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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
राजेश कमल की लघुकथा- महँगाई डायन


संक्रान्ति के बाद आज पहली बार बाज़ार आया था। टुसू के बाद की शांति खत्म होने लगी थी। सुबह-सुबह की ठण्ड में जीवन अपनी भाग-दौड़ में लगा था। सब्जियों से लदी ऑटो को रास्ता देने के लिए एक किनारे हुआ तो पकते गुड़ की खुशबू ने रोक लिया। मैं खड़ा होकर अपने आस-पास की हलचल देखने लगा. आते-जाते लोगों के बीच से निगाहें उन हाथों पर रुक गयी जो मुढ़ी-गुड़ के 'लाई' बना रही थी। खड़े होकर मैंने मुँह से सांस छोड़ी। हवा में धुंध की एक चादर सी बन गयी। मैं मुस्कुराया। मुझे एक बच्चे जैसा मज़ा आया।

एक हाथ पॉकेट में डाले, दूसरे हाथ में थैला हिलाता मैं एक दुकान के सामने था।
"कैमोन आछो काकी?"
"भालो...."
आवाज़ ने शब्दों का साथ नही दिया।
"की चाई?"
"फूल कितने का?" मैं अब अपनी औकात पर आ गया था क्योंकि बांग्ला में मेरे हाथ जरा तंग हैं।
"आपसे क्या दाम करेगा बाबू? २० में बेच रहा है, आपको १९ में दे देगा..."
"और बैंगन? अरे हाँ... मूली कितने की है?"
काकी अनमने ढंग से सब्जी के टोकरे इधर उधर करती रही।
"कोई दिक्कत ....?" मेरे अन्दर का बच्चा काफुर हो चूका था।
"क्या बोलेगा बाबू, रमना गुस्सा है. एई लेके मन नई लगता है।"
"रमना... कौन?"
"मेरा लड़का, बाबू. कंपनी भीतरे ठीकादारी में काम करता है. आपको क्या चाहिए बाबू?"
"एक फूलगोभी, आधा किलो बैंगन और आधा किलो मूली दे दो।"
"गोभी का डंठल और मूली का पत्ता तोड़ के रख लेगा बाबू?"
"हाँ..हाँ. गोभी के डंठल और मूली के पत्ते तोड़ कर रख लेना।"
"ठीक है बाबू...." और उसने सारा सामान मेरे थैले में डाल दिया। मैंने पैसे दिए और घूमा कि एक युवक मुझे लगभग धकियाता दुकान की किनारे वाली गली में घुसा।

मैं बुरा-सा मुँह बना कर आगे बढ़ गया। मेरे पीछे का कोलाहल बढ़ते-बढ़ते शोर और फिर झगडे का रूप ले चुका था। जी में आया कि देखूं, आखिर हो क्या रहा है; किन्तु मुझ जैसा लेखक-टाईप आदमी ऐसी स्थितियों से बच कर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझता हैं। घूमते-घूमते अब मैं सब्जी-मंडी के दूसरी ओर हैंडपंप तक आ गया था। लोगों की लम्बी कतार के बीच काकी भी अपनी बाल्टी लिए दीख गयी।

मैं मुस्कुराया, "आपकी दुकान के पास क्या हल्ला-हंगामा हो रहा था?"
काकी कतार से बाहर आ गयी थी, "बाबू, आप ही बताओ; हम सब्जी काहे को बेचता है? पेट के लिए ना. लड़का को पढ़ा दिया, अब नौकरी भी लगा है, माँ कितना दिन खिलायेगा?"
"पर हुआ क्या?"
"पहले हम बचा-हुआ सब्जी उसका घर-वाली को दे आता था। उसका खर्चा बच जाता था। जबसे सब्जी महँगा हुआ है, हम अपने-ही गोभी का डंठल और सूखा साग खा रहा है, उसको कहाँ से देगा? उसको दे देगा तो महाजन का कर्जा कौन तोड़ेगा?" काकी की आँखें भर आयी थी। आँखों में दिल का दर्द छलक आया। मैं खामोश हो गया। कुछ समझ नही आया तो मैं आगे बढ़ गया. पास के सैलून से गाने की आवाज़ आ रही थी, "सखी सैयां तो खूबै कमात है, महँगाई डायन खाय जात है"।

९ जनवरी २०१२

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