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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
आभा खरे
की लघुकथा- साझा दर्द


आज न जाने क्यों ६ वर्षीय भाई माँ के हाथ से खाना खाने की जिद करने लगा। माँ ने गुस्से और झुँझलाहट से उसे झटक दिया। माँ की ये झुँझलाहट बेवजह नहीं थी। पिता के घर छोड़ कर जाने और दूसरा घर संसार बसा लेने से आहत हुई माँ बहुत टूट गयी थी। प्रेम में मिले धोखे और विश्वास की डोर टूटने के दुःख को उसने दिल से लगा लिया था। हम दोनों भाई-बहन से भी विमुख सी हो गई थी। वो तो नानी ने जैसे तैसे हम भाई-बहन और माँ को सँभाल रखा था।

नानी ने भाई को पुचकारा और कहा..."चल मैं तुझे खिलाती हूँ" तभी घरेलू सहायिका राधा बाई घर में घुसी, उसके सर पर पट्टी बँधी थी जिस पर खून लगा हुआ था और वो लँगड़ा कर चल रही थी। उसे इस हाल में देखकर नानी ने पूछा..."क्यों री! किस से लड़कर आ रही है?
राधा बोली- "क्या माँजी, हम किस से लड़ेंगे। मुये मरद को दारू के लिए पैसे नहीं दिए तो देखो क्या हाल किया।" तभी माँ की भी चुप्पी टूटी और वे राधा से बोलीं कि एक दो दिन छुट्टी लेकर आराम कर ले।

माँ की बात सुनकर राधा बाई ने कहा- "मालकिन अगर मैं काम न करूँगी तो मेरे बच्चों का पेट कैसे भरेगा, उनकी स्कूल की फीस कहाँ से आएगी? उस नासपीटे मरद की ख़ातिर मैं अपने बच्चों को तकलीफ़ नहीं दे सकती"।

न जाने उसकी बात का माँ पर क्या असर हुआ कि वो उठी और उसने पिता के कमरे को बाहर से बंद कर ताला लगाया और भाई को लेकर रसोई की तरफ चल दी। मैं और नानी दोनों अचरज भरी मुस्कराहट लिए अपने -अपने आँसू छिपा रहे थे।

१ सितंबर २०१८

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