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					 गाँव में बारात की तैयारियाँ 
					पूरे जोरों पर थीं। बिंदा चाचा कल की बनी दाढ़ी को चिम्मन नाई 
					से दुबारा खुरचवा रहे थे तो मास्टर तोताराम अपने सफेद सूट के 
					साथ मैच मिलाने के लिए अपने काले जूतों पर खड़िया पोत रहे थे। 
					जुम्मन मियाँ के बालों की मेहँदी सूखने वाली थी, सो अब दाढ़ी 
					रँगाई का काम चल रहा था। बलेसर के ताऊ पगड़ी को साँचे में 
					बिठाने के प्रयास में खुद बैठे जा रहे थे। किस्सा कोताह ये कि 
					बारात में जाने वाला हर व्यक्ति मुस्तैदी से अपनी तैयारी में 
					लगा था। 
 दूल्हे राजा उर्फ बजरंगी लाल गुप्ता वल्द लाला रामदीन हलवाई की 
					तैयारियाँ भी काफी हद तक पूरी हो चुकी थीं। पीले रंग की कमीज, 
					हरे रंग की पैंट और उसके नीचे चमचमाते काले बूढ में बजरंगी 
					पूरे फिट-फाट लग रहे थे। कुल जमा आधा कटोरी कड़वे तेल ने बालों 
					के साथ चेहरा भी चमका दिया था।
 
 बजरंगी की अम्मा ने अपने लल्ला को ऊपर से नीचे तक देखा, 
					न्यौछावर हो आईं। पर तभी याद आया कि लल्ला ने आँखों में काज़ल 
					तो डाला ही नहीं, सो बड़ी बहू को गरियाती भीतर को भागीं। दीये 
					की बाती का जला काज़ल लाईं और बड़ी उदारता से लल्ला की आँखों को 
					कटीला बना दिया। फिर एक काज़ल का दिठौना घर दिया लल्ला के माथे 
					पर। कहीं छोरे कू नजर लग गई तोऽ...
 सारी तैयारी से संतुष्ट होने के बाद सोलह बरस की कमसिन उमरिया 
					वाले लाला पुत्र बजरंगी ने खुद को आईने में निहारा। हिस्स की 
					सीटी मारी और यार-दोस्तों के साथ चल दिए बारात की बस की तरफ।
 
 यों बारात प्रस्थान का समय बारह बजे दोपहर का था, पर बल्लभपुर 
					था ही कितनी दूर। कुल जमा सत्ताइस कोस। यों गए और यों पहुँचे। 
					वहाँ स्वागत का समय भी चार बजे का था। इतनी देर में तो बस 
					मीठापुर से बल्लभपुर के चार चक्कर लगा देती। नाई धनपत फिर भी 
					घर-घर में आवाज़ लगाता फिर रहा था-अजी, चलो परधान जी, जुल्फे 
					बाद में काढ़ लीजौ... अबे बलबीरेऽ... चल भैया देरी होय रयी है। 
					काका जल्दी बैल बाँध के आय जाओ... बस आय गई है...। पर सबको पता 
					था बल्लभपुर है ही कित्ती दूर।
 
 सब लोग टैम पर आ गए और ठीक चार बजकर पचपन मिनट पर बस ने अपना 
					पहला हॉर्न दे दिया। हॉर्न सुनते ही बिन्नू ने हाजत रफा की। 
					कुल्ली ने वैद्य जी से मरोड़ों की दवा ले ली, देसरी ने बच्चों 
					की पिटाई का कोटा पूरा किया। बुंदू घर पर बीड़ी का बंडल-माचिस 
					भूल आया था, ले आया। छिद्छा पंडित ने अपना हुक्का मँगवा लिया। 
					किस्सा कोताह ये कि ठीक बारह हॉर्न और ड्राइवर जी की चालीस 
					गालियों के बाद बस जो थी, वह चल दी। कहना न होगा कि अब तक दिन 
					छिप चुका था।
 
 बस भी लाला ने काफी दरियादिली के साथ बुक की थी। लड़की वालों से 
					सगाई में ही बस किराए के आठ हजार वसूल लिए थे, उसके तिहाई 
					पैसों में ही इस शानदार बस का इंतजाम हो गया था। बस वाकई 
					शानदार थी, जंग लगी बढ़िया बॉडी। उस पर कीचड़ और गोबर की मधुबनी 
					पेंटिंगें, टूटी खिड़कियों और नुची-फटी सीटों के अलावा बस की एक 
					और क्वालिटी थी, वह थी उसकी संगीतमयी ध्वनि। सच तो यह था कि इस 
					संगीतमयी बस में हॉर्न को छोड़कर सब कुछ बच उठता था कई बार... 
					बल्कि गड्ढों से गुजरने पर तो हॉर्न भी बज उठता था। बाकी संगीत 
					का काम बारातियों ने सँभाल रखा था। वे हर धक्की पर उछलते, अपनी 
					सिर से बैंड बजाने की ध्वनि निकालते, फिर बस और ड्राइवर की 
					वंदना गाते। यानी सफर बढ़िया और कुछ-कुछ रोमांचक किस्म का चल 
					रहा था।
 
 पूरे आधे घंटे में पाँच किलोमीटर की लंबी दूरी तय करने के बाद 
					बस झटके से रुकी। ड्राइवर साब मूँछों पर ताव देते हुए सड़क 
					बनाने वालों के साथ रिश्तेदारी जोड़ते उतरे। थोड़ी देर बाद वापस 
					आकर उन्होंने घोषणा की कि बस का टायर पंचर हो गया है, जो घंटे 
					भर में ठीक होगा। इस बीच जो यात्री नाश्ता वगैरह करना चाहें, 
					पेशाब-पानी को जाएँ, हो आएँ, वरना बस आगे नहीं रुकेगी। नाश्ता 
					भला कौन करता? बारात में जाने के लिए तो दो दिन से मीठा छोड़ 
					रखा था, सुबह भी एकाध टिक्कड़ हलक में डाल लिया था, ज़्यादा 
					खाते तो बारात में क्या खाते। सो, बारातियों ने पेट में 
					उछल-कूद मचाते चूहों को बारात के भोजन के लड्डुओं का आश्वासन 
					दिया और चुपचाप बस में बैठे रहे।
 
 ठीक सवा घंटे बाद बस ठीक होकर रवाना हो गई और सत्ताइस कोस के 
					इस लंबे सफर में सिर्फ सात बार रुकी। उसके रुकने के कारण हर 
					बार जुदा थे। एक बार उसके एक अगले टायर में पंचर हुआ तो दूसरी 
					बार पिछले टायर में। एक बार वायर टूटा तो एक बार तेल खत्म हुआ। 
					एक बार तो देसी शराब के ठेके के पास बस ऐसी खराब हुई कि 
					ड्राइवर की समझ में खुद ही कुछ नहीं आया। हारकर उसने कंडक्टर 
					से सलाह की, फिर वे दोनों नीचे उतर गए। उनके पीछे-पीछे की 
					बारात के कई लोग और अंतर्ध्यान हो गए। कहना न होगा कि आधा घंटे 
					के बाद जब वे लौटे तो बस स्टार्ट करने का फार्मूला निकाल लाए 
					थे।
 
 इस प्रकार छोटे-मोटे व्यवधानों को पार करती हुई, बस रात के ठीक 
					बारह बजे लल्ला की होने वाली ससुराल में पहुँच गई, अलबत्ता 
					बारात पहुँचने का समय सिर्फ चार बजे था। बारातियों ने खाली पेट 
					जितनी भी चैन की साँसें खींची जा सकती थीं, जमकर खींच लीं और 
					जनवासे की ओर प्रस्थान किए। गाँव में घुसते ही मीठापुर वासियों 
					को अपना बारातीपन याद आने लगा। लड़के के बाप ने तोंद फुलाकर 
					मूँछों पर हाथ फेरा। लड़के के चाचा ने अपना गालियों का अभ्यास 
					दुरुस्त किया। बजरंगी के भैया ने धौल माने की प्रक्रिया का 
					शुभारंभ अपने बेटे से किया। बारातियों ने उलाहनों की अँगीठी 
					गर्म करनी शुरू कर दी और इन पर घरातियों को सेंकने की तैयारी 
					करने लगे। इन सारी तैयारियों के साथ सभी यौद्धा जनवासे में 
					प्रविष्ट हुए।
 
 जनवासे का दृश्य काफी मनोहारी किस्म का था। एक घेरे में 
					चालीस-पचास खटियाँ करीने से बिछी थीं। उनके ऊपर चादरें, चादरों 
					के ऊपर धूल और मिट्टी की नक्काशी से फूल बने हुए थे। तकियों को 
					देखकर लगता था कि उनमें चार-पाँच मोटे चूहे कैद कर दिए गए हों। 
					जनवासे के बीचोंबीच एक बढ़िया लालटेन की व्यवस्था थी। उसी के 
					नजदीक खनिज लवणों से भरपूर पानी की बाल्टी विद्यमान थी, जिसका 
					जलपान फिलहाल कीट-भुनगों की फौज कर रही थी। यानी व्यवस्था 
					चकाचक थी। स्वागत के लिए द्वार पर ही एक खरसैला कुत्ता बैठा 
					था, जिसने अपनी परंपरा के अनुसार भौंककर बारातियों का स्वागत 
					भी किया।
 
 यह सब देखकर दूल्हे मियाँ के पिताश्री यानी लाला रामदीन हलवाई 
					की तबीयत काफी खुश हुई। इसी खुशी के अतिरेक में उसने घरातियों 
					को तकरीबन चार दर्जन गालियाँ निकालीं। बारातियों ने अपनी खुशी 
					का इजहार चादरें फाड़कर तकियों को रौंदकर, खाटों के बान काटकर 
					किया। मरभुक्खों के गाँव में आ गए स्साले, भूखे-नंगों को बारात 
					के स्वागत की तमीज नहीं है...वगैरह-वगैरह का वाचन भी चलता रहा।
 
 इन सब सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच ही लाला ने बिचौलिये को 
					हड़काया, उसे ताकीद दी कि वह लड़की वालों के घर जाए। उन्हें फी 
					बाराती के हिसाब से दस गालियाँ सुनाए और आखिर में धमकी दे आए 
					कि यदि बारात की खातिरदारी में कमी रह गई तो बारात अभी वापस 
					चली जाएगी। बारातियों ने भी ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा' वाली 
					तर्ज में लाला की बात को आगे बढ़ाया।
 
 बिचौलिये के प्रस्थान करते ही लाला, लड़की वालों की माँ-बहनों 
					के साथ मौखिक संबंध स्थापित करने, बाराती भुनभुनो और बच्चे लोग 
					रोने आदि के कार्यक्रम में व्यस्त हो गए। कुछेक जागरूक बाराती 
					थोड़ी नई-सी लगने वाली चादरों को अपने झोलों में जगह देने के 
					काम में जुट गए। पानी का लोटा चिम्मन नाई के हिस्से में आया और 
					उनके मटमैले थैले में जाकर अंतर्ध्यान हो गया। बीनू के हिस्से 
					में एक तकिए का गिलाफ आया और बेचारे बुंदू को तो दीवार पर लगे 
					दो कलैंडरों से ही काम चलाना पड़ा। सभी अपनी-अपनी तरह काम में 
					जुटे रहे।
 
 थोड़ी देर में चार-पाँच लंबे-तड़गें लाठीधारी जनवासे में पधारे, 
					बिचौलिया जी उनके पीछे-पीछे थे। लाला ने बाराती गरिमा का 
					निर्वाह करते हुए गालियों से उनका स्वागत किया। कहा, "कहाँ 
					मरभुक्खों में अपने बेटे की शादी तय कर बैठा। स्साले कमीनों को 
					बारातियों की आव-भगत का भी सलीका नहीं है। इससे तो अच्छा है कि 
					बारात वापस ले जाई जाए।" लाला ने बारातियों से इस बाबत 
					स्वीकृति चाही, बारातियों ने भी ‘बारात वापस ले जाएँगे, ले 
					जाके रहेंगे' के नारों का उद्घोष कर दिया।
 
 तभी घरातियों में से एक मुच्छड़ लाठी समेत आगे आया। बोला, "लड़के 
					का बाप कौन है?" लाला जी ने छाती निकालकर, मूँछों पर ताव देकर 
					कहा, "हम हैं।" मुच्छड़ बोला, "अच्छा-अच्छा तो आप हो। अब जरा 
					मुँह खोलो।" लाला चौंका, "क्यों?" मुच्छड़ मुस्कराकर बोला, "कुछ 
					नहीं, जरा मुँह का नाप लेना है, लड्डू बनवाने हैं...।" 
					कहते-कहते उसने लाठी का पीतल लगा सिरा लाला के मुँह में घुसेड़ 
					दिया। लाला बहुतेरा ‘ऐं-ऐं, क्या करते हो' का जाप करता पीछे 
					हटा, पर मुच्छड़ लड्डुओं का नाप लेकर माना। इसके बाद दूसरा 
					मुच्छड़ चिल्लाया, "सारे बाराती अपने मुँह का नाप दे दो, लड्डू 
					ताकि उसी साइज के बनवाए जा सकें।"
 
 बारातियों को याद आया कि उन्होंने अभी दस-बारह घंटे पहले ही 
					खाना खाया है, उनके पेट में लड्डुओं का कर्तव्य पूरा करना था, 
					सो वे नाप लेकर ही माने। अलबत्ता बूढ़े छिद्दा पंडित जरूर बच 
					गए, उन्होंने सच्ची-सच्ची बता दिया कि उन्हें शुगर की बीमारी 
					है, सो उन्हें मीठे का परहेज है। हाँ, दूल्हे राजा उर्फ बजरंगी 
					को सिर्फ लाठी दिखाई गई, पर वे फिर भी काँपते रहे। इसके बाद 
					मुच्छड़ पास खड़ी बारात की बस की ओर प्रस्थान कर गए। वहाँ से 
					थोडी देर बाद टायरों से हवा निकालने की सूँ-सूँ जैसी आवाज़ आई 
					और बस...।
 
 बाराती सन्न। साँप सूँघन की कहावत चरितार्थ करने को उतारू। 
					बहुत देर कोई कुछ नहीं बोला। भला हो चिम्मन नाई की जिंदादिली 
					का, जिसने दुखते जबड़े से ही सबको सूचना दी कि इस गाँव में 
					बारातियों के साथ मजाक करने का रिवाज है। वरना इस गाँव के लोग 
					खातिरदारी बहुत अच्छी करते हैं। इस पर बारातियों के दुखते 
					जबड़ों का दर्द कम हुआ। लाला ने भी गाल सहलाते हुए अपनी 
					झब्बेदार मूँछों को फिर ताव देना शुरू कर दिया। कहना न होगा कि 
					इस बार ताव में गर्मी अलबत्ता थोड़ी कम थी।
 
 मुच्छड़ों के अँधेरा गमन के बमुश्किल आधा घंटे बाद फिर कुछ लोग 
					आते दिखाई दिए। लाला ने पहचाना-इस बार लड़की का बाप, नाई, 
					चाचा-ताऊ वगैरह थे। उन्होंने आते ही बारात को नमस्कार की, लाला 
					ने जवाब में गालियाँ दीं, बारात वापस ले जाने की धमकी दी। 
					दृश्य ये बना कि वे मनाते जाएँ, लाला भड़कते जाएँ। छिद्दा पंडित 
					ने बात का तोड़ ये निकाला कि बारात की इज्जत हतक के रूप में 
					लड़की वाले लाला को पाँच हजार रुपया दें, वरना बारात वापस 
					जाएगी। लाला मान गया। लड़की वालों ने बहुतेरा मान-मनौवल किया, 
					पर लाला की गई हुई इज्जत थी, बिना पाँच हजार के कैसे वापस आती। 
					इसी तुफैल में घंटा भर लग गया। हारकर लड़की का भाई बोला, "अच्छा 
					देखते हैं, घर जाकर मशवरा करेंगे" लाला ने दुबारा ख़बरदार कर 
					दिया कि बारात की खातिर का इंतजाम बढ़िया होना चाहिए, ये पाँच 
					हजार फेरों से पहले मिलने चाहिए...वरना...,लड़की वाले वरना का 
					मतलब जानते थे, सो वे जल्दी ही पतली गली से खिसक लिए। लाला का 
					हाथ पुनः मूँछों को सहलाने लगा।
 
 इस घटना के थोड़ी ही देर बाद नाश्ते का बुलावा आ गया। सब लोग 
					फटाफट तैयार होकर चल दिए। आगे-आगे लालटेनधारी घराती, उसके 
					पीछे-पीछे पेट के चूहों को ख्याली पकवान खिलाती बारात। रास्ते 
					में ही सब बारातियों ने अपने-अपने काम बाँट लिए। बुंदू को 
					लड्डुओं को पत्थर बताकर फेंकने का काम मिला तो श्याम को ‘रायते 
					में मिर्ची भर रखी है' कहकर रायते का शकोरा घराती पर फेंकने 
					का। बूढ़ों को कचौड़ी को सूखी रोटी बताकर कुत्तों के आगे डालने 
					का। अलबत्ता ये जरूर तय कर लिया गया कि ये सब कार्यक्रम पेट भर 
					जाने के बाद संपन्न होंगे। बजरंगी मित्र रम्घू और मग्घू ने 
					बिना किसी के कहे ही अपने लिए घरातियों की लड़कियों को चुटकी 
					काटने का काम चुन लिया। इस प्रकार सारी तैयारियों से लैस बारात 
					का काफिला नाश्ते के लिए घरातियों के द्वार पर पहुँच गया।
 
 दरवाजे पर ही आठ-दस खाए-पिए घर के तगड़े बाराती विद्यमान थे। 
					उनका मुखिया बारात के स्वागत में हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, "आ जाओ 
					श्तिेदारो! नाश्ता तैयार है। पर हम गरीब आदमी हैं, जगह थोड़ी 
					है। पंद्रह-पंद्रह आदमियों की पाँत बना के चलो।" लाला ने यह 
					सुनकर अपने झाऊ-झप्पा मूँछें फिर तरेरीं और रिकार्ड बजा दिया, 
					"देख लेना नाश्ते में कोई कमी न रह जाए वरना...।" लाला की बात 
					बीच में ही काटकर मुखिया बोला, "ना-ना लाला जी कमी कतई न रहने 
					की है। हमें पता है, वरना आप बारात वापस ले जाओगे। गरीब आदमी 
					हैं, पर फिर भी आप लोगन की खातिर का जो इंतजाम बना, वह कर दिया 
					है। आप लोगन के वैसे तो बड़ी जल्दी करी बारात लाने में, पर भूख 
					तो लगी ही रही होगी। आ जाओ, पहले पंद्रह आदमी आ जाओ।" फिर 
					दूल्हे राजा उर्फ जूनियर लाला बजरंगी लाल की ओर इशारा करके 
					बोला, "लल्ला, आप इधर आ जाओ, आपका नाश्ता जनानखाने में है।" 
					लल्ला पहली बार ससुराल में खुश भए। बढ़िया नाश्ता, वह भी 
					साले-सालियों के बीच-ये मारा पापड़ वाले को। बजरंगी के दोस्तों 
					ने भी जाने की जिद की, पर जनानखाने की इज्जत के नाम पर उन्हें 
					रोक दिया गया।
 
 पहली खेप में पंद्रह बाराती मुच्छड़ के पीछे चलते हुए एक बड़े से 
					कमरे में आ गए, जहाँ पंद्रह-बीस हट्टे-कट्टे बाराती लाठियों 
					समेत पहले से मौजूद थे। पहले घराती ने दरवाजे की अंदर से साँकल 
					लगा दी। बस फिर क्या था, थोड़ी ही देर में लाठियों से भोजन 
					वितरित होने लगा। पहला प्रसाद लाला रामदीन हलवाई उर्फ बजरंगी 
					के बाप को मिला। एक लाठी बोली-लो लालाजी, लड्डू खाओ। दूसरी ने 
					बरफी, तीसरी ने कचैड़ी खाने का आह्यन किया। लाठियों के साथ 
					आवाजें भी आती-जाती-लै लाला सारै-लड्डू खाय लै-लै खाय-अबके 
					बरफी खा...लै कचौड़ी गरम है...भैया लाला का पेट ढंग से भर दीयौ, 
					वरना अभई हाल बारात वापस ले जाएगा। लाठियाँ पड़ती रहीं-लाला का 
					पेट भरता रहा। लाला के बाद बारातियों का नंबर आया। बेचारों ने 
					बहुतेरी कही, ‘हमें भूख न है', पर खातिरदारों को तो खातिदारी 
					करनी थी। सो, लाठियों से तब तक नाश्ता बँटता रहा, जब तक कि हर 
					बाराती का पेट भर नहीं गया। जब बीस-पच्चीस लाठी लाला के सिंक 
					ली तो लाला बाकायदा दंडवत् की मुद्रा में जमीन पर लेट गया और 
					नाक रगड़-रगड़कर माफी माँगने लगा, रिरियाने लगा, "तौबा, मेरी 
					तौबा! मेरे बाप की तौबा, माफ कर दो।" एक घराती भन्नाकर बोला, 
					"क्यों अब बारात देर से लाएगा?" लाला में बकरे की आत्मा प्रवेश 
					कर गई, सो वह मिमियाया, "ना...ना...ऽऽ...ना...ऽऽजी।" घराती फिर 
					बोला, "बारात वापस ले जाएगा।" लाला में घुसा बकरा फिर 
					मिमियाया, "ना जी...ना जी...।" इसके बाद बाराती बकरों ने भी 
					मिमियाने-रिरियाने का अभ्यास शुरू कर दिया। इस पर खुश होकर 
					मुच्छड़ों के नेता ने उन्हें लाठी-बख्शी का अभयदान दे दिया और 
					दरवाजा बंद करके साथियों समेत बाहर आ गया। आखिर बाकी के 
					बारातियों की भी खातिर का इंतजाम करना था।
 
 इसके बाद पंद्रह-पंद्रह की तीन खेपों में सारे बारातियों को 
					बढ़िया नाश्ता कराया गया। अलबत्ता जरिया वही तेल पिली लाठियाँ 
					रहीं। खातिरदारी कार्यक्रम की समाप्ति के बाद, जब सब लोग एक 
					साथ मिले तो उनकी हालत देखने लायक थी। लाला के गाल फूली कचौड़ी 
					की छटा दे रहे थे तो नाक गोभी के पकौड़े की। बुंदू के सिर पर दो 
					काले गुलाब जामुन उगे हुए थे तो बसेसर के माथे पर चार लड्डू। 
					छिद्दा पंडित के चेहरे पर रायते की बूँदियाँ भिनक रही थीं तो 
					चिम्मन ने इतना नाश्ता कर लिया था कि उसका पिछवाड़े वाला हिस्सा 
					ही नहीं उठ पा रहा था। यानी बारातियों की खातिर काफी बढ़िया हुई 
					थी, सब ही तृप्त थे।
 
 तभी एक घराती को याद आया कि बारातियों को नाश्ता तो करा दिया, 
					पर शर्बत तो पिलाया ही नहीं। सो, उसने एक लड़के को आवाज़ देकर 
					शर्बत की की बाल्टी मँगवाई। पर सभी बारातियों ने शर्बत के लिए 
					मना कर दिया, बल्कि एकाध ने तो बाल्टी में झाँककर भी देख लिया 
					कि उसमें कहीं लाठियों का घोल न पड़ा हो। इस पर उसी घराती ने 
					घुड़ककर कहा, "जल्दी से लोटा उठाओ। इस शर्बत को क्या तुम्हारा 
					बाप पीएगा। जल्दी करो... वरना...।" वरना की गंध सूँघते ही सब 
					सतर्क हो गए। मजबूरी थी सो। सबसे पहले चिम्मन नाई ने हाथ 
					बढ़ाया। डरते-डरते लोटा मुँह से लगाया, ठंडा और मीठा लगा। सो, 
					वह गट-गट पूरा लोटा चढ़ा गया। उसे देखकर बाकी की भी हिम्मत बढ़ी। 
					सबने दो-दो चार-चार लोटे शर्बत गटका। बसेसर तो पूरे सात लोटे 
					चढ़ा गया।
 
 पर यह क्या था! शर्बत पेट के अंदर जाने के बमुश्किल पाँच-सात 
					मिनट बाद ही पेटों में हलचल मच गई। सबसे पहले सात लोटे वाला 
					बसेसर खेतों की तरफ गिरता-पड़ता भागा, फिर बुंदू... फिर छिद्दा 
					पंडित... उसके बाद तो जैसे लाइन लग गई। लाला रामदीन हलवाई उर्फ 
					दूल्हे के पिताश्री सबसे बाद में गए। पर जैसे वह जाने लगे, एक 
					घराती ने रोक लिया, "लालाजी फेरे होने वाले हैं, आप कहाँ चले? 
					फेरों पर नहीं बैठिएगा?" पर लाला जी को कल कहाँ थी, पेट में 
					उथल-
  पुथल मची थी। सो, वह बड़ी मुश्किल से हाथ छुड़ाकर भागे। 
					जाते-जाते कह गए कि फेरे तो बजरंगी को लेने हैं, बाप की जरूरत 
					पड़े तो किसी को भी बुला लीजिएगा। 
 इस प्रकार रात भर खेतों में आने-जाने का क्रम चलता रहा। पाँच 
					बार खेतों की सैर कर आने के बाद वैद्यजी ने अपनी खोज प्रस्तुत 
					की कि शर्बत में जमालगोटा मिला हुआ था।					बाकी की कहानी में इतना बता देना ही काफी होगा कि बजरंगी लल्ला 
					की बारात वहाँ तीन दिन ठहरी थी।
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