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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
अज्ञात
की लघुकथा- गणतंत्र दिवस की परेड


'पापा, पापा, इस बार हम मैदान में गणतंत्र दिवस की परेड देखने चलेंगे। आप हमें ले चलेंगे न। चलिए न पापा, टी .वी. पर तो हर बार देखते हैं।'

राजेश और कमला दोनों ही दिल्ली में रहते थे, दोनों ही नौकरीपेशा थे। माता पिता दिल्ली से कुछ दूर अपने पैतृक घर पर ल ते थे। पर इस बार अपने पुत्र राजेश के पास दिल्ली आए हुए थे। उनका इकलौता पुत्र अपने मम्मी, पापा की व्यस्तता के कारण पहले तो दादा दादी के पास रहता था, पर इधर दो बर्षों से होस्टल में डाल दिया गया था। उसने बचपन में दादा से देश की स्वतंत्रता और वीरता की गाथा सुनी थी।

हर बार की तरह इस बार भी राजेश और कमला का विचार गणतन्त्र दिवस की छुट्टी पर टी वी पर परेड देखते हुए आराम करने का ही था। पर जब उसने कहा 'अरे, टी वी पर अधिक नजदीक से और साफ दिखता है।' तभी उसकी निगाह अपने पिता पर पड़ी। उसे अपने बचपन के वे दिन याद हो आए जब उसके पिता उसे कंधे पर उठाए गणतंत्र दिवस की परेड दिखाने के लिए दिल्ली आते थे और वह उचक उचक कर जय हिंद जय हिंद के नारे लगाते हुए अपने खून में गर्मी और उत्साह का जज्बा दौड़ता हुआ महसूस करता था।

वह गाड़ी की पार्किंग की दूरी को जानते हुए और काफी पैदल चलने की मशक्कत को झेलने की ज्ञातता के बाद भी चलने को तैयार होने लगा तो कमला ने कहा, 'रोज तो ऑफिस रहती है, आज तो रुक जाते, परेड यहीं टी.वी पर देख लो।'

'कमला टी वी पर वह उत्साह, वह जोश, वह जज्बा कहाँ? हम ही अगर मौका मिलने पर भी अपने बच्चों को उनके देश की आजादी को रक्त में दौड़ने का अहसास करने का संस्कार न देंगे तो वह देश को अपने नजदीक कैसे महसूस कर सकेगा। वह कैसे सच्चा नागरिक बन सकेगा।'
कह कर वह दीप की उंगली पकड़ कर परेड देखने निकल पड़ा।

१ जनवरी २०१८

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