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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से सुधा राजे की कहानी- नवरतन महल


मैं जब भोपाल से चरखारी पहुँचा तो रात होने लगी थी। कार से मैं और सब इंस्पेक्टर संभाजी काले डाक बँगले पर पहुँचे। रात को एग करी और चपातियाँ खाकर जब हम दोनों सोने गये तो कुक की तारीफ करनी पड़ी। छोटे से कस्बे में इतना स्वादिष्ट खाना मिलने की हमें उम्मीद नहीं थी।

काले कहता ''ड्यूटी के लिये तो मैं घास खाकर भी रह सकता हूँ'' जबकि मैं हमेशा कुछ रेडी फुड बैग में लेकर चलता हूँ। मिल्क पाउडर कॉफी पाउच। सत्तू चने और बिस्किट। एक सत्यकथा लेखक, जो इत्तेफाक से इंटेलीजेन्स ब्यूरो का अदना सेवक भी था किंतु जाहिरा तौर पर पुरातत्व खोजी शोधार्थी था, काले को विभाग से मेरे साथ आने के आदेश मिले थे सुरक्षा के लिये। लेकिन मुझे खोजनी थीं परतें रहस्यमय मौतों के सिलसिले की।

बाहर दो कांस्टेबिल बरामदे में सो रहे थे बरामदा पूरी तरह ग्रिलों से बंद था। रात ही मेरी संगिनी थी। टेबल पर अब भी आधा खाली बैग पाईपर सोडा-मिक्स रखा था लेकिन मैं होश में रहना चाहता था। सिगरेट ऐश ट्रे में बुझाकर मैं कोट डालकर बाहर आ गया। लॉन में चाँद चमक रहा था। बाउण्ड्री के दूसरे छोर पर दो कमरों में से खर्राटों की आवाजें आ रही थीं। तभी लालटेन लाठी टॉर्च लिये चौकीदार कमरे से निकला।

''कौन? साब आप! ये इलाका परदेशियों के लिये खतरनाक है साब आप अंदर जाओ। मैं बँगले का चक्कर लगाकर आता हूँ।''
"रुको शेरसिंह, मैं भी साथ चलता हूँ।"
"चलिये बाबू मोशाय!"
वह हँस पड़ा।

चाँदनी में चक्कर लगाते जब हम लोग छत पर पहुँचे तो दूर शांत सफेद काली चट्टानों के झुंड सी तनी खड़ी हवेली चमक रही थी। शायद स्ट्रीट लाईट की वजह से आधा भाग चमक रहा था।
"शेर सिंह! हवेली में पिछला जो कांड हुआ है उसके बारे में कुछ जानते हो बताओ! मुझे एक
कहानी मिल जायेगी। पापी पेट का सवाल है।"
शेर सिंह ने रजिस्टर में यही लिखा देखा था 'सत्यकथा लेखक'।

वह हिचकिचाया लेकिन पचास रुपये ने उसकी ज़ुबान खोल दी। संक्षेप में जो पता चला वह ये कि-
मुंबई का सारा बिजिनेस चौपट होने के बाद रैम्जे भाई के पास वापस चरखारी लौटने के और कोईचारा नहीं था। बम बलास्ट की ताबड़तोड़ दुर्घटनाओं में इलेक्ट्रॉनिक्स का उनका सारा सामान ही नहीं पूरी दुकान उस इमारत सहित नष्ट हो गयी थी जहाँ दादर में उनका कमरा भी दुकान के ठीक पीछे था तीसरी मंजिल पर। सैकड़ों दुकाने जल गयी थीं अफरा तफरी मची थी। सरकार ने मुआवज़े की मामूली रकम अदा कर दी थी जिसमें किसी खोली की पगड़ी तक अदा नहीं की जा सकती थी। मुंबई, जहाँ के बारे में सही विख्यात है नौकरी मिलेगी छोकरी मिलेगी लेकिन रहने की जगह! न बाबा न।

रैम्जे, यानी रामजीलाल। कई साल पहले अपने साथ पढ़ने वाली एक मास्टर की शहरी लड़की को लेकर मुंबई भाग गये थे। कुछ दिन दोनों परिवारों ने थाना कचहरी और लंबी लंबी पंचायतें कीं फिर एक मुकाम पर बोलचाल बंद और मामला ठंडा। शहरी परिवार दूसरे शहर चला गया।

रामजीलाल नाबालिग लड़की भगाकर ले गये थे सो मुंबई पहुँच कर रैम्जे हो गये। गायत्री देवी ''ग्रेसिया" हो गयीं। एक ड्रामाकंपनी वाले दोस्त के मेहमान रहे जब तक घर से चुराये हुये पैसे रहे और जब कंगाली छाने लगी तो उसकी कंपनी में बिजली मिस्त्री हो गये। ग्रेसिया को दिन भर बल्बों की झालरें बाँधने में अच्छे खासे पैसे मिल जाते, रात को दफ्तर की चौकीदारी में बड़ी सी मेज पर सोते सोते एक दिन एक बिल्डिंग की चौथे माले की दुकान किराये पर मिल गयी और रैम्जे मैकेनिक से प्रोपराईटर ऑफ "ग्रेसिया इलेक्ट्रॉनिक्स'' हो गये। दोनों ने घर से काफी जेवर चुराये थे सो बिजली के सामान को पूँजी मिल गयी। चौदह साल में धंधा चल निकला और एक कमरे के फ्लैट सहित निजी दुकान के मालिक हो गये। बरबादी कहकर नहीं आती अलबत्ता दुबारा आबाद होने के लिये तिल तिल मरना खटना और सोचना पड़ता है।

बारह साल का बेटा साथ में लिये रैम्जे भाई जब चरखारी के छोटे से जनशून्य स्टेशन पर उतरे तो शाम हो चुकी थी। कस्बे में सरदी का मौसम था और हर तरफ गेहूँ चने के खेत। मन में डर के साथ उम्मीदें भी थीं। रैम्जे के भाई प्यारेलाल ने फोन के ज़वाब में तसल्ली दी थी, "भैया आ जाओ कुछ न कुछ रास्ता मिल ही जायेगा।"

घर के नाम पर छह कमरों का एक छोटा सा मकान था आगे से पक्का और पीछे से कच्चा। पक्के कमरे छोटे के थे कच्चे कमरों में बूढ़े माता पिता शिफ्ट हो गये और दो आधे कच्चे आधे पक्के यानी फर्श पर गोबर दीवारें सीमेन्टेड कमरे रैम्जे भाई ग्रेसिया और ग्रेगरी को मिल गये। मुआवजे की रक़म से तड़ातड़ कलर टीवी फ्रिज कूलर गैस स्टोव और एक सेकेण्ड हैण्ड मारुति वैन खरीद ली। गैसकिट लगायी और छोटे के छोटे से स्कूल के छोटे से ग्राउण्ड में खड़ी कर दी।

बच्चे कम थे और ज्यादातर पैदल ही मीलों दौड़कर जाने वाले देसी छोकरे। खरचा कैसे निकले। ब्यूटी पार्लर और रेडीमेड बेकरी फूड की आदत कम की गयी मगर बात नहीं बनी। मुंबई रिटर्न बाबू को खासी प्रसिद्धि और स्वीकृति मिल गयी थी रहन सहन और शक्ल सूरत से फॉरेन रिटर्न लगते तीनों। हर कोई बात करने को उतावला रहता। आखिर छोटे से मिलकर तय किया कि स्कूल पार्टनरशिप पर चलाया जाये और बड़ी इमारत बड़े ग्राउण्ड वाली जगह शिफ्ट कर लें ताकि कुछ साईड बिजनेस किताबें ड्रैस वाहन किराया और डांस आदि के कोर्स से भी कमाई हो सके।

वहाँ से कुछ मील दूर एक हवेली थी "नवरतन पैलेस" वीरान इस हवेली में कोई नहीं रहता था। हवेली भुतही विख्यात हो चुकी थी। किसी समय शान-शौक़त वैभव का नायाब नमूना रही होगी। रैम्जे भाई बीबी को कस्बा घुमाते घुमाते जब वहाँ से निकले तो ग्रेसिया ने पेशकश कर दी हवेली को पट्टे पर लेकर स्कूल खोलने की। चालीस कमरे, विशाल आँगन, सामने खुला मैदान और मैदान से आगे तालाब, पीछे प्राचीन मंदिर बावड़ी और उसके पीछे दूर तक हरे भरे खेत उसके भी पीछे घने जंगल करधई, कीकर, बबूल, पलाश सागौन, बेर, नीम, शिरीष सलईय़ा औऱ खैर के। रैम्जे भाई को पता था कि बचपन में धोखे से कभी इस ओर निकल आते तो दादी और अम्मा तमाम राई नमक धूनी गूगल लौहबान गंधक जलाकर भूत भगातीं थीं। डर से कुछ सिहरन सी फिर गयी रीढ़ में। ग्रेसिया ने सारी बातें सुनकर बड़ा मजाक बनाया। मुंबई में तो लोग कब्रों तक पर रह रहे हैं। हवेली की शान और मालकिन होने का ख्वाब पाले ग्रेसिया ने जब सुझाव दिया कि ''मुंबई से जान पहचान के आर्टिस्ट यहाँ आकर शूटिंग करेगे तो करोड़ों मिलेंगे ऐसी लोकेशन मिलती कहाँ है? रैम्जे भाई की समझ में सब आ गया।

दो चार दिन में ही उन्होंने हवेली के वारिस और स्वामियों का पता लगा लिया। पता चला कि मालिकों का परिवार तो खत्म हो गया जड़ मूल सहित लेकिन मरने से पहले हवेली पुजारी को गिरवी रखी थी फिर कई हाथों से गुजरता हुआ बैनामा वर्तमान में एक पंडा जी के कब्जे में है। उन्होंने इसमें किरायेदार भऱ दिये थे। जो रहस्यमयी मौतों का शिकार हो गये। बचे खुचे भाग गये। तब से जो किस्से थे और पुख्ता हो गये।

रैम्जे भाई ग्रामीण पृष्ठभूमि के थे लेकिन ग्रेसिया के सामने कायर और बैकवार्ड नहीं कहलाना चाहते थे। पंडा जी खुश थे कि भागते भूत की लँगोटी ही मिली वरना अब तक पछता ही रहे थे। हवेली दस साल के लिये किश्तों में मूल्य अदायगी की शर्त के साथ दे दी। छोटे की बीबी ने लाख समझाया मगर दौलत का लालच बड़े डर से भी बड़ी चीज है। स्कूल हवेली में शिफ्ट हो गया।

दूसरे ही दिन दो दरजन स्थानीय बच्चों ने नाम कटवा लिया। लेकिन ग्रेसिया रैम्जे भाई ग्रैगरी के साथ वैन से गाँव गाँव प्रचार को गये आसपास के पचास किलोमीटर व्यास का दायरा उनके प्रभाव में आ गया, स्कूल चल पड़ा। नारियल तोड़ फीता काट तहसीलदार साब उद्घाटन कर गये। कुछ रिक्शे लग गये। घर के कच्चे कमरों की तुलना में हवेली के ''गच" के फर्श और तीन तीन फीट आसार की चौड़ी दीवारें, भव्य रहन सहन लुभाने लगा और ग्रेसिया एक दिन जिद करके हवेली के बायें तरफ ईशान कोण में बने अतिथि गृह कहलाते तीन कमरों वाले पोर्शन में रहने आ गयी।

सुख और आराम के पल पूरे सोलह साल बाद जीवन में आये। ग्रेसिया भूल गयी कि वह एक मामूली परिवार की मामूली मजदूर स्त्री रही है। हवेली की पुरानी पेंटिंग्स देखकर पुराने रहन सहन जीवन वैभव में खोती जा रही थी वह मन ही मन कल्पना करती कि वही इस आलीशान महल की रानी है। उसने ठीक चित्रशैली के कपड़े पहनने की कोशिश शुरू कर दी। चंदेरी से साड़ियाँ महोबा से नकली मोती और पॉलिश वाले गहने ले आयी।

हवेली के चालीस में से सिर्फ बीस कमरे ही खोले गये थे। बाकी दस में सारा कबाड़ औऱ फर्नीचर भरा था। शेष दस कमरों का एक पोर्शन जहाँ हमेशा ताले पड़े रहते कोई वहाँ जाता ही नहीं। ग्रेसिया को एक दिन लगा कि हवेली में बॉयज हॉस्टल चलाया जा सकता है। तो उसने कबाड़ वाले कमरे खुलवा डाले। वहाँ कोई कीमती सामान नहीं था लेकिन प्राचीनता की वजह से हर चीज संग्रहणीय थी। छोटे के मना करने के बावज़ूद सारी चीजें झाँसी ग्वालियर आगरा की एंटीक की दुकानों पर जा पहुँची।

उस दिन ग्रेगरी तालाब में डूबते डूबते बचा। पूछने पर बचाया कि वह सीढ़ियों पर बैठा मछलियों को 'लाई' खिला रहा था कि किसी ने पीछे से धक्का दे दिया। वहाँ कोई था ही नहीं। जरूर कोई लड़का भाग के किसी पेड़ के पीछे छिप गया होगा। बात आई गई हो गयी। छोटे के मन में खटका लग गया। उसने दो चार दिन में प्रस्ताव रख दिया कि भैया पूरा ही स्कूल तुम्हारा मेरी तो लागत और मेहनत का पैसा दे तो पास के कस्बे में किताबों की दुकान खोल कर एक टैक्सीकार भी डाल दूँ।

छोटे के अलग होने से ग्रेसिया खुश थी। अगले हफ्ते उसने पंडा जी से शेष दस कमरों की चाभियाँ माँगी। पंडा जी ने ताक़ीद की कि वे कमरे खुलते ही अनिष्ट होता है। ग्रेसिया ने तसल्ली दी और चाव से हवेली आकर ताले खोल डाले। वह चकित रह गयी। सारे कमरे एक पृथक मकान नुमा पोर्शन बनाते थे जिसके आँगनमें पाँच कमरे नीचे फिर तीन ऊपर फिर दो कमरे सबसे ऊपर की मंजिल पर थे। पूरी हवेली इस तरह चार सर्वथा पृथक आँगनों से जुड़े विशाल आँगन में मिलती थी जो एक स्थानीय चौक चितेउरकी रंगोली का डिजायन होता था। जिसे सुराँती कहते हैं।

कमरे सजे धजे औऱ नये के नये थे। सबमें पलंग सोफे टेबल औऱ फानूस लगे हुये थे। कीमती कालीन दीपाधार फायरप्लेस तक सही सलामत थे। कमरों में अजीब सी खुशबू फैली थी। ग्रेसिया पागलों की तरह नाच सी उठी। भागी भागी रैम्जे भाई को पकड़ कर ले आयी। एक पलंग से दूसरे पर लोटती वह रानियों महारानियों की तरह अकड़ कर चलने का अभ्यास करने लगती कभी हँस पड़ती। सारे सपने यूँ पूरे हो जायेंगे कभी सोचा भी नहीं था। ग्रेसिया ने उस रात वहीं सबसे ऊपर वाले सबसे आलीशान कमरे में सोने का फैसला किया। रैम्जे का डर निकल चुका था। एक खंड में चालीस लड़के दस कमरों में रहने लगे थे। आधी राज के बाद जब सारा कस्बा सन्नाटे में डूबा था तेज चीख सुनाई दी।
चीख की आवाज़ से सारा क़स्बा जाग गया।

कुछ बुजुर्गों के मना करने के बावज़ूद उत्साही नौजवाव लाठी डंडे टॉर्च लेकर हवेली की तरफ दौड़ गये। मैं भी तब जवानी के जोश में था बनर्जी साब! लेकिन जो देखा उसे याद करके आज भी झुरझुरी छूट जाती है। हॉस्टल की वार्डेन हवेली के विशाल आँगन में गिरी पड़ी थी धड़ पर सिर नहीं बचा था कई टुकड़ों में बिखर गया था दूर दूर तक। हॉस्टल के लड़के सब एक कमरे में इकट्ठे होकर कुंडी अंदर से बंद करके चुपचाप डरे सहमे बैठे थे। हम सब ऊपर पहुँचे तो ग्रेसिया कमरे के बाहर बरामदे में बेहोश पड़ी थी और रैम्जे बेधड़क सो रहा था।

हम सब लगभग बीस नौजवानों की आवाज़ से भी जब वह नहीं उठा तो पता चला वह नशे में है या बेहोश है। उनका बच्चा ग्रैगरी लड़कों के साथ ही हॉस्टल में पढ़ाई करने सोता था। पुलिस सुबह तड़के ही आयी और साफ सफाई की गयी। ग्रेसिया और रैम्जे दोनों को दूसरे शिक्षक अस्पताल ले गये। और लौटकर बताया कि ग्रैसिया हृदय और पैरालायसिस अटैक से मर गयी। रैम्जे ने उस रात जमकर शराब पी थी कि वह बेसुध था।

लड़के दहशत में एक एक करके हॉस्टल छोड़ते चले गये और मजबूर रैम्जे बेटे के साथ हवेली में अकेला रह जाता हर रात क्योंकि घर का हिस्सा वह छोटे को बेच चुका था। हवेली के अंदरूनी दसों कमरों में फिर से ताले डाल दिये गये थे। दो साल तक कोई अनहोनी नहीं हुयी। लोग उस रात को हादसा समझ कर भूलने लगे। रैम्जे ने सादगी पूजापाठ और प्रोटोकोल अपना लिये थे दिन को दो बजे स्कूल के बच्चों के जाने के बाद ताले लगा कर वह सिर्फ अतिथिशाला तक सीमित रह जाता। हर कक्षा और दफ्तर में उसने सब धर्म की तस्वीरें लगा रखी थीं।

एक दिन एक लड़का चोरी के इरादे से बंद भाग में चला गया। पता नहीं उसने क्या चुराया या नहीं लेकिन लेकिन उसने घर जाकर दूसरे ही दिन फाँसी लगा ली। लोगों ने इस बात को हवेली से जोड़ा लेकिन रैम्जे नहीं माना घटना दूसरे गाँव में घटी थी।

कुछ जुगाड़ से रैम्जे ने वहाँ एक दंपत्ति को किरायेदार बनाकर रख लिया जो शहरी थे लेकिन आदमी की ड्यूटी गाँव की पुलिस चौकी होने से परिवार कस्बे में रहता था। उसकी किरायेदारिन की कजिन से एक दिन रैम्जे ने धूमधाम से शादी कर ली। लड़की अनाथ थी और ग्रैसिया से ज्यादा महत्वाकांक्षी। उसने स्कूल में तरह तरह के प्रशिक्षण शुरू कर दिये। एक दिन स्कूल का एक लड़का गाँव जाकर पेट दर्द से मर गया जो बेहद मेधावी लड़का था। छह महीने बाद ही रैम्जे की माँ और दो चाचा एक मामा मर गये ग्रैगरी की नानी एक मौसा का भी देहांत हो गया।

किरायेदारिन भी बीमार पड़ी तो फिर नहीं उठी। कम किराये ज्यादा आराम के लालच ने सिपाही को हटने नहीं दिया जब हटा तब बीबी मर गयी और एक भाई मर गया। ये सब वे लोग थे जो कभी न कभी हवेली गये और रैम्जे को हवेली अपने कब्जे में करके ठाठबाट से रहने की सलाह दी। रैम्जे की नई बीबी एक दिन सीढ़ियों से गिरी और टाँग तुड़ा बैठी। छोटे का बेटा छत से गिरा और मरते मरते बचा। ये उस दिन हुआ जब वह ताई के कहने पर हवेली दावत खाकर लौटा। आखिर कार रैम्जे के वृद्ध पिता ने अपना हिस्सा और छोटे से खरीदकर दो कमरे रैम्जे को देकर नई बहू को वापस मकान में बुला लिया। लेकिन सुना है रैम्जे की बहू का अबॉर्शन होने के बाद उसे सदाबाँझ घोषित कर दिया डॉक्टरों ने।

सब कहते हैं जिसने भी हवेली हथियाकर उस पर राज करने की सोची या वहाँ की कोई भी चीज चुराकर लाया मर गया या बर्बाद हो गया। अब हवेली में ताला पड़ा है और रैम्जे ने शहर के स्कूल में नौकरी कर ली। ग्रैगरी एक आवारा बदमाश लड़का बनकर घूमता रहता है। नई बीबी अब रात दिन कलह करती और बीमार रहती है। अनेक तांत्रिकों से धागे ताबीज करवाती रहती है। कोई हवेली की तरफ सूरज ढलने और उदय होने के बीच नहीं जाता न कोई सुगंधित क्रीम पाउडर इत्र लगाकर गुजरता है न घी दूध खाकर न ही पीले चावल या कढ़ी खाकर। जो भी जाता है हींग प्याज कोयला चाकू लेकर जाता है वो भी सिर्फ दिन में।

शेरसिंह की कथा से कुछ भी खास बात पता नहीं चली थी। सुबह होने वाली थी और मुझे इतनी कहानी से पहला भाग लिखने की सामग्री मिल गयी थी। मैं कमरे में आकर सोया तो नौ बजे सब इंस्पेक्टर काले ने कॉफी लाकर जगाया। ''उठिये शरलॅक होम्स साहब! कहानियाँ और पुरातत्व पुकार रहे हैं।"

जब हम लोग तैयार होकर शेरसिंह और कांस्टेबिलों के साथ हवेली पहुँच, दस बज चुके थे। सुबह की सुहानी धूप खिली थी। मेरा ध्यान महलनुमा हवेली की नाम पट्टिका पर गया। जो किसी समय पत्थर कुरेद कर उसमें रंगघुले मीना काँच आदि भरकर म्यूरल से लिखा गया था। ''न व र त न म ह ल" मैंने ग़ौर किया कि '"व '"अक्षर कटा फटा धुँधला हो गया है लोग अभ्यास वश नवरतन महल पढ़ते हैं जबकि ''न र त न म ह ल" ही शेष बचा है। अक्षर काफी बड़े थे लगभग एक वर्गफुट में एक अक्षर लिखा था।


शेर सिंह परंपरानुसार हमें पहले पिछले हिस्से में बने कालीमंदिर ले गया जहाँ नटराज की एक अद्वितीय ताम्र प्रतिमा थी और दूसरे कक्ष में दसभुजा काली की। मंदिर के तीसरे कक्ष में बहुत छोटी मूर्ति महारास करते कृष्ण की थी। मुझे जाने क्यों "नरतन महल "याद आ गया। मंदिर का हर कक्ष मैं देखना चाहता था। सारे कमरे निवास करने लायक थे और लगता था पुजारी, यात्री, साधु कभी यहीं रहते होंगे। अजीब बात थी कि हर मंदिर का शिखर कलश गायब था। पूछने पर शेर सिंह ने बताया कि छोटे राजा अरिदमन के निसंतान मरने के बाद उनके गोद लिये लड़के ने सारे कलश उतरवाकर बेचकर खा उड़ा डाले जो कभी अष्टधातु के थे।

मंदिर का आखिरी कमरा बहुत बड़ा हॉल था जो हर दिशा में तीन दरवाजों वाला सभागार था। वहाँ से जब मैंने महल की तरफ देखा तो मैं पूछ बैठा कि वह दस कमरों कोणभवन कौन सा है? और जैसा मेरा अनुमान था वह सत्य निकला। कोण भवन मंदिर के ठीक कोने था और उसके हर कमरे की बड़ी सी खिड़की बारजे बालकॅनी सहित मंदिर के सभागार से साफ दिखती थी। यानि कोणभवन के दसों कमरों से हर मंजिल से मंदिर पूरा पूरा दिखता था।

हॉल से सटी कोठरी में धूल से सने टूटने की कगार पर पड़े सितार वीणा तबले हारमोनियम ढोलक पखावज घुँघरू मंजीरे झाँझ ढफ रखे थे। मैंने कल्पना की, महल की खिड़की में राजा अरिदमन बैठे हैं और सुंदर स्त्री यहाँ चबूतरे पर नृत्य कर रही है हॉल में सफेद गद्दों पर साज बज रहे हैं। दस फीट ऊँचे चबूतरे से नीचे प्रजा खड़ी है और जय जयकार हो रही है। सब प्रसाद लेकर जा रहे है तभी कोण भवन से मोतियों की माला गिरती है सीधी नर्तन करती स्त्री पर। वह प्रणाम करके पीछे हटती जाती है। शेर सिंह देख कर चकित हो रहा था कि मैं नृत्य की मुद्रायें बनाकर क्यों फिरकियाँ लगा रहा हूँ।

"बाबू मोशाय! कोई बंगाली पूजा है क्या ये?" काले ने पूछा व्यंग्य से। जब मैंने अपनी कल्पना बतायी तो शेरसिंह चकित रह गया। "साब! आप तो अंतर्यामी हैं। मेरे दादाजी ने मुझे बचपन में लगभग ऐसा ही हूबहू वर्णन बताया था हवेली के मँझले राजा का। जो अपनी स्टेट छोड़कर यहाँ इतनी दूर आ बसे थे। पिता से नाराज होकर, जबकि छोटे को सेनापति और बड़े को राजा बनाकर मँझले को ये सिर्फ एक सौ एक गाँव जागीर में दिये जाकर दरबार में कोई पद नहीं मिला।
सुनते हैं तब यहाँ सिर्फ साधु या शिकारी आते थे।"

मैंने हवेली का सरसरी तौर पर भ्रमण किया और कुछ तस्वीरें लीं। जहाँ जहाँ दुर्घटनायें हुई थीं। लंच के समय जब हम सब डाक बँगले पर पहुँचे पुजारी हाजिर था। सारे उपलब्ध दस्तावेज़ों सहित। महल के एक के बाद एक यह पाँचवा मालिक था। जिसे रैम्जे ने पाँच साल किश्तें दी थीं और अब किराया काटकर वापस माँग रहा था। पुजारी पर मुकदमा करने की धमकी दे रहा था।

हम लोग शाम तक रजिस्ट्रार ऑफिस से एक के बाद एक पाँचों मालिकों का नाम पता निकालने में सफल हो गये। पहले तो क्लर्क ने रुपये माँगे बाद में नाश्ता मँगाकर माफी। क्योंकि हम लोग सफेद और रंगीन कपड़ों में थे। शाम सात बजे हम लोग राजपुरोहित के आलीशान खंडहर होते जा रहे मकान के एक दुरुस्त कमरे में बैठे चाय पी रहे थे। पीले कपड़ों में जर्जर वृद्ध की कहानियों और दिखायी गयी कुछ चिट्ठियों तस्वीरों और राजपत्रों से पता चला, कहानी एक घिसी पिटी राजकथा थी। कि जब मँझले राजा अरिदमन यहाँ आये तो शिकारगाह को ही महल बनवाकर रहने लगे। राज्य और जागीर से पर्याप्त धन मिल जाता था।

मँझले राजा मनचले रसिक व्यक्ति थे संगीत और नृत्य ही नहीं चित्रकला में भी महारत थी उन्हें। पिता को उनमें वीरोचित गुणों का अभाव भले ही दिखता रहा किंतु वे शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण थे। निसंतान होने की वजह से एक के बाद एक तीन विवाह किये और जब प्रौढ़ हुये तो युवती रानी के गरीब भाई की सात में से एक संतान को गोद ले लिया। ये बात गुप्त रखी गयी किंतु खुल ही गयी। छोटी रानी बेहद सुंदर थी किंतु किसी हारे हुये सामंत की बेटी होने की संधि में विवाह करके लायी गयी थीं। सम्मान और वैभव भी उनको शांति न दे सके। राजा बलशाली रसिक सुंदर सहृदय होकर भी आयु में पिता के बराबर थे और पुत्रोत्पत्ति में निष्फल।

रानी को माँ बनने की लालसा थी या हमउम्र की प्रीतेच्छा कि राजपुरोहित से आकर्षित हो बैठीं। राजा हर उपाय करते उनके दिल बहलाने का लेकिन रानी के मन की आग दबाने से और प्रबल होती जाती अंततः इस दुर्व्यवहार का कारण खोजने पर राजा ने एक दूती को लगाया। और शीघ्र ही पता चला कि रानी का अचानक समय मंदिर में बढ़ गया है आने जाने का। युवा राजपुरोहित ने जब से पिता की गद्दी सँभाली है मंदिर में रौनक होने लगी। शाम को राजनर्तकी का नृत्य होता गिरधर के महारास और नटराज की आरती को तो जनता जुट जाती राजपुरोहित का वीणावादन और राजनर्तकी का नृत्य देखने। रानी तब कोण भवन के झरोखे में टकटकी बाँधे बैठी रहती। दत्तक पुत्र
गयंद को दास दासी सँभालते और जब शरारतें करता तो अफीम चटाकर सुला देते।

राजा कई कई सप्ताह राजधानी दरबार और जागीर भ्रमण पर रहते तो अचानक शांतिपाठ हवन ग्रहाराधन और कुंडली देखना बढ़ जाता। राजपुरोहित आनंद की वीणा तो केवल मुरलीधर के सामने ही बजती लेकिन वीणा से भी मधुर प्रवचन कोण भवन में चलते रहते। बड़ी रानी और मँझली रानी एक ही कुटुंब से थीं जो ये सब कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती थीं वे ऊँची संपन्न रियासतों से थीं। नतीजा राजा के आते ही बड़ी रानी के आदेश से राजपुरोहित को आगे पढ़ने काशी भेज दिया गया। और उनकी जगह अस्थाई तौर पर दूसरे पुजारी लगा दिये गये। राजा खुद संध्या आरती के समय झरोखे पर विराजने लगे।

होनहार बलवान् है सो राजनर्तकी का जादू राजा पर चल गया। जो नहीं होना था वही हुआ। राजनर्तकी महल में आने लगी। जो परंपरा के खिलाफ था हतहृदया रानी राजा के भी प्रेम और शैया से वंचित रहने लगी। राजनर्तकी पर मोती न्यौछावर। जब मैं डाक बँगले पर लौटा तो दिमाग में छोटी रानी राजपुरोहित आनंद राजा रिपुदमन और राजनर्तकी रतन की प्रेम कथा त्रासदी और बेबसी की कथा किसी चलचित्र सी दौड़ रही थी।

मैंने इंस्पेक्टर काले से पूछा -''क्या कहती है पुलिसिया नाक?
यहाँ लगभग पचास मौतें हुयीं हैं। एक दो को छोड़कर ज्यादातर आत्महत्यायें रहीं। क्या लगता है यहाँ? प्रेतात्मायें या कोई गिरोह?''
"यार बनर्जी! मेरी भी खोपड़ी घूम रही है।"
काले ने पैग बनाया और बर्फ डालकर मुझे थमाया।
"ओहो तुमने फिर इतना सारा सोडा कर दिया!"
"बंगाली का पीना और कलकत्ते का ज़ीना सबके बस की बात नहीं इंस्पेक्टर!"
मैंने वाईन का मिक्सचर ठीक किया। देर रात तक कहानी का दूसरा भाग लिखकर जब मैं निशाचर वृत्ति वश बाहर बरामदे में आया शेरसिंह बीड़ी पी रहा था। मैंने सिगरेट जलायी और वहीं अलाव के पास कुरसी पर बैठ गया।

"शेरसिंह!! यहाँ कस्बे में बाहरी लोग भी आते जाते हैं?"
"नहीं बाबू! कभी किसी का दूर दराज़ का रिश्तेदार आ जाये तो जल्दी ही पहचान में बोली की वज़ह से आ जाता है। जबसे रैम्जे भाई का स्कूल बंद हुआ कोई नहीं आता। लेकिन हाँ पुरातत्व वाले और कोई कोई शौकिया फोटोग्राफर जरूर आ जाते हैं।"
मेरी उत्सुकता बढ़ी- "वे लोग रुकते कहाँ हैं?"
"यहीं साब और क्या रखा यहाँ।"
'उनके कुछ नाम पते?"
"ठहरिये साब मैं रजिस्टर लाता हूँ।"

पाँच मिनट में लगभग ग्यारह बजे मैं डाकबँगले की सूची पढ़ रहा था। मैंने कुछ नाम पते नोट किये और ट्रांसमीटर से कुछ दूर दराज के साथियों को संदेश दिया उन पतों की हक़ीकत निकालने का। सुबह हम लोग नौ बजे तक शेष मालिकों से मिल चुके थे। जो सब पुजारी कुटुंब से ही थे। और बाकी कहानी जो पता चली वह एक करुण कहानी थी।

छोटी रानी को न तो राजा अरिदमन का प्यार मिला न राजपुरोहित आनंद का। बड़ी के विवाह के पाँच साल बाद मँझली आयी थीं और दस साल बाद छोटी। इसलिये सारा महल बड़ी रानी का वफादार था। महल को चार लंबी दालानें चारों कोने पर बने दस दस कमरों के पृथक भवनों से जोड़ती थी वरना सब खंड अलग ही थे। तीन कोने तीन रानियों के। नैऋत्य में बने भवन में राजा पुरुष कर्मचारियों सहित रहते जो अंदर नहीं जाते। कुछ किन्नर और दासियाँ ही अंदर आती जाती थीं। किन्नर बाहर आ जाते थे। दासियाँ सिर्फ रानियों के साथ ही बाहर आतीं।

इन्ही में एक किन्नर सुंदर बलिष्ठ भरती हुआ "नवल बाई"। जिसका प्रभाव हवेली पर पड़ने लगा था कि सुबह रोज संगीत की कक्षा चलने लगी थी और छोटी रानी को संगीत सीखने का शौक़ लग गया। राजा का रतनदेवी पर प्रेम बढ़ता गया। जो नहीं होना था वह चमत्कार हो गया। रतनदेवी गर्भवती हो गयी। विवाह के बीस साल बाद संतान! वो भी राजनर्तकी के गर्भ में। राजा को नर्तकी के चरित्र पर संदेह हुआ। जासूसी की गयी जो व्यर्थ रही।

राजा चिंता में जिस संतान को तरसते उम्र गुजर गयी वह मिली भी तो किसकी कोख से! ना स्वीकारते बनता ना ही दुत्कारते। अंत में गुप्त रूप से एक बुजुर्ग पुरोहित को बुलवाया गया, कहने लगा कि ये पुत्र है। और जन्म ले लिया तो सम्राट हो जायेगा। किंतु इस पर कालसर्प योग है जो मृत्यु योग बना रहा है। छोटी रानी को जैसे ही पुत्र के आने का पता चला उसने तालाब के पार नवल किन्नर को बुलवा लिया। पाँच साल के वियोग ने उसको निष्ठुर और को व्याकुल बना दिया था। नवल ने रानी से कहा कि राजा केवल पुत्र पैदा होने तक नर्तकी को महल में रखेंगे और वह आपका पुत्र कहलायेगा।
रानी ज़िद मान बैठी नर्तकी को हटाने की हठ ठान ली। नवल केवल ज्ञानी का कर्त्तव्य उठा रहा था। रानी के आदेश पर नवल को गिरफ्तार कर लिया गया। ज़ुर्म राजमहिषी के खजाने पर बुरी नज़र । नवल असफल प्रेम के इस प्रतिशोध पर ठठाकर हँसा। कैदखाने में पड़ी नवलबाई। राजभवन में आने से निषिद्ध रतनदेवी। सत्ता जाने की चिंता में बड़ी रानी और वियोग में जलती छोटी रानी। राजा की हठ पर नयी हवेली की तामीर शुरू हुयी जहाँ रहना था अब तीनों रानियों को। और "अरिदमन विलास" में रतन देवी रहने लगी एक खंड में।

नर्तकी महल में आ गयी। बड़ी रानी दूर राजधानी चली गयीं मँझली रानी के साथ वहीं अपने लिये मुकर्रर भवन में दत्तक पुत्र गयंद को ले गयीं। छोटी रानी, जिसे अभी तक पता ही नहीं था कि राजपुरोहित आनंद उसे प्रेम करते हैं या नहीं। वह सिर्फ बंजर जमीन सी जलती रहती। राजा कभी कभार उसके रूप यौवन पर तरस खाकर आ जाते और एक लंबे अरसे को फिर रतनदेवी की ओढ़नी में जा छिपते। सारे महल में रतनदेवी के चित्र सजने लगे। राजा महान कलाकार थे रतन देवी अब सिर्फ राजा के लिये नाचती अंतःपुर में। ठीक समय पर पुत्र का जन्म हुआ। कैदी रिहा किये गये नवलबाई को सेवा के लिये रतनदेवी ने माँग लिया। राजा उत्सव में मगन थे। काशी को खबर भेजी पता चला आनंद वहाँ से भाग गया।
कहाँ? वृद्ध दादा ने खोज करायी। पता नहीं चला। रमल लगाया जो कहता आनंद यहीं है कहीं नहीं गया।
एक रात राजा छोटी रानी के महल में थे। वहाँ से जब अचानक आधी रात को पुत्र को देखने की इच्छा हुयी तो रतन देवी के कक्ष में आ गये दबे पाँव कि नींद न खुले माँ बेटे की। लेकिन ये क्या! ये नवलबाई का स्त्रीवेश तो नीचे कालीन पर पड़ा है। और एक पुरूष रतनदेवी के साथ सो रहा है लिपटकर दोनों निर्वस्त्र! राजा ने तलवार निकाली औऱ दोनों का सिर धड़ से अलग करने चल पड़े। तभी पुरूष की नींद खुली। ओह, ये तो राजपुरोहित आनंद है। इतना बड़ा धोखा। दोनों ने पैर पकड़ लिये। "ब्राह्मण की हत्या मत करो राजा। हम राज्य छोड़कर चले जायेंगे।
रतनदेवी चीखी।" दोनों ने अपने वही वस्त्र लपेटे चाँदी के पालने से रेशम पर सोते पुत्र को उठाया।
"ठहरो! ये तो मेरी संतान है। ये कहीं नहीं जायेगा।" अब नर्तकी हँसी।
"राजा आप नहीं जानते हम दोनों ही कैशोर्य के प्रेमी। किंतु देवदासी ब्राह्मण से विवाह नहीं कर सकती थी। न ही कोई इस सच को जानकर आनंद को नगर में रहने देता न मुझे मंदिर में। राजगुरू को तो नर्तकी की छाया से भी पाप लगता है। तब तक आप हम पर रीझ गये। हमने लाख वास्ता दिया आप नहीं माने मनमानी की। राजभय ने हमें विवश किया कि आप ही से विवाह करलें ताकि हमारा पुत्र राजकुमार कहलाये "भांड" नहीं। किंतु बीच में छोटी रानी बेला जाने कहाँ से आ गयीं आनंद पर मर मिटीं। और आपने दंड हेतु उन्हें काशी भेज दिया।

वहाँ से मैंने उसे नवलबाई के रूप में बुलवा लिया संगीत मंडली में। आनंद मेरे लिये आया है ये छोटी रानी तो मात्र खिलौना है। आपने छोटी रानी ने हमें अलग कर दिया और विवश भी। राजा आप किसी से झूठ बोलो स्त्री से क्या बोलोगे?। आपका मान सम्मान आतंक रुतबा कितना ही महान हो भय से रानी चुप रह सकती है नर्तकी नहीं। आप एक पुरुष वेश्या से ज्यादा कुछ नहीं। मात्र वासना के खिलौने। न स्त्री से प्रेम किया न संतान दी। पौरुष के कई अर्थ होते हैं राजा सिर्फ स्त्री पर पाशविक विजय मात्र नहीं। हृदय भी जीतना पड़ता है। मेरा रोम रोम आनंद का है। हम कोई सती और पतिव्रता नहीं नर्तकी हैं। जो एक की हो तो भी लांछित अनेक की हो तो भी कलंकिनी। जब आपने लोकभय से विवाह की रस्म नहीं की। पुत्र चाहा ताकि आप छोटी रानी का बेटा कहकर वारिस भी पा जायें और बदनामी भी न हो। मैंने सोचा था तब तक रानी बनी रहूँ। किंतु नर्तकी तो हूँ कोई राजकुमारी नहीं। न तो धन बिना रह सकती हूँ न आनंद के बिना।" आनंद पश्चाताप से भर उठा था। उसने तलवार उठाकर कहा मैं आपको ब्रह्महत्या से मुक्त करता हूँ और तलवार पेट में पूरी ताकत से भोंक ली। पीछे छोटी रानी राजा को वापस ले जाने आय़ी थी उसने वहीं से आनंद की बातें सुनी जब नीचे गिरते देखा तो ग्लानि वश झरोखे की तरफ भागी और सबसे ऊँची छत से छलाँग लगा दी।

नर्तकी पुत्र को लिये थी भाग खड़ी हुयी। राजा ने महल से बाहर पहरेदारों को जिंदा या मुरदा गिरफ्तार करने का आदेश दिया। वह
कोई बचाव न देखकर तालाब में कूद गयी बच्चा गले में बाँधकर। चीखती हुयी ''राजा मैं पुत्र सहित डूब रही हूँ। जो भी अब इस महल में रहेगा या इस दौलत को ले जायेगा मेरी ही तरह विवश खुद अपनी मौत मरेगा।''
राजा लुटे पिटे हृदय के साथ सुबह सबके सामने कहानी बना रहे थे नकाबपोश शत्रु के आक्रमण और नवलबाई की बहादुरी की। जिसे वापस स्त्रीवेश पहनाकर जला दिया गया था। महल पर ''नव'' जोड़ दिया गया। "नवरतन महल'' बड़ी मँझली रानी गयंद को लेकर आ गयीं।

एक रात मँझली रानी के महल से नशे में राजा छत से गिरे और मर गये। मँझली सती हो गयी। बड़ी रानी ने गयंद को सत्ता सौंपकर वैराग ले लिया। और गंगा में एक दिन तीर्थस्नान में बह गयीं। गयंद अफीम के नशे में बिगड़ता गया। और महाजनों साहूकारों दरबारियों के हाथों लुटने लगा। रतनदेवी को जो धन राजा ने दिया जिस दिन सब बिक गया, गयंद की पत्नी ने क्लेश में शंखिया पीसकर खा लिया औऱ मर गयी।

तीन बेटियों और एक पुत्र को गयंद के ससुर लिवा ले गये जो साथ में बचा कीमती सामान भी ले गये थे लड़कियों की आम परिवारों में शादी कर दी। लड़के को साँप ने डँस लिया। एक दिन गयंद नशे में जुऐ में सबकुछ हार गया तो हवेली पुजारी को बेचकर अपने और पिता के गाँव जा बसा। वहाँ से भी भाईयों से धन लेकर कहीं चला गया।

तब से कोई नहीं जानता। वह कहाँ है। हवेली तबसे लगातार किसी न किसी की मौत से बदनाम होती गयी बिकती गयी। सुना है गयंद कहीं ज्यादा अफीम खाकर मर गया। मुझे अलग अलग नगरों के खास तीन आदमियों का पता चला जो कई बार फोटोग्राफी और पुरातत्व के नाम पर आये थे। गयंद की तीनों बेटियों के पति। जो उन लड़कियों के मुँह से बचपन कैशोर्य के वैभव की कहानियाँ सुनकर खजाने की तलाश में आये थे। क्योंकि न तो गयंद में राजपरिवार का खून था न ही हवेली पर कानूनन हक़। मैंने केस के सारे पहलू देखे मुझे कहीं से कोई लॉजिक नहीं समझ में आ रहा था। आत्महत्याओं का। अगले दिन मैंने फाईनल रिपोर्ट लगा दी कि महज इत्तेफाक है जो किसी की मौत का तार हवेली से जोड़ दिया गया। शाम का अखबार महाराणा प्रताप नगर के अपने फ्लैट में पढ़ रहा था कि चौंक पड़ा। मैंने काले को तुरंत फोन लगाया। "तुमने ईवनिंग न्यूज देखी?" "हाँ यार ये कैसे संभव है? एक व्यक्ति कार लेकर परिवार सहित शो रूम से आ रहा था और अचानक कार मोड़कर खुद ही कार सहित पुल की रेलिंग तोड़ते हुये नदी में कार डुबो कर सुसाईड कर दिया सपरिवार!"

वो गयंद का भाई और परिवार थे जरूर कुछ मोटा माल लाये होंगे। इंस्पेक्टर काले का कहना था भूत हो सकता है नर्तकी हो। या राजपुरोहित या छोटी रानी या कोई भी। किंतु मेरा मन नहीं मान रहा था। आखिरी प्रयास के तौर पर मैंने स्थानीय पुलिस द्वारा निकाली गयी कार देखने का फ़ैसला किया। उसमें गयंद के चारों भाई परिवार सहित मृत पाये गये थे। दस व्यक्ति के बैठने लायक वह एक मँहगी कार थी जिसे खरीदना उन किसानों के बूते के बाहर की चीज थी। मैं लौटना ही चाहता था कि मुझे कुछ दिखा।

वह एक माला थी। साधारण सी वस्तु जो डैशबोर्ड से फिसल कर इग्नीशन में फँसी चाभी पर लटक रही थी आधी टूटी माला। जिसके हर गुरिये पर एक गाँठ लगी थी।

आधी कहाँ है? मैंने बरामद सामान देखा और सारी कार छानबीन करायी डैड बॉडीज पर भी आधी माला नहीं थी। कार बंद थी और कोई सामान नदी में बहा नहीं था। फिर आधी माला कहाँ गयी। लाल चंदन की वह माला मेरे दिमाग में ठक ठक कर रही थी। तभी काले ने कहा। "यार बनर्जी! मुझे लगता है मैंने माला कहीं देखी है।" "कहाँ काले, याद करो।" "किसी के हाथ में।" मैंने एक एक करके सबके नाम लिये जिनसे हम दोनों पिछले सप्ताह मिले थे।
"राजगुरु! काले चीखा"
"व्हाट?"


हम लोगों ने कार फिर नगर की तरफ घुमा दी। थोड़ी ही देर में हम दोनों राजगुरू की टूटी फूटी आलीशान हवेली में थे। वृद्ध व्यक्ति धवल श्वेत दाढ़ी पगड़ी और उत्तरीय पहने अपने भव्य व्यक्तित्व से किसी का भी मन मोह ले। काले ने पूछा "पंडितजी माला कहाँ है?" राजगुरू मुसकराये। "कौन सी माला दरोगा जी?"
"ये?"
उनके हाथ में हू ब हू वैसी ही एक और माला थी जिस पर जाप लगातार जारी था। हमने उल्लुओं की तरह एक दूसरे को देखा। "पंडित जी ये खास चंदन है दुर्लभ मलयगिरि चंदन जो यहाँ किसी जोगी बिसाती पर नहीं मिलता। आप बतायेंगे ये माला किस किस के पास हो सकती है?"
"ये मैं कैसे बता सकता हूँ, लेखक साहब?"
वृद्ध के चेहरे पर परम शांति थी। हम लोग लौटने लगे। तभी एक नौकर चाय पानी ले आया। मेरा ध्यान आधी माला पर था।

तभी काले ने पूछा "पंडित जी आप आनंद के क्या लगते हैं?"
"पुत्र!"
"व्हाट?
उनका तो..."
"नर्तकी रतनदेवी से प्रेम था! यही न?
उस ज़माने में बाल विवाह होते थे। आनंद मेरे पिता थे। मेरी माँ से सात वर्ष की आयु में विवाह और बारह वर्ष का गौना होकर सोलह वर्ष की आयु में मेरा जन्म हुआ था। तभी माँ को पता चला पिताजी के संबंधों का और बीस वर्ष की आयु में उन्होंने विष खाकर प्राण त्याग दिये। मुझे दादी ने पाला। मैं कभी पिताजी का प्रेम नहीं पा सका। मैंने फिर विवाह ही नहीं किया। ये माला मुझे पिताजी ने काशी से मेरे जन्म पर लाकर पहनायी थी। तब से ही मेरे पास है।" मैंने देखा वृद्ध अशक्त है और ऐसे कांड नहीं कर सकता। हमने वापसी से पहले हवेली के शेष पुजारियों से मिलने की ठानी। तीन से मिलकर निराश हो चुके तो इंस्पेक्टर ने दुबारा डाक बँगले पर आकर शेरसिंह से पीने खाने का इंतज़ाम करने को कहा और हम आखिरी व्यक्ति मंदिर के महंत से मिलने चल पड़े।

महंत कोई पचास साल का प्रौढ़ गौरवर्ण हृष्टपुष्ट था। चाँदी से सफेद बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी पीले वस्त्र। जाने क्यों इसबार गौर से देखने पर मुझे उसकी शक्ल राजगुरू की तरह ही लगी। बस आयु में बीस साल का अंतर। हम लोगों ने मंदिर दर्शन करके कुछ फोटो निकाले और पूछा कि
-''महंत साब आप यहाँ कब से हैं?"
"यही कोई तीस साल से।"
"कैसे आये यहाँ?"
"गयंद जी ने हमें रोक लिया हम तो अनाथ बाल ब्रह्मचारी थे बस यहाँ संगीत मेले पर आ जाते थे साधुओं के साथ!"
"पहले कहाँ थे?"
'महोबा"
"वहाँ कहाँ से आये?"
"किसी साधु को पड़े मिले थे जंगल में।"
"जंगल!"
"हाँ कोई वहीं एक देवी के चौरे पर छोड़ गया था।" अचानक काले ने मेरा हाथ दबाया। टूटी हुयी माला का आधा भाग नटराज की प्रतिमा के चरणों में चढ़ा था। और महंत के हाथ में कोई नयी माला थी आज। मुझे याद आया कुछ और मैंने पुराने फोटो निकाले।

"महंत साब इन्हें पहचानते हैं?"
"हाँ ये राजगुरू हैं।"
"और इन्हें?"
"ये हमारे राजपुरोहित आनंद का चित्र है महल का।"
"ये देखो दो मालायें इनके गले में हैं"
"हाँ एक राजगुरू के पास है।
तो?"
"दूसरी आप के पास थी?"
"नहीं तो" "ये रही महंत साब आधी माला।
अब?"
काले अरेस्ट हिम। जब हम लोग महंत साब को हवालात भेजकर डाक-बँगले लौटे सामान उठाने तो मीडिया का हुजूम और गाँव के लोग हमारे खिलाफ नारे लगा रहे थे। थोड़ी देर में हमारे बयान के बाद सन्नाटा छा गया।

महंत दरअसल नर्तकी रतनदेवी और आनंद का पुत्र था। जिसे जन्म के समय चंदन माला पिता ने पहनायी थी। नर्तकी रात के अँधेरे में ज़ान बचाने तालाब में कूदी तो तैरकर दूसरे छोर पर जा पहुँची। वहाँ बच्चे को घाट पर रख ही रही थी कि फिसल कर वापस जा डूबी। कुछ चोरों ने बच्चे के जेवर उतारे और जाकर जंगल में साधुओं के टोले को आता देख बच्चा छोड़कर जा छिपे। बच्चा जब साधुओं ने उठाया तो राजोचित पोशाक़ देखकर पाल लिया और महोबा दरबार में पुजारी को सौंप दिया। चंदन माला और राजमुद्रा देख कर पुजारी सब समझ गये नर्तकी का पता लगाया किंतु वह नहीं मिली। तालाब से उसकी लाश मिली।

पुजारी ने जब अरिदमन के परिवार की कथा जान ली तो मरते वक्त सब कुछ महंत ज्ञानेंद्र को सुनाया। और निशानियाँ सौंप दीं। माँ पिता के प्रतिशोध ने उसे उस धन को और परिवार को तबाह करने की जिद दी और वह गयंद के नशे और जुये की लत का फायदा उठाकर मंदिर में आ डटा। वहाँ से सारा धन लगातार वह निकालता और अनाथालयों साधुकावासों और नारी निकेतनों में बाँटता। बलिष्ठ और युद्धकला में माहिर ही नहीं वेश बदलने में निपुण ज्ञानेंद्र नर्तकी का वेश रखकर लोगों को डराता और जब डर जाते तो मार देता।

जिसने भी कुछ देख लिया या शक किया उसे भी फाँसी से या धकेल कर मार देता। किरायेदार की बीबी प्रसाद में मिले स्लो पॉयजन से मरी तो लड़कों को खुद घरवालों ने मरवा दिया। जब महंत को भूत भगाने का उपाय करवाने बुलवाया, वह आराम से बाहर आकर कहता  द्वार पर रखवाली करना और रात में जाकर बेहोश व्यक्ति को लटका देता। गाँव के घर एक मंजिला, और लोग डरपोक, पोस्टमार्टम कौन कराता। गयंद के भाई भी महंत को प्रेतमुक्ति के लिये गये थे। जब गयंद का चुराया धन हाथ लगा तब।
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कार को महंत चला रहा था और मोड़कर कूद गया नदी में। किंतु माला द्वार बंद करते टूट गयी महंत राजगुरू का भाई है।

२७ अप्रैल २०१५

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