देखा है? उसका ध्यान मेरी ऑंखों की गीली कोरों पर जाता है।

गाँव जाने की अप्रत्याशित सूचना से वह मुझे ताकती रह जाती है। किन्तु मैं जानता हूँ कि मुझे गाँव जाकर नीम के पेड़ की रक्षा के लिये स्थायी व्यवस्था करनी है। मैं जानता हँ कि मेरे अपने घर में मेरा अस्तित्व उस पेड़ के होने से ही है। मैं चाहता हूँ कि एक दिन मैं भी अपने पिता की भाँति अपने चिर मित्र की छाँव में शान्ति के साथ सो सकूँ। यदि मैं शीघ्र ऐसा न कर सका तो एक दिन मेरा अस्तित्व भी नहीं रहेगा।

२० मई २०१३

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