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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
कांता राय की लघुकथा- कतरे हुए पंख


वह किशोरी थी या युवती, कहना मुश्किल था। लड़की थी, बड़ी हो रही थी, पर मुझे तो प्रौढ़ा लगती थी। सुबह के ठीक नौ बजे गेट खड़काती और बिना मालिक के अनुमति के इंतजार किए धड़ाधड़ घोड़े पर सवार अंदर घुस आती। वर्गभेद की मिसाल, एक तरफ अपने स्कूल के साधन-सम्पन्न बच्चों को देखूँ और दूसरी तरफ ये नवजात प्रौढ़ा कम्मो!

"आज क्या बनाऊँ?" फिर से सीधे एक कठिन सवाल दागती सामने आकर तोप-सी खड़ी हो जाती है।
टिक-टिक सरकती हुई घड़ी की सुई, चढ़ते दिन, वक्त से अनजान, लिखते हुए मैं चौंक उठती हूँ और अकबकाई-सी उसकी ओर देखती हुई पूछती, "क्या बनाऊँ आज?"
सच कहूँ तो मैं खुद में ही अब तक बचपने को जी रही थी, ऐसे में झड़बेरियों सी अस्त-व्यस्त यह उगती, झड़ती-सी लड़की/प्रौढ़ा या......!
"आप जो कहोगी, बना लूँगी!" अचानक वह प्रौढ़ा से नन्हीं बालिका में परिवर्तित हो जाती है। वह बुद्धिमती है, इसलिये मेरी आँखों की उदासी पढ़ लेती है।
"आज राजमा-चावल बना ले, तेरा काम जल्दी निपट जाएगा।" मैंने बचपने को स्थिर रखना चाहा।
"मुझे जल्दी नहीं है, आप सोच लो, और जो कहोगी, बना लूँगी।" वह धुन की पक्की, कर्मठ थी।
"फिर ऐसा कर, चार परांठे भी बना ले।"
"ठीक है!" आँखें मटकाती रसोई में घुस गई। मैंने भी मन की उदासीनता को वहीं किताबों में दबाकर, अपनी पढ़ाई-लिखाई समेट, नहाने की तैयारी में जुट गई।
केमिस्ट्री के लिये नए शिक्षकों की भर्ती के लिये साक्षात्कार लेने के लिये जल्दी जाना था। मैं स्वयं स्कूल की प्रिंसिपल ही वक्त पर ना पहुँचूँ तो बाकियों को अनुशासित रखना कैसे सम्भव होगा!

"कम्मो, इधर आ, जरा उधर रैक से शैम्पू लाकर दे तो!"
"अभी लाई!"
"लीजिए! आज बाल धोएँगी?" वह फिर से प्रौढ़ावस्था में पहुँच गई थी।
"हाँ!"
"मत धोइए, आज शनिवार है!"
"शनिवार से बाल धोने का क्या संबंध है?"
"शनिवार को बाल नहीं धोते हैं!" फिर बड़ों सी बातें।
"बाल क्यों नहीं धोते शनिवार को?" मैंने उस पर नजर टिकाए हुए पूछा।
"वो तो नहीं मालूम, बस नहीं धोना चाहिए, माँ-दादी सब ऐसा ही कहती हैं।" कहते कहते फिर से उसके चेहरे पर मासूमियत उभर आई।
"माँ-दादी से पूछा नहीं कि क्यों शनिवार को बाल नहीं धोते?"
उसने आँखें चौड़ी की। और ठुनक भरे स्वर में बोली,
"पूछा था, उनको भी नहीं मालूम। उन्होंने कहा कि बड़े बूढ़े जब कहते हैं तो कुछ तो होता ही होगा।"
"सब कहते हैं बस इसलिये मान लेती हो? यानी कि भेड़चाल! कल से तुम यहाँ काम करने मत आना।" मैंने रोष भरे स्वर में कहा।
"मुझे माफ कर दीजिए, अबसे ऐसा नहीं कहूँगी!" वह गिड़गिड़ाई, अब वह न बालिका थी ना ही प्रौढ़ा...!
"नहीं, कोई माफी नहीं मिलेगी, अब तुम्हें मेरे स्कूल में पढ़ने की सजा काटनी होगी। घर से सीधे-सीधे मेरे स्कूल पहुँचना, अब तुम्हें रोटी बनाने की नहीं, पढ़ाई करने की पगार मिलेगी, समझी कि नहीं!" वह फिर से प्रौढ़ा न बन जाए, मैं घबरा गई थी।

१ दिसंबर २०१७

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