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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत इस अंक में प्रस्तुत है
मधु सन्धु की लघुकथा — "अभिसारिका"



अखबार पढ़ते–पढ़ते अनुपम ओबराय ने ऐनक से ही पलकें चढ़ाकर फोन को देखा और सहलाते से हाथों से रिसीवर उठाया। उन्हें इसी की प्र्रतीक्षा थी।
"हैलो।"

"चार बज़े, कंपनी गार्डन के फव्वारों वाले पार्क के तीसरे बेंच पर।"
"ठीक है।"

उनका मन बल्लियों उछलने लगा। पंद्रह दिनों की प्रतीक्षा के बाद समय आ ही गया।
एक प्लेट फ्रूट–चाट पैक करवा वे चल दिए। बेंच पर छोटे–छोटे फूलों वाला दुपट्टा–सूट पहने वह बैठी थी। दुपट्टे के नीचे छिपे हाथ में छोटा–सा हॉट बॉक्स था। पोते चिंटू का होगा।

प्लास्टिक के डिस्पोजेबल चम्मच से दोनों ने गाजर का हलवा खाया। टख़नों–घुटनों, वात–पित्त–कफ एवं दातों–मसूड़ों पर चर्चा की। गुनगुनी धूप में फ्रूट–चाट का मज़ा लिया, घड़ी देखी और फिर अलग–अलग रास्तों पर चल दिये।

साठ वर्षीय पत्नी छोटे के पास और उसका तिरसठ वर्षीय पति पिछले पांच वर्षों से बड़े के पास रह रहे हैं। बड़े की पत्नी नौकरी में हैं इसलिए घर में वे खाली बोर होते रहते हैं। छोटे की पत्नी महीने में एकाध बार किटी पार्टी या अन्य कहीं निकलती है और दोनों उसी दिन को सार्थक करने में जुट जाते हैं।

९ अगस्त २००३

 
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