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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
कृष्ण शर्मा की लघुकथा- लेन-देन


कार्यालय से लौटकर कान्त बाबू कपड़े बदलने लगे तो उन्होंने स्वयं गौर किया कि उनकी मैली-कुचैली बनियान अब और नहीं चल सकेगी। बनियान में छोटे-बड़े असंख्य छिद्र बन चुके थे।

पत्नी कई बार उनकी चिथड़ा बनियान को लानत भेज चुकी थी, लेकिन कान्त बाबू भी अपनी तरह के एक ही कंजूस हैं। पैसे-पैसे को दबाकर रखना उनकी पुरानी आदत है। खैर, आज उन्होंने एक नई बनियान खरीद लाने का पक्का निश्चय किया और उसी दम घर से निकल पड़े।

घंटाघर के सामने से उन्होंने बीस रूपये में सबसे सस्ती बनियान खरीदी और घर को लौट पड़े। रास्ते में उन्होंने यूँ ही लिफाफा खोलकर देखा तो पाया कि दुकानदार ने भूल से एक की बजाय दो बनियानें डाल दी हैं। कान्त बाबू गहरी सोच में पड़ गए और वहीं खड़े-खड़े अपनी दाढ़ी खुजाने लगे।

मन कहता था कि चलो अच्छा हुआ-एक से दो भलीं। लेकिन आत्मा का कोना कहता था कि इस जन्म में अगर दुकानदार के बीस रूपये मार लिए तो अगले जन्म में उसके बीस रूपये चुकाने के लिए उन्हें जाने क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ें। और रूपये तो चुकाने पड़ेंगे ही, फिर....

आखिर उन्होंने निर्णय किया कि भूल से आई बनियान को वह अभी दुकानदार को लौटा आएँगे....और वे फिर दुकान की ओर चल पड़े।

अभी अगले मोड़ पर ही पहुँचे थे कि उनके मन से एक नया तर्क उठा-’हो सकता है कि दुकानदार ने ही पिछले जन्म में मेरे बीस रूपये मार लिए हों और अब भगवान ने उस हिसाब को बराबर करने के लिए मुझे यह अवसर दिया है, फिर भला परेशानी कैसी....‘ यह तर्क मन में आते ही वह वापस मुड़े और निश्चिंत होकर घर की राह चल दिए।

३ सितंबर २०१२

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