
दशहरे की कलश स्थापना हो चुकी
थी। एक ओर रामलीला शुरू हो चुकी थी तो दूसरी ओर दुर्गापूजा के
पंडालों में उत्सव और उल्लास की झलक देखी जा सकती थी। दूकानें
जगमग हो उठी थीं। बाजारों की रौनकें देखने लायक थीं। हर शो-रूम
में सेल लगी हुई थी, शाम की भीड़ का ठिकाना न था। सड़क जाम और
गाड़ियों की पों पों से कान फट रहे थे। इस सबके बावजूद मिंटू
की दूकानदारी मंदी चल रही थी। वह गुब्बारे और फुँकनी बेचता है।
कभी किसी मॉल के सामने तो कभी मेले ठेले के द्वार पर। काम ठप
हो जाने से खाने के लाले पड़े हुए थे और ऊपर से उसका बेटा
बीमार हो गया।
जब से सावन लगा था। तब से ही पूरा का पूरा सावन और भादों निकल
गया। लेकिन कहीं से पैसा नहीं आ रहा था। हाथ बहुत तंग चल रहा
था। ये सावन भादों और पूस एकदम से कमर तोड़ महीने होते हैं।
बरसात में कहीं आना जाना नहीं हो पाता। पूस खाली-खाली रह जाता
है। पितृपक्ष के कारण लोग कोई नया काम इस महीने शुरू नहीं
करते। किसने बनाया ये महीना, ये पितृपक्ष, ये काल दोष?
खराब महीना या अशुभ महीना भूख के ऊपर लागू नहीं होता। पेट को
हमेशा खुराक चाहिए। मिंटू को लगता है कि पेट से अशुभ कुछ भी
नहीं होता। उसको दिन महीने साल से कोई मतलब नहीं है। मनहूस से
मनहूस महीने में भी पेट को खाना चाहिए। पेट को कहाँ पता है कि
ये मनहूस महीना है या खुशनुमा-महीना है। काश! कि पेट को भी पता
होता कि सावन - भादो और पूस में काम नहीं मिलता है। इसलिये पेट
को भूख ना लगे। लेकिन पेट है कि समय हुआ नहीं कि उमेठना चालू
कर देता है। पेट नहीं मानता शुभ अशुभ! उसको खाना चाहिए।
मुँबई जैसा बड़ा शहर होने के बावजूद बरसात में काम बंद हो जाता
है। काम ही नहीं रहता तो मालिक भला क्योंकर बैठाकर पैसे देगा।
सही भी है। वो भी दो महीने से बैठा हुआ है। सावन और भादों। अभी
तक उसने मिंटू को काम पर नहीं बुलाया है।
दूसरी ओर गुब्बारे और फुँकनी के बाजार को जैसे साँप सूँघ गया
हो। बरसात तो जैसे तैसे निकल गई। बी.पी. एल. कार्ड से पैंतीस
किलो आनाज मिल जाता था। अनाज के नाम पर मिलता ही भला क्या है।
रोड़ी, बजरी मिले चावल। तिस पर भी पैंतीस किलो की जगह कोटे
वाला तीस किलो ही अनाज देता है। पाँच किलो काट लेता है।
एक दिन मिंटू विफर पड़ा था।
गुड्डू पंसारी पर खीजते हुए बोला -"क्या भाई तुम लोगों का पेट
सरकारी कमाई से नही भरता क्या? जो हम गरीबों का आनाज काट लेते
हो। इस गरीबी में हम घर कैसे चला रहे हैं। हम ही जानते हैं।"
गुड्डू पंसारी टोन बदलते हुए बोला -"अरे यार हम लोग तुमको
गरीबों का हक मारने वाले लगते हैं, क्या? जो ऐसा बोल रहे हो।
ये जो टेंपो-ट्रैक्टर से आनाज बी.पी.एल. कार्ड धारियों को
बाँटते हैं। इसका भाड़ा एक बार में तीन हजार लगता है। सरकार हम
लोगों को बाँटने के लिये अनाज जरूर देती है। लेकिन,
ट्रैक्टर-टेंपो का किराया, गोदाम तक माल पहुँचाने के लिये ठेले
का भाड़ा, थोड़े देती है।"
"तब काहे देती है, अनाज हम गरीबों को। जब तुमलोग पैंतीस किलो
में से भी पाँच किलो काट ही लेते हो। और भाई तुम भी भला क्यों
अपनी जेब से भरते हो। जब इस बिजनस में घाटा है। तो छोड दो ना
ये बिजनस।"
"अरे, भाई तुमको नहीं लेना हो तो मत लो। काहे चिक-चिक करते हो।
बी.पी.एल. कार्ड़ से जरूर पैंतीस किलो मिलता है। लेकिन इस रूम
का भाड़ा। ये जो लाइट जलती है। उसका बिल। फिर सामान तौलने के
लिये आदमी रखना पड़ता है
“और तुमको तो पता है। इस बी.पी.एल. कार्ड के आ जाने से सब लोग
राजा बन गए है। नवरात्रि पूरी होते ही दशहरा आ जाएगा, फिर सबके
आने जाने का सिलसिला, मिलने जुलने का सिलसिला शुरू होगा। घर तो
ठीक ठाक होना चाहिये ना? कल नीचे धौड़ा में दो मजदूर खोजने गया
था, घर की पुताई करने के लिए। तुम्हारे नीचे धौड़ा के दो
मजदूरों को पूछा। बोले दो कमरे हैं और एक बरंडा है कितना लोगे।
हराम का पैंतीस किलो चावल खा-खाकर ये लोग मोटिया गए हैं। दोनों
मजदूर ताश खेल रहे थे।
“अव्वल तो टालते रहे। फिर बोले कि अभी भादो का महीना है। अभी
पँद्रह बीस दिन से हमलोग कहीं बाहर काम करने नहीं गये हैं। बदन
बुखार से तप रहा है। अभी भी बदन-हाथ बहुत दर्द कर रहा है। उनको
फुसलाकर चौक पर चाय पिलाने ले गया, चाय पी, फिर भी टालते रहे।
सोचा होगा गरजू है। समझ गये गुड्डू पंसारी आज काम पड़ा है, तो
गधे को भी बाप बना रहा है।
“सब मुफ्त का खाकर सेठ बन गए हैं काम करने की क्या जरूरत है जब
मुफ्त में राशन मिल रहा है? कितना दिमाग चढ़ गया है, जानते हो
हमको क्या जबाब दिया। बोला- एक कमरे का तीन हजार लेंगे। दो
कमरे और बरंडे का कुल मिलाकर सात हजार लेंगे। करवाना है करवाओ।
नहीं तो छोड़ दो।
“इस बी.पी.एल. के अनाज ने लोगों को निखट्टू बना दिया है। दिनभर
ताश और मोबाइल में रील्स देखते और बनाते हुए बीत रहा है। अभी
तो सरकार हर गरीब के घर में दीदी-योजना में रूपया दे रही है।
एक परिवार में अट्ठारह साल और अट्ठारह साल से अधिक उम्र के
लोगों को हजार, दो हजार रूपया हर महीना मिल रहा है। इससे
मुसीबत और बढ़ गई है। कटनी रोपनी में मजूर नहीं मिल रहें हैं।
“अभी इस दूकान के लड़के को जो रखा है। वो मेरे दूर के साढू का
लड़का है। तीन सौ रूपये रोज के दे रहा था। रोज की मजदूरी। तो
इधर महीने भर से ये और मेरा दूर का साढू मुँह फुलाए था। बोला
साढू भाई रिश्तेदारी अपनी जगह है। लेकिन हमारा लड़का तेरी
नौकरी में बेगारी काटे वह बात सही नहीं है। आज लेबर कुली का
हाजिरी भी सात-आठ सौ है। तो हमरा लड़का बेगारी करने थोड़ी आपके
यहाँ गया है। कम से कम पंद्रह हजार महीना उसको खिला-पिलाकर
दीजिए। नहीं तो गुजरात से उसको बीस हजार महीना काम के लिये रोज
फोन आ रहा है। इतना मिलेगा तो भेजेंगे। नहीं तो नहीं तो हमारे
घर में खुद की बहुत लँबी-चौड़ी खेती हैl
“अब आप ही बोलिये गली के इस छोटी-सी दूकान का किराया चार हजार
रूपया है। पंखा - लाइट बत्ती का डेढ़-दो हजार रूपये का बिल आता
है। दो गोदाम हैं। उसका छ: हजार अलग से देते हैं। सब मिलाकर
जोड़ियेगा तो मेरा इसमें बचता उचता कुछ नहीं है। ये कहो कि बाप
दादा के समय से राशन-पानी और कोटे का काम चल रहा है। इसीलिए
खींच - खाच के चला रहे हैं। नहीं तो एक रूपया किलो का कोटे का
चावल बेचकर गुजार हो चुका होता। यहाँ चौक पर एक होटल है। और ये
राशन की दूकान है। जिसमें इधर-उधर से लाकर छिहत्तर आइटम रखे
हैं, तब जाकर बहुत मुश्किल से कहीं चला पा रहे हैं। नहीं तो
कितने लोगों ने जन वितरण प्रणाली की दूकान को बंद कर दूसरा
तीसरा बिजनस कर लिया।"
गुड्डू पंसारी बहुत मक्कार किस्म का आदमी है। पहले तो पैंतीस
की जगह तीस किलो चावल देता ह़ै। दूसरे बी. पी. एल का बढिया
वाला चावल निकालकर सस्ते वाला चावल बाँटता है। जो चावल एक
रूपये किलो का होता है। उसको चालीस पचास रूपये किलो बेचता है।
अक्सर तो दूकान खोलता ही नहीं। आजकल करके टरकाता रहता है। कई
बार इसकी शिकायत ब्लॉक के सी.ओ., बी.डी.ओ. से भी की गई। लेकिन
सब के सब चोर हैं। ये गुड्डू पंसारी सबको पैसे खिलाता रहता है।
मिंटू सबकी सुनता है सेठ की, पंसारी की, बेटे की... याद आ गया
कि बेटे की तबीयत ठीक नहीं है। वह मॉल के सामने खड़ा है। भीड़
बढ़े तो कुछ बिक्री हो और वह घर के लिये भोजन, उत्सव के लिये
मिष्ठान्न और बीमार बेटे के लिये दवा खरीद सके।
मिंटू ने मुआयना किया। बारिश कब की खत्म हो गई थी। आसमान में
धूप भी खिल आई थी। उसको कुछ आशा जग गई। कई दिनों से लगातार
बारिश ने नाक में दम कर रखा था। बाहर निकलन मुश्किल हो रहा था।
दो दिन वो उसी शॉपिंग मॉल के आसपास में ही भटकता रहा था। एक
दिन एक खिलौना बिका था। उस दिन, दिनभर बारिश होती रही थी। दस
बारह घंटे वो इधर उधर भटकता रहा, लेकिन उस दिन पता नहीं कैसा
मनहूस दिन था। कि एक ही खिलौना पूरे दिन भर में बिका। घर में
बी.पी.एल. का चावल था। उसको उबालकर किसी तरह माँड भात खाया था।
उसके अगले दो-तीन दिन भी वैसे ही कटे थे गीला मड-भत्ता खाकर।
पेट है तो खाना ही पड़ेगा। पेट की मजबूरी है।
"ए फोकना वाले ये कुत्ता कितने का दिया।" पीछे से किसी महिला
ने आवाज लगाई।
"ले, लो ना सत्तर रूपये का एक है, बहन।"
"हुँह इतना छोटा कुत्ता। और वो भी प्लास्टिक का। ठीक से बोलो।
तुम लोगों ने तो लूटना चालू कर दिया है।"
"क्या लूट लूँगा बहन। सत्तर रूपये में बंगला थोड़ी बन जायेगा।
तुम भी कमाल करती हो।"
"ले लो पैंसठ लगा दूँगा।"
"नहीं - नहीं चालीस का लगाओ। दो लूँगी।"
"चालीस में तो नुकसान हो जायेगा, बहन। अच्छा चलो तुम दो के सौ
रुपये दे देना।"
"नहीं भैया इतने ही दूँगी। प्लास्टिक के खिलौने का भी भला इतना
दाम होता है। देना है तो दो। नहीं तो मैं कहीं और से ले
लूँगी।"
मिंटू के पास एक ग्राहक देखकर खुद्दन और पोपन जोर-जोर से अपने
मुँह में फँसी हुई फुँकनी को बजाने लगे।
मिंटू को लगा वो न देगा तो हो सकता है, खुद्दन और पोपन दे दें।
बेकार में जिद दिखाने से फायदा नहीं। बारह बजे बोहनी हो रही
है, वो भी होते - होते रह जाये।
"ले लो बहन चलो, पचास का ही दो ले लो। निकालो सौ रुपये।"
खुद्दन ने मिंटू और उस औरत की बातें सुन ली थी।
खुद्दन मुँह का बाजा बजाना छोड़कर चिल्लाया -"खिलौने ले लो
खिलौने। पचास के दो। पचास के दो।"
औरत ने गरजू समझा -"बोली, पचास के एक नहीं दो दोगे। तब लूँगी।"
"छोड़ दो बहन, मैं नहीं दे सकता। उस खुद्दन से ही ले लो। वही
पचास के दो दे सकता है। मेरे बस की बात नहीं है। मैं, आपको
खिलौने नहीं दे सकता।"
महिला खुद्दन के पास गई। मोल तोल किया। फिर वापस मिंटू के पास
आ गयी।
"सही - सही लगालो भईया। खुद्दन पचास के दो दे रहा है। लेकिन
उसके कुत्ते की सिलाई खराब है। धागा बाहर निकला हुआ है। नहीं
तो खुद्दन से ही ले लेती।"
पोपन महिला और मिंटू के करीब सरक आया था। उसने भी दो तीन दिन
से कुछ नहीं बेचा था। बरसात में तो लोग निकल ही नहीं रहे थे।
पोपन के बच्चे भी घर में भूख से बिलबिला रहे थे।
पोपन ने आवाज दी -"बढिया खिलौने, छोटे बड़े हर तरह के खिलौने।
सस्ते बढ़िया खिलौने। खिलौने ले लो खिलौने। पचास के दो
खिलौने।"
महिला पोपन की तरफ मुड़ी। लेकिन फिर आधे रास्ते से लौट गई।
मिंटू से बोली -"लगा दो पचास के दो खिलौने। तुमसे ही ले
लूँगी।"
मिंटू खीज गया। उसने सोचा इस बला को किसी तरह टाला जाये।
मुस्कुराते हुए बोला -"दो बहन तुम पचास रूपये ही दे दो।"
महिला ने फोन निकाला -"लाओ अपना क्यू आर कोड दो।"
"क्यू आर कोड?"
"हाँ, पैसे किसमें लोगे। मोबाइल नंबर बताओ। उसमें डाल दूँगी।
आजकल पैसे लेकर कौन चलता है। लाओ दो जल्दी करो। मुझे जाना है।"
"क्यू आर कोड तो नहीं है। मैं मोबाइल नहीं रखता।"
"आँय।"
"इस डिजीटल युग में भी ऐसे लोग हैं। जो मोबाइल नहीं रखते।
अच्छा तुम्हें अपना या अपने किसी परिचित या किसी रिश्तेदार का
मोबाईल नंबर या खाता नंबर याद है। उसमें ही डाल देती हूँ।"
"मेरे पास कोई बैंक का खाता नहीं है। हम गरीब लोग हैं l आज
खाते हैं, तो कल के लिये सोचते हैं। हमारा वर्तमान ही नहीं
होता है। तो भविष्य कैसा? हाँ हमारा अतीत जरूर होता है। लेकिन
बहुत ही खुरदरा होता है, बहन l बहन, हम बँजारे लोग हैं। हमारा
ये काम सीजनल होता है। महीने -दो- महीने दुर्गापूजा, दीपावली,
छठ तक हम लोग ये प्लास्टिक के खिलौने बेचते हैं। फिर कारखाने
में लौट जाते हैं। वहाँ काम करने लगते हैं।"
"लो, तुम यहाँ हो स्वीटी। मैं तुम्हें मॉल के इस कोने से उस
कोने तक ढूँढ़ता फिर रहा हूँ।" ये आदमी उस महिला का पति जैसा
लग रहा था।
"अरे, आप आ गये। देखिये इसके पास मोबाइल भी नहीं है। मुझे
पेमेंट करनी है। और क्यू आर कोड भी नहीं है, इसके पास। इस
डिजीटल होती दुनिया में ऐसे - ऐसे लोग भी हैं। सचमुच बड़ा
ताज्जुब होता है। ऐसे लोगों को देखकर मुझे। आज भी ऐसे लोग हैं,
हमारे देश में। हमारा देश ऐसे लोगों के चलते ही बहुत पीछे है।
छोड़ो मैं भी किन बातों में पड़ गई। ये यू. पी. आई. नहीं ले
रहा है। पचास का नोट दो। दो खिलौने लिये है इससे। है, तुम्हारे
पास पचास रूपये, खुल्ले।"
महिला के पति ने जेब से पर्स निकाला। और खोज- खाजकर कहीं से
ढूँढ़-ढाँढ़कर पचास का नोट निकालकर दे दिया।
फिर, उस महिला से बोला -"ऐसे तो कम-से-कम तुम मत इसको बोलो।
बहुत से लोग हैं। जिनके पास मोबाइल खरीदने तक के पैसे नहीं है।
और मोबाइल खरीद भी लें। तो डाटा कहाँ से भरवायेंगे। सब लोग तो
सक्षम नहीं ना होते।"
महिला ने कुछ कहा पर मिंटू समझ नहीं पाया।
महिला अपने पति से बोली -"अर्णव के जन्मदिन पर आपने क्या
लिया।"
पति ने पॉलीबैग से मिंटू के कुत्ते से थोड़ा-सा बड़ा एक कुत्ता
निकालकर दिखाया।
"अरे वाह ये तो बहुत प्यारा है। अर्णव बहुत खुश हो जायेगा।"
"कितने का लिया।"
"अरे छोड़ो जाने दो।"
"बताओ ना।"
"ढाई सौ का।"
महिला की नजर मिंटू से एक बार मिली। लेकिन महिला ज्यादा देर तक
मिंटू से आँख न मिला सकी।
"देख लिया, बहन। हमलोग आपको ठगते नहीं। बस पेट पालने के लिए ही
खिलौने बेचते हैं। कहाँ पचास के दो कुत्ते। और कहाँ ढाई सौ का
एक!" मिंटू ने कहा पर महिला उसे अनसुना कर, दौड़कर गाड़ी में
जाकर बैठ गई।
उसके पति ने मिंटू से कहा-"अच्छा यंगमैन चलता हूँ। फिर
मिलेंगे।"
मिंटू मुस्कुराया। महिला के पति ने मिंटू के हाथ में सौ रुपये
का एक नोट थमा दिया।
उस नोट में न जाने कैसी बरकत थी कि मिंटू के सारे खिलौने बिक
गये। और छ: सात सौ रूपयों की अच्छी खासी बिक्री हो गयी थी। वो
दोपहर में खाना खाने के लिये अपने घर जाने लगा। तभी उसको ख्याल
आया कि कुछ सौदा भी घर लेकर जाना है। वो गुड्डू किराना के यहाँ
जाना चाहता था, लेकिन उस बेईमान आदमी को याद करते ही उसका मन
अंदर से घृणा से भर उठा।
वो जीतू पंसारी के यहाँ चला गया। और बोला भाई जीतू -"आटा कैसे
दिए।"
"तीस रूपये किलो।"
"सरसों तेल?"
"एक सौ अस्सी रूपये किलो।"
"अरे भाई, अभी सप्ताह भर पहले ही तो डेढ़ सौ रूपये किलो था।
फिर अचानक से आज एक सौ अस्सी रूपये किलो कैसे हो गया? भला एक
सप्ताह में इतना दाम बढ़ता है।"
."एक सप्ताह छोड़ दो भाई। यहाँ रोज दाम बढ़ रहे हैं।"
"और अरहर की दाल का क्या भाव है?"
"एक सौ साठ रूपये किलो l"

मिंटू ने मन -ही मन-हिसाब लगाया। अगर एक किलो सरसों का तेल, एक
किलो आटा, और एक किलो दाल ली जाये तो तीन चार सौ रूपये तो ऐसे
ही निकल जायेंगे। छुटकु बीमार है। पहले उसको डॉक्टर के पास
दिखला लेना चाहिए। फिर राशन के बारे में विचार किया जायेगा।
अँधेरा घिर चुका था, पर उत्सव जगमगा रहा था। दुर्गा पूजा के
पंडालों से पूजा के गीत मुखर हो उठे थे। उनके द्वार रौशनी से
जगमग थे, दूकानों पर जमघट था, लोगों की आवाजाही बढ़ रही थी।
सड़क पर अच्छी खासी भीड़ हो गयी थी। मौसम खुशगवार था। मिंटू
बेटे की फिक्र में तेजी से अपने घर की ओर बढ़ चला। |