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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
डॉ. सरस्वती माथुर की लघुकथा- राज़दार


"माँ, पिताजी जो पैसे छोड़ गये हैं ईश्वर के लिए वो मुझे दे दो, मुझे जरूरत है।"
बेटे ने आग्रह करते हुए माँ से कहा तो वो झल्ला उठी --"क्यों दे दूँ, ताकि तू उनसे मौज करे और मुझे बूढ़ों के रहने के घर में जमा करा दे... जा जा मैं न दूँगी पैसे... तेरे पिता कह गए थे रुक्मणी, इन पैसों को बचा के रखना, वरना बच्चे उड़ा देंगे और देख एक महीना भी न हुआ बापू को गए और तू अपनी औकात पर आ गया। कोथली को घाघरे की बड़ी जेब में टटोलती रुक्मणी सर्पिणी की तरह फुफकारें ले रही थी।
"कैसी बात करती हो माँ, तुमने जना है मुझे, मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता, मेरे पास नौकरी नहीं है, पिताजी घर चलाते थे, ठीक चल रहा था पर अब सब बदल गया है, तुम खाँसती हो रात भर, मैं इलाज नहीं करवा पा रहा हूँ, दिल दुखता है मेरा... नौकरी लगते ही सब सूद समेत लौटा दूँगा आपको... आपकी तकलीफ मुझ से देखी नही जाती माँ!"
बेटे की आँखों की कोरें गीली थीं।
"तू कितनी भी कोशिश कर ले बबुआ, मैं न दूँगी, घर की रसोई का सामान तो डलवा ही रही हूँ न मैं"
दिन भर नौकरी तलाशता बेटा माँ को कैसे कहता कि उसकी दोनों किडनियाँ काम नहीं कर रही हैं, वो कितना अभागा है पत्नी को भी नहीं कह पा रहा। दिन भर मजदूरी करके भी कितना मिलता है, फिर थकान के मारे रात भर कराहता है।

आज भी जब घर लौटा तो माँ खाँस रही थी, बहू काली मिर्च की गरम चाय उन्हें प्लेट में उंडेल कर पिला रही थी। वह असहाय सा माँ की खाट के पायदाने बैठा रहा। जैसे-तैसे माँ को नींद आई, वह वहीं पायदाने पर सो गया था। जाने कब नींद लग गयी, तभी बहू ने झिंझोड़ा --"बंसी के बापू, देखो न माँ को जगा रही हूँ, उठ नहीं रही"... बेटा भागा, पड़ोस से डॉ को लेकर आया पर माँ शांत हो चुकी थी।
रुक्मणी जी की मौत की खबर मिलते ही सारा मोहल्ला जमा हो गया था, सभी उनको बहुत चाहते थे, बड़ी मीठी मीठी बातें जो करती थीं। किसी के यहाँ प्रसव पीड़ा की कराहट की खबर सुनतीं तो वे वहाँ पहुँच जाती थीं, कहीं शादी ब्याह का मसला होता था तो बन्ना बन्नी गा कर रौनक जमा आतीं, जिसने सुना माँ सिधार गईं, वही दौड़ा चला आया। पडोस में रह रहे गोवर्धन चाचा भी पहुँचे और सब को आँगन में इकट्ठा किया। आज उन्हें उस रहस्य को उजागर करना था जिसके लिए रुक्मणी उन्हें राजदार बना गई थीं। ऐसा लग रहा था मानो कोई पंचायत बिठा दी गयी हो। गोवर्धन चाचा के बोल चिड़िया से उड रहे थे...

"जो मैं कहने जा रहा हूँ वो माँ की एक तरह से वसीयत है, रुक्मणी भाभी की इच्छानुसार उनकी किडनियाँ बेटे के लगा दी जाएँ... माँ जानती थी कि बेटा यह राज छुपा रहा है पर उसे उसी के एक दोस्त ने कुछ दिनों पहले बता दिया था। दूसरा बेटे से क्षमा माँगी है रुक्मणी भाभी ने, वो इसलिए कि वह अपने बेटे को क्यों पैसे नहीं दे रही थी, क्योंकि यदि देतीं तो वो सब माँ के इलाज में लगा देता। एक महीने पहले ही माँ ने मुझे राजदार बनाया है और एक वकील से वसीयत करवाने में मेरी मदद भी ली है। रुक्मणी भाभी का कहना था कि वो पिचासी वर्ष से ऊपर हैं, और अब कितना जीना है...लेकिन बेटे की पूरी की पूरी जिंदगी पड़ी है बस वो खुश रहे यह मेरी कामना है"।

पूरे आँगन में यह सुन कर सन्नाटा सा पसर गया। बेटा रोना चाहता था पर रो न पाया। देर तक बुत सा बैठा रहा। फिर भारी मन से माँ के त्याग को सलाम करता हुआ सभी के साथ दाह संस्कार की तैयारी में जुट गया।

१५ सितंबर २०१६

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