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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.एस.ए. से सुषम बेदी की कहानी- 'चेरी फूलों वाले दिन'


सिरहाने खड़ी मरसी कह रही थी-टाइम हो गया। चलो ऊपर डाइनिंग रूम मे चलकर खाना खा लो।
नहीं भूख नहीं।
सुधा ने लेटे लेटे ही बिना आँखें खोले कहा जैसे कि आँख खोलने के लिये भी ताकत चाहिये थी और वह बिस्तर पर औंधी हुई एकदम निढाल अधमरी सी पड़ी रही थी।
मरसी बोली- आज तीसरा दिन है। तुम लंच के लिये नहीं जा रही। उठो सुधा हिम्मत करो। कितना सुंदर है दिन। सूरज चमक रहा है, चेरी ब्लासम्स खिले हैं। बहुत सुंदर है बाहर।
ऊँह--
खाना यहीं पर ला दूँ?
नहीं।
कुछ थोड़ा सा?
अच्छा, डायट कोक ले आना।
सिर्फ कोक? खाने के लिये कुछ नहीं?
इस बार सुधा ने सिर्फ सिर में कुछ हरकत की। जबान भी बार बार नहीं कह कर थक चुकी थी।
मरसी गयी तो मिनटों में ही एकदम चहकती सी आवाज़ें कमरे में दाखिल हुईं-ममा, ममा क्या हाल हैं? हम ऊपर गये थे डाइनिंग रूम में तो पता लगा आप लंच के लिये ही नहीं गयीं। क्या हो गया?
बस हिम्मत नहीं।
और सुधा सीधी होकर बैठने की कोशिश करने लगी। मरा हुआ उत्साह जैसे करवट सी लेने लगा।
कोई नहीं ममा। लेटे रहिये। उठने की जरूरत नहीं और मेहा के कहने के बावजूद सुधा उठकर बैठ गयी।
अरे नताशा भी आयी है।

और सुधा का चेहरा एकदम से खिल उठा दोहती को देखकर जो नानी से हलो कहने के इंतजार में ही थी। नताशा आगे बढ़कर नानी के गले मिली और कुरसी पर बैठ गयी।
सुधा अचानक पटर पटर बोलने लगी- तेरे लिये मैंने तेरा बर्थडे गिफ्ट सँभालकर रखा हुआ है कि जब तू मिलने आयेगी तो तुझे दूँगी। अच्छा अब एक काम कर। देख मुझसे तो उठा नहीं जाता तू सामने वाली आलमारी खोल।
नानी अभी आराम से बात करो। जल्दी क्या है। अभी तो हम बैठे हैं।
नहीं। फिर बातों मे लग जाएँगे तो रह जाता है। चल उठ आलमारी खोल।
कोई हरकत न देख दुहराया- चल चल उठ बेटे। खोल आलमारी।

नताशा को उठना ही पड़ा। आलमारी खोली तो एक गुलाबी रंग का सुंदर सा बैग रखा था जिस पर लिखा था हैप्पी बर्थडे। ऊसमें एक पर्स था और एक लाल रंग का लिफाफा जिसमें हैप्पी बर्थडे का कार्ड था।
थैंक्यू नानी। थैंक्यू। दैट इज प्रिटी
सुधा के चेहरे पर व्यस्तता थी- पर्स निकाल के तो देख। दो जुराब के जोड़े भी होंगे। मैंने मँगवाये थे तेरे लिये। तुझे एक बार ऐसे जोड़े पसंद आये थे। इसीलिये मँगवा लिये।
नानी इतना कुछ?
नानी की व्यस्त उत्सुकता अभी खतम नहीं हुई थी। बोलीं- चल अब इधर आ। यह दराज खोल।
किसलिये नानी?
खोल ना। तेरा असली गिफ्ट तो इसमें है।
नानी-
"देख तुझे मैंने कहा था न तेरे लिये सौ डालर रखे हैं। अपनी मरजी से कोई ड्रेस मेरी तरफ से खरीदना।"
"नानी मैं प्रेगनेंट हूँ। मोटी हो रही हूँ। अभी कोई ड्रेस नहीं खरीदूँगी।"
"रख लेना। बाद में खरीद लेना।"

दराज सुधा के सिरहाने की मेज में ही थी। उसमें खूब सारी चीजें घुसायी हुई थीं कि मुश्किल से खुलता था। सुधा नताशा को आदेश देती गयी-ये ऊपरवाले कपड़े निकालकर बिस्तर पर रख दे। हाँ और नीचे, और नीचे एक प्लास्टिक का थैला है, उसको निकाल। हाँ निकाल ले। यही वाला। दे मुझे।

और सुधा ने धीरे धीरे लेकिन ढेर सारे उत्साह के साथ प्लास्टिक की गठरी खोली। उसके अंदर कई तरह की छोटी छोटी सी पोटलियाँ थीं। वह एक एक करखे पोटलियाँ खोलती जा रही थी और साथ साथ कमेंटरी भी किये जा रही थी- देख इसमें तो सिर्फ एक एक के नोट हैं। फिर भी सुधा ने उसे खोला और पड़ताल की कि सचमुच एक एक के ही हैं और उनकी गिनती भी कर डाली। इसी तरह दूसरी पोटली खोलते हुए बोली- इसमें पाँच पाँच और दस दस के नोट हैं। देखो भई मुझे इन सब काम करने वालों को टिप करना होता है। बहुत काम करते हैं ये लोग मेरा। इसीलिये एक एक के अलग करके रखती हूँ। थोड़ा ज्यादा काम करते हैं तो पाँच का नोट देती हूँ। अब शायद इस में हैं सौ सौ के नोट। और उस पतली सी थैली में दो सौ के नोट थे। उन्होंने एक नोट को अलग किया और नताशा को पकड़ाया।

नताशा बोली- आपको मुझको इतना नहीं देना चाहिये नानी। फिर आप बिना पैसे के क्या करोगे?
"-ले मेरे पास और भी हैं। देख इतने सारे हैं। और फिर मुझे करने क्या हैं। बस तुम लोगों के जनमदिन पर ही देना होता है।"
"पर नानी ये खतम हो जाएँगे तो क्या करोगे।"
"तो और आ जाएँगे। मुझे हर महीने यहाँ से पाकेट मनी तो मिलती ही है।"
"अच्छा! आपको पाकेट मनी मिलती है? कौन देता है?"
नताशा को नानी का पाकेटमनी शब्द का इस्तेमाल बड़ा दिलचस्प लगा।
"यही लोग देते हैं न। यहाँ की सरकार तो ज्यादा देती है पर ये
असिसटिड लिविंग वाले काट लेते हैं। पर अब इनसे कौन लड़े। सभी रोते हैं। मैं तो फिर भी ठीकठाक हूँ। कुछ लोगों को तो होश ही नहीं होता। उनको तो कोई पैसा नहीं मिलता। उनका यही रख लेते हैं।
ये हमारा डायरेक्टर है न। बड़ा चालाक है। कहता है जितना सरकार देती है उससे कहीं ज्यादा खर्चा है। काम करनेवालों की तनखाहें, तीन बखत का खाना। मुझे तो लगता है सब झूठ बोलता है।... "

मेहा बीच में काटती हुई बोली-ममा आपको नहीं मालूम। खर्चा तो होता है। आपको मालूम है कितनी कितनी तनखाहें लेते हैं ये लोग। फिर फुल टाइम लोगों को तो पर्क्स भी देने होते हैं। आखिर यहाँ रेजिडेंट डाक्टर है, नर्सें हैं, रिसेप्शन पर भी हमेशा एक आदमी की ड्यूटी होती है। आपको तो अंदाज भी नहीं होगा इनके खर्चों का। आप हमेशा दूसरों के खर्चों को अंडर एस्टीमेट करती हैं। अमरीका में हर चीज का खर्चा कहीं ज्यादा होता है। फिर यहाँ जो इतनी सफाई रहती है, उसके भी तो दाम लगते हैं। सुबह शाम तो सफाई होती है न! सफाई करने वालों की तनखाहें नहीं हैं?

बेटी की बात नानी को भली नहीं लगी, "-जा जा तू तो उनकी ही तरफदारी करती है। तुझे क्या पता यहाँ की औरतें मुझे क्या क्या बताती हैं। वह मागररेट बीमार होकर यहाँ क्या आई, अरे उसकी पूरी की पूरी जायदाद इन लोगों ने सँभाल ली। ये लोग सबके साथ ऐसा ही करते हैं। ये तो अच्छा हुआ कि मेरी कोई जायदाद ही नहीं है यहाँ वर्ना ये छीन लेते। ये तो क्या जाने रोहतक वाला घर भी छीन लेते। शुक्र है मेरी बहन की सोच थी कि रिटायर होकर तेरे पास आ ही रही हूँ तो पीछे घर का खयाल कौन रखेगा सो बिकवा ही दिया। अब कम से कम उधर की तो कोई परेशानी नहीं है। मेरा हाथ भी खुला हो गया।"
"-ममा। यहाँ आपकी इतनी देखभाल हो रही है। अगर यह जायदाद ले भी लें तो क्या बुरा है। किसी को साथ लेके तो जाना नहीं होता।"
"-सो तो तू ठीक कह रही है। पर अपने बच्चों को तो दे सकते हैं न।
इनको क्यों दें?"
"-ममा आप भी हिंदुस्तानियों की तरह बोल रही हैं। सब यहाँ के सिस्टम का फायदा उठाना चाहते हैं, कोई कुछ देना नहीं चाहता। रिपब्लिकन पार्टी वाले ठीक ही कहते हैं कि बंद करो ये सब मैडिकेड वगैरह और सोशल वेलफेयर। लोगबाग मुफ्त की सेवाओं के आदी हो जाते हैं और उल्टे शिकायतें करते हैं।"
"-रहने दे मेहा। तू ज्यादा मत बोल।"
"-माम ठीक कहती हैं, नानी।"

नताशा हिंदी में बोलती थी तो बीस साल की उम्र में भी उसका बोलना वही सात-आठ की लड़की सा मीठा लगता था। यों भी नानी के आगे वह बच्ची ही बनी रहती थी। वह कोई समझदारी वाली बात करने भी लगती तो नानी को रास न आता। उनके सामने वह बच्चा बनी रहकर एक तरह से नानी को खुशी देना चाहती थी, कहीं नानी का मनोरंजन करना उसे अच्छा लगता था। इसीलिये नानी को उसकी हर बात प्यारी ही लगती। उससे नाराज नहीं हो सकती थी। न ही नताशा का विरोध करके राजी थी। सो झट से हार मान ली और कहा- ठीक है फिर मुझे ज्यादा नहीं पता। मैं यहाँ की बातें क्या जानूँ।

नताशा फिर बोली- नानी आप ये डालर रख लो। अपने लिये अच्छी सी चीज खरीदना।
"- कह दिया न। मुझे कुछ नहीं चाहिये। मेरे पास सब कुछ है। तू बस रख ले। चाहिये होता है तो तुमसे माँग ही लेती हूँ। ये ले अपने पर्स में डाल ले।"
नानी बिस्तर से उठती हुई आगे को हुई और नताशा की मुट्ठी में नोट डाल दिया।
नताशा का यह कोई नया अनुभव नहीं था कि बहस मे नानी से कभी कोई जीत नहीं सकता।
नताशा ने नोट पर्स मे डाला तो अचानक जैसे कुछ याद हो आया, देखा नानी! आपने हमको भुला दिया। हम तो आपको बाहर ले जाने के लिये आये थे। बाहर बहुत सुंदर चेरी ब्लासम्स खिले हैं।
सारे के सारे पेड़ फूलों से लदे पड़े है। गुलाबी, सफेद, शाकिंग पिंक। एकदम पीक पर हैं ब्लासम्स। बहुत सुंदर लग रहा है
सारा का सारा पार्क। चलो, चलो, चलेंगे।
"चल नहीं पाऊँगी बेटे। जिस्म में बिलकुल ताकत नहीं है। पता नहीं जब से यह दवायी बदली है मुझे तो होश नहीं रहता। बस लेटी रहती हूँ।"
"पर नानी हम आपको सहारा देंगे। और आपको वाकर के साथ चलना है।"
"नहीं बेटे गिर जाऊँगी।"
"हम आपको गिरने नहीं देंगे नानी। ...नानी आपको तो घूमने का इतना शौक था। माम भी कहती है आप रोज बाहर निकल जाते थे। गर्मी की छुट्टियों में कभी पहाड़ों पर तो सर्दी की छुट्टी में साऊथ इंडिया जाते थे। इधर भी आप बाहर नहीं जाते तो कहते हैं कि बोर हो जाती हूँ।"
"सो तो ठीक कहती है बेटे। बोर तो हो जाती थी। कोई कितनी किताबें पढ़ लेगा या टीवी देख लेगा- पर अभी नहीं जा सकती। सोमवार को डाक्टर आयेगी तो उसे बताऊँगी। देखो क्या कहती है। पर अब जिसम में जान नहीं रही बेटे।"
और सुधा ने एक लम्बी साँस ली। तीनों उदास से हो आये। वक्त ने कैसे सब कुछ बदल दिया था। ममा का वह स्वस्थ दमकता शरीर कैसे किसी पुराने कपड़े की तरह छीजता गया। मेहा की आँखों में जवान ममा के कितने ही बिम्ब सहसा घूम गये।

प्रिंसीपल थीं ममा लड़कियों के एक प्राइमरी स्कूल की। सारा दिन भाग दौड़ लगी रहती। स्कूल खत्म होता तो किसी न किसी मीटिंग के लिये भाग रही होतीं न कुछ हो तो कभी किसी अध्यापिका का विदाई समारोह है तो कभी किसी अध्यापिका के बेटे या बेटी की शादी या किसी का दाह संस्कार- ममा को तो कभी फुरसत से बैठे देखा ही नहीं था। देर शाम आतीं तो भी सुबह वक्त पर स्कूल पहुँचने का नियम था। कहतीं अगर वे खुद लेट होंगी तो स्कूल में अनुशासन कैसे रख पाएँगी। मेहा ने मुश्किल से कालेज में कदम रखा था जब पापा की मौत हुई। ममा ही घर का भी देखतीं। मेहा तो ऊँची पढ़ाई के लिये यहाँ अमरीका चली आयी। फिर उसकी शादी के कुछ सालों बाद ममा रिटायर हो गयीं तो मेहा और उसके पति ने ममा को यहीं बुला लिया था।

यों तो पहले ममा ठीकठाक ही रहती थीं। पर बुढ़ापा भी शायद एक बीमारी ही होता है। अजीब अजीब सी बातें होने लगीं। एक दिन ममा बेहोश सी हो रही थी, शरीर से ताकत निचुड़ चुकी थी, अजीब तरह से रुक-रुक कर बोलने लगीं। एंबुलेंस बुलाई, इमरजेंसी गए। पता लगा पोटेशियम लो हो गया है। फिर एक बार तो ममा को ऐसे दस्त लगे कि ठीक ही न हों। डाक्टरों की दवाइयों का असर ही न हो। फिर हालत यह हो गयी कि गुसलखाने से बाहर आते आते कमरे में पहुँचने से पहले ही गिर गयीं। वही एंबुलेंस अस्पताल के चक्कर। उस बार सोडियम लो हो गया था। मेहा ने तो ज़िंदगी मे पहली बार सुना था कि ऐसी चीजें भी होती हैं। वर्ना उसे यही मालूम था कि लोगों को दिल का दौरा पड़ता है, या कैंसर होता है या... । खैर! ममा को दिल का दौरा भी पड़ा, मधुमेह भी हुआ, हाई ब्लड प्रेशर भी, गठिया भी। सभी कुछ और इसीलिये ममा ने रोज रोज हस्पताल जाने के झंझट से बचने के लिये डाक्टर और नर्सों से समपन्न इस असिस्टेड लिविंग में रहना पसंद किया। यानि कि ऐसा जीना जहाँ जीने के सहायक मौजूद हों। खाने पीने की सहायता के इलावा नहलाने- धुलाने के लिये परिचारिकाएँ और कोई शारीरिक तकलीफ हो तो डाक्टर, नर्स, दवाखाना, सभी कुछ मुहय्या रहता है। ज्यादा तकलीफ हो जाये तो एंबुलेंस बुलाके हस्पताल भी भेज दिया जाता है। मेहा मिलने हर हफ्ते आ जाती है पर ममा रहती, सोती, खाती इसी संस्थान में हैं।

पर वृद्धावस्था का यह रोग अब उम्र के साथ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। यह भी ठीक है कि अगर हिमदुस्तान में होतीं तो शायद इतना जी भी न पातीं। अब तो पचासी से ऊपर हो गयी हैं। पर यहाँ जो भी पुरजा बिगड़ता है डाक्टर उसे दुरुस्त कर देते हैं। मेहा को लगता है कि अब जैसे ममा के शरीर का हर अंग ही ममा का साथ छोड़ रहा है। ममा शायद ज्यादा देर न जिएँ, मेहा ने सोचा और जिस्म काँप गया। माम कितनी भी बूढ़ी हों उससे नाता अपनी पहचान का, अपने दुनिया में होने का नाता होता है। माम नहीं रहती तो अपनी पहचान, अपनी हस्ती का भी कोई हिस्सा मर जाता है। असहाय माम भी बच्चे के लिये एक सूत्र, एक साया होती है। ममा पंजाबी में कहा करती थीं -माँवाँ ठंडियाँ छाँवाँ। सच माम एक छतरी की तरह बरखा से बचा लेती हैं। मेहा अपने खयालों में ही खोयी थी जब अचानक ममा की हड़बड़ायी सी आवाज सुन पड़ी- "अरे तुमको मैंने खाने को तो पूछा नहीं। उस हिंदुस्तानी रेस्तराँ को फोन कर देती हूँ। अभी बीस मिनट में खाना दे जायेगा।"
"ममा फिकर मत करो। नताशा और मैं बाहर जाकर खाएँगे।"
"नहीं नहीं ऐसा कैसे हो सकता है। खाना तो तुमको खाना ही होगा। चल नताशा फोन उठा। वह मेज पर से मेरी डायरी देना। उसमें रेस्तराँ का फोन नम्बर है। ला दे न। उठ।"
"नानी खाना नहीं खाएँगे। मुझको प्रेगनेंसी में हिंदुस्तानी खाने से ऐसिडिटी होती है।
"अच्छा तो फिर फ्रिज खोल। उसमें फलवाला दही है, संतरे हैं, चटनी भी है। हाँ गोभी और आलू के पराठे हैं फ्रीजर में गरम कर दूँ?
"ममा अभी तो कहती हैं कि उठा नहीं जाता और अब पराठे गरम करने की बात कर रही हैं।"
"ले उसमें कोई काम थोड़े ही है। माइक्रोवेव में पराठे गरम हो जाएँगे। साथ में पुदीने की चटनी और दही। चलो मैं बना देती हूँ।"

सुधा को यह भी मालूम था कि वह उठने की धमकी देगी तो मेहा या नताशा में से कोई उठकर गरम कर ही देगा। नताशा को तो भूख लग ही आयी थी। मेहा ने पराठे गरम किये तो तीनों ने ही खा लिया। सुधा बहुत खुश थी कि कुछ तो खाया इन लोगों ने। उनके बहाने से सुधा का भी खाने का मन हो आया था। वह कुछ न कुछ हिंदुस्तानी खाना रखती है। उसका अपना जब अमरीकी खाने का मन न होता तो वही सब खाती। मेहा भी कुछ न कुछ घर से बना लाती थी। पर मेहा आज कुछ बना नहीं पायी थी। मन में अपराध भाव कचोटा।
"ममा आपका सारा स्टाक तो हमने खतम कर दिया अब आप क्या करेंगी।"
"कैसी बात बोल दी तूने? माम को तो खुशी होती है बच्चों को खिला के।"
"और नानी के सारे पैसे भी हमने खतम कर दिये।"
"फिर वही बात। बेटे बच्चों को देकर तो मेरा जी खुश होता है। ऐसे मत कहा करो। और आ जायेगा। मेरे पास कोई कमी नहीं। हाँ तेरे लिये तो एक और गिफ्ट लिया था नताशा। ये फ्रिज के ऊपरवाली अलमारी तो खोल।"
"नानी, इतना कुछ तो दे दिया। अब और नहीं।"
"तू खोल न! ठीक है तू नहीं खोलती तो में अपनी नर्स को बुलाती हूँ।
"ठीक है नानी। आप किसी की बात नहीं सुनते।"
एक मेकअप का सेट था। नताशा की ना नानी को स्वीकार न थी। बेग में डलवा दिया।
"अच्छा नानी अब हम चलेंगे। आप बस देते जाते हो, देते जाते हो। और कुछ नहीं।"
"तुझे पता नहीं तेरे आने ने मुझे कितनी खुशी दी है। चीजें क्या हैं। मैं तो जा नहीं पाती नहीं तो तुझे क्या कुछ देने का मन करता है।"

"आप घूमने तो चलते नहीं हमारे साथ। बस चीजें देते जाते हो।"
"क्या करूँ बेटे मजबूर जो हूँ। टाँगें चलती ही नहीं।"
"बस मुझको नहीं मालूम। अगली बार तक ठीक हो जाना। ये चेरी ब्लासम्स तो दो हफ्ते में खतम हो जाते हैं।"
"चल कोई बात नहीं। बहुत बार देखे हैं ब्लासम तो। हर साल देखती ही हूँ। एक बार तो वॉशिंगगटन लेगये थे तेरे माम और डैड चेरी ब्लासम्स दिखाने। यहीं बौटेनिकल गार्डन भी तो जाते थे हर साल। सुख तो बहुत मिलता है इतने ढेर सारे फूल एक साथ देख कर। ओह ऐसा लगता है जैसे परियों के देश में चहलकदमी कर रहे हों। मन भी करता है जाऊँ, घूमूँ। पर क्या करूँ"
"अगले इतवार को ममा के साथ आऊँगी। ठीक हो जाना। जरूर चलना है। अच्छा नानी। बाय बाय।"
नानी से गले मिल मेहा और नताशा बाहर आ गयीं। दोनों माम बेटियों को अपने अपने घर, अपने पतियों के पास लौटना था। शनिवार की शामों के कार्यक्रम बने हुए थे।

तभी नर्स कमरे में प्रविष्ट हुई-सॉरी सुधा। यह रहा डायट कोक। मैं भूल गयी थी लाना। तुमने खाने को जो मना कर दिया था। सुधा को गुस्सा नहीं आया। वह भूल गयी थी कि उसने कोक मँगाया था। बोली-
"रख दे। अभी पियूँगी नहीं। घंटे भर में डिनर का समय होने वाला है। ऊपर जाऊँगी डिनर खाने। तभी चाय भी पियूँगी। आज बना क्या है?"
"आज... आज? मालूम नहीं । पूछ के आती हूँ।"
"नहीं कोई बात नहीं।"
नर्स चली गयी। सुधा ने कमरे पर एक नजर दौड़ाई। उसे लगा जैसे अभी-अभी यहाँ ढेर ढेर चेरी के फूल खिले हों।

 

५ मई २०१४

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