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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से दिव्या विजयवर्गीय की कहानी- बिट्टो


कभी कभी ज़िन्दगी में घटने वाले हादसे ज़िन्दगी का विभाजन कर देते हैं। ज़िन्दगी दो हिस्सों में बँट जाती है। एक हादसे के पहले वाली। दूसरी हादसे के बाद वाली। हर बात ऐसे ही याद रह जाती है, उस घटना की लकीर से कटी हुई। जैसे नीलाभ हर बात यों ही याद करता है। बिट्टो के पहले और बिट्टो के बाद।

छोटा सा कस्बा था। पेइंग गेस्ट जैसी सुविधाएँ तब यहाँ प्रचलित नहीं थीं। किरायेदार को खाना खिलाने की आफत मोल लेना मध्यमवर्गीय घरों में नयी बात थी जिसके लिए घर की स्त्रियाँ राजी नहीं होती थीं। नए आदमी का घर के भीतर प्रवेश सावधानी की दृष्टि से ठीक नहीं माना जाता था। जवान होती लड़कियाँ हर घर में थीं। एक अलग दरवाजे से किरायेदार का आना जाना तय रहता था। और उसमें भी वक़्त तय था। ज़्यादा देर होने पर किच किच होने की पूरी सम्भावना रहती थी। गुजरात में दूरांत स्थित इस कस्बे में बगैर 'खाने पीने' वाले किरायेदार को ही तरजीह दी जाती थी। मकान पक्के थे पर कस्बे के मुहाने पर कच्चे मकानों की लड़ियाँ खेतों के संग संग पिरोई हुई चलती थीं। बैंक की परीक्षा क्लियर करने के बाद नीलाभ को ट्रेनिंग के लिए पहली पोस्टिंग यहीं मिली थी।

घर पर जब डाक से यहाँ पोस्टिंग की सूचना मिली तो कुछ दिनों की ज़द्दोज़हद के बाद आखिर उसने यहाँ आने का निर्णय ले ही लिया। माँ साथ आना चाहती थी पर उसने मना कर दिया था। बाबूजी अकेले कैसे रहते। माँ की चिंता थी हमेशा घर में रहा बेटा कैसे बाहर अकेला रह पायेगा। बाहर का खाना खाते ही बीमार जो पड़ जाता था। फिर हमेशा की तरह बाबूजी ही समस्या का समाधान ढूँढ लाये। बाबूजी के ऑफिस में रामधन जी हेडक्लर्क हैं। उन्हीं के रिश्ते की बहन रहती हैं वहाँ। बाबूजी ने जब उनसे ज़िक्र किया तो उन्होंने उसी वक़्त बहन से बात कर किराये के कमरे की और खाने पीने के टिफ़िन की बात कर डाली। खाने का नाम सुन उन्होंने थोड़ी ना नुकुर ज़रूर की पर फिर मान गयीं। माँ ने गली वाले हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाया और बाबूजी मिट्ठन हलवाई की जलेबियाँ बँधवा लाये। माँ उदास होते हुए भी अब सहज थीं और बाबूजी उसका होल्डाल बँधवाते हुए संतुष्टि से मुस्कुरा रहे थे।

स्टेशन छोड़ने आये बाबूजी ने उसका गाल थपथपाते हुए कहा था-
"मन लगाकर काम करना। नयी नौकरी है आने की जल्दबाज़ी मत करना। हमारी चिंता में मत घुलना। थोड़ा सा वक़्त है। पलक झपकते ही बीत जायेगा।"
उसने गर्दन हिला दी और नम आँखें छिपाने के लिए हाथ में पकड़ी किताब में चेहरा घुसा लिया। वो पहली बार घर से बाहर जा रहा था। माँ बाबूजी बचपन से उसका सबसे बड़ा सम्बल रहे हैं। उसे कभी उनसे कोई शिकायत नहीं रही। जहाँ उसके बाकी दोस्तों की अपने माता पिता से विचार न मिलने के कारण तनातनी रहती थी वहीं उसकी बातें माँ बाबूजी से बेहतर तरीके से कोई समझता ही नहीं था। उसने जीवन के सबसे अच्छे पल अपने घर में उन्हीं के साथ बिताये थे। उसे अपने भीतर अकेलापन उगता महसूस हुआ। बैग की बाहरी जेब में खोंसी हुई बोतल निकालकर उसने पानी के दो घूँट भर जैसे गले तक आ पहुँचा अकेलापन भीतर ठेल दिया।

रात भर के सफ़र के बाद जब वो छोटे से स्टेशन पर उतरा तो बीते दिन का उदास कोहरा कुछ हद तक छँट गया था। वहाँ उतरने वालों में वो अकेला यात्री था। स्टेशन के नाम पर टीन की शेड थी जिसके नीचे शायद स्टेशन बाबू की मेज कुर्सी थी। बगल में एक तिपाई पर कपड़े से लिपटा घड़ा जो उस वक़्त उघड़ा पड़ा था। रेल की पटरी के साथ चलते खेतों में खड़े बिजूकों पर एक कुत्ता मुस्तैदी से भौंक रहा था। पास ही एक गड्ढे में भरे पानी में कुछ गौरैयाँ पंख फैलाये नहा रही थीं। उसने उधर ही कदम बढ़ा लिए। आहट से भी गौरैयाँ उड़ी नहीं। वो मज़े से नहाती रहीं। थोड़ा आगे ताँगे में जुता घोड़ा उनींदे ताँगे वाले को लादे धीरे धीरे इधर ही आ रहा था। वो उसी में सवार हो लिया। बाबूजी के हाथ का लिखा परचा निकाल पता ताँगे वाले को बताया। वो उनींदा ही घोड़े को हाँके चलता गया। रेलवे स्टेशन गाँव की सीमा पर था। अंदर की ओर चलते हुए नीलाभ ने देखा कि सारा खुलापन हवा हो गया था। खेतों के बीच बनी दस बीस झोंपड़ियों के बाद मंदिर। और मंदिर के अचानक बाद ढेर सारे पंक्तिबद्ध पक्के मकान। मगर उनमें अब भी खाना चूल्हों पर ही पकता होगा क्योंकि दीवारों पर असल रंग के ऊपर एक और रंग पैबस्त था जो सिर्फ धुएँ का हो सकता था।

कच्चे मकान पक्के मकान पार कर एक और तरह के मकान थे जिन्हें छोटे मोटे बँगले की उपाधि आसानी से दी जा सकती थी। बँगले यों कि एक तो वो थोड़े बड़े थे। उनमें छोटे से बगीचे की गुंजाइश भी थी जहाँ किस्म किस्म के पेड़ पौधे लगे हुए थे। उनकी बनावट भी भिंची हुई नहीं, खुली खुली थी। गंदगी का नामो निशान नहीं था और एक लिहाज से वे खूबसूरत थे। ऐसे ही एक बँगलेनुमा मकान के सामने जब ताँगा रुका तो अनचाहे ही खुशी वाली मुस्कराहट में उसके होंठ फैल गए। बाबूजी पर एक बार फिर प्रेम उमड़ आया।

ताँगे वाले को पैसे देकर जैसे ही उसने अंदर पाँव रखा एक कोहराम उसके कानों से टकराया। एक लड़की बाल खोले बरामदे की सीढ़ियों पर सर पटक पटक कर रो रही थी। उसके इर्द गिर्द कुछ बच्चे उसे सांत्वना देने की मुद्रा में खड़े थे। एक ने नीलाभ को देखा तो उसे वहाँ से उठाना चाहा। मगर लड़की ने उसका हाथ झटक दिया और दुगुने वेग से रोना शुरू कर दिया। नीलाभ अचकचा कर दो कदम पीछे हटा और घंटी दबा दी।

घंटी बजते ही दो बातें साथ हुईं। उस लड़की ने सर उठाकर यों आँखें तरेरीं गोया कि उसके रोने में नीलाभ ने खलल डाला हो। साथ ही सर का आँचल सँभालती एक मध्यम वयस की स्त्री आ खड़ी हुई। यही शायद रामधन जी की बहन होंगी, नीलाभ ने अनुमान लगाया। वो पल भर को ठिठकी खड़ी रहीं पर उसके साथ सामान देखते ही उनके मन में उसकी पहचान कौंध गयी। फिर तो मायके से आये किसी व्यक्ति के लिए कोई स्त्री जितनी गर्मजोशी दिखा सकती है उतनी ही आत्मीयता से वो उसे अंदर लिवा ले गयीं। उसके शहर का हाल यों पूछने लगीं जैसे वो शहर न होकर उनका कोई संबंधी हो। तब तक बाहर बरामदे से रुदन का स्वर सप्तम सुर को छूने लगा था। नीलाभ ने असहज होकर कमरे की खिड़की से झाँका। उसकी असहजता को भाँप उन्होंने हँसते हुए आवाज़ दी-

"बिट्टो तनिक अंदर तो आओ। देखो तुम्हारे मामा के यहाँ से आये हैं।"

बिट्टो तो अंदर नहीं आई। पर एक बच्चा भागता हुआ आया। और हाँफते हुए सूचना दी-
"चाची, बिट्टो दीदी ने कुछ दिन पहले जो गुड़हल का पौधा लगाया था वो मर गया इसलिए बिट्टो दीदी का मन ज़रा खराब है।"

आखिरी बात उसने नीलाभ की ओर देख कर कही और न चाहते हुए भी नीलाभ मुस्कुरा उठा। बिट्टो की माँ यह देखकर झेंप गयी। और शीघ्रता से बाहर जाकर बिट्टो को दबे स्वर में समझाया। इसके बाद सारी आवाज़ें बंद हो गयीं और एक ख़ामोशी पसर गई।

इस सन्नाटे को तोड़ने वाली उनके क़दमों की पदचाप थी। वो धीरे से उनके पीछे हो लिया। बगल की गैलरी की तरफ सीढ़ियाँ थीं। उनसे होते हुए दायीं तरफ एक कमरा था। बायीं दीवार से सटा हुआ लकड़ी का एक छोटा पलंग और सामने की दीवार से लगी हुई लकड़ी की एक मेज कुर्सी। एक छोटी सी अलमारी भी थी जो कुछ पुरानी नज़र आ रही थी। कुर्सी पर बैठो तो मकान का फाटक नज़र आता और छोटा सा बगीचा भी, जहाँ मरा हुआ गुड़हल पड़ा था। दूसरी ओर भी खिड़कियाँ थीं जहाँ से किसी स्कूल का बास्केटबॉल कोर्ट दीख पड़ रहा था।

कमरा उसे अच्छा लगा। ऐसा जहाँ आराम से बहुत देर तक सोचा जा सकता है बिना किसी व्यवधान के। मगर उसे सोचना क्या है। माँ बाबूजी की, घर की, अपने शहर की बातें। तनख़्वाह का पहला चेक देखकर बाबूजी को कैसा लगेगा ये सोचना भी उसे रोमांच से भर गया। रात को बिस्तर पर लेटा तो थकान तारीं थी। सफ़र की थकन, नयी जगह का अजनबीपन, सामान जमाने की कवायद। खिड़की पर गिरती पेड़ों की परछाई से आकृति बनाते वो जाग के उस पार पहुँचा ही था कि कुछ आवाज़ों ने उसे घेर लिया। उसने खिड़की से झाँका तो कोई कुदाल से मिट्टी खोद रहा था। अगली सुबह बगीचे में मिट्टी का ऊँचा ढूह बना हुआ था। और उस पर एक छोटा सा पौधा रोपा हुआ था। बिट्टो स्कूल जाने को तैयार उसे प्रेम से सहला रही थी।

उसे देखकर बिट्टो भागती हुई भीतर गयी और टिफ़िन का डब्बा लाकर उसे पकड़ा दिया। वो मुस्कुराया और बैंक की ओर चल पड़ा। बैंक पास ही था। उसने देखा उस से कुछ ही दूरी पर बिट्टो भी चल रही थी। शायद उसका स्कूल भी आस पास होगा। थोड़ा आगे चलकर उसने देखा कि बैंक और स्कूल की इमारतें करीब ही थीं।

स्कूल देखकर उसे अपना बचपन याद हो आया और याद हो आई बाबूजी की। वे हर रोज़ उसे स्कूल छोड़ने जाते थे। उसका बैग भी हमेशा वही पकड़ते रहे। बड़े हो जाने तक। वह कुछ पल वहीं खड़ा छोटे बच्चों को देखता रहा। फिर आगे बढ़ गया।

बैंक के लोग मिलनसार और हँसमुख थे। कुल जमा चार लोगों का स्टाफ। सभी अच्छे लगे उसे। ठीक ही बीत जायेगी यहाँ उसने सोचा। पाँच बजे बाहर निकला तो बिट्टो के स्कूल के बाहर भीड़ जमा थी। कोई मदारी करतब दिखा रहा था। बिट्टो भी उसे दीख पड़ी। बिट्टो की आँखें मदारी के करतब को फलाँगती सामने किसी की आँखों में उलझी हुई थीं। उसने अनदेखा कर दिया और आगे बढ़ गया।

घर पहुँचा तो बिट्टो उस से पहले वहाँ मौजूद थी और घास पर लेटी शून्य में ताक रही थी। नीलाभ अपलक उसे देखता रहा। निर्जन वन में जैसे कोई पक्षी अकेला कूक रहा हो उसे वो वैसी ही लगी।
बचपन में कक्षा में साथ पढ़ने वाली जिस लड़की को वो चुपचाप देखा करता था उसे लगा वक़्त लाँघ कर किसी चमत्कार से वह लड़की यहाँ आ गयी है।

उसकी तन्द्रा टूटी चाची की आवाज़ से। बच्चों की देखा देखी बिट्टो की माँ को वो चाची पुकारने लगा था।
"ओ बिट्टो, यहाँ पड़ी पड़ी क्या कर रही है। जा छत पर से कपड़े ले आ।"

नीलाभ को देख मुस्कुराती हुई उसकी ओर बढ़ आई और दफ्तर के पहले दिन की खोज खबर लेने लगी। उनकी बातों से उसे याद आया बाबूजी को फोन करना है। उसने चाची के फोन से दो घंटी घर पर दे दी। पलट कर बाबूजी का फोन आया तो वे सिलसिलेवार सारी बातें पूछते गए और वो सारा ब्यौरा देता गया।

बाबूजी उसकी नौकरी से खुश हैं और सारे परिवार को गर्व से उसके बारे में बताते हैं कि पहली बार में ही उसकी बढ़िया नौकरी लग गयी है। उसके सीधे साधे बाबूजी जिन्होंने मास्टर की छोटी सी तनख़्वाह में जीवन गुजार दिया उनके लिए उसकी यह नौकरी बहुत बड़ी बात है। और यों भी वो उनके जीवन का इकलौता स्वप्न है जिसे उन्होंने बहुत मन से सींचा है। अपने बाबूजी को खुश देखकर वो भी खुश है।

कमरे से बाहर निकलने लगा तो जाल के पार आसमान में ताकती दो आँखें जाने कहाँ गुम थीं। वो पल भर को ठहरा फिर आगे बढ़ गया।

अब अक्सर वो बिट्टो को कभी पढ़ते हुए कभी खेलते हुए देखता। कमरे की खिड़की से जो बगीचा नज़र आता वही अक्सर बिट्टो का खेलघर बनता। बिट्टो के खेल निराले थे। कभी तिनके जुटा घोंसला बना पक्षियों का इंतज़ार कि कोई तो उसे अपना बसेरा बनायेगा। कभी गिर गए फूलों को वापस शाख से जोड़ने का जतन कि उसका बगीचा गुलजार लगे। कभी भागते हुए किसी गिलहरी की पूँछ छू जाने पर उसकी पुलक भरी खुशी उसे पहली मंज़िल पर महसूस हो जाती थी। उसका पढ़ना भी वहीं होता। किसी पेड़ की शाख पर अपना छोटा सा लैंप लटका वहीं पढ़ने बैठ जाती। इस पेड़ का चुनाव भी काफी दिलचस्प होता। पहले वो समझा नहीं था। मगर रोज़ देखने के अभ्यास से वो समझ पाया कि जिस पेड़ की सुगंध उसे आकर्षित करती वो दिन उसी पेड़ के नाम होता। पढ़ते हुए कुछ दाने अपने इर्द गिर्द ज़रूर बिखरा देती थी। और बिलकुल स्थिर होकर चोर निगाहों से आने वाले पक्षियों को ताका करती। और फिर अचानक ही चौंका कर उन्हें उड़ा देती।
नीलाभ बिट्टो की दिनचर्या से अनजाने ही जुड़ गया था।

सर्दियों ने दस्तक दी थी। बिट्टो पढ़ते हुए ऊँघ रही थी। हाथ पर मूँगफली के दाने रखे थे कि भूले भटके कोई गिलहरी हाथ पर चढ़ आये। नीलाभ बालकनी में बैठ अख़बार पढ़ रहा था। तभी बाइक के तेज़ हॉर्न से उसकी तन्द्रा टूटी और बिट्टो उछल कर खड़ी हो गयी। एक लड़का हेलमेट पहने खास अंदाज़ में हॉर्न देते निकल गया। मगर नीलाभ उन आँखों को पहचान गया। उसने बिट्टो की भीनी मुस्कराहट भी देखी थी। नीलाभ बेचैन हो उठा। उस शाम बिट्टो खाने के लिए बुलाने आई तो उसने चाची को कहलवा भेजा कि वो बाहर जा रहा है।

बिट्टो ने हँसते हुए पूछा, "किसके साथ बाहर जायेंगे।"

उसकी हँसी ने उसे द्रवित किया या क्रोधित नहीं पता मगर वो बग़ैर कुछ कहे निकल गया था। स्टेशन वाली सड़क के और प्लेटफार्म के चक्कर काटता रहा। स्टेशन बाबू अपनी जगह पर ही थे। सफाचट बालों वाले तोंदियल आदमी। किसी बात पर ठहाके लगा रहे थे। काफी मिलनसार होंगे शायद। उनके आस पास का जमावड़ा देख उसने अंदाज़ लगाया। प्लेटफार्म पर काफी चहल पहल थी। उस दिन जो स्टेशन चुप पड़ा था आज चहक रहा था। कोई गाड़ी आने वाली थी। आज सब कुछ तरतीब से था बस उसका मन ही बेतरतीबियों के बीच भटक रहा था।

देर रात वापस लौटा तो देर तक बास्केटबॉल कोर्ट देखता रहा। एक दूधिया हैलोजन लाइट अँधेरे को चीर रही थी। बाकी सब कुछ स्थिर था। वह वीरान कोर्ट में बॉल थपकने की आवाज़ सुनने की असफल चेष्टा करता रहा। पीपल की पत्तियों की आड़ से कटे चाँद को देखता रहा। रात का अपना ही साम्राज्य होता है। दिन के वक़्त जो दीखता है, रात में और अधिक साफ़ दिखाई पड़ता है यह उसने पहली बार ही महसूस किया। उसे लगा रात की आँखें होती हैं जो हम पर निगरानी रखे रहती हैं और हमारी सोच को भी पढ़ सकती हैं। रात अपनी ख़ामोशी से गुलज़ार है। दिन का शोर न जाने कहाँ सो रहा होगा। कोर्ट में कुछ पेड़ों की परछाइयाँ दिखीं तो उसे लगा उसका मन ही वहाँ कुलाँचे भर रहा है।

अगले कुछ दिनों में उसने बार बार उस लड़के को देखा था। कभी घर के चक्कर काटते कभी स्कूल से लौटती बिट्टो के पीछे आते। शुरुआत में जिज्ञासावश यह सब शायद बिट्टो को अच्छा लगा था। लड़के को देखते ही उस की सहेलियाँ उसे इशारा करतीं और हँस पड़तीं। उसके घर पर आते ही ब्लेंक कॉल्स का सिलसिला शुरू हो जाता। बिट्टो की हँसी में रहस्य का भाव आ गया था। उसकी आँखें अक्सर सड़क पर टिकी होतीं। चाची किसी काम के लिए कहतीं तो दस बार में सुनती और फिर डाँट खाती।

पर थोड़े ही दिनों बाद बाइक की संख्या एक से दो और दो से कई में परिवर्तित हो गयी। कभी सब लोग झुण्ड में आते कभी एक एक कर। अजीब इशारे करते हुए निकल जाते। बिट्टो परेशान होने लगी थी।

बालकनी से लगी छत पर बिट्टो अपनी सहेली को कह रही थी-
"वो लड़का मुझे अच्छा लगता था इसलिए मैंने उससे फोन पर बात की थी और उसने अपने दोस्तों को जाने क्या बोला कि सब मुझे देख भद्दे इशारे करते हैं।"

ये सब बताते हुए वो रुआँसी थी। बिट्टो की सहेली ठहरी हुई आवाज़ में बोली थी, "मेरे भाई ने बताया कि वे सब तेरे बारे में बहुत ख़राब बातें करते हैं। तूने सिर्फ फोन पर बात की और वो न जाने क्या क्या कहता है। तू उस लड़के से कभी बात मत करना।"
बिट्टो की आँखों में गाढ़े रंग की लकीरें खिंच गयी थीं। उसने ठहरी हुई आवाज़ में कहा- "मोहब्बत बेजा बात है।"

इसके कुछ ही दिनों बाद घर के अंदर कोई फूल और ख़त फेंक गया था। वो सामान हाथ लगा था चाची के। उस दिन घर में खूब कोहराम हुआ था। शायद बिट्टो को चाचा चाची से मार भी खानी पड़ी थी। बिट्टो की दबी सिसकियाँ उसने सुनी थीं। सुना तो उसने और भी बहुत था। गाहे बगाहे हलकी सी जान पहचान वाले लोग भी उसे टोकते
"कोने के शर्मा जी के मकान में किरायेदार हो न। सुना है कि उनकी लड़की..। आजकल की लड़कियाँ स्कूल पढ़ने तो जाती नहीं है। सुना है कि कक्षा ही में...।" फिर खीसें निपोर देते।

उसका मन होता चिल्ला कर कहे कि-
"सुना होगा तुमने। मैंने तो उसे देखा है। तुम सब लोगों से ज़्यादा जाना है।"
पर उसने कभी कुछ नहीं कहा। उसकी वजह से बिट्टो को ज़रा भी कुछ कहा जाए वो कहाँ बर्दाश्त कर पाता।

इसके बाद बिट्टो घर के अंदर रहने लगी। बाहर की दुनिया से रिश्ता लगभग ख़त्म हो चला था। नीलाभ को लगा वो ठूँठ हो गयी है। उसकी आँखों का रंग उन धुएँ सनी दीवारों सा हो गया था जो उसने पहली बार इसी कस्बे में देखा था। कितने ही दिनों तक वो स्कूल नहीं गयी थी। उसे मालूम था सब उसकी बातें करते हैं।
कई दिनों बाद स्कूल यूनिफार्म पहने वो उसकी बगल से निकली तो उसकी नज़रें नीचे थीं। उसने न पत्तों को सहलाया, न कोई गीत गुनगुनाया। बिट्टो ने कहीं पढ़ा था कि बात करने से पेड़ पौधे जल्दी बढ़ते हैं। पर अब उसे उनके जल्दी बढ़ने की चिंता भी न थी। दो सफ़ेद कबूतर बिना दाने के यों ही उसके क़रीब आ गए। उनको देखकर भी वो जड़ रही।

नीलाभ को पहले वाली बिट्टो याद आई। वो उसे फ़िर पहले जैसा देखना चाहता था। उसने नोटपैड उठाया और बिट्टो को ख़त लिखने बैठ गया। उसने ख़त में लिखी एक छोटी चिड़िया की बात। वो शायद उड़ना सीख रही थी। छोटी छोटी उड़ान। एक डाली से दूसरी डाली तक की उड़ान। चिड़िया उसके सर पर से उड़ी तो वो चौंक गया। उसकी चोंच पीली थी जैसे धूप हो। यह शायद वही चिड़िया थी जिसे कुछ रोज़ पहले एक कौवे के मुँह में दबा देख बिट्टो छटपटाई थी। और उसे बचाने के लिए दूर तक भागती चली गयी थी।

बिट्टो के लैंप पर किसी ततैये ने अपना ढूह बना लिया था। वो कितने दिनों से यों ही पड़ा था। किसी ने उसे न जलाया न उसकी जगह बदली। लेकिन वो जानता था बिट्टो ये ढूह देखकर भी उतना ही चकित हो जायेगी जितना वो तितलियों को देखकर होती है। उसने ये बात भी एक ख़त में लिख रख दी थी।

दुनिया के नक़्शे पर नयी नयी जगह ढूँढ उनकी बाबत सोचना और वहाँ की गलियों और लोगों की कल्पनायें बुनना उसे बेहद पसंद था। नीलाभ ने लिखा था बिट्टो को कि तुम भी कभी ये कर देखना। अच्छा लगेगा।

बिट्टो की एक छोटी पेंसिल कभी उसने बगीचे में से उठाई थी। उसने लिखा कि कैसे बेजान चीज़ें भी ज़िंदा लोगों को कैद कर लेती हैं। कैसे उन्हें छूकर हम किसी की अँगुलियों का स्पर्श महसूस कर सकते हैं।

कभी कभी सबके बीच रहकर भी कैसे सबसे छिप जाने को मन होता है ये भी नीलाभ ने लिखा। कार के शीशों पर हलकी काली परत कभी कभी सुकूनदेह लगती है मगर वो सब अस्थायी है। स्थायित्व खुले आसमान और धूप में ही होता है।

नीलाभ की ट्रेनिंग ख़त्म हो चली थी। उसे वापस अपने शहर लौटना था। माँ बाबूजी उसके इंतज़ार में थे। जाने से पहले वो पहले वाली बिट्टो देखना चाहता था। बिट्टो के मन की विचलन उस तक भी तो पहुँची थी। वही कहाँ पहले की तरह रह गया था। नीलाभ को उस घर की चुप्पी अखरती थी। उसे बिट्टो का खिलंदड़पन याद आता। वो अक्सर सोचता, कैसे छोटी सी बात जीवन का बहाव पलट देती है। अब बिट्टो वहाँ नहीं थी। उसे वहाँ एक सहमी खामोश औरत की परछाईं दिखती थी।

जाने से पहले उसने बिट्टो को लिखे सारे खतों का उसने एक पुलिंदा बनाया। छत के एक कोने में मधुमालती की लतरें झूलती थीं। बिट्टो जब कहीं नहीं होती थी, वहाँ होती थी। वो ख़त नीलाभ ने वहीं रख छोड़े। सबसे विदा लेकर उसने पीछे मुड़कर देखा तो बिट्टो ठीक वहीं नज़र आई थी।

एक कोने में क़ायदे से रखे हुए ख़त बिट्टो को मिले थे। आखिरी ख़त में लिखा था-
"मोहब्बत बेजा बात नहीं है।"

१ दिसंबर २०१६

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