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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से जयनंदन की कहानी— गोजरसिंह अमर रहें


उसे वे दिन बड़े उदास, बोझिल, बेमजा और बोरियत भरे लग रहे थे। भीतर के उत्साह की गर्दन पर लगता था एक जालिम पकड़ कसती जा रही है। एक नपुंसक आक्रोश में हल्की आँच पर दूध की तरह वह खौलता जा रहा था और धीरे-धीरे उसकी स्फूर्ति भाप की शक्ल लेती जा रही थी।

उस दिन शाम में उसने दुकान खोली तो हठात ऊपर उठकर उसकी नजरों ने देखा कि ‘पारस टेंट हाउस’ लिखे बोर्ड की चमक फीकी होती जा रही है। अंदर ƒघुसा तो उसका अक्स चारों ओर फैल गया। लगा जैसे शामियाना, कनात, तिरपाल, कुर्सियाँ, झालरें, चादरें, क्रॉकरी, पेट्रोमे€स, स्टीरियो, साउंड बॉ€स, कैसेट्स, पंखे, जेनरेटर्स, बिजली सजावट की सारी जिंसें सहमी हुईं, दुबकी हुईं और थकी हुईं गुनहगार की तरह उसे घूर रही हैं। उसने बत्ती जलायी, काउंटर पर कपड़ा मारा और एक कुर्सी पर उटंग गया।

अगल-बगल में लाईन की सारी दुकानें खुली हुई थीं। सामने की सडक़ पर आवागमन का सिलसिला शुरू हो गया था। उसकी आँखें दुकान के नौकर छगन को आसपास टोहने लगीं। कुछ ही पल में ƒघोड़े की तरह सरपट छलाँग लगाता और धौंकनी की तरह हाँफता छगन हाजिर हुआ और एक ऐसी ताजी खबर सुनाने लगा जो उसकी हताश मनोदशा को राहत देने की दृष्टि से मानों रामबाण थी। ‘पारस बाबू! गोजर सिंह मारा गया।’ तत्काल पारस को यूँ महसूस हुआ जैसे वह अर्द्धनिद्रा के सपने में विचर रहा हो, चूँकि गोजर की हत्या कभी खुद, कभी दूसरों द्वारा करवाने के सपने वह अ€सर देखा करता था। ‘तू होश में तो है’, इस अप्रत्याशित मुराद की ˆसत्यता पर पारस का विश्वास नहीं जम पा रहा था, चूँकि उसे मारने के बड़े-बड़े प्रयास कई बार विफल हो चुके थे और उसके कई शत्रुओं ने हार मान ली थी।

‘मैंने अपनी आँखों से देखा है, एक कार में वह जोगा और मूसल के साथ जा रहा था, तभी किनारे खड़ी एक कार से दनादन गोलियाँ चलने लगीं, तीनों वहीं पर ढेर हो गये’, छगन के बयान करने का अंदाज यों था जैसे हू-ब-हू उस दृश्य को सामने उपस्थित कर देना चाहता हो। ‘जोगा और मूसल भी साथ थे।’ हैरत-सी करती पारस की आँखें दोगुनी चमक उठीं, ‘तूने अच्छी तरह देखा, तीनों एकदम ढेर हो गये थे।’
‘एकदम मैंने सरेआम भीड़ में शामिल होकर देखा कि गोलियों से छलनी हो वे छटपटा-छटपटा कर दम तोड़ रहे थे।’ अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। पारस ने झट जेब से एक पचास का नोट निकाला और उसे थमाते हुए कहा,
‘भोला महाराज से पूरे का कलाकंद ले आओ।’ जब वह कलाकंद लेकर आया तो पारस अगल-बगल वाले कई दुकानदार मित्रों को अपनी दुकान में बुला चुका था-टायरवाला विक्रम, गैसवाला संतोष, स्टेशनरीवाला गोबरधन, टेलीविजनवाला मानिक, मेडिकलवाला जगदेव। पैकेट से मिठाई लेने के लिए उसने सबको आमंत्रित किया। इसके उपलक्ष्य की जिज्ञासा सबके चेहरे पर टँकी हुई थी।

पारस जान-बूझकर कौतूहलबढ़ाने की इच्छा से कुछ देर टालता रहा। जब उनकी अधीरता काफी बढ़ गयी तो चहकते हुए उसने उस चिर प्रतीक्षित गरमागरम खबर को मिठाई के साथ सबके समक्ष परोस डाला। पाँचों हतप्रभ रह गये। मिठाई उनसे उठायी न गयी। पारस को आशा थी कि खबर सुनते ही सबके चेहरे खिल उठेंगे तथा वे और-और मिठाई माँगने की होड़ करने लगेंगे, मगर इन्हें यह €क्या हो गया, जैसे मरने की खबर खून चूसनेवाले जोंक सदृश उन दुष्टों की नहीं, इनके किसी करीबी रिश्तेदार की सुनायी गयी हो! हद हो गयी-एक आफत से जान छुटी और चेहरे पर इत्मीनान की कोई झिलमिलाहट नहीं?

एक साथ सबको झकझोरने वाली नजरों से ƒघूरकर उसने कहा, ‘€क्या हो गया तुम लोगों को? मिठाई देखकर और एक आततायी की हत्या की सूचना पाकर मुँह का स्वाद बनने की जगह बिगड़ €यों गया?’
 ‘पारस...’, मानों सोते से जगा रहा हो विक्रम, ‘रक्तबीज के इन वंशधरों के असंख्य अदृश्य रूप होते हैं, €क्यों बेकार में संकट को दावत देते हो? बेहतर है मन के भाव को मन में ही रखो।’
‘ह: ह: ह:’, ठठाकर हँस पड़ा पारस, ‘मतलब, हम इस तरह भयभीत हैं उससे कि उसके भूत के अस्तिˆव से भी भय खा रहे हैं...बहुत खूब, बहुतखूब...’ वे लोग बिना बहस में पड़े उठकर चले गये। पारस बड़ी बेचारगी से उन्हें जाते हुए देखता रहा।

काफी देर तक उसकी स्थिति बड़े पेशोपेश की रही। क्या वह अपने तरीके से अपनी खुशी व्यक्त कर कोई अपराध कर रहा है? €या एक राक्षस की हत्या पर उसके शोषण-चक्र से छूटने का उत्साह गलत है? चाहे जो हो, आज वह किसी खौफ को अपने पास फटकने नहीं देगा। पारस ने ऐसा मन ही मन तय किया और छगन की मार्फत मिठाई राहगीरों में ही बँटवानी शुरू कर दी। अभी चौथाई भी नहीं बँटी थी कि सामने सडक़ पर भगदड़-सी मचाती हुई लोगों की भीड़ बेतहाशा भागने लगी, फिर धड़ाधड़ पास-पड़ोस के दुकानों के शटर गिरने लगे और देखते ही देखते पूरा बाजार बंद। सबसे आखिरी में बड़े भारी मन से पारस को भी शटर गिराना पड़ा। मन तो हो रहा था कि अकेले ही बैठे रहें पर फायदा ही €क्या था एकाएक ठंड से जमे इस जन-शून्य ग्लेशियर में बैठने का? अच्छा है, जल्दी से ƒघर पहुँचकर वह इस शुभ समाचार को बीवी-बच्चों के साथ एंजॉय करेगा। उसने आधी मिठाई छगन को दी और आधी स्वयं लेकर ƒघर चला आया। गद्गद् मुद्रा में तीन कंसों के संहार का संवाद सुनाकर बीवी और बच्चों में मिठाई बाँटी एवं एक अरसे बाद सबको जी भरकर ठहाकेदार लतीफे सुनाये। उस रात पारस को बहुत गाढ़ी नींद आयी और उसने किसी को मारने-मरवाने के सपने नहीं देखे।

सुबह हुई तो ƒघटना के विस्तृत विवरण हेतु बहुत ताजी मुद्रा में उसने ताजा अखबार सामने फैला लिया। मुख पृष्ठ पर ही मोटे-मोटे अक्षरों में फोटोसहित लंबा-चौड़ा विवरण अंकित था। उसे बड़ा अटपटा लगा-€क्या जरूरत थी इसे इतना महत्व देने की! शीर्षक पढ़ा तो मन एकदम भन्न गया। लिखा था - ‘तीन चर्चित नेता और समाजसेवी की गोली मारकर दिन-दहाड़े हत्या।’
हद हो गयी-अब अखबार का काम भी लल्लो-चप्पो और मस्काबाजी करना ही रह गया? फिर भला सच-बेबाक कौन कहेगा? गुंडों, शोहदों और उपद्रवियों को समाजसेवी कहकर ये €क्या जताना चाहते हैं? €या अखबार की यही भूमिका है? पारस से आगे एक अक्षर न पढ़ा गया। उसने उसे समेट कर पुराने अखबारों के ढेर तले दबा देना चाहा ताकि नवीं कक्षा में पढऩेवाला उसका चतुर-चंचल बेटा सुलेख इसे न देख पाये। मगर तब ही सामने चाय की Œप्याली लिये सुलेख खड़ा था।

‘अरे तुम स्कूल नहीं गये?’ ‘जाकर वापस आ गया, दो दिन के लिए गोजर सिंह के शोक में पूरा शहर बंद रहेगा। अखबार में आपने पढ़ा नहीं? लाइये, मैं देखता हूँ।’ एकदम मानों पथरा-सा गया पारस! €क्या सचमुच रात की नींद पर कहर ढाने वाले उन गुंडों की मौत से दुखी है नगर! अब तक तो राष्ट्रपति तक के मरने पर रेडियो और टीवी के अलावा नगर बिल्कुल स्थगित कभी नहीं रहा, फिर इन लल्लुओं के लिए ऐसा अभूतपूर्व मातम मनाने की कुराफात किसके दिमाग की उपज है। उसे बरबस याद आया कि एक जन्म-दिन-पार्टी और Ÿश्राद्ध के लिए उसका शामियाना आज बुक है, इसलिए उसे तो दुकान खोलनी ही है और बुक न रहने पर भी इस सार्वजनिक बेवकूफी का समर्थन उससे तो संभव नहीं ही था। सुलेख अब तक अखबार में नगर-बंद के आह्वान का कोना ढूँढ चुका था।

पारस ने देखा-निवेदकों में सत्ताधारी पार्टी के कुछ जिलास्तरीय ओहदे से विभूषित गोजर के ही कुछ कट्टर दुमछल्लों के नाम छपे हैं। निवेदन का अंदाज ऐसा था मानों वे बहुत ही सर्वमान्य और सर्वप्रिय व्यक्तित्व को क्या से क्या रुतबा बख्श रहे हैं! सुलेख मोटे हरफों वाली इबारत पढ़कर पूछ रहा था,
‘पापा! आपने तो इन्हें गुंडे और बदमाश कहा था, लेकिन अखबार इन्हें नेता और समाजसेवी लिखता है! €क्या ऐसे ही लोग नेता और समाजसेवी कहे जाते हैं?’

पारस के पास हालाँकि बी.ए. तक की शिक्षा और दुनियादारी का लंबा अनुभव था, मगर सुलेख के बहुत सारे निष्कपट मासूम प्रश्नों के उसके पास कोई उत्तर नहीं होते। दरअसल सीखे-लिखे शब्दों के संहिता और अर्थ को जीवन में बदले हुए देखकर स्वच्छ, सरल दिमाग में ढेरों विह्वल प्रश्न उग आया करते थे--मसलन मुख्यमंत्री का चुनाव अब विधायकों द्वारा €क्यों नहीं कराया जाता? उन्हें जब मरजी तब €क्यों हटा दिया जाता है? अडिय़े-खडिय़े को भी राज्यपाल का पद €क्यों दे दिया जाता है? प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को जब हि‹दी नहीं आती तो हि‹दी हमारी राष्ट्रभाषा कैसे है? झंडा फहराने या सैनिक परेड की सलामी लेने का काम अब राष्ट्रपति टोपी पहनकर €क्यों नहीं करते? राजतंत्र नहीं होने पर भी प्रधानमंत्री का पद एक ही परिवार के पास ƒघूम-फिर कर किस जादू से चला जाता है? भला इन जलते प्रश्नों के बुझते जवाब की राख कैसे डाली जाये सुलेख के कोरे-कमसिन दिमाग पर? पारस कह दिया करता था कि वह बड़ा होते ही इन प्रश्नों का रहस्य स्वयं समझ लेगा। आज भी उसने यही कहकर टाल दिया।

जब पारस दुकान पर चला तो सर्वत्र एक सर्वग्रासी निर्जनता पसरी हुई थी। दुकान के पास दो सज्जन, जन्मदिन और Ÿश्राद्धवाले चक्कर काट रहे थे। पारस को देखकर वे खुश हो उठे। उसने दुकान खोली, मगर सामान निकालने और लगाने वाला छगन लापता था। छगन के न आने पर वह अक्सर पीछे की झोपड़पट्टी से कामचलाऊ आदमी बुला लिया करता था। आज उसने एक बुलाया तो चार आ गये, चूँकि बंदी के कारण वे यों ही बेकार बैठे थे और खैनी-बीड़ी तक की तलब को उन्हें मुअˆतल करना पड़ रहा था। दरअसल बंद की असली मार रोज कमाकर रोज खाने वाले इन गरीबों को ही सबसे ज्यादा झेलनी पड़ती है। बेचारे महज चार-आठ आने के लालच में उसके पीछे दौड़ गये, मगर यह भी कहाँ बदा था।

वे मिलकर सामान निकालने लगे, तब ही कडिय़ल और झबरैल मूँछोंवाले सात-आठ मुस्टंड किस्म के लोग दरवाजे पर यमदूत की तरह प्रकट हो गये। उनमें से एक ने बेहद खूँखार और चांडाल भंगिमा बनाकर धमकी उछाली, ‘अंधे हो या अपने को फ‹ने खाँ समझते हो। सूझ नहीं रहा कि सारा नगर बंद है? टेंटुआ दबा दें या दुकान स्वाहा कर दें।’

पारस के मानों रोम-रोम त्राहिमाम कर उठे। मिमियाते हुए स्वर में कहा उसने, ‘दरअसल इनके आर्डर पहले से ही बुक हैं। इनके यहाँ Ÿश्राद्ध है, दूसरे के यहाँ जन्म दिन का जलसा। इन्हें सामान देकर मैं तुरत बंद कर देता हूँ।’ ‘एक बार कहने से तुम्हें समझ में नहीं आया? तीन-तीन महान व्यक्तियों की लाशें पड़ी हैं और तुम्हें आर्डर सूझ रहा है। शर्म नहीं आती आज के दिन जलसा-वलसा के लिए सोचते हुए। €या दो दिन के लिए Ÿश्राद्ध और जन्म-दिन रोक नहीं सकते, उल्लू कहीं के। चलो, जल्दी शटर गिराते हो या निकालूँ माचिस।’

इनके बहशी तेवर और रुख देखकर सहमते हुए कुली समेत दोनों ग्राहक बाहर निकल आये। पारस ने झट शटर गिराकर ताला जड़ दिया। उसका सारा उत्साह अब अंतिम रूप से हवा हो गया था। बहुत खुश था न वह कि तीन ग्रहों के टलने से नगर में अमन-चैन छा जायेगी। उसके रोजगार के रास्ते निष्कंटक हो जायेंगे। किसी आतंक या रौब तले उसकी इच्छाएँ अब बलि नहीं चढ़ेंगी...मगर लगता है यह सब महज एक अबोध भ्रम था। हत्या का यह प्रयास भी शायद विफल ही हुआ। विक्रम ने ठीक ही कहा था कि ये सब रक्तबीज की औलादे हैं, जो अपने खून की एक-एक बूँद को अपनी एक-एक आकृति देकर इन्हें उत्तराधिकार सौंप गये हैं। पारस गैर मुहल्लेवाले कुत्ते की तरह दुम दबाकर चलने को हुआ तो पीछे से एक ने मानों हिदायत का जोरदार पंजा मार दिया, ‘इन नेताओं के सार्वजनिक Ÿश्राद्ध के दिन पार्टी ऑफिस के पास तुम अपना सारा टेंट तैयार रखोगे।’ बँधी हुई की वजह से बमुश्किल हाँ में गर्दन हिलाकर वह सरपट चलता बना। बर्छी सदृश नुकीले और जहरीले शब्द उसके सीने में भर रास्ते धँसते चले गये। अब उसे कहीं से भी नहीं लग रहा था कि गोजर मारा गया है।

जिस तरह आज उस पर हिटलरी अंदाज में हुक्म लादा गया, हू-ब-हू यही तेवर गोजर का भी हुआ करता था। वह जब चाहता था उस पर अपनी गूँगी-बहरी रियाया समझकर शान और हेकड़ी गाँठ लिया करता था। पारस की मजाल नहीं कि चूँ करने की भंगिमा भी मुँह पर ले आये। चूँकि नगर के एक से एक बड़े-बड़े जघन्य अपराधों का वह सूत्रधार या जनक नाम से कुख्यात था। वह यहाँ के तमाम ठेकेदारों का, किसी को फूटी आँख न भाने के बावजूद, स्वयंभू अधिपति था। पार्टी के लिए बड़ी से बड़ी थैली जुटाना उसके लिए कोई दुष्कर कार्य नहीं था। इसी काबिलियत पर वह सत्ताधारी पार्टी का नगर अध्Šयक्ष भी था। अपने प्रभाव से पारस की लाइन में एक दुकान सŽजाकर उसने पार्टी-ऑफिस बना रखी थी। उसे महीने में औसतन दो-तीन बार टेंट, कुर्सियाँ, माइक आदि की जरूरत पड़ा करती थी। पारस को हाथ बाँधे, पूरी दुकान सिर पर लिये सेवा में प्रस्तुत रहना पड़ता था। कभी जन्मशती मनती, कभी दौड़ का आयोजन होता, कभी फलाने नेता का आगमन, कभी चिलाने का अभिनंदन, कभी ढेकाने का भाषण। दिवस तो न जाने कौन-कौन नहीं मनता था - सद्भाव -दिवस, अभाव-दिवस, वृद्ध-दिवस, महिला -दिवस, बाल-दिवस, युवा-दिवस, शिक्षक दिवस, विद्यार्थी दिवस, कुष्ठ-दिवस, पुष्ठदिवस, हि‹दी-दिवस, अंग्रेजी-दिवस, सर्वभाषा-दिवस, मूक-दिवस, वधिर-दिवस, नेत्रहीन-दिवस, शेर-दिवस, स्यार-दिवस, पेड़-दिवस, पहाड़- दिवस, फूल-दिवस, फल-दिवस...मतलब तीन सौ पैंसठ दिनों में कम से कम एक सौ अस्सी दिवस। गोजर का जब फरमान हो जाता तो पारस के लिए यह बिना कहे बाध्यता हो जाती थी कि वह उस दिन का आर्डर कहीं अन्य बुक न करे।

एक बार गोजर के किसी कार्यक्रम की सूचना न रहने पर उसने एक शादी के लिए काफी बड़ा आर्डर बुक कर लिया। अचानक उसी दिन किसी बाढ़-इलाकेका हवाई सर्वेक्षण करके ऊपर से गुजरते हुए मुख्यमंत्री को यहाँ रुकने का मन हो आया और वे लैंड कर गये। किसी ने याद दिलाया कि आज मुख्यमंत्री को कुर्सी सँभाले पूरे सात महीने हो गये। बस, फिर €क्या था, शाम में ‘सप्तमासिक गाँठ’ मनाने की भव्य योजना तय हो गयी। फटाफट लाइन के दुकानदारों से चंदा चूसा गया और पारस टेंट हाउस की सख्त तलब हो गयी। पारस ने टेंट के बुक होने की गिड़-गिड़ाकर इत्तिला दी। मानों ऐसा करके उसने अपराध कर दिया हो। गोजर ने बम की तरह फटते हुए कहा, ‘वह कुछ नहीं सुनना चाहता। मुख्यमंत्री के सप्तमासिक -गाँठ से महˆवपूर्ण नहीं है किसी नत्थू-खैरे की शादी। वहाँ से फौरन उठवाकर सारा लाव लश्कर यहाँ ले आओ।’ सारा इंतजाम वहाँ मुकम्मल हो गया था। किसी बड़े रईस आदमी की बेटी की शादी थी। किस मुँह से वह वहाँ रंग में भंग करता और वे ऐसा करने भी €क्यों देते। न उनसे उगलते बन रहा था, न निगलते। अ‹तत: उसे खुद के खर्च पर ट्रक भेजकर दूसरे टेंट हाउस से सामान मँगवाना पड़ा था। उस रोज से कहीं भी आर्डर लेने के पहले वह पार्टी-ऑफिस से एक बार दरयाख्त जरूर कर लेने लगा।

इस तरह से तबाह और तंग-तंग सिर्फ पारस ही नहीं लगभग सारे दुकानदार थे। मगर पारस ज़्यादा पीडि़त इसलिए था कि उसकी दुकानदारी लकवाग्रस्त हो जाया करती थी, जबकि और लोगों का पिंड चंदा देने भर से ही छूट जाता था। हाँ, कभी-कभार विक्रम को जीप के लिए टायर, मानिक को वीडियो सेट, संतोष को गैस सिलिंडर और अन्य दुकानदारों को छोटी-मोटी चीजें ‹न्योछावर करनी पड़ती थीं। पारस की ऊब अब इस तरह चरम पर पहुँच गयी थी कि वह व्यवसाय बदलने की योजना पर मन ही मन गंभीरता से विचार करने लगा था, €क्योंकि उसकी मानसिक और आर्थिक अवस्था बिल्कुल बेतरतीब हो गयी थी। इस व्यवसाय में उसकी रुचि और सक्रियता बिल्कुल सुस्त और डावाँडोल होती जा रही थी। उसे अब वे दिन याद आ रहे थे जब पिता की हार्डवेयर-दुकान में उसने जबरन टेंट का धंधा शुरू कर दिया था। उन दिनों उसे इस पेशे में काफी लुत्फ आने लगा था। एक जगह बैठकर बोर होने की जगह दौड़-धूप का काम तथा अलग-अलग पसंद और जरूरत के अनुरूप ढलने वाले उसके शामियाने की वेश-भूषा व साज-सज्जा उसे बड़ी रोमांचकारी लगती थी। उसने दिलचस्पी के साथ जमकर मेहनत की और देखते ही देखते पूरे नगर में छा गया। दुर्गा-पूजा में दो-ढाई लाख तक की लागत से उसके द्वारा बनाये जाने वाले महलनुमा पंडाल की चकाचौंध जिले भर का आकर्षण का केंद्र बन जाती थी। तब पंडाल का आलीशान वजूद मानों उसका वजूद बन जाता था। पंडाल की भव्यता और चमक उसके ललाट पर दमकने लगती थी।

एक पुरानी घटना उसे भूले नहीं भुलती। उस बार नगर की नदी इस तरह उमड़ पड़ी थी कि यहाँ का हर ठौर जलमग्न हो उठा था। तब पानी से बचे एकमात्र फुटबॉल मैदान पर राहत-शिविर लगाने के लिए डीएम ने उसे ऑफर किया। उसने करीब-करीब एक हजार वर्ग मीटर वाले उसे मैदान को शामियाने से फटाफट आच्छादित कर दिया। नगर की अधिकांश आबादी इसमें आकर सिमट गयी थी। शामियाने की मार्फत अपने विस्तार और उपकार को महसूस कर उसे अपने-आप पर गर्व हो उठा था। नगर भर की दुआएँ उस पर बरस रही थीं और उसे बराबर यही लगता रहा था कि शामियाने की जगह मानो वह स्वयं फैलकर सबको समेटे हुए है। इस एहसास का सुख वह चंद दिन ही उठा पाया था कि गोजर के दबंग वजूद ने यों लील लिया उसका कद कि वह महज एक कनात से भी तुच्छ हो गया। मानों शामियाने के गौरवशाली इतिहास, विस्तृत भूगोल और समृद्ध गणित को गोजर सदृश आसमान ने नेस्तनाबुद कर दिया। चिंता के जो दुखद मेƒघ दिमाग से कल छंट गये थे, आज पुन: ƒघिर आये, नींद की बुनावट फिर गाढ़ी से झीनी हो गयी।

दूसरे दिन अखबार से सूचना मिली कि आम जनता के दर्शनार्थ दिवंगत नेता गोजर सिंह का पार्थिव शरीर तिरंगे में लपेटकर पार्टी-ऑफिस में रखा गया है और कल जब पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी दिल्ली से पधारेंगे तो इनका दाह-संस्कार सम्प‹न होगा। ‘दर्शनार्थ’ शब्द पर पारस के मुँह में मानों ढेर सारा बलगम भर आया और ‘तिरंगे में उसे लपेटा गया’ पढ़कर लगा कि अपना ही सिर फोड़ ले। लुच्चों-लफंगों और चोर-चुहाड़ों की इस तरह सरे आम जय-जयकार और मान। €या दुनिया से अब ईमानदारी और सत्यनिष्ठा को खत्म कर बईमानी और कमीनगी को ही प्रतिष्ठित कर देना है। अखबार के अधिकांश हिस्से में उसी से संबंधित खबरें थीं-जैसे गोजर सिंह के मरने के बाद दुनिया में और कुछ होना-ƒघटना बंद हो गया हो। उसने मोटे-मोटे शीर्षक पर नजर दौड़ायी- ‘पुलिस द्वारा हत्यारों की सरगर्मी से तलाश’, ‘नगर के राजनीतिक-मंच से एक महान नेता का पटाक्षेप’, ‘जन-जन का प्रिय प्रतिनिŠधि गोजर भाई’, ‘गरीबों ने अपना हमदर्द खोया’ आदि के अलावा कई जाने-माने व्यक्तियों के नकली भावुकता सने मनगढ़ंत संस्मरण छपे थे। मतलब गोजर की स्तुति और कीˆर्तन करने में अखबार ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पारस ने सोचा-€क्या ऐसी ही करतूतों से अखबार लोकतंत्र का प्रहरी माना जायेगा?

दाह-संस्कार के अगले दिन नगर-बंद समाप्त हो गया। दुकानें खुल गयीं। पारस ने देखा - पार्टी ऑफिस के झंडे अब तक झुके हुए हैं। झंडे की इस फजीहत पर उसका मन भर आया। दुकान खोलकर उसने आगे के पेड़ तले पाँच-छ: कुर्सियाँ बिछा दीं और दोस्तों के आने का इंतजार करने लगा। काफी कुछ मन में गुबार जमा था - वह एक-एककर सबके सामने निकाल देना चाहता था। कुछ ही देर बाद अपनी-अपनी दुकानें खोलकर विक्रम, संतोष, गोबरधन, मानिक और जगदेव आ पहुँचे। पारस छेडऩा ही चाहता था कि तपाक से मानिक टपक पड़ा, ‘पारस, तुम कल दाह-संस्कार में आये नहीं।’
पारस के ललाट पर अनगिनत टेढ़ी रेखायें खिंच गयीं, ‘दाह-संस्कार में,’ उन कंस-कसाइयों के दाह-संस्कार में मैं जाता। यह €क्या पूछ रहे हो तुम?’
‘चुप भी रहो,’ जगदेव ने हल्का-सा झिडक़ दिया, ‘पता नहीं तुम कर्टसी कब सीखोगे। अरे बर्खुरदार, हाथी के दाँत खाने के और होते हैं और दिखाने के और!’ पारस फ€क होकर मुँह देखता रह गया। गोबरधन ने आगे कहा, ‘पता है, तुम्हारे बारे में उसके दरबारी लोग पूछ रहे थे कि टेंटवाले पारस को नहीं देख रहा हूँ। हमें झूठ बोलना पड़ा कि उसकी तबीयत खराब हो गयी है।’
‘टेंट की जरूरत होगी स्सालों को। लगता है जैसे हम उसके बाप की जमींदारी में बसते हैं।’
‘तुम बात नहीं समझते हो, ऐसे मौके पर जान-बूझकर जाना चाहिए। खामखा नजर में चढऩे से €क्या फायदा! हम दुकानदार हैं... दबके नहीं रहेंगे तो एक मिनट गुजारा नहीं होगा।’ जगदेव ने समझाते हुए कहा। ‘मतलब, तुम लोग सब के सब गये थे उसे फूँकने।’ पारस की अंतरात्मा मानों विलख उठी।
‘पाँच हजार आदमी की भीड़ थी वहाँ! हमारे जाने न जाने से उसका कुछ बनने-बिगडऩे वाला नहीं था। लेकिन हम चूँकि एक लाइन से ताल्लुक रखते हैं इसलिए हम पर विशेष नजर थी उसके सिपहसलारों की और इसीलिए हमें वहाँ बहुत बढ़-चढक़र हाथ बँटाना पड़ा।’ संतोष ने उसकी हैरत को निरस्त करना चाहा।

अब पारस के भीतर का गुबार भीतर ही दुबक गया था। बेकार इन्हें कहने से कुछ लाभ नहीं। अब तक अखबार आ चुका था। अनमनेपन से वह मुखपृष्ठ पर जलती चिता की रंगीन तस्वीर हिकारत से निहारने लगा। सब अखबार की ओर झुक गये। इसी दरम्यान पार्टी ऑफिस की ओर से चलते हुए भुआड़ किस्म के चार-पाँच शोहदे आ खड़े हुए। एक ने बड़ी भद्दी शक्ल बनाकर पूछा, ‘पता चला है कि भाईजी के मरने पर यहाँ किसी मादर... ने मिठाई बाँटी थी। मरदूद का जना कौन है वो।’ सबके चेहरे सफेद पड़ गये...कलेजा धक-धक करने लगा। पारस को लगा कि वह गश खाकर गिर पड़ेगा। कहीं पोल खुली तो वे लोग उसका कचूमर निकालकर रख देंगे। कंठ सबके अवरुद्ध हो गये थे। विक्रम ने सोचा कि झट सफाई न दी गयी तो मामला और उलझ जायेगा। उसने तुरंत खुद को सँभाला,
‘हम लोगों से €क्या आप ऐसी उम्मीद करते हैं। गोजर बाबू हमेशा हमारे बहुत आत्मीय रहे। उ‹होंने हर आड़े समय में हमें संरक्षण दिया। फिर हम भला मिठाई बाँटेंगे। ऐसा तो कोई उनका दुश्मन ही कर सकता है।’
‘विश्वास तो हमें भी नहीं आ रहा था, लेकिन किसी ने जानकारी दी तो पूछना पड़ गया। खैर, सुना है कि उस रोज भोला महाराज ने अपनी मिठाई-दुकान खोलकर रखी थी। जरा आप लोग हमारे साथ आइये तो...।’ सब लोग उनकी जी-हुजूरी से करते हुए साथ हो लिये। पारस को लग रहा था कि अब उसकी पोल खुलकर रहेगी...आज किसी भी तरह उसकी खैर नहीं। मगर शुक्र था कि भोला महाराज पर वे कुछ और ही आरोप मढऩे गये थे। एक-दो गंदी गाली बकने के बाद उ‹होंने कहा था, ‘भाई जी के मरने की खबर सुनते ही तूने होटल तुरंत बंद €क्यों नहीं किया? इतने प्रतापी आदमी मरे और तुम्हें मिठाई बेचने की पड़ी थी। हम पूछते हैं किसी को €क्या हक था उस दुख भरे दिन को मिठाई खाने का। थोड़ी सी लाज-शरम तुम्हें नहीं आयी कमीने।’

भोला हाथ जोडक़र गिड़गिराते हुए माफी माँगने लगा। तब माफ करने की कृपा दर्शाते हुए उनमें से दूसरे ने कहा, ‘कान खोलकर सुन लो, माफ तुम्हें इस शर्त पर हम कर रहे हैं कि उनके Ÿश्राद्ध के दिन पूड़ी आदि बनकर यहीं से जायेंगी...समझे।’ भोला सुनते ही मानों अधमरा-सा हो गया। वे लोग पलटकर चलने लगे। रास्ते में एक ने पारस को पुकारा। सबके कान खड़े हो गये...पारस का जी धक से रह गया। ‘पारस सेठ! तुम्हारी कुछ शिकायत है। बंद के दिन तुमने दुकान खोलकर रखी थी। कल दाह-संस्कार में भी तुम शामिल नहीं हुए...देखना आगे होशियार रहना।’ इतना कह वे चले गये। बंद के दिन दुकान खोलने की बेवकूफी जानकर पारस को सब एक साथ कोसने लगे। उससे कुछ कहते नहीं बना। चूँकि अब वे उसे नादान साबित कर इस अधिकार से डांट रहे थे कि मिठाई बाँटनेवाले केस में उन्हीं लोगों के चलते वह बच गया। पारस बहुत बुरा मुँह बनाकर उन्हें झेलता रहा। वह जब उस रोज ƒघर पहुँचा तो इस तरह थका-टूटा था जैसे सौ-पचास जूते खाकर आ रहा हो। अगले दिन अखबार में नगर के पार्टी अध्यक्ष पद को झपटने के लिए चल रही रस्साकसी और सिर-फुटौव्वल की विस्तृत जानकारी थी। इस पद के लिए आवश्यक योग्यता से सब अवगत थे। गुंडई और हत्या-रक्तपात में अव्वल तथा असामाजिक तत्वों के सरगना माने जानेवाले या ऊपरवाले की नजर में वफादार और नमक हलाल साबित होने वाले को ही यह अवसर मिलना था।

पारस के Šध्यान में पूरी व्यवस्था की कार्य-प्रणाली ƒघूम गयी- मुख्यमंत्री, मंत्री, राज्यपाल और अध्यक्ष आदि पदों के लिए भी लगभग ये ही आधार प्रचलित थे। संविधान में चाहे जो तरीके वर्णित हों लेकिन आलाकमान नाम का एक ताकतवर करिश्मा था जो पर्वत को राई और राई को पर्वत कर सकता था। ‘छपते-छपते’ एक खबर थी कि फिलहाल पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने नगर के लिए कार्यवाहक अध्यक्ष डमरू सिंह को नियुक्त किया है। इस नाम के पढ़ते ही इससे जुड़ी हाल की एक सनसनीखेज ƒघटना दिमाग में ƒघूम गयी। डमरू सिंह गोजर सिंह का दाहिना हाथ माना जाता था। अपनी ऐय्याशी और कमीनगी को तृप्त करने के लिए अक्सर वह शहर के एक मात्र अनाथाŸश्रम से जवान लड़कियों को उठा लाता था। रात में अगर इनके कोई विशिष्ट अतिथि होते तो उनकी सेवा में भी लड़कियाँ पेश कर वे बड़ा फख्र महसूस करते थे।

इस निर्लज्ज कारनामे की जानकारी आश्रम के संचालक, समर्पित समाजसेवी बूढ़े गणेश बाबा को एकदम नहीं थी। एक दिन लड़कियाँ उनके सामने फट पड़ीं। सुनते ही क्रोध से उनकी नसें फटने लगीं। उनहोंने स्थानीय दरोगा से लेकर प्रधानमंत्री तक को इसकी सूचना भिजवायी और डमरू-गोजर के विरोध में रैलियाँ निकालीं और नारे लगवाये। तब ही एक दिन बाबा अपने कमरे में छूरों से छलनी मृत पाये गये। अखबार ने बीच पन्ने के किसी उपेक्षित कोने में एक छोटी-सी खबर छापकर अपने कˆर्तव्य का निर्वाह कर दिया। स्कूल, धर्मशाला, पुस्तकालय, अनाथाŸश्रम, वानप्रस्थाŸश्रम आदि का निर्माण कर उनहोंने अपने उपकारों से नगर को सदा के लिए अपना ऋणी बना लिया था। सही मायने में जन-जन के अदरणीय थे। फिर भी उनकी हत्या के खिलाफ किसी की आवाज सुनायी नहीं पड़ी। कोई निंदा और भर्त्सना सामने नहीं आयी। हत्यारे की गिरफ्तारी में पुलिस की निष्क्रियता की किसी ने शिकायत नहीं की। बाबा उस रोज सचमुच ही अंतिम रूप से मर गये, जबकि गोजर सिंह मरने के बाद जोरदार तरीके से जी उठा।

पुलिस ऊपर से दबाव पाकर काफी लोगों की निरर्थक धड़-पकड़ में संलग्न थी। नेताओं के नये-नये बयान रोज छप रहे थे। हत्यारों को गिरफ्तार कर कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की माँग की जा रही थी। इन्हें पढ़ते हुए पारस को यूँ लग रहा था जैसे शब्द अंगारे बनकर आँखों को जलाने लगे हों। खासकर एक जानकारी से तो उसका रक्तचाप दिन भर के लिए असामान्य हो उठा था, जिसमें सरकार ने ऐलान किया था कि गोजर सिंह की विधवा को एक लाख रुपये का मुआवजा दिया जायेगा। प्रदेश अध्यक्ष ने भी ƒघोषणा कर दी थी कि आगामी चुनाव में उसकी विधवा को एमेले का टिकट प्रदान किया जायेगा। पारस को लगा कि वह एक यातना की कोठरी में बंद होकर जी रहा है या कि दुनिया ही यातना की कोठरी में तब्दील हो गयी है। जहाँ जीवन-मूल्यों की कोई कीमत नहीं, जहाँ बेईमानी और दरिंदगी ही प्रशंसित-पुरस्कृत हो रही है।

मुआवजे की बात पर एक जख्म भीतर ही भीतर मानों टीस गया - नगर के बीच से बहने वाली नदी पर पुल बनाते हुए लगभग सौ कारीगर और इंजीनियर शहीद हो गये थे। उनमें बमुश्किल दस परिवारों को मात्र पाँच हजार रुपये की अनुग्रह राशि दी गयी थी। यह कैसा अंधा चमत्कार था कि जिंदगी के पुल बनाने वाले की कीमत मात्र पाँच हजार और तोडऩे वाले की कीमत एक लाख! हैरत तो तब होती है जब कहीं इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखती, कोई हंगामा नहीं होता। इसके खिलाफ कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता। हरेक को बस निजी लाभ-हानि भर से मतलब है। इसके लिए चाहे जो तलवे मिलें कीचड़ सने या दूध धुले चाट लेने में कोई एतराज नहीं। पारस की आँखों में एक शर्मनाक मलाल की परत छा गयी। इस अनुभूति से कि वह खुद भी इसी बुजदिल और निहायत खुदगर्ज मानसिकता से ग्रस्त है। उस रोज पारस दुकान में बैठा यों ही आड़ी-तिरछी रेखायें खींच रहा था। बेख्याली में ही एक गाय और उसके थन में लटके हुए दसियों साँपों की आकृति बन गयी। अब उसने जान-बूझकर गाय के मुँह के पास पगहे से बँधा एक निरीह बछड़ा बना डाला। अब दूर से आते साँपों के दुश्मन नेवले का रेखांकन करने की उसकी इच्छा हो गयी।

मगर इसी वक्त उसका Šध्यान भंग हो गया। उसके अगल-बगलवाले पाँचों दोस्त मुड़े हुए सिर लिये सामने खड़े थे। पारस देखकर ठगा रह गया - €क्या हो गया इन्हें? कहीं राष्ट्रीय एकता के लिए सिर मुड़ाने का आह्वान तो नहीं किया गया है? दीख तो यूँ रहे हैं जैसे कोई मेडल लेकर आ रहे हों। तब ही उसे याद आ गया कि आज गोजर का दशकर्म है। तो खुद को शुभचिंतक और हमदर्द साबित करने के लिए सिर तक मुड़ा लिये इन लोगों ने? अति हो गई अब तो। धिक्कार के कटु वाक्य उसके कंठ से फूटने ही वाले थे कि विक्रम बोल पड़ा, ‘मुँह €क्या देख रहे हो। ƒघाट पर डमरू सिंह तुम्हें ढूँढ रहा था। जल्दी जाओ और बाल छिलवा लो, नहीं तो तुम्हारे प्रति उनका शक बिल्कुल पुख्ता हो जायेगा।’ पारस की आँखें लाल हो गयीं। गुस्से से उसके होंठ फड़-फड़ करने लगे, ‘मेरा बाप नहीं था वह कि मैं बाल छिलवाऊँ।’ ‘ज़्यादा होशियार मत बनो। €क्यों नाहक जान आफत में डालते हो? सिर मुड़ाने की वहाँ आपाधापी हो रही है। वे सब बेवकूफ नहीं हैं। उठो, जाओ, अपना नहीं तो बाल-बच्चों का तो ख्याल करो...।’

पारस बुत बन गया मानों गोबरधन ने उसे बाजू से उठाकर रास्ता पकड़ा दिया। उसके पाँव अनायास नदी की तरफ बढ़ते चले गये। जब वह घर लौटा तो उसके सफाचट चेहरे को देखकर पत्नी सन्न रह गयी, जैसे वह पहचान ही न पा रही हो। पारस का मुँह यों कांतिहीन और उतरा हुआ लग रहा था जैसे बिजली से सावधान करने के लिए नरकंकाल का फोटो टंगा होता है। जब पत्नी ने इस हुलिया का सबब पूछा तो उसके चेहरे पर ढेर सारी कातरता उमड़ आयी। होठों पर दुबकी हुई एक असहाय चुप्पी को शब्द देना चाहा तो भीतर का ठहरा हुआ अपमान-बोध आँखों से हरहराकर चू पड़ा। ‘सुलेख की माँ, आज मैं सिर्फ अपने बालों पर नहीं बल्कि अपने वजूद और गैरत पर भी उस्तरा चलवाकर आया हूँ। मेरा रहा-सहा स्वाभिमान भी आज कमीनों के तलवों तले कुचल गया सुलेख की माँ... कुचल गया।’ पारस एकदम अबोध बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़ा। अब उसका यह भ्रम अंतिम रूप से दम तोड़ गया था कि किसी गोजर रूपी रक्त-बीज के मरने से राहत या चैन जैसी कोई चीज मिलने वाली है। इसलिए गोजर के अंतिम Ÿश्राद्ध तेरहवीं को शामियाना देकर उसने इस पेशे का भी अंतिम Ÿश्राद्ध कर दिया। सामान जो बाहर निकले, उन्हें पुन: वापस लाने की बजाय उनके साथ दुकान के बचे सारे सामानों को दूसरे टेंट-हाउस वाले के हाथों औने-पौने दामों में बेच डाला। हालाँकि उसे इसका गहरा क्षोभ था कि तय किया हुआ एक लंबा सफर, पाया हुआ एक लंबा-चौड़ा विस्तार फिर शुरुआत के शून्य में बदला जा रहा है। फिर भी भीतर एक नयी उमंग भी उमड़ रही थी कि थपेड़ों के खिलाफ जाकर एक नया सफर फिर से आरंभ करने का माद्दा उसमें शेष है।

पिता की लीक पर वापस होकर उसने टेंट हाउस को पुन: हार्डवेयर की दुकान में परिवर्तित कर डाला। सब लोग इस साहसिक कायापलट को आश्चर्यचकित हो देखते रह गये। अब स्साले करें, कितना जलसा करते हैं! बगल में टेंट हाउस देखकर जब मन किया फटाफट कार्यक्रम तय कर लिये। अब ले जायें यहाँ से पेंट या अलकतरा और पोतें अपने मुँह में या स्क्रू और पेंचकस ले जाकर टाइट कर लें अपनी खोपड़ी में। पारस में आशा की एक लौ फिर जल उठी थी कि उसकी शांति अब दोबारा लौट जायेगी और वह बिल्कुल सामान्य हो उठेगा। तभी उसने सुना कि उसकी दुकान के ठीक सामने वाले चौराहे पर गोजर की एक आदमकद मूर्ति स्थापित की जा रही है। इसके लिए सभी दुकानदारों से पाँच सौ से लेकर हजार-दो हजार तक चंदा उगाहा गया। बेपनाह नफरत, बेशुमार अदावत और बेइंतहा चिढ़ के बावजूद चंदा देकर अपनी नजरों में गिरने से वह फिर अपने को नहीं बचा सका। उसकी मनोदशा फिर लडख़ड़ाकर बिल्कुल अविचलित हो गयी-एक परले दर्जे के शातिर अपराधकर्मी को यह गौरव! नृशंसता और क्रूरता जैसे कलंक को महिमामंडित कर अमरता प्रदान करने का ऐसा धूर्त प्रयास! €क्या नगर की छाती पर आरोपित इतने बड़े शर्मनाक पाखंड और सरेआम दोगलागिरी को लोग चुपचाप देखते रहेंगे? लोग देखते रहें, मगर उसके लिए यह कैसे संभव होगा? दुकान में बैठने पर नजरें हर वक्त उसकी मनहूस शक्ल पर टिकी रहेंगी। उसे लगता रहेगा कि इस हार्डवेयर दुकान को भी लीलने के लिए चांडाल का जबड़ा हर पल खुला है। ऐसे में उसका मिजाज कहाँ काबू में रह पायेगा। वह स्वयं पर कैसे संतुलन और एकाग्रता बनाये रख सकेगा। पारस में एक उग्र खलबली समा गयी-बौखलाहट की हद तक वह अस्थिर हो उठा।

इसी बीच मुख्यमंत्री के करकमलों द्वारा समारोह पूर्वक ठीक उसकी दुकान की नाक के पास वाले चौराहे पर गोजर की आदमकद प्रतिमा का अनावरण सम्पन्न हो गया। लगभग दर्जन भर गोजर के हमशक्ल विख्यात-कुख्यात नेताओं ने चीख-चीख कर उसकी महानता के कसीदे पढ़े। मुख्यमंत्री ने भी उसके व्यक्तित्व की विराटता पर जमकर स्तुतिगान सुनाये और तालियों की गडग़ड़ाहट के बीच नगर की कई प्रमुख गलियों, मैदानों, पार्कों, सार्वजनिक संस्थाओं और गणेश बाबा द्वारा निर्मित भवनों के पूर्व नाम बदलकर गोजर सिंह के नाम पर कर देने की ƒघोषणा की। गनीमत थी कि नगर का नाम उनहोंने नहीं बदला। पारस ने सोचा कि अगर यही रवैया रहा तो ये कमीने कल देश का नाम भी बदल डालेंगे। उस रोज बार-बार उसके भीतर का दबा हुआ आक्रोश उमड़ता रहा था। मुट्ठियाँ तनती रही थीं और जबड़े कसते रहे थे।

वह काफी रात तक दुकान में बैठा रहा था। अगल-बगल के साथियों ने जाते हुए कई बार टोका भी पर वह सबको टाल गया। जब चारों तरफ स‹नाटा उतर आया और वह आश्वस्त हो गया कि मंत्री जी की आव-भगत एवं विदाई में जुटे प्रशासन और छूटभैये के इधर आने के कोई आसार नहीं हैं तो उसने दुकान बंद की और चौराहे की तरफ चल पड़ा। सबसे पहले रास्ते में ट्रांसफॉर्मर की हैंडिल ƒघुमाकर उसने पड़ोस और लैंप-पोस्ट की सारी बत्तियाँ गुल कर दीं। अब मूर्ति के पास जाकर उसने जलती आँखों से उसकी पथरीली आँखों में झाँका और उसकी माँ-बहन के नाम तीन-चार फूहड़ गालियाँ दीं। चारों ओर की दिशाओं को तजवीज कर उसने गला खँखारा और गंदा बलगम मूर्ति के मुँह पर उछाल दिया। फिर ƒघर की ओर चल पड़ा। पाँच-सात कदम जाने के बाद उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि इतना ही पर्याŒत नहीं है तो पिर वापस होकर वह खड़े-खड़े उस पर मूत्र प्रवाहित करने लगा। जाने के लिए फिर मुड़ा तो लगा कि मन अब भी नहीं भरा है। उसने चारों ओर नजरें ƒघुमायीं-सडक़ के नीचे बड़े-बड़े पत्थर पड़े थे। उसने एक पत्थर उठाया और मूर्ति के मुँह पर खींचकर दे मारा।

गर्दन से टूटकर गोजर का मुँह जमीन की धूल चाटने लगा। अब वह ज्यों ही चलने को हुआ तो अँधेरे में ही दो आत्मीय बाजुओं ने उसे हौले से खींचकर अपने सीने से भींच लिया। वह और कोई नहीं मिठाईवाला भोला महाराज था। उसे ऐसा महसूस हुआ कि भोला महाराज के रूप में पूरा नगर उसके इस साहसिक कार्य का अभिनंदन कर रहा है। भोला महाराज उसे अपने होटल की ओर ले जाने लगा। भला आज वह पारस को खाली हाथ ƒघर कैसे जाने देता! चूँकि भोला के अनुसार गोजर सिंह की असली हत्या आज हुई थी।

२२ सितंबर २०१४

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