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कहानियाँ

बुद्ध जयंती के अवसर पर इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
डॉ. सुधा पांडेय की बौद्धकथा- तृष्णा तू न गई


वाराणसी का राजा भौतिक सुखों में इतना अधिक आसक्त था कि उसकी तृप्ति कभी नहीं होती थी। धन का लोभी वह राजा प्रतिक्षण कई-कई नगरों का राज्य जीतकर उन पर शासन करने को आतुर रहता था।

उस दिन राजद्वार पर एक तरुण ब्रह्मचारी आ पहुँचा था। ‘किसलिए आये हो।’ राजा के पूछने पर उसने स्वाभाविक ढंग से उत्तर दिया- ‘महाराज, मुझे तीन ऐसे नगर ज्ञात हैं, जो प्रभूत धान्य, स्वर्ण, अलंकारों से भरे हैं। उन्हें आसानी से जीता भी जा सकता है। मैं आपको उन्हीं नगरों पर विजय प्राप्त करने की सलाह देने आया हूँ।’
'कब चलेंगे?’ राजा उत्कंठा से भर उठा था।
‘कल प्रातः ही प्रस्थान करेंगे। आप जल्दी से सेनाएँ तैयार करायें।’ तरुण ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया और अपने स्थान को लौट गया था।
‘कैसा सुखद समाचार है। उस ब्रह्मचारी ब्राह्मण तरुण ने आकर मेरे भाग्य के द्वार ही खोल दिये। बिना प्रयास किये ही उत्तर पांचाल, इंद्रप्रस्थ और केकय- इन तीनों नगरों पर विजय प्राप्त करने का संदेश दिया। शीघ्र ही सेना को तैयार करें और प्रातःकाल ही उस तरुण को साथ लेकर तीनों नगरों का राज्य जीतेंगे, अपार ऐश्वर्य से भरे, हमें किसी सुख की कमी न रहेगी।’ राजा ने सर्वत्र घोषणा करा दी और अमात्यों को बुलाकर साथ चलने को कहा।

प्रातःकाल सभी प्रस्थान के लिए उतावले थे। किंतु, वह तरुण ब्रह्मचारी नहीं आया।
‘उसे शीघ्र ही ढूँढ कर लाओ, राजा ने आदेश दिया।
‘देव, उसे कहाँ ढूँढें? आपने उसे कहाँ ठहरने को कहा है?’
‘मैंने उसे आवास तो दिया नहीं था।’
‘तो भोजन खर्च दिया?’ मंत्रियों ने पूछा।
‘वह भी नहीं दिया।’
‘फिर उसे कहाँ ढूँढ़े?’
‘अरे, नगर की गलियों में ढूँढों।’

कई जगह ढूँढ कर अमात्य परेशान लौट आये थे, ‘महाराज, वह ब्रह्मचारी तो कहीं दिखायी नहीं देता, क्या करें?’
‘अरे! मेरा इतना बड़ा ऐश्वर्य जाता रहा।’ राजा का पश्चाताप से हृदय जलने लगा।
विचलित भाव से भरे राजा का रक्त कुपित हो उठा। रक्तातिसार से पीड़ित उस राजा की बड़े-बड़े वैद्य चिकित्सा न कर सके। अमात्य परेशान थे क्या करें।
बोधिसत्व शक्र देवेंद्र के रुप में आसीन थे उस समय। राजा के रोग को जानकर चिकित्सा करूँगा। ब्राह्मण रूपधारी वैद्य आये थे इस बार द्वार पर।
‘महाराज! एक वैद्य ब्राह्मण आपकी चिकित्सा के लिए द्वार पर उपस्थित हैं।’ ऐसा संदेश कहलाया।
‘अरे, बड़े-बड़े राज-वैद्य भी मेरी चिकित्सा न कर सके। यह क्या करेगा? इसे कुछ खर्च देकर विदा करो।’ राजा ने खीझकर अमात्यों से उसे लौटा देने को कहा था।
‘मुझे न भोजन की आवश्यकता है और न ही खर्च की। वैद्यों का शुल्क भी मैं न लूँगा। राजा की चिकित्सा मात्र करूँगा। राजा मुझे मिले तो, एक बार उन्हें देखूँ तो।’
‘द्वार पर स्थित वैद्य को आने दो’, राजा ने आदेश दिया था। वैद्य के प्रविष्ट होते ही राजा ने पूछा, ‘तू मेरी चिकित्सा करेगा?’
‘हाँ, देव!’
‘...तो चिकित्सा प्रारंभ कर...।’ राजा ने उपेक्षित भाव से कहा था।

राजसभा में स्तब्ध सन्नाटा छाया हुआ था। अमात्य सहित सभी राज कर्मचारी चिंतित थे कि अचानक महाराज पर कैसी विपदा आन पड़ी है।
‘महाराज! मुझे रोग का लक्षण बतायें। किस कारण यह रोग उत्पन्न हुआ है? कुछ खाने-पीने से हुआ है अथवा देखने-सुनने के कारण हुआ है?’ नवागंतुक वैद्य ने सभी का ध्यान भंग करके पूछा था।
‘मेरा यह रोग सुनने के कारण प्रारंभ हुआ,’ राजा ने वैद्य को बताया।
‘सुनने के कारण’, यह तो विचित्र तर्क है, ‘फिर भी आपने क्या सुना था?’

‘अरे! एक तरुण ब्रह्मचारी ने अचानक द्वार पर आकर कहा कि मैं तीन नगरों का राज्य जीतने में सहयोग करूँगा। ऐसा कहकर वह चला गया। मैंने उसे निवास एवं भोजन के लिए खर्चा नहीं दिया और न ही उसका कुशलक्षेम पूछा। संभवतः इसी से क्रुद्ध होकर वह दूसरे राजा के पास चला गया होगा। मेरा इतना अधिक ऐश्वर्य यों ही छिन गया। यही सोचते रहने के कारण मुझे यह रोग लग गया है। यदि तुम्हारी शक्ति हो तो तुम मेरे ‘कामना रोग’ की चिकित्सा करो। मैं उन पांचाल, कुरू और केकय देशों पर आधिपत्य और उससे भी अधिक की इच्छाएँ रखता हूँ। अतः हे ब्राह्मण! इन वस्तु कामनाओं और योग कामनाओं में आकंठ मग्न एवं मानोमृत्यु के समीप पहुँचे मेरी चिकित्सा करो।’

‘महाराज! वनौषिधियों से आपकी चिकित्सा नहीं हो सकती। आपको ज्ञानौषधि की आवश्यकता है। कुछ वैद्य काले साँप के विष की चिकित्सा करते हैं। कुछ भूत-प्रेत की आपदाओं से ग्रस्त लोगों की चिकित्सा कर पाते हैं, किंतु कामनाओं के वशीभूत मनुष्य की ज्ञानियों को छोड़कर कोई चिकित्सा नहीं कर सकता। जिन्होंने शुक्ल धर्म की मर्यादा लाँघ दी, उनकी मंत्र या औषध से क्या चिकित्सा होगी? ऐसे मूर्ख व्यक्ति को मंत्र या औषधियों से ठीक नहीं किया जा सकता।’ ब्राह्मण वैद्य ने निग्रहपूर्वक राजा को लज्जित करने के प्रयास प्रारंभ कर दिये थे।

राजा गंभीर चिंता में एक बार पुनः डूब गये थे। मिला-मिलाया ऐश्वर्य जाता रहा। तीन राज्य और मिल जाते, तो उनकी अकूत संपत्ति का भी अधिपति मैं बनता। इसी दुश्चिंता में और अधिक उदास हो गये थे। उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी।

ब्राह्मण वैद्य ने परिस्थिति की गंभीरता भाँप ली थी और मौका पाते ही पुनः कहा ‘अरे महाराज! समझने का प्रयास क्यों नहीं करते? यदि आप इन तीनों राज्यों को प्राप्त कर भी लेंगे तो क्या इन समस्त नगरों पर राज करते हुए आप एक ही साथ चार वस्त्र पहनेंगे अथवा चार स्वर्ण की थालियों में भोजन करेंगे अथवा चार शैय्याओं पर एक साथ सोएँगे या फिर चार रथों पर एक साथ सवारी करेंगे? महाराज, ये तृष्णाएँ ही विपत्ति का मूल हैं। उनके वशीभूत नहीं होना चाहिए। इन तृष्णाओं के बढ़ जाने पर ये ही कामनाएँ व्यक्ति को अपार दुःख देती हैं, और नरक के द्वार तक ले जाती हैं। इनसे मुक्ति पाने का मार्ग भी सरलता से नहीं मिल पाता है।’

राजा भय से काँपने लगे थे, ‘अरे, मैं व्यर्थ ही सुख के साधनों की खोज में भटकता रहा। अपने समीप पर्याप्त वैभव होने पर भी मैं और अधिक, और अधिक की मामना में जलता रहा! हे महावैद्य! आपने मेरे नेत्र खोल दिये। इस क्षण-भंगुर भौतिक वैभव की चिंता से उत्पन्न शोक की ज्ञानौषधि से आपने चिकित्सा की है। आप धन्य हैं।’

धर्मोपदेश से राजा शोक-रहित हो गये थे। शक्र वेशधारी वह ब्राह्मण, जो राजा की परीक्षा लेने आये थे, वह यथाशीघ्र अपने स्थान को लौट गये। राजा ने स्वधर्म की प्रतिष्ठा में अपने जीवन के अवशेष दिन व्यतीत किये।

४ मई २०१५

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