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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
रत्ना ठाकुर की कहानी— गुड़िया का ब्याह


“तुम्हें अपनी गुड़िया का ब्याह नहीं करना क्या?” रीमा ने हमारी गुड़िया के घर का मुआयना करते हुए पूछा।

हम इतनी देर से गर्व से उसे अपनी गुड़िया का घर दिखा रहे थे। मम्मी की नज़रों से छिपा कर कूड़े के ढेर से उठाई गई चीज़ों से अच्छी खासी गृहस्थी बन गई थी। जूते के डब्बे, माचिस की डिब्बियाँ, रंग बिरंगे गोटे, इन सब से हम ने अपनी रचनात्मक शक्तियों का उपयोग करते हुए अपनी गुड़िया की एक अच्छी खासी गृहस्थी बसा कर रखी थी, और हम तो सोच रहे थे कि रीमा अब तारीफ का पिटारा खोलने ही वाली है। पर ये सोचना भी तो हमारी गलती थी! आज तक रीमा ने किसी चीज़ की तारीफ की थी क्या, जो आज करती? खैर, हम ने अपनी सोच को लगाम देते हुए कहा, "ब्याह तो हो गया इसका! ये गुड्डा इसका पति ही तो है!” सच बात तो ये है कि रीमा के सामने भले हम कबूल ना करें पर अपनी गुड़िया की शादी हम कितनी बार कर चुके थे, हमें खुद भी याद नहीं था।

रीमा ने नाक सिकोड़ते हुए कहा,” पर शादी के बाद वो ससुराल तो गई नहीं ना! ऐसा थोड़ी होता है, शादी के बाद तो लड़कियाँ चली जाती हैं!”

उसका तर्क बेजोड़ था। हमें एकदम से कोई उत्तर ना सूझा। इतने में ही रीमा ने कहा, "तुम चाहो तो मेरे गुड्डे के साथ अपनी गुड़िया का ब्याह कर सकती हो, तुम ने तो देखा ही है, मैंने इतना अच्छा घर बना रखा है!”

हमें सोच में पड़े देख कर रीमा ने आगे कहा,"मैं तो अर्चना की गुड़िया को हाँ कहने वाली थी, पर तुम मेरी ज्यादा अच्छी सहेली हो तो सोचती हूँ, तुम्हारी गुड़िया को बहू बना लूँ।” रीमा के स्वर में जो उदारता का भाव था, उससे हमारे मन में आग लग गई, "झूठी कहीं की! अर्चना की सूरत है गुड़िया रखने की! नाक पोंछना तो आता नहीं है उसे! ज्यादा से ज्यादा पुराने कपड़ों की सिली हुई गुड़िया होगी उसके पास! ये नकचढ़ी रीमा भला उससे अपने गुड्डे का ब्याह करेगी!” हमने मन ही मन सोचा। वो तो हमारी गुड़िया थी ही इतनी सुन्दर कि देख कर कोई भी रीझ जाये। उसे तो पापा इंदौर से लाये थे, वरना इस छोटे से शहर में किसी ने ऐसी गुड़िया देखी भी न होगी कभी!

पर रीमा के आगे हम कुछ बोल नहीं पाए। एक तो इस छोटे से शहर में वैसे ही आस पड़ोस में सहेलियों का अकाल था, दूसरे वो उम्र में हम से थोड़ी बड़ी थी, इसलिए उसका रोब ज्यादा था। जब पापा की इस छोटे से शहर में पोस्टिंग हुई तो पहले तो हम निराश हुए क्योंकि एकमात्र हमारी हमउम्र पड़ोसन रीमा छठवीं में पढ़ती थी और हम पाँचवीं में, लिहाज़ा, हमारे स्कूल अलग थे। आस पास वाले सारे घरों में बड़े भैया और दीदियाँ ही थे। पर बाद में लगा कि अच्छा ही हुआ कि हमारे स्कूल अलग थे, वरना स्कूल में भी महारानी को झेलना पड़ता, घर में तो खैर मजबूरी थी ही!

“तुम सोच लो, फिर आराम से जवाब देना!" शान से कह कर रीमा हमारी पानी जैसी शान्त ज़िन्दगी में पत्थर डाल कर चली गयी।

उसके जाने के बाद हम सोच में पड़ गए। पहले तो बहुत गुस्सा आया, पर बाद में ध्यान से सोचने पर लगा कि रीमा का प्रस्ताव इतना बुरा भी नहीं है। वे गर्मी की छुट्टियों के पहाड़ से लम्बे दिन थे। सुबह शाम तो किसी तरह खेलने में कट जाती थी पर दोपहर का समय कटना मुश्किल होता था। अपने घर की सारी किताबों के अलावा एक दूसरे के घर की सारी किताबें हम लोग कई कई बार पढ़ चुके थे। अब तो चम्पक, नंदन, चंदामामा की सारी रचनाएँ अक्षरशः याद हो चुकी थीं। आज की तरह टीवी तो उस समय था नहीं, और रेडियो पर बड़ी दीदियों का एकाधिकार होता था। यहाँ तक कि रेडियो की नॉब भी जरा सी घूम जाए तो रेडियो खरखराने लगता था और दीदी का कोपभाजन बनना पड़ता था। दिन काटने के हम रोज़ नए नए उपाय आजमा रहे थे जो कि नाकाम सिद्ध हो रहे थे। यहाँ तक कि हमने अपने नालायक तोते को अपना नाम बोलना सिखाने की कोशिश में कई घंटे बिताये, पर वो गधा टस से मस न हुआ। हमें ज़रूर शोर मचाने के लिए मम्मी से डांट पड़ गयी। अपने पालतू कुत्ते से तो हमें वैसे ही कोई उम्मीद नहीं थी, क्योंकि वो हमारे साथ खेलने के बजाये रस्सी वाले कूलर के नीचे सोना ज्यादा पसंद करता था। लिहाज़ा हमें लगा कि गर्मी की छुट्टियाँ बिताने के लिए रीमा का प्रस्ताव बुरा नहीं है। शादी ब्याह की तैयारी में तो काफी दिन निकल जायेंगे और समय भी अच्छा बीतेगा। पर ये रीमा की बच्ची कहीं हमारी गुड़िया तो हड़पना नहीं चाहती?

इसलिए अगली बार जब रीमा हमारे घर बेर खाने के लिए आई तो अपनी फ्रॉक की झोली में बेर बटोरते हुए हमने पूछा, "फिर शादी के बाद गुड़िया कहाँ रहेगी?” “शादी के बाद लड़का लड़की साथ में रहेंगे, कुछ दिन ससुराल में और कुछ दिन मायके में!” उसने हमारी शंका का निवारण किया।

“अरे वाह! सौदा बुरा नहीं है, अगर हमारी गुड़िया उसके घर रहने जायेगी तो उसका गुड्डा भी तो हमारे घर रहने आएगा!” हमने सोचा और आखिरकार बहुत सोच विचार के बाद अपनी गुड़िया का रिश्ता पक्का कर दिया।

ये तो उसके बाद पता चला कि ये तो हमारी परेशानियों की शुरुआत भर थी! हम इससे पहले भी गुड़िया का ब्याह कर चुके थे, पर इस बार तो ये मानो आन बान का सवाल हो गया था। मामले की गंभीरता तो हमें तब समझ में आई जब अगली मुलाकातों में रीमा ने शादी की तैयारियों की बातें शुरू कर दीं। वो रोज़ डींगे हाँकने लगी कि किस तरह वो लडके लड़की के लिए कपड़े बनवा रही है, गुड्डे का घर ठीक करवा रही है, नया फर्नीचर बनवा लिया है, वगैरा वगैरा। हमें अब यह डर सताने लगा कि उसके सामने हमारी गुड़िया का दहेज़ फीका ना पड़ जाए। जब हमने घर में इस बात की चर्चा की तो मम्मी ने हमें चपरासी के साथ शहर के एकमात्र लेडीज टेलर के पास भेज दिया। जब हमने उससे कपड़ों की कतरनें माँगी तो उसने रंग बिरंगी कतरनों का पूरा झोला हमारे सामने उलट दिया। हम तो ख़ुशी से नाच उठे! ऐसा लगा मानो कारूँ का खज़ाना मिल गया हो। मन ही मन टेलर को उसकी उदारता के लिए दुआएँ देते हुए हम वापस आये और अपना खजाना दीदी को सौंप दिया। साइंस लेकर पढ़ने वाली हमारी दीदी इतनी अच्छी सिलाई कर सकतीं हैं, देख कर हम ख़ुशी से नाच उठे। आखिर कार दीदी के सौजन्य से हमारे घर में भी गुड्डे गुड़ियों की साड़ियों और सूटों का ढेर लग गया। यही नहीं, दीदी ने उदारता दिखाते हुए अपनी पुरानी मोतियों की माला तोड़ कर गुड़िया के लिए तरह तरह के गहने बना दिये। लड़की का ब्याह एक बड़ी जिम्मेदारी होता है, ये बड़े बूढों से सुना था, पर इस ज़िम्मेदारी में जिस तरह हमारे परिवार ने साथ दिया, उससे हम गदगद हो गए। यहाँ तक कि हर समय हमारा खेल बिगाड़ने को तत्पर रहने वाले हमारे भैया ने भी दहेज़ का सामान बनाने में भरपूर मदद की। देखते ही देखते भैया ने माचिस की डिब्बियों से तरह तरह का फर्नीचर बना डाला। यहाँ तक कि मिल्क पाउडर के डब्बों की चम्मचों से प्रेशर कुकर और जूतों के डब्बे से कार भी तैयार हो गई। इस सहयोग के बदले भैया और दीदी को समय- असमय पानी, शरबत, चाय वगैरह पिलाने का ज़िम्मा हम पर आ गया, पर इज्ज़त बचाने की खातिर हमें सौदा घाटे का नहीं लगा।

दहेज़ की चिंता के बाद अब हमारी अगली चिंता थी बारात के स्वागत की। बारात तो लड़की वालों के घर ही आती है ना!
पर हमारी इस चिंता का भी भगवान ने समाधान भेज दिया। हुआ यूँ कि इसी बीच हमारी बुआ जी की बेटी आभा गर्मी की छुट्टियाँ बिताने हमारे घर आई। जबलपुर में रहने के कारण उसका शादियों में आना जाना होता रहता था और इसीलिये उसका अनुभवी साथ हमें वरदान की तरह लगा। उसने हमें बताया कि लड़की वाले भी तिलक ले कर लडके के घर जाते हैं, लिहाज़ा हम भी रीमा के आतिथ्यसत्कार का आनंद उठाने उसके घर पहुँच गए। पर हाय री किस्मत! रीमा यहाँ भी हम पर भारी पड़ी। तिलक वाले दिन रीमा ने हमारा स्वागत हलवे और दही बड़ों से किया। हमें बार बार बताया गया कि किस तरह दही बड़ों के लिए दाल पीसने के लिए दिल्ली से विशेष तौर पर ग्राइंडर मंगाया गया है। हम और भी प्रेशर में आ गए और शादी की दावत का मेनू बनाने में जुट गए।

खैर, राम राम करके ब्याह का दिन भी आ गया। हमारे घर में शादी की पूरी तैयारियाँ हो गई थीं। चपरासियों ने आँगन में चार बाँस गाड़ कर उसे केले के पत्तों से ढककर मंडप बना दिया था और आम की पत्तियों से सजा दिया था। महरी की बेटियों ने गेंदे के फूलों से सुन्दर मालाएँ गूँथ दी थीं और मंडप में लटका दी थीं। छोटी छोटी दो वर मालायें भी तैयार हो गई थीं। मम्मी की पुरानी साडी पहन कर हम मेहमानों का इंतज़ार कर रहे थे कि इतने में ही बरात आ गयी। बरात देख कर हम हैरान रह गए। शिवबारात की तरह इस बारात में भी रीमा ने हर तरह के बच्चों को जोड़ लिया था। आगे आगे साड़ी पहने रीमाजी चल रही थीं और उनके पीछे पीछे हाफ पेंट से ले कर फ्रॉक पहने हुए चार साल से लेकर दस साल तक के बच्चे अपनी नाक पोंछते हुए बेसुरी आवाज़ में गाने गाते हुए चले आ रहे थे। नाक पोंछने से फुर्सत मिलने पर ये बच्चे हाथ में पकडे टीन के डब्बों को बजाने लगते थे। हमें बड़ा गुस्सा आया। ये वही बच्चे थे, जिन्हें रीमा अपने साथ खेल में शामिल करना भी नहीं पसंद करती थी, पर बारात की शान बढ़ाने के लिए उन्हें ले आई थी।

हमारी तरफ के एकमात्र मेहमान थे पड़ोस वाले प्रिंसिपल अंकल के कॉलेज में पढ़ने वाले बेटे और बेटी, जो इस बरात को देख कर हँस-हँस कर लोट पोट हुए जा रहे थे। हमारी व्यस्तताओं का तो कोई अंत ही नहीं था। उम्मीद से अधिक बारातियों के आने से जो बद इन्तजामी हो गई थी, हम उसे सँभालने में लगे थे। जब प्लेटों में छोले और पूरी सर्व किया गया, तभी सीमा दनदनाती हुई हमारी दीदी के पास पहुँच गई, "दीदी! कई बारातियों को चम्मच नहीं मिले।” किचन में जाते हुए दीदी भुनभुनाई, “चम्मच पकड़ना आता भी है इन बारातियों को!” दरअसल उन्हें इतने शौक से बनाये गए व्यंजनों की बेकद्री बर्दाश्त नहीं हो रही थी। बड़ी मुश्किल से हमने उन्हें चुप कराया, आखिर हमारी इज्ज़त का सवाल था!
खैर, शादी पूरी शानो शौकत से संपन्न हुई और हमारी गुड़िया विदा हो कर चली गई। हमें एहसास हुआ कि बेटी की शादी के बाद घर कैसा खाली हो जाता है।

राम राम करके अगली दोपहर कटी और हम अपनी गुड़िया से मिलने शाम को रीमा के घर पहुँच गए। वहाँ पता चला कि दूल्हा दुल्हन शादी की रस्मों से इतने थक गए थे कि अब सोने चले गए हैं। खैर, हमारे इसरार करने पर दोनों को थोड़ी देर के लिए बाहर लाया गया। हमारा दिल उदास हो गया। लगा, हमारी गुड़िया अब पराई हो गई है।

इस समस्या का हल भी हमारी अनुभवी बहन आभा ने निकाला। उसने कहा, “कल हम विदा करने आयेंगे और लड़की लडके को मायके ले जायेंगे। अभी कई रसमें बाकी हैं जो मायके में होंगी।” बेमन से रीमा ने गुड्डे-गुड़िया को मायके भेजा, पर दो ही दिन बाद दोबारा ले गई।

अब तो हमारी सारी सोच का केंद्र यही हो गया कि कैसे गुड़िया को कुछ दिनों के लिए घर लाया जाये। कुछ दिनों बाद जब हमारे चाचा जी की बेटियाँ आईं तो हम फिर अपनी गुड़िया को उनसे मिलवाने ले आये।

इस तरह गुड़िया के मायके ससुराल के सफ़र में दिन गुजरने लगे। एक दिन हमने शर्मा आंटी को मम्मी से हँस हँस कर कहते हुए सुना कि रीमा सबसे कह रही है कि एक ही शहर में ससुराल होने का मतलब यह तो नहीं है कि लड़की सारा समय मायके में ही रहे। मम्मी सुन कर हँसते हँसते दोहरी हो गयीं पर हमारा खून खौल उठा। हम ने मन ही मन फैसला किया कि अगर भविष्य में हमारी कोई बेटी हुई तो रीमा के बेटे से उसका ब्याह कदापि नहीं करेंगे।

दिन इसी तरह बीत रहे थे कि अचानक एक दिन पापा के ट्रान्सफर के आर्डर आ गए। मन ही मन हमें ख़ुशी भी हुई कि अब हम अपनी गुड़िया वापस माँग सकते हैं। आखिर जब घर का सारा सामान पैक हो गया, तब हम अपनी गुड़िया वापस लेने रीमा के घर पहुँचे। आज रीमा के तेवर बदले हुए थे। वो बहुत शांत लग रही थी। हमारी गुड़िया के साथ साथ उसने उसके गहने कपड़े सब पैक कर के रखे थे। उसमें वो सब गहने कपड़े भी थे जो गुड़िया को ससुराल से मिले थे। हमने देखा कि उसने अपने गुड्डे के घर का फर्नीचर भी उठाकर स्टोर में रख दिया था और गुड्डा अकेला बैठा हुआ था। “अब बेचारा अकेला इन सब चीज़ों का क्या करेगा!” उसने उदास स्वर में कहा।

जिस गुड़िया को लेने हम इतने उत्साह से गए थे, उसे मय साजो सामान के वापस लाते हुए हमारे कदम मनों भारी हो रहे थे। पता नहीं ये सहेली से बिछड़ने का गम था या एक गृहस्थी के उजड़ने का दुखद एहसास, भरी आँखों से जब हमने मुड़ कर देखा तो रीमा बरामदे में खड़ी हो कर हाथ हिला रही थी। उसकी आँखें भी आँसुओं से भीगी हुई थीं!

२१ अप्रैल २०१४

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