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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से अमर स्नेह की कहानी— माँ


त्रिवेणी तट लोगों से अटा पड़ा है। मानवी सैलाब थमने का नाम ही नहीं लेता। जहाँ तक दृष्टि जाती है छाजन, गुमटियाँ, तम्बू, पंडाल, लहराते झंडे-झंडियाँ, धर्म पताकाएँ। हर तरफ धर्माचारी, भाँग, चरस, सुलफे में लीन। कहीं भी पैर रखने तक की जगह नहीं। दानी-धर्मी, निरंकारी, सेठ-साहूकार, भिखारी, योगी, नागा, साधु-संन्यासी, गृहस्थ, फक्कड़, बाल-वृद्ध, नर-नारी की आवाजाही, रेलमपेल। स्नान-ध्यान, कीर्तन-आरती, हवन-यज्ञ, प्रवचन-भंडारे, घंटे-घड़याल, झाँझ-मंजीरे, धौंसे-डफ-डमरू-ढोल, बिगुल-शंख-करतालों की ध्वनि, जयकार करता जनसमूह और नदी का कोलाहल।

कुल मिलाकर इतना शोर कि अपनी भी आवाज सुनाई नहीं देती। ऐसे में एक बूढ़ी औरत भीड़ के बीच एक टीले पर खड़ी दूर तक पास से गुजरते एक-एक चेहरे को गौर से देखती है और निराश होकर पुकारना शुरु कर देती है। जब वह थक जाती है तो वहीं बैठ जाती है और फिर वही क्रम दोहराने लगती है। उसे देखकर लगता है, जैसे बाँस के बीहड जंगल में कोई पक्षी फँसकर चीख-चिल्ला रहा हो। मैं उसे काफी दूर से देखता आ रहा था। एक क्षण रुका तो भीड़ का ऐसा रेला आया कि मैंने कुछ देर बाद खुद को एक घाट पर पाया।

करीब दो घंटे बाद जब मैं फिर उधर लौटा तो उस बूढ़ी को उसी तरह पुकारते देखा। वह बहुत थकी हुई लग रही थी। कभी-कभी वह रो भी पड़ती थी। मैं जैसे-तैसे भीड़ में से उस टीले तक पहुँचा। दो-तीन बार 'माँ' के सम्बोधन के बाद वह जान छोड़कर मेरी तरफ लपकी और गिरते-गिरते बची। मैंने उसे सँभाल लिया। उसने दोनों हाथों में मेरा चेहरा लेकर गौर से देखा, शायद उसे कम नजर आता था, 'बेटा हम पहिचाना नहीं...कौन है तू ?'

उसने प्यार की जिस शिद्दत से दोनों हाथों में मेरा चेहरा लिया हुआ था उससे लगा कि वह मेरी ही माँ है, 'माँ, मुझे अपना ही बेटा समझ...क्या कोई खो गया है?'
'हाँ, हाँ कल सुबह मेरा बेटा और बहू मुझे यहाँ बिठाकर मंदिर गये थे। उन्होंने मुझसे कहा, 'अम्मा तू इहाँ बैठ। काहे कि भीड़-भड़क्का है, हम लोग मंदिर दरसन करके आते हैं...फिर वो लोग दुबारा आये ही नहीं।'
"खैर माँ, वो मिल जाएँगे।" मैंने तसल्ली देते हुए उसे अपनी बोतल से पानी दिया तो उसने कुछ घूँट पानी पिया। थर्मस से चाय देने लगा तो संकोच करने लगी लेकिन मेरे आग्रह पर उसने चाय ले ली और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए ढेरों आशीर्वाद दिये। कुछ देर रुक कर सिसकने लगी। इसी बीच किसी संत-महात्मा की सवारी आ गई। बड़ी मुश्किल से मैं उस बूढी माँ को भीड़ से बचाते-बचाते दूसरी तरफ निकाल लाया और एक मंदिर के पास बिठाया। सर्दी ज्यादा थी। मैंने बैग से शॉल निकालकर उसे उढ़ाया तो वह बिलखकर रो पड़ी। संयत होते हुए शॉल उतारकर वापिस देने लगी, "न बेटा तोहके सर्दी पकड़ लेई, माँ तो सब सह जात है...सूखा में ओके सुलाया, गीला मैं खुद सोई, का-का नहीं किया उसकी खातिर...।"

मैंने उसे तसल्ली दी, "तू चिंता न कर माँ। मैं कैसे भी उन्हें ढूँढ निकालूँगा। हाँ, क्या नाम है बेटे का ?"
"सरवन कुमार (श्रवण कुमार) हम जानित हैं बेटा, ऊ न मिली फिर भी माँ के ममता हार जात है आँख ढूँढे लागत है, मन नहीं मानत। मन के झुठला के ममता पुकारे लागत है। हाँ बेटा ओ लोग माँ के छोड़ के चले गये। ...कल बहू गंगा नहाए ले गई रही, खुद साँखल पकड़ के हमका आगे ढकेले लागी तभी एक लड़का हाथ पकड़ लिहिस और हमका सम्हाल के बाहर ले आया, हमारा सरवन पहिले ऐसा नहीं रहा। उनीवस्टी (यूनिवर्सिटी) माँ पढ़ता रहा, जब्बै कभी गाँव आता तो हमारी गोद में सर रखके कहता, 'माँ भगवान अगर कहे कि तोहके पूरी दुनिया के दौलत देबे तू माँ के छोड़ दे तो हम भगवान से कहबे कि का तू हमका मूरख समझे है? माँ के गोद में सुरग (स्वर्ग) बसता है, माँ की ममता के आगे पूरी दुनिया की दौलत मिट्टी है' और आज...हमका छोड़ के चला गया। बेटा यहाँ आये से चार-पाँच रोज पहले आधी रात के हमरे सोते में बहूरानी सरकारी स्टाम कागज (स्टेंप पेपर) में आहिस्ता से हमारे अँगूठा में स्याही लगाके, कागद पे अँगूठा लगा दिया, जब हम जागी तो भाग के बाहर निकल गई, हम अपनी आँख से देखा सरवन बाहर खिड़की के पास खड़ा रहाय और फिर दोनों जल्दी से अपना कमरा में चले गये। तोहरे बाबूजी को चार महीना हुआ सुवर्गवासी हुए। बीमार रहे...ऐ लोग हम दोनों के गाँव से लाके शहर के बँगला के एक कमरा में डाल दिये हम दोनों परानी के।

हम जब भी कहें, "बाबूजी के अस्पताल ले चलो, तो बहूरानी कहती कि का अस्पताल ले जाए से कउन ओ जवान हुई जइहें। बुढापा म बिमारी-ठिमारी लगी ही रहती है औऊर फिन (फिर) रोज-रोज अस्पताल के चक्कर काटे का टाइम कहाँ है?' ई सब देख-सुन के बाबूजी हमसे कहे कि बड़की जाए दे, हम समझ लिया कि इनके इच्छा का बा? बिना डाकटर-दवा के बाबूजी चले गये, बेटा, दो सौ बीघा जमीन रहाय। बाबूजी, पचास बीघा बेच के सहर मा इनकी खातिर बँगला बनवा के दिये, मोटरगाड़ी ले के दिये। इतना जमीन-जायदाद, छह दुकान, एक आम के बाग छोड़ के चले गये बाबूजी, अरे सब इन्हीं का तो रहा, मैं का छाती पर ले जाती? माँ की ऐके साध रहती कि बेटा सामने हो जब प्राण जाए।"

उसकी कहानी सुन के मैं पूरी तरह से अंदर से हिल गया था। मैंने उसका पता जानना चाहा तो वह शून्य दृष्टि से आसमान निहारने लगी, फिर आहिस्ता से बोली, "हमरा पता? बेटा अब यही है। यहीं बाकी जिन्दगी लेकिन जी के का करब? के के (किसके लिए) खातिर जियब ?"

मैंने संयत होते हुए बूढ़ी माँ से कहा, "माँ उन्होंने यह अच्छा नहीं किया। तू उन्हें क्षमा कर दे। चल, मैं समझूँगा कि मेरी माँ फिर से मुझे मिल गई है।" वह काफी देर तक मौन रही, फिर आँसू पल्लू में समेटकर मुझे गले से लगा लिया। अपना पल्लू मेरे सिर पर रखकर बोली, "बेटा प्यार का बीजा (बीज) तुरंतै फर (फल) जात है। तू माँ के प्यार दिये तो हमरी छाती मा माँ के ममता के बिरवा उगके फर फूल गय। इ दुखिया के सारा दुख ऐके छन मा सुख बनाये दिये तू...जुग-जुग जियो बेटा। तू हमका, अपनी माँ के, बेटा के सारे सुख दे दिये।"

मैंने उससे अपने साथ चलने के लिए कहा, लेकिन माँ ने मेरा अनुरोध स्वीकार नहीं किया। शायद उसने वक्त की क्रूरता को सहने का संकल्प कर लिया था। मैंने बार-बार उसके घर का पता पूछा, लेकिन वह गाँव और शहर जानती ही नहीं थी, अगर जानती भी होगी तो शायद वह बताना नहीं चाहती होगी, क्योंकि बार-बार वह यही कहती कि अगर बेटे-बहू की खुशी इसी में है तो वो खुश रहें।

अब मेरे सामने यही एक विकल्प रह गया था। मैं उसे एक वृद्ध आश्रम में ले गया। उसे कुछ कपड़े और जरूरी सामान लाकर दे दिये और आश्रम वालों के पास कुछ धन भी जमा करा दिया। मैंने बार-बार उनसे प्रार्थना की कि वह माँ का पूरा ख्याल रखें। मैं उससे विदा लेकर दो ही कदम चला होऊँगा कि उसने मुझे बेटा कहकर पुकारा और मेरे पास आकर बोली, "तू माँ कहे है न, तो हमका चारों धाम का सुख मिल गया। चिंता न करना। हाँ, माँ के पास से खाली हाथ जाइका?" उसने आँचल को फाड़ के मुझे दे दिया, "बस बेटा, यही पूँजी है हमारे लेखे। माँ जिन्दगी भर का सुख-दुख यही में समेटती रहती है, माँ का आशीर्वाद हमेशा तेरे साथ है, जा फूलो फलो बेटा...।"

माँ का आँचल मेरे लिए एक ऐसी प्रेरणा बन गया कि मुझमें जीवन के दुखों को आत्मसात करने की क्षमता आ गई। जब भी कभी ऐसे क्षण आते मैं माँ के आँचल को आँखों से स्पर्श कर लेता और माथे से लगा लेता।

इस बीच मैं विदेश चला गया, एक वर्ष से अधिक समय बीत गया था। जब मैं लौटा तो मैंने आनन-फानन में इलाहाबाद जाने का कार्यक्रम बना लिया। आते समय मैंने माँ के लिए बहुत-सी चीजें खरीदी। सर्दी के दिन थे कुछ गरम कपड़े भी ले लिए और सीधा संगम पहुँच गया, यहाँ तो सब-कुछ बदला हुआ मिला, वो जगह कहीं खो गई थी। ये वो जगह है ही नहीं, मैं कहीं गलत जगह तो नहीं आ गया? कई दिनों तक मैंने जितने भी आश्रम और रैन-बसेरे थे, सब छान डाले, लेकिन मुझे बूढ़ी माँ का कहीं पता नहीं चल रहा था। रोज मैं माँ को ढूँढते- ढूँढते न जाने कितने निःसहाय और बेसहारा लोगों से मिल लेता और उनकी दास्ताँ सुनकर बोझिल मन लिए होटल वापिस आ जाता, इनमें कुछ लोग दूर-दूर की प्रांतों के थे, जिनके सगे-संबंधी उन्हें धोके से यहाँ छोड़ गए थे। उनकी तो भाषा भी समझ नहीं आती थी, लेकिन सबके पीछे जमीन-जायदाद हड़पने या फिर उन निःसहाय बूढ़ों की उनके नजदीकी संबंधियों द्वारा जिम्मेदारी न उठाने की कहानियाँ थीं। इसमें कुछ ऐसे भी थे जो अपनी औलादों के अपमान न सह सके थे और हार कर घर छोड़ आए थे।

आज होटल वाले ने मुझे एक आश्रम का पता दिया और सुबह जल्दी पहुँचने की हिदायत दी, क्योंकि ज्यादातर वहाँ ठहरे लोग सुबह ही भीख माँगने या मजदूरी करने निकल जाते हैं। मैं सुबह ही वहाँ पहुँच गया। लोगों को माँ के बारे में बताया, लेकिन वो नहीं मिली। हाँ, इसी बीच कुछ लोगों की दर्दीली कहानियाँ सुनीं तो लगा कि धर्म का ढोल पीटने वाला हमारा यह समाज कितना निर्दयी, क्रूर, संवेदनहीन, असभ्य और स्वार्थी है। एक बूढ़े ने अपनी छह संतानों को पाल-पोस, पढा- लिखाकर बड़ा किया था। सभी बड़े-बड़े ओहदों पर पहुँच गये। बडा लड़का उनके ही घर में रहता था, लेकिन उन्हें वहाँ रखने को तैयार नहीं था। वह उन्हें किसी बहाने दूसरे भाई के पास भेज देता और दूसरा, तीसरे के पास भेज देता। अंत में बड़े ने उन्हें पागल करार देकर पागलखाने में भर्ती करा दिया। वहाँ से भाग कर वे यहाँ आ गए और छोटी-सी ट्रांसपोर्ट कम्पनी में मैनेजर हो गए। इसी दौरान उन्हें पैरालेसिस अटेक पडा और अपाहिज हो गए। अब सड़क पर भीख माँगते हैं।

इन्हीं के साथ एक और बूढ़ा है जो उठाने-बिठाने में इनकी मदद करता है। इस बूढ़े के लड़कों ने जायदाद हड़पने के लिए बुखार में इन्हें नींद की दवा का हैवी डोज दे दिया था और पैसा देकर डॉक्टर से इन्हें मृत घोषित करवा कर तुरन्त श्मशान ले गये। चिता पर रखते ही इनमें चेतना आ गई फिर इन्हीं के बेटों ने इन्हें भूत बना दिया। लोग इन्हें देखते तो पत्थर मारते। तंग आकर इन्होंने यहाँ शरण ले ली।

इस देश में सम्पन्न और बड़ा बनने और बने रहने का ये शाश्वत फार्मूला है, कमजोर का शोषण, लूट-पाट, धोखा, झूठ-फरेब, बेईमानी...मैं पूरी तरह से दुःखी और निराश हो चुका था। सोचा लौट जाऊँ। मैंने सोचा माँ शायद वापिस चली गई होगी या उसका बेटा उसे ले गया होगा। ज्योंही मैं मैदान की तरफ मुड़ा तो पीछे से किसी ने आवाज दी। मुडकर देखा तो एक भिखारिन पूछने लगी, "बाबूजी आपकी माँ मिल गई?" मैंने नकारात्मक भाव से उसे देखा तो वो सड़क पर पुनः अपने बच्चे के पास आकर बैठ गई, जिसको उसने एक गंदे कपड़े में लिटाया हुआ था और भीख माँग रही थी। इससे मैं दो दिन पहले एक रैन बेसेरे में मिला था। बेचारी के साथ गाँव में कुछ लोगों ने बलात्कार किया था और जब उसने ये बात लोगों को बताई तो उन लोगों ने उसका काला मुँह करके गाँव में घुमाया था। दूसरे दिन उसके बड़े भाई ने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली थी, शायद अपमानित होकर जीने से उसके भाई ने मर जाना बेहतर समझा। अपमान और प्रताड़ना से बचने के लिए ये एक अजनबी के साथ बनारस आ गई तो एक आश्रम में साफ-सफाई का काम मिला, लेकिन यहाँ भी ब्रह्मचारी मुस्टंडे इसके साथ वही सब करने लगे। एक दिन बड़े महाराज ने बदनामी के डर से उसे निकाल दिया। वह मुँह छिपाकर इलाहाबाद आ गई और अब भीख माँगकर संन्यासियों के बच्चे को पाल रही है। मैं कुछ दूर चला और कुछ सोचकर वापस आ गया और मैंने जो कपड़े माँ के लिए खरीदे थे, वह उस भिखारिन को दे दिये।

काफी देर तक खाली मन लिये संगम पर घूमता रहा, सर्दी काफी बढ़ गई थी। मैं एक चाय की टपड़ी पर बैठकर जब सुस्ताने लगा तो किसी ने बच्चों की तरह मेरी आँखों को हथेलियों से बंद कर दिया। वह एक मेरे साथ टी.वी. पर अभिनय करने वाले पुराने मित्र थे। कुछ औपचारिक बातों के बाद बताने लगे कि वह एक डाक्यूमेंट्री बना रहे हैं। कैमरा टीम उनके साथ ही थी। बड़ा इंट्रेस्टिंग सब्जेक्ट है। रियल लाइफ एक्टर्स, जिज्ञासावश मैंने पूछा, "भाई ये क्या है?" तो उन्हने फ्रेंचकट दाढ़ी को खुजलाते हुए कहा, "हमारे देश में भीख माँगना एक पेशा है। भिखारी हम-तुम प्रोफेशनल से अच्छा अभिनय करते हैं। इन्हें सामने वाली की साइकोलोजी का पूरा ज्ञान होता है और रो-रोकर, गिड़गिड़ाकर, गा-कर ऐसी कलाकारी कर गुजरते हैं कि सामने वाले को जेब से पैसा निकालना ही पड़ता है। दिया तो ठीक, नहीं तो आँख बचाकर जेब सफाई। दिन में घरों में जाकर सब देख-परख लेते हैं, रात को चोरी। चलते-चलते भी हाथ सफाई कर जाते हैं," अभी आते-आते एक कवरेज की। सडक पर बच्चे को लिटाकर वह भिखारिन रोने लगी, "बच्चे को दूध पिलाना है, भूखा है बाबूजी।" अचानक मेरी नजर एक पैकेट पर गई तो पूछा, "यह कहाँ से ले आई? तो वह बोली, एक बाबूजी दे गये हैं।"
"क्या नये-नये कपड़े थे उसमें?"
"हमने पुलिस का नाम लिया तो एक सैकण्ड में रफूचक्कर हो गई साहब। इन समाज विरोधी तत्वों से समाज को जागरूक करने के लिए यह फिल्म बना रहा हूँ।"

मैंने सोचा यह तो वही बच्चों वाली भिखारिन है जिसके बारे में यह बता रहे हैं। मैंने बेचारी को नाहक ही नये कपड़े देकर मुश्किल में डाल दिया उसे। वह तो नये कपड़े पहनकर भीख भी नहीं माँग सकेगी, लेकिन इन फिल्म वालों की सोच और समझ भी कितनी ओछी और बौनी है? मेरे मित्र् ने अपनी बात जारी रखी, "यहीं पास में एक अंधी है। सुबह से शाम तक उसका एकल अभिनय चलता रहता है। आज उसी की शूटिंग करने की योजना बनाकर आया हूँ। अच्छा हुआ तुमसे मुलाकात हो गई, बड़े मौके पर मिले, कुछ शूटिंग की टिप्स लूँगा तुमसे।"
हालाँकि शूटिंग में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन मित्र होने के नाते मैं चला गया।

हम जब पहुँचे तो अंधी का खेल चालू था। सोचा गया जब ये दूसरा आवर्तन करेगी तो शुरू से शूट कर लिया जायगा। इस बीच कैमरे और रिफलेक्टर्स आदि का सही-सही स्थानों पर लगाने का काम जारी रहा। मैंने अंधी के क्रिया-कलापों पर गौर किया तो लगा कि जिसे यह लोग कलाकार समझ रहे हैं, वह मानसिक रूप से बीमार कोई गमजदा है। इसके पूरे शरीर पर चोट लगी हुई है। खासतौर से सिर पर जो रंग-बिरंगी पट्टियाँ बँधी हई है, वह सिर पर गहरी चोट लगने के कारण बाँधी होंगी, न कि अभिनय करने के लिए। जो भी कपड़ा कहीं से मिल गया होगा इसने एक के ऊपर एक बाँध लिया होगा। इसने सर्दी से बचने के लिए ऐसा किया होगा न कि विशेष तौर से डिजाइन करके कोई कास्ट्यूम पहनी हुई है। यह खेल उसके स्वयं की जीवन यात्रा की त्रासदी नजर आ रही है। जीवन संदर्भों को याद करते-करते इसके मानस में कोई रट कायम हो गई है वो बच्चे को कैसे पालती-पोसती है, उनके मन में गहरी पैठ बनाए हुए हैं। इसके तथाकथित खेल में इसकी यादें शामिल हैं। मैं पूरी तरह से उसके मन में उतर कर खोया हुआ था कि अचानक वह भावावेश में भागी और पास के शिलाखण्ड से टकरा गई। मेरे मुँह से अनायास ही 'माँ' निकल गया और मैंने भागकर उसे सँभाल लिया। उस शिलाखण्ड को देखकर मेरे दिमाग में बिजली कौंधी, शायद यह वही टीला है, जहाँ माँ से पहली बार मिला था। दर्द से आहत वह बुदबुदाई, "सरवन बेटा, तूने माँ को ढूँढ ही लिया।"

'हाँ, सरवन उसी के बेटे का नाम है', मुझे याद आया। लेकिन दुःखों को झेलते-झेलते माँ इतनी बदल जाएगी मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। उसने मेरे चेहरे को दोनों हाथों से लेकर चूमा और मुझे छूकर बुदबुदाने लगी, "बेटा मैं तुझे ढूँढते-ढूँढते अंधी हो गई, तेरी माँ तेरे लिए ही जिंदा है। माँ का मन अंदर से हर क्षण बोलता रहा कि बेटा जरूर आई...।" वह कुछ देर शांत रही फिर उठी और गिरती-पड़ती पास में पड़ी गठरी उठा लाई। मैंने जो शॉल दिया था उसी की उसने गठरी बनाई हुई थी। वह गठरी मुझे देते हुए बोली, "बेटा, माँ का सब तेरा है। भीख माँग-माँगकर जमा किया है, सब यही में है।" यह कहते-कहते वह प्यार से गले लगाकर मेरा सिर सहलाने लगी और फिर मेरे कंधे पर सिर रख दिया जैसे किसी असीम सुख में वो खो गई हो। मैंने उसकी चोट को सहलाया तो वह मेरे आँसू पोंछने लगी और मेरे कंधे पर सिर रखकर खामोश हो गई। मैंने कई बार उसे पुकारा, लेकिन माँ अपने बेटे से मिलकर चली गई थी। उसकी आँख में ठहरे आखिरी बूँद पानी ने ढलते- ढलते कहा, इसके सिवा माँ के पास कुछ भी नहीं है।

३० सितंबर २०१३

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