| 
						 
						 फागुनी 
						बयार चल पड़ थी। खेतों में खिलते सरसों के पीले फूलों और 
						गेहूँ की इठलाती बालियों ने होली के आने की दस्तक दे दी 
						थी। पकवानों की खुशबू से घर-घर महक उठा था। 
						 
						होली आने के साथ ही श्यामली का मन भी अजीब सी बेचैनी के 
						साथ संकुचित हुआ जा रहा था। ऊपर से भारत-भ्रमण के लिए आई 
						पड़ोस में, दूध सी उजली गोरी-चिट्टी फिरंगन से सामना हो 
						जाने का डर उसे और भी भयभीत किये दे रहा था।  
						 
						होली का वह दिन और उस कटु-स्मृति को भला वह कैसे भूल सकती 
						थी, जब उसकी सहेली ने उसके चेहरे पर काला रंग पोत दिया था 
						और घर आने पर दादी ने कहा था, “एक तो भगवान ने वैसे ही 
						काला रंग दिया था, ऊपर से काला रंग और पुतवा कर चली आईं। 
						काली माई कहीं की।” वो दिन और आज का दिन, तब से वही बात 
						कुंठा का रूप धारण किये हर दिन उसे आईने में दिखती उसका 
						मखौल उड़ाया करती थी।  
						 
						ढोलक-झाँझ-मंजीरों पर, फाग-धमार गाने-बजाने की आवाजों के 
						बीच, होली का हुल्लड़, श्यामली को बाहर झाँकने को उतावला 
						बना रहा था। पर उसकी कुंठा उसे ऐसा करने से बार-बार रोक 
						रही थी।  
						 
						आखिर उसका जी नहीं माना और उसने ज़रा सा दरवाजा खोलकर झाँका 
						भर था कि “इंडियन ब्यूटी” कहने के साथ, उसी गोरी-चिट्टी 
						फिरंगन के रंगें हुए हाथों ने उसके गालों को रंगों से 
						सराबोर कर दिया।  
						 
						अब काले-गोरे का भेद मिट चुका था और श्यामली कुंठा-मुक्त 
						होकर खुशियों के रंग बिखेरती नजर आ रही थी और मानों 
						उन्मुक्त गगन में इन्द्रधनुष सी तैरती अपना सन्देश फैलाती 
						जा रही थी, "वसुधैव कुटुम्बकम्" 
						
                      १ मार्च २०१८  |