| 
					
					 “भाईसाब 
					ये रावत टी स्टाल यहीं हुआ करता था न?” “हाँ भइया यहीं था पर अब दूसरी जगह चला गया। रोड चौड़ा हुआ था 
					तो वो भी टूट गया"।
 अरूप निराश सा था। बरसों पुरानी बद्रीनाथ यात्रा के वक्त की एक 
					ये भी तो याद थी जो संग रह आई थी, फिर किसी दिन ताजा हो आने के 
					लिये। क्या चाय थी वो! कहते थे कि रावत काका अपने हाथों से चाय 
					का मसाला बनाके रखते थे।
 “अभी कहाँ बनी है?”
 “बनी तो यहाँ से थोड़ी दूर है। सामने से बाएँ मुड़के पूछते हुए 
					चलते जाइयेगा। गाड़ी घुसने की जगह नहीं। पर..”
 “पर क्या?”
 “रावत काका अब नहीं रहे। छुटकू ही अब दुकान चलाता है, पर हाथ 
					में वही स्वाद है। काका भी बड़े नेक निकले, अपना कोई वारिस नहीं 
					था तो नौकर को सब कुछ थमा गये"।
 पिया सोच रही थी, कितने फुरसतिये हैं पहाड़ी लोग। पता पूछो तो 
					साथ में इतिहास भी बता देते हैं।
 और अरूप सोच रहा था, शायद ये किस्सा ऐसे ही खत्म होना था। पर 
					अब कोई चारा नहीं था। गाड़ी अंदर जा नहीं सकती, पिया उसकी यादों 
					की खुमारियाँ और झेल नहीं सकती। उसे तो जल्दी से औली जाना था। 
					फिर वहाँ से बद्रीनाथ। छुट्टियाँ कम थीं, और घूमने को कितना 
					कुछ।
 
 पर अरूप का घूमने का तरीका अलग ही था। उसे नयी जगह पर वहाँ 
					जाने में दिलचस्पी नहीं होती थी जहाँ गाइड बताते थे। फलाणा 
					सनसैट प्वाइंट, ढिकाणा वैली व्यू, ये सब तो बनावटी टूरिज्म की 
					उपज थी। फोटो खींचके फेसबुक में डालने के लिये उपयुक्त, पर उस 
					जगह की नब्ज को कायदे से मिस करती हुई।
 
 और अरूप को तो हर सफर एक नये किस्से की शुरुआत लगता। जब पिछली 
					बार बद्रीनाथ आया था अपने साथियों के साथ, तो मनचाही जगह पर 
					गाड़ी रोककर अंजान स्थानीय बंदों से बतियाता। उनसे वहाँ की 
					खासियत पूछता। ऐसे ही किसी ने रावत टी स्टाल का नाम बताया था। 
					गाइड या ड्राइवर लोग ये कभी नहीं बताते, क्योंकि ये उनकी 
					सहूलियत में फिट नहीं बैठता।
 और फिर वे लौटते हुए गये थे वहाँ। सर्द कोहरे की शाम, अंगीठी 
					में रखी केटली से निकलती भाप, और मफलर से मुँह ढाँके रावत 
					काका। और हाँ, एक छुटकू भी तो था। काका चाय बनाते, वो गर्मागरम 
					गिलास में डालता। हाँ गिलास में, भर भर के। कप में कहाँ इतनी 
					चाय समा पाती।
 
 माहौल किस्सों का चलता, एक से एक किस्से निकलते। आत्माओं के, 
					प्रेतों के, सफर की यादों के, अंजान जगहों के। और छुटकू बैठा 
					गौर से सुनता। बहुत पसंद थे उसे किस्से कहानियाँ। इतने कि जाते 
					जाते अरूप ने उसे एक अजीज किताब दे दी थी, दुनियाभर से चुनी गई 
					चुनिंदा कहानियों का हिन्दी में अनूदित संग्रह। अरूप सफर में 
					एकाध किताब लेकर चलता था, एक साथी की तरह। और छुटकू ज्यादा 
					पढ़ा लिखा यों नहीं था, पर हिंदी पढ़ लेता था। बहुत खुश हुआ था 
					किताब पाकर।
 “पता है, रहमान खान भी कुछ दिन पहले यहाँ आया था, रीजुवनेट 
					होने!” पिया ने उसकी तंद्रा तोड़ी।
 “अच्छा? कहाँ पर?”
 “ये तो पता नहीं, पर तुम्हारी तरह चाय की दुकान में तो नहीं 
					आया होगा! जहाँ नौर्मल लोग जाते हैं वहीं गया होगा"।
 “हम्म। तुम्हें इतना यकीन कैसे है? वो दूसरों से हटके क्यों 
					नहीं हो सकता? अपने तरीके से दुनिया ऐक्सप्लोर क्यों नहीं कर 
					सकता? क्योंकि वो अपनी सौ करोड़ की फिल्मों में ऐसा नहीं करता 
					इसलिये?”
 “बस, अब ये टापिक बंद करते हैं!” पिया रहमान खान के बारे में 
					कुछ अंट शंट नहीं सुन सकती। वो हीरो है। अरूप हीरो नहीं है।
 *
 औली में सरकारी गैस्ट हाउस था, वहीं उनकी बुकिंग थी। बर्फ का 
					मौसम था, और मौसम था दुनियाभर के बर्फीले खेलों का। रात थकान 
					में निकल गई, और दिन उन बर्फीले खेलों में, रोपवे से नजारे 
					देखते। अगले दिन बद्रीनाथ जाना था। वहाँ भी एक दिन ठहरना था, 
					फिर लौटना। पर एक एक पल रोमांच से भरा हुआ था, पिया द्वारा नैट 
					से फीडबैक लेकर प्लान किया हुआ।
 
 पर अभी, पिया थक चुकी थी। साँस लेने के लिये जगह निकल आई थी। 
					और दोपहर को देर से लंच करने के बाद जो नींद आई, पिया बेहोश सी 
					बिस्तर पर निढाल हो गई। अरूप कुछ देर लेटा, पर नींद नहीं आ रही 
					थी। पिया अगले २-३ घंटे सोने वाली थी। इतना वक्त था उसके पास, 
					अपने तरीके से शहर की सैर करने के लिये। उसने एक नोट साइडटेबल 
					पर छोड़ा और चाबी लेके दरवाजा ऑटोलाक करके निकल गया।
 
 पहाड़ी सड़कें संकरी होती थीं, कभी कभी तो जान हथेली पर आ जाती 
					थी। जोशीमठ एक छोटा सा कस्बा था, जो औली व बद्रीनाथ दोनों के 
					लिये बेस था। पर एक टूरिस्ट के हिसाब से यहाँ देखने लायक कुछ 
					खास नहीं था, कुछ प्राचीन मंदिरों को छोड़के, जिनमें से एक में 
					तो स्वयं भगवान बद्री विशाल आराम करने चले आते थे जब मुख्य 
					मंदिर के कपाट बंद होते थे सर्दियों के लिये।
 
 पर यही बात थी जो अरूप को इस अलसाए कस्बे की तरफ खींच लाती थी। 
					कुछ नया, कुछ अनपेक्षित सा पाने की संभावना। और अब अरूप ने 
					गाड़ी एक जगह पार्क कर दी थी और पैदल चल पड़ा था। लोगों से पूछते 
					पाछते, १०-१५ मिनट चलते वो वहाँ पहुँच ही गया जहाँ का पता कल 
					शाम तक लापता था। रावत टी स्टाल। कहानी के सिरे जुड़ने लगे थे।
 
 छुटकू अब बड़ा हो गया था, देखते ही पहचान गया अरूप को! दौड़कर 
					पैर छू लिये। हाथ पकड़कर अंदर बिठाया और केतली चढ़ा दी।
 अरूप आसपास देख रहा था। सोच रहा था ऐसा क्या जादू था इस जगह 
					में जो वो खिंचा चला आया, जैसे इसके बिना उसकी कहानी पूरी न 
					हो। पर छुटकू ने अपने काका के समय का माहौल बरकरार रखा था, भले 
					ही जगह बदल गई थी। ये काका का पुश्तैनी घर था, जो अब छुटकू के 
					हवाले था।
 
 वही आत्मीयता भरी गर्माहट, वही चाय, वही अंगीठी के इर्दगिर्द 
					सुलगते किस्से। और हाँ, बीच में एक परदा डला था। जो शांति से 
					चाय पीना चाहता उसके लिये परदे के दूसरी तरफ एक कोना था, खिड़की 
					से सटा हुआ। कुछ कुर्सियाँ वहाँ लगी थीं। सामने एक बड़ी सी 
					बुकशैल्फ थी। वो उठकर उस तरफ गया। छुटकू बाकी आगंतुकों को चाय 
					परोसने में व्यस्त सा था। जल्दी से निबटाकर अरूप से ढेर सारी 
					बातें करना चाहता था।
 
 खिड़की के बाहर गहरी धुंध थी, और धुंध के उस पार थीं कुछ 
					बर्फीली पहाड़ियाँ। कोई सनसैट प्वाइंट नहीं, कोई स्लीपिंग 
					ब्यूटी नहीं, पर ये बेतरतीब बिखरी सी छटा किसी सांसारिक को पल 
					में कवि बनाने के लिये काफी थी। छुटकू चाय ले आया था और उसने 
					बुकशैल्फ का मुआयना करके एक किताब चुन ली थी।
 “ये किताबें तुम्हें कहाँ से मिलीं? ऐसा कलैक्शन तो किसी 
					अच्छीखासी लाइब्रेरी में नहीं मिलता। दुनिया के कोने कोने से 
					चुनी कहानियाँ, जो यहाँ न तो मिलती हैं न लोग जानते ही हैं"।
 
 छुटकू मुस्कुरा रहा था। “आपने ही तो शुरुआत की थी! उस किताब को 
					पढ़ता तो रावत काका के दूरदराज के चहेते ग्राहक मुझे अपनी 
					किताबें पकड़ा देते। ये सिलसिला चलता गया, और अब वे ग्राहक अपने 
					किस्साप्रेमी दोस्तों को यहाँ का पता देते हैं। वे आते हैं, 
					यहाँ की किसी किताब को लेकर बैठ जाते हैं, चाय पर चाय पीते 
					हैं, अपनी प्रिय किताब यहाँ दे जाते हैं, पहले पन्ने पर अपने 
					संदेश के साथ"।
 “अच्छा? बहुत दिलचस्प है ये तो। देशविदेश से लोग आते हैं। पर 
					इसके बारे में अब तक खबर नहीं बनी? मीडियावाले तो खबर के भूखे 
					रहते हैं।”
 “हम चाहते ही नहीं कि खबर बने। इस जगह को शांति चाहिये, 
					टूरिस्ट्स का शोरशराबा नहीं। बस चाय और किताब के कद्रदान आते 
					रहें, जो कि सौभाग्य से यहाँ का पता ढूँढ लेते हैं।"
 “जैसे मैंने ढूँढा!”
 “आपका तो मुझे कब से इंतजार था। शुक्रिया अदा करना था आपका। 
					पता था एक दिन भगवान मेरी जरूर सुनेंगे।"
 अरूप ने चाय का पहला सिप लिया। वही रावत काका वाला स्वाद! इतनी 
					दूर भटककर आना सफल सा हो गया। और किस्साप्रेमी अरूप को समझ 
					नहीं आ रहा था कौन सी किताब पहले छुए। उधर अँधेरा और धुंध 
					गहराती जाती थी।
 पिया का फोन था। “कहाँ हो?”
 “आता हूँ कुछ देर से। तुम चाय ऑर्डर कर लो अपनी।"
 
 “चाय! मैं तो बगल वाले गैस्ट्स के साथ पास वाले रैस्टोरेंट में 
					कुछ ईवनिंग स्नैक्स के लिए जा रही हूँ। तुम नहीं पहुँच पाओगे 
					न?”
 “नहीं। तुम लोग ऐन्ज्वाय करो"। बगल वाले लोगों से उसका परिचय 
					हुआ था। भले आदमी थे।
 पीछे के दरवाजे से दो रशियन्स घुस आए थे और पास की कुर्सियों 
					में बैठ गये थे। छुटकू उनकी भाषा में उनसे बात कर रहा था। जहाँ 
					पर अटकता टूटीफूटी इंग्लिश से पूरा कर लेता। कमाल का बंदा था!
 
 छोटी सी पर अनोखी दुनिया थी। ट्रैवल गाइड्स से, फोटो खिंचवाते 
					पर्यटकों से छुपाके सहेजी हुई। और छुटकू के अनुसार इसकी नींव 
					उसने रखी थी! वो पहली किताब देकर। कभी कभी छोटी सी बात किसी की 
					दुनिया ही बदल देती है और एक वो है, इतना पढ़लिख के, इतनी अच्छी 
					नौकरी करके भी जिंदगी चक्की की तरह पिस रही है। कुछ नयापन, कुछ 
					ताजगी नहीं। नये लोगों से मिलने, नये किस्से सुनने सुनाने की, 
					नयी जगहें तलाशने की फुरसत ही नहीं। फुरसत आती भी है तो अपना 
					एक शेड्यूल लेके।
 “अब चलता हूँ छुटकू! बहुत अच्छा लगा तेरी दुनिया देखकर। आता 
					रहूँगा तेरे किस्से कहानियाँ पढ़ने"।
 “इतनी जल्दी? अभी तो आपसे बहुत सारी बातें करनी हैं!”
 “तू एक काम करना, जितनी भी बातें मुझसे करनी हों न, जितने 
					किस्से सुनाने हों, एक डायरी में लिख लिया करना। जब भर जाए, 
					मुझे भेज देना, इस पते पर"। अरूप ने अपना पता लिखवाया, और फिर 
					मिलने का वादा करके निकल गया, वापस अपनी दुनिया में।
 *
 “अरे, ये लिफाफा? उस डायरी से गिरा था देखो तो"। पिया रहमान 
					खान की नई ब्लाकबस्टर मूवी देखने के लिये तैयार हो रही थी। 
					अरूप छुटकू की डायरी पढ़ रहा था। आज सुबह ही आई थी, उसी में से 
					ये लिफाफा गिरा था।
 पिया ने खोला, तो अंदर एक कागज था।
 
  “अरूपदा,
 अक्सर जाता हूँ वहाँ, थोड़ा सुस्ताने, थोड़ा किस्से सुनने 
					सुनाने। भीड़भाड़ से दूर, शोरशराबे से दूर।
 इस बार तुम्हारा जिक्र हुआ, तो सोचा तुम्हें शुक्रिया करना तो 
					बनता है। मेरी, छुटकू की, और जाने किन किन की जिन्दगियों में 
					मुस्कुराहट लाने के लिये।
 ये चाय, ये किस्सागोई सलामत रहे। आप जैसों का जज्बा सलामत रहे।
 - सप्रेम, रहमान खान”
 |