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लघुकथाएं

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियाँ के अंतर्गत इस अंक में प्रस्तुत है हरिवल्लभ कुमार की लघुकथाँ 'बुश्शर्ट'

च पूछिए तो मुझे शर्मा जी से अत्यधिक जलन और ईर्ष्या थी। सोचता था - इन्हें इतने पैसे कहां से प्राप्त हो जाते हैं कि हर रोज़ नई बुश्शर्ट पहन कर आया करते हैं?

मैं और शर्मा जी एक ही विद्यालय में टीचर थे, और दोनों ही आर्टस के टीचर! सो बच्चे तो हमसे टयूशन पढ़ने से रहे। न मेरा कोई आमदनी का ऊपरी ज़रिया था और न शर्मा जी का। मैं तो बस दो ही बुश्शर्टों को रगड़ रहा था।

आज तो नई बुश्शर्ट शर्मा जी पर कुछ जंच रही थी। मुझसे रहा न गया, पूछ ही लिया, "शर्मा जी, कितने में ख़रीदी यह बुश्शर्ट?"
वह बड़े गर्व से बोले, "पच्चीस रूपये में।"
कुछ चौंक-सा पड़ा, "विदेशी कपड़े . . .और इतनी सस्ती कीमत में।"
अचानक मेरी नज़र शर्मा जी की बुश्शर्ट की जेब के समीप पड़ी, कुछ फटा हुआ लग रहा था और ऊपर से रफू किया हुआ था। मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा और मैंने बुश्शर्ट ख़रीदने का इरादा बदल दिया।

अगले दिन जब शर्मा जी से भेंट हुई तो उन्होंने पूछा, "क्या कल आपने बुश्शर्ट ख़रीद लिया था?"
मैंने मुस्कराते हुए उतर दिया, "ख़रीद तो न पाया, पर हां . . .मैंने एक राज़ का पता कर लिया।"
इस पर शर्मा जी तुनक उठे, "क्या पता किया आपने? . . यही न कि जब विदेशों में लोग मर जाते हैं तो मुर्दों से कपड़े उतार कर बेच दिए जाते हैं;, . . ये वही हैं;, . . .मैं विदेशियों के उतारे हुए पुराने कपड़े पहनता हूं।"

मुझे हरगिज़ पता न था कि शर्मा जी इस तरह गुस्सा करेंगे। वह अब भी बोल रहे थे, " . . .जब हमारा संविधान ही विदेशियों द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा में लिखा जा सकता है . . . जब हमारी सरकार विदेशियों के जंग खाए, पुराने जहाज़ और तोप ख़रीद सकती है, . . .जब हमारे यहां के लोग विदेश की बनी सेक्स की जूठी-बासी फिल्में चटखारे ले-लेकर देख सकते हैं, तो . . . तो, तब कुछ नहीं। . . . और एक ग़रीब अध्यापक ने अपने तन को ढकने के लिए विदेशियों द्वारा उतारी गई बुश्शर्ट क्या पहन ली, . . .आपसे रहा न गया।"

9 दिसंबर 2006

बीसवीं सदी : प्रतिनिधि लघुकथाएं से साभार

 
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