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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
सुरेन्द्र गुप्त की लघुकथा- रजाई


बेटा मैं तुझे कितनी बार कह चुकी हूँ कि छत पर जो चारपाई पड़ी है उस पर यह रजाई सूखने के लिये डाल आ, पर तू तो एक कान से सुनता है दूसरे से निकाल देता है।

माँ इस रजाई को ऊपर डालने की बात तो दूर मैं इसे छुऊँगा भी नहीं। माँ इसे तू बाहर क्यों नहीं फेंक देती। बाढ़ के गंदे पानी में भीगी इस सड़ी हुई रजाई को भला कौन ओढ़ेगा? बाढ़ का गंदा पानी पूरा दिन घर में रहा, कितनी बदबू हो गई थी, यहाँ तक कि घर में खड़ा होना भी मुश्किल  हो रहा था।

देख बेटा दू इसे ऊपर धूप मे सूखने डाल आ। एक बर सूख जाएगी तो तो मैं इसका अस्तर उधेड़कर तथा रूई धुनवाकर फिर से भरवा लूँगी।

माँ मैंने कह दिया, मैं इसे नहीं उठाऊँगा, न ही तुम्हें इसे दोबारा भरवाने दूँगी। उसने एक एक शब्द चबा कर अपनी माँ की गोद में डाल दिया।

दूसरे कमरे में बैठे उसके पिता सभी कुछ सुन रहे थे। वह उठकर उसी कमरे में चले आए जहाँ माँ तथा बेटे  वार्तालाप हो रही था। वे भी बेटे आग्र ह पूर्वक बोले, देख बेटा, ठीक है इसे नये सिरे से मत भरने दना। इसे सुखाकर किसी जरूरतमंद को तो दिया जा सकता है। कितने लोग सर्दियों में फुटपाथ पर ठंड से सिकुड़ रहे होते हैं जिसे भी मिलेगी वह दुआएँ तो देगा।

चलो पापा मैं इसे ऊपर सूखने डाल भी आता हूँ, यह सूख भी जाएगी। परन्तु इसे उठाकर फुटपाथ पर सोने वालों को कौन देने जाएगा। क्या यह गंदी रजाई उठाकर आप जाएँगे या मम्मी जाएँगी?

एक अजगर सा प्रश्न बेटे ने अपने माता पिता के सामने डाल दिया था जो काफी देर तक कमरे में मुँह बाए पसरा रहा। और कमरे में नीरवता छाई रही। अंततः उस चुप्पी को पापा ने ही तोड़ा, बेटा, मान लो इसे फुटपाथ पर सोने वालों को भी नही दिया जाता तो इसका निपटान कैसे होगा। इसे घर के बाहर भी तो नहीं फेंका जा सकता। इसका एक और हल हो सकता है कि इसे कल कूड़ेवाले से ही उठवा दिया जाए।

इस पर उनकी पत्नी आक्रोश जताते हुए बोली, वह इस महँगे अस्तर वाली रजाई को ऐसे ही कूड़े में नहीं फेंकना चाहती।

यह सुनते ही बेटा तुनक कर बोला, तो माँ तू ही जाने, मुझे इसे उठाने के लिये न कहना। इतना कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया।

जब की हल निकलता नजर नहीं आया तो वह पत्नी को ओर देखर बोले, देखो मैं तुम्हें ऐसे अस्तर की एक और रजाई बनवा दूँगा। रही इस रजाई की बात, इसे मैं शाम को ढेहा बस्ती के पास जो नाला है उसके किनारे रख आऊँगा। इतना कहकर वे उठे और रजी को लेकर छत पर धूप में जाल आए। शाम को अँधेरा होते ही वह उस रजाई को नाले के पास छोड़ आए।

अभी वे धीमे धीमे कदमों से घर की ओर लौट रहे थे कि उन्होंने उस बुढिया को उसी रजाई को उठाए वहाँ से गुजरते हुए देखा। वह अपने मुँह में कुछ न कुछ बड़बड़ाती जा रही थी। कुछ टूटे फूटे शब्द उनके कान में भी पड़े- पिछला जाड़ा तो बोरी को ओढ़कर ही काटा था, इस बार तो तूने सुन ली और एक अच्छी सजाई भेज दी। सचमुच भगवान तू कितना दयालू है।

२१ फरवरी २०११

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