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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
डॉ. सरला सिंह
की लघुकथा- बस्ता


बात उन दिनों की है जब मैं बहुत छोटी थी, यानी मैं उस समय कानपुर में छठी कक्षा में पढ़ा करती थी। मेरे बाबा सी॰ ओ॰ डी॰ कानपुर में काम करते थे। बाबा मुझे बहुत मानते थे उनकी इच्छा थी कि मैं डॉक्टर बनूँ। ज्यादातर वे सभी से कहते-
"देखना मैं अपनी नातिन को डॉक्टर बनाऊँगा।"
वे जहाँ भी जाते मुझे साथ ले जाते। बाबा थे तो कम पढ़े लिखे पर उनकी सोच बड़े से बड़े पढ़े लिखे लोगों से अच्छी थी। वे अपनी लड़कियों को तो नहीं पढ़ा सके थे किन्तु हम लोगों के प्रति उनकी सोच बदल चुकी थी। अब वे लडकियों को पढ़ाने में विश्वास करने लगे थे। कभी साइकिल लाकर देते और चलाना सिखाते लेकिन मैं खुद बहुत डरती थी जिसके कारण साइकिल चलाना नहीं सीख पाई। बाबा ने तो मुझे संगीत भी सिखाना चाहा, इसके लिए भी शिक्षक लगाया, लेकिन उसे भी मैंने छोड़ दिया। मेरी अंग्रेजी कमजोर थी अतः मेरे लिए अंग्रेजी के लिए भी शिक्षक लगा दिया, कुछ दिन बाद मुझे लगा कि मैं अपने आप सीख जाऊँगी तो मैंने उसे भी छोड़ दिया, शायद मेरी बद्किस्मती ही थी।

बाबा की तबियत उन दिनों खराब चल रही थी लेकिन उन्होंने किसी को भी नहीं बताया, मुझे तो बिल्कुल पता नहीं चला कि उनकी तबियत ठीक नहीं है। पिता जी उनकी कोई मदद नहीं करते थे, माँ बताती हैं कि उन दिनों पिता जी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे सो अपनी पूरी कमाई उसी में लगा दिया करते थे। सी॰ ओ॰ डी॰ कानपुर में पिता एक अच्छे पद पर कार्यरत थे। इस बात का पता मुझे बहुत बाद में चला कि बाबा घर का खर्च भी चलाते थे, अपनी दवा भी करते और गाँव भी खर्च भेजते।

मैं अपने खेल और पढ़ाई में खोई रहती थी। तब शायद मैं बहुत छोटी थी या किस कारण मैं कुछ भी नहीं जान सकी थी। काश! मैं जान पाती तो जितना मुझसे बनता मैं अपने बाबा की मदद अवश्य करती। एक साल के अन्दर ही वे चले भी गये।
स्कूल की छुट्टियों के समय मैं माँ के पास गाँव में थी। उन्हें शुगर हो गया था और माँ ने मुझे बाबा के पास पढ़ने के लिए नहीं भेजा। बाबा जिद करते रह गये, मैं भी रो रही थी पर माँ ने मुझे नहीं भेजा। वे मुझे गाँव के ही एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना चाहती थीं। उसी के कुछ समय बाद खबर आई कि बाबा नहीं रहे।

मेरा रोते रोते बुरा हाल था। मुझे विश्वास ही नहीं होता कि मेरे बाबा इस दुनिया में नहीं हैं। दादी मुझे गाँव से फिर कानपुर ले गईं। और फिर मेरी सातवीं कक्षा की पढ़ाई कानपुर से हुई लेकिन हर बात के लिए प्रोत्साहित करनेवाले बाबा न जाने कहाँ चले गये थे। मुझे दूर से आता उनकी उम्र का व्यक्ति अपने बाबा जैसा ही नजर आता कभी लगता कि मेरे बाबा आ जायेंगे और कहेंगे कि ये बात झूठी है।

एक बार स्कूल में एक लड़की चमड़े का बस्ता लेकर आई अब वो बस्ता मुझे इतना अच्छा लगा कि मैं भी बाबा से जिद करने लगी कि वे भी मुझे वैसा ही बस्ता दिलायें। बाबा मुझे लेकर पहले मेडिकल स्टोर गये फिर बस्ते की दुकान पर जाकर बस्ता दिलवाया। बस्ता पाकर मैं बहुत ही खुश हुई। मैं अपना बस्ता सभी सहेलियों को दिखा रही थी। सबसे अच्छा बस्ता मेरे पास था। मै अपने बस्ते को बार बार छूती, पता नहीं उसे बार बार छूकर मुझे क्या मिल रहा था। यहाँ तक
कि रात में सोते वक्त भी उसे साथ में ही रखा और उसी पर हाथ रखकर सोई।
बहुत बाद में पता चला कि बाबा ने मेडिकल स्टोर पर अपनी दवाएँ वापस करके उनसे प्राप्त पैसों से बस्ता दिलाया था। इस बात ने हमेशा ही मुझे दुख पहुँचाया कि आखिर मैंने क्यों बस्ता माँगा? काश! मुझे पता होता तो मैं कभी भी बस्ता नहीं माँगती। उस बस्ते को मैं कभी भी भूल नहीं पायी।

१ नवंबर २०१६

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