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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
रघुविन्द्र यादव की लघुकथा- झूठ


“मालती! शाम को मैं आऊँ तो तैयार रहना आज न्यू इयर पार्टी में चलेंगे, मैंने टिकिट बुक करवा लिये हैं।”
“अम्मा जी जाने देंगी मुझे पार्टी में?”
“अरे अम्मा से कुछ भी बोल देंगे।”
“ठीक है, पर मैं झूठ नहीं बोल पाऊँगी आप ही कहना।”
“अरे ये क्या मालती! तुम अभी तक तैयार नहीं हुई हो, कुछ देर में पार्टी शुरू होने वाली होगी?”
“अम्मा जी की तबियत बहुत ख़राब है, मैं उन्हें डॉ.शिंदे को दिखाकर लायी हूँ। डॉक्टर ने विशेष ध्यान रखने को कहा है। इसलिये मेरा जाने को मन नहीं है।”
“दवाई दिला दी न, चलो अब तैयार हो जाओ मैं अम्मा को बोल कर आता हूँ।”
“भूषण आ गया बेटा।”
“हाँ अम्मा, कैसी तबियत है अब तुम्हारी?”
“ठीक नहीं है, अभी भी साँस लेने में दिक्कत हो रही है, तुम मेरे पास ही रहना बेटा।”
“नहीं अम्मा! मुझे और मालती को थोड़ी देर के लिये पारस अस्पताल जाना पड़ेगा, राधे सख्त बीमार है बस उसका हाल-चाल पूछते ही आ जायेंगे।”
“जल्दी आना बेटा”
ट्रिन-ट्रिन...
“लगता है भूषण आ गया, कितनी चिंता करता है मेरी, जाते ही लौट आया।”
“राधे तुम! तुम यहाँ कैसे? तुम तो सख्त बीमार थे?”
“मैं तो ठीक हूँ चाची, आपको किसने कह दिया मैं बीमार हूँ? यह बताओ तुम कैसी हो? बिमला ने बताया आपको फिर हार्ट अटैक हुआ है, भूषण और भाभी कहाँ हैं जो आप दरवाजा खोलने आई हैं?”
“भूषण कहकर गया है कि तुम सख्त बीमार हो और दोनों पारस अस्पताल तुम्हारा हाल-चाल पूछने जा रहे हैं”
“लेकिन भूषण ने आपसे झूठ क्यों बोला? कहीं वो पारस होटल...?”
“मेरा बेटा तो झूठ नहीं बोलता, जरुर बहू ने उससे झूठ कहलवाया होगा कहीं ले जाने के लिये।”

५ जनवरी २०१५

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