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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
चंद्रकांता चौधरी
की लघुकथा- माँ


माँ शब्द सुनते ही मेरे दिल में हलचल सी मच जाती है। केवल तीन वर्ष की थी मैं जब मेरी माँ मुझे और मेरे नवजात भाई को छोड़कर चल बसी थीं।

"केवल तीन वर्ष की थीं तुम?"
- हाँ, मेरी दादी को पोता चाहिये था। इसलिये एक साल के बाद छोटी बहन और उसके एक साल बाद भाई हुआ लेकिन प्रसव के समय माँ अपनी जान गवाँ बैठी।

लोग कहते हैं कि बेटा पोता घर की जिम्मेदारी उठाएगा, वंश आगे बढ़ाएगा, मोक्ष दिलाएगा। लेकिन भाई जैसे ही सोलह साल का हुआ, पढ़ाई के लिये कैनेडा चला गया। आज बीस वर्ष हो गए वह कभी लौटकर नहीं आया। दादी क्या बाबू जी को भी गुजरे दो साल हो गए उसका स्नेह कभी हमारे साथ न रहा। कैसी घर की जिम्मेदारी और कैसा मोक्ष? वंश भी वह न जाने किसका आगे बढ़ा रहा है। अगर माँ होती तो यह परिवार ऐसे न बिखरता, रिश्तों की अहमियत तो माँ ही जानती है। काश दादी ने पोते की इच्छा न की होती तो माँ हमारे साथ होती।

१ सितंबर २०१८

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