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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है
यू.एस.ए से अनिल प्रभा कुमार की कहानी- बेमौसम की बर्फ


उसने धीरे से खिड़की का पर्दा सरका दिया। रोज सबसे पहले वह यही करती है। धूप और रोशनी को न्यौता देती है, भीतर आने के लिये- मन के भीतर तक। वह मुग्ध होकर निहारती है- आकाश का रंग, पेड़ों के रंग बदलते पत्ते। हर रोज सूरज सुबह हाजिरी देता आ रहा है, युगों से। वह अपने भीतर इस सूर्य- विश्वास को भर लेना चाहती है। चाहे कुछ हो जाए सूरज तो निकलेगा ही।

आज की सुबह कुछ अपरिचित-सी लगी। आकाश पर जैसे किसी ने सुनहरी के बजाए सफेदी की गाढ़ी चादर तान दी थी। ठोस सफेदी, कहीं कोई हल्की–सी दरार तक नहीं।
“हटो न माँ, मुझे भी देखने दो।“ महक ने आँखे मलते हुए अलसायी–सी आवाज में कहा।
“गुड मॉर्निंग, उठ गई मेरी बिटिया।“ वह लाड़ में भरकर महक के सिरहाने आकर बैठ गई।
बिन बालों वाली महक, चिकने सिर के साथ कोई और ही लगती है। जैसे तीस साल की युवती फिर से पाँच साल की बच्ची हो गई हो। पीली पड़ती रंगत के ऊपर बड़ी- बड़ी काली आँखें जैसे मुखर हो उठी हों, बस मुझे देखो और कुछ नहीं।
चारु ने उसके सिर के पीछे सिरहाना रख सहारा दिया। माथे को छुआ। कुछ गर्म लगा, आँखें भी चढ़ी थीं।
“कैसी है तबियत?”
“अं...अ, ऐसे ही है।“ कहकर वह खिड़की के बाहर लगे मैग्नोलिया के पेड़ को देखने लगी। उसके चेहरे पर शांति और मुस्कान आ गई।
“महक, देख पेड़ कितना कलियों से लदा पड़ा है। बस अब ये कलियाँ कुछ दिनों में खिल जाएँगी तो कितना सुन्दर लगेगा यह पेड़।“

“तभी तो मैं ऊपर अपने बेड-रूम में न सोकर नीचे आपके स्टडी–रूम में सोती हूँ। आँख खुलते ही मैग्नोलिया का यह पेड़ मुझे “हैलो” कहता है। अभी तो इसकी कलियाँ अपनी गुलाबी-जामुनी मुट्ठियाँ बन्द किए बैठी हैं। जब खुलेंगी न तो लगेगा गुलाबीपन लिये सफेद तश्तरियों का अम्बार लगा दिया है किसी ने। और जब फूल झरेंगे तो पेड़ के नीचे गुलाबी फूलों की चादर बिछ जाएगी। मेरा जी चाहता है कि मैं उन गिरे हुए फूलों के बिस्तर पर जाकर लेट जाऊँ।“

चारु के मन में एक शब्द घुमड़ता है- “सुहाग-सेज”। महक के पीले पड़ते चेहरे को देखने लगती है। पता नहीं कब से यों ही लेटे-लेटे फूलों के बिछौने देखा करती है। जाने क्या-क्या घुमड़ता होगा इसके मन में? कभी शिक़ायत नहीं करती, बस मुस्करा देती है।
“आज की सुबह है न माँ?” वह पता नहीं उसे या अपने को दिलासा देती है।
चारु मुस्करा नहीं पाती। कितनी सुबहें और? सोचती है तो लगता है जैसे चूल्हे से जलती लकड़ी खींचकर किसी ने उसके सीने के भीतर घुमा दी हो। धुआँसा हो गया है अंतर्मन, जीवन, सभी कुछ। पर साँस तो चल ही रही है क्योंकि हेमन्त साथ हैं- दूर दिखती रोशनी की ओर इंगित करते हुए।
“महक ठीक हो ही गई थी न? फिर काम पर भी तो जाना शुरु कर दिया था। अलग अपॉर्टमेंट में भी रहने लगी थी। विश्वास रखो फिर ठीक हो जाएगी।“ हेमंत कहते।

“कैसे सम्भालेगी सब कुछ?“ चारु का मन डगमग करता।
“उसे स्वावलम्बी बनने दो। जीने दो उसे अपने हिसाब से। अपवाद भी हुआ करते हैं। बहुत सी शारीरिक व्याधियाँ मनोबल से भी नियन्त्रण की जाती हैं।“
“मनोबल”, बस इस एक शब्द को पकड़ लिया था उसने जो अक़्सर उसके हाथ से फिसल जाता। वह टूटने लगती और फिर भागती उसी को पकड़ने के लिये। उसे इस अन्धेरे में ये जुगनू चाहिए थे - ढेर सारे। चारु को भी उसने एक जुगनू पकड़ा दिया- अपने आशीष का।

“तुम्हारे बेडरूम के बाहर भी तो इतना भरा-पूरा चीड़ का पेड़ है- सदाबहार। हर मौसम में हरा-भरा।“
“पर मुझे तो यही अच्छा लगता है। छोटा-सा मैग्नोलिया का पेड़, धीरे-धीरे बढ़ता हुआ।“
महक खिड़की के बाहर शून्य में देखती रही ।
हेमंत एक हाथ में पानी का गिलास लिये दाख़िल हुए। दूसरे में दवा की दो गोलियाँ थीं।
“गुड मॉर्निंग स्वीटहार्ट।“ उन्होंने पानी का गिलास महक की ओर बढ़ा दिया।
पिछले छह वर्षों से वे यों ही उसकी दवा लेकर आते हैं।
महक ने यंत्रवत पकड़ लिया। दूसरा हाथ बढ़ाकर दवाई भी ले ली। पानी से दोनों गोलियाँ निगलकर फिर अधलेटी-सी हो गई।

वह चुपचाप उसके चेहरे की ओर देखते रहे। फिर निगाहें पत्नी की ओर उठीं। दोनों ने एक दूसरे को देखा। चारु के गले से हल्की-सी उछ्छवास निकली और वह जल्दी से कमरे के बाहर आ गई।
“तबियत ठीक नहीं? उन्होंने महक से बहुत कोमलता से पूछा।
महक ने सिर्फ दाएँ से बाएँ सिर हिला दिया। वह थकी लग रही थी।
हेमंत कहीं गुम से हो गए। आज शनिवार था उन्हें काम पर नहीं जाना। मौसम कैसा मनहूस-सा हो रहा है। धूप निकलती तो शायद महक भी थोड़ा स्वस्थ महसूस करती। बिस्तर पर लेटकर मौसम ही तो देखती है। कुछ ठीक होती है तो टेलीविजन।

वह वहीं पास रखी कुर्सी पर बैठ गए। मैडीकल एन्साइक्लोपीडिया को उठाकर आँखो के आगे रख लिया। किमौथैरेपी के बाद मरीज पर क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं, पढ़ने लगे। उनका दिल और दिमाग़ अलग-अलग रास्तों पर भटकता है। वह संतुलन का नाटक किए बैठे रहते हैं।
उम्मीद जगी तो थी कि शायद फिर से सब सामान्य हो जाएगा। दोबारा सब गड़बड़ हो गया। कोलोन का कैंसर, किमौथैरेपी, रेडिएशन की प्रतिक्रिया, वमन, अस्पतालों के चक्कर, टेस्ट, दवाइयाँ, परहेज। इस उमर में यह बीमारी नहीं होती, स्त्रियों को तो और भी कम- सारे सिद्धांतो की अपवाद बन गई उनकी बेटी।

चारु महक के लिये पालक और गाजर का ताजा जूस निकालकर लाई है।
“महक” उन्होंने धीमे से पुकारा तो उसने जवाब में आँखे खोल दीं।
“बाथरूम वग़ैरह जाना है या माँ सहारा दे?”
“नहीं, मैं चली जाऊँगी।“ वह धीरे से उठी और बाहर निकल गई।
“अच्छा ख़ासा अटैच्ड बाथरूम है इसके अपने बैडरूम में, पर सुबह मैग्नोलिया के पेड़ को देखने के लालच में इस कमरे में आकर सो जाती है।“ चारु ने जैसे हवा में शिक़ायत की पर्ची सरका दी।
फिर वह खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई।
“लगता है बर्फ पड़ने वाली है।“
“मैने न्यूयॉर्क टाइम्स में पढ़ा है कि आज बर्फ के भारी तूफान आने की सम्भावना है।“
“इस वक्त? अभी तो अक्तूबर चल रहा है। पतझड़ भी नहीं शुरु हुआ। अभी तो “हैलोवीन” भी नहीं मनाई गई। बर्फ तो इस इलाक़े में क्रिसमस के बाद ही पड़ती है।“
“कभी भी कुछ भी हो सकता है। प्रकृति अपने नियम ख़ुद ही बनाती है और ख़ुद ही तोड़ती है।“ हेमंत कहीं खो जाते हैं। सोचते हैं जब प्रकृति नियम तोड़ती है तो सब कुछ टूट जाता है।

महक कमरे में लौटी तो और भी शिथिल लग रही थी। जूस के दो-तीन घूँट भरे और गिलास सरका कर लेट गई।
“कुछ चाहिए हो तो बता देना।“ कह कर हेमंत कमरे से बाहर निकल आए।
चारु खिड़की के बाहर देख रही है। मोटी-मोटी बर्फ की चिन्दियाँ नीचे गिरती हैं और सड़क पर चिपकती जाती हैं। यह बर्फ हल्की-फुल्की सफेद धूल जैसी नहीं बल्कि पानी से भरी भारी बर्फ है। फिर हवा गति पकड़ लेती है। बर्फ का गोल-गोल घेरा सा बनता है, घुमड़ता है और सब पर छा जाता है। धीरे-धीरे सब जगहों पर सफेदी बिछनी शुरू हो गई। घरों की छतें, कारों की छतें, पेड़, पौधे, घास, सड़कें- सब पर सफेदी ने कब्जा कर लिया। फिर तूफान की हरहराती आवाज गूँजने लगी। पेड़ों की डालियाँ, बिजली की तारें सब भर उठे बर्फ से। सब ओर बर्फ बस बर्फ।

चारु ने अभी तक बर्फ पड़ती देखी है तो सिर्फ पतझड़ के बाद। नंगी पड़ी कमजोर डालियों पर ही बर्फ की परतें चढ़ती, जमती और फिर बाद में धीरे-धीरे पिघलतीं। पर यों जवान, पत्तों से लदे-फदे पेड़ों पर बर्फ पड़ते कभी नहीं देखी। बिजली की तारों के ऊपर शायद एक इंच मोटी बर्फ की तह जम चुकी थी।

महक शायद दोबारा सो गई । चारु रसोईघर की ओर बढ़ी तो देखा हेमंत वहीं टेलीविजन पर आँख गढ़ाए बैठे थे, जो वह कम ही करते हैं।
“यह मौसम का भविष्यवक्ता तो डरा रहा है।“ उन्होंने बड़े ही सहज भाव से कहा।
चारु रसोई में खाने-पीने का इंतजाम करते हुए रुक-रुक कर टेलीविजन पर भी नजर डाल लेती ।
टेलीविजन के पर्दे पर स्थानीय नक्शा उभरा। पूर्वी-तट पर भारी बर्फ पड़ने की संभावना यथार्थ में बदल रही थी। पर्दे के निचले हिस्से पर तेजी से शब्द दौड़ रहे थे। आपातकालीन सलाह थी।
“बिना जरूरत के घर से न निकलें।“
संवाददाता चेतावनी दे रहा था कि बर्फ भारी होती जा रही है। पेड़ पूरे यौवन पर हैं। हरे-भरे पत्तों से लदे वे बर्फ के भार तले टूटते जा रहे हैं। भारी-भारी शाखाएँ टूट कर बिजली के तारों पर गिर रही हैं। तार कई जगहों से टूटने शुरु हो गए हैं। बिजली गुल हो सकती है। चारु की परेशानी बढ़नी शुरु हो गई।

फोन बजा। नगरपालिका की ओर से शहर के सभी फोनों पर संदेश छोड़े जा रहे हैं।
“यदि आपकी बिजली चली जाए और आपके घर में कोई बूढ़ा, बीमार या बच्चा हो तो तुरंत नगरपालिका भवन में अस्थायी तौर से बनाए विश्राम- गृहों में चले जाएँ।“
चारु के हाथ तो जल्दी से कुछ खाने को बनाने के लिये फुर्ती से दौड़ रहे थे और आँखे टेलीविजन पर भटक जातीं और उससे भी ज्यादा गति से भटक रहा था मन।
“अगर बिजली चली गई तो फ्रिज में रखी महक की दवाओं का क्या होगा?”
हेमंत के चेहरे पर कठोरता का ढक्कन लगा है जिसके नीचे एक प्रश्न केंचुए की तरह रेंग रहा है- “क्या महक मौसम की इस मार को झेल पाएगी?”
चारु ने जाकर महक को छुआ तो महसूस किया, माथा तप रहा है। थर्मामीटर लगाया। हेमंत पास आकर खड़े हो गए। चारु ने ख़ुद देखा और फिर उन्हें थमा दिया।
“चारु, इसके डॉक्टर को फोन करो।“ ख़ुद वहीं चहल-क़दमी करने लगे।

चारु ने फोन मिलाया। कुछ परेशान दिखी।
“इसका डॉक्टर तो छुट्टी पर है। वह लोग कहते हैं कि इसे अस्पताल ले जाओ।“
वह वहीं डग भरते रहे, बेटी को देखते हुए।
“अभी इसके किमो के सैशन ख़त्म हुए हैं न तो उसकी प्रतिक्रिया भी तो हो सकती है।“
“वही लगता है।“
“इन हालात में अस्पताल कैसे ले जाएँगे? चारु परेशान होकर पूछती है।
“वह तो ऐम्बुलेंस भी बुला सकते हैं। सोचता हूँ, इसका डॉक्टर तो यहाँ है नहीं। अस्पताल में कोई नया डॉक्टर होगा ड्यूटी पर, उसे इसकी केस-हिस्ट्री मालूम नहीं होगी। इतना आसान नहीं है इसका केस।“
“तो?”
“अभी टायलेनॉल देकर देखते हैं। पहले भी तो यही करते हैं, शायद बुख़ार उतर ही जाए।“ वह दवाई और पानी लेने ख़ुद ही बढ़ गए।

टेलीविजन पर थीं ख़ाली सड़कों की धुँधली तस्वीरें और बर्फ की हाहाकार करती गति। पेड़ों की भारी-भारी शाखाएँ टूट कर रास्तों पर गिरी हुईं, रास्ते अवरुद्ध। लोगों के घरों में बिजली नहीं। हर थोड़ी देर बाद आँकड़े बढ़ रहे थे। हिमपात का स्तर भी तीन से पाँच इंच से लेकर अब आठ से दस इंच तक पहुँच चुका था।
अचानक एक भोंडी सी आवाज निकालकर टेलीविजन की तस्वीर अन्धेरे में गुम हो गई।
“लो, हमारी बिजली भी गई।“ वह अपने- आप में बुदबुदाई।
हेमंत उठ खड़े हुए।
“चारु, तुम महक को थोड़ा सूप दे दो।“
“कैसे गरम करूँ? वह हड़बड़ा रही थी।
“इस वक्त दियासलाई से गैस ऑन कर लो”। फिर कुछ सोचते रहे।
“तुम सभी मोमबत्तियाँ ढूँढ कर रखो। मैं फैमिली रूम में जाकर फॉयर-प्लेस जलाता हूँ। महक को भी वहीं सोफे पर लिटा देते हैं। घर तो अब धीर-धीरे ठंडा हो ही जाएगा।“

चारु सोचती है कि शुक्र है हमारा स्टोव गैस का है बिजली का नहीं। फॉयर- प्लेस में भी गैस का पाइप जाता है। हीटिंग न रहने के बावजूद कुछ तो सहारा रहेगा ही।
हेमंत ने फॉयर-प्लेस में आग जला दी। महक को बच्चो की तरह कम्बल में लपेटकर वहीं सोफे पर लिटा दिया। सिर के नीचे सिरहाना रख मुस्कराए।
“इसे कैंप-फॉयर ही समझो। यहीं आग के पास बैठकर गप्पें मारेंगे।“
“डैडी, आपके लिये तो यह भी एडवेंचर होगा क्योंकि आप और मम्मी कभी ऐसे आराम से बैठ जाएँ इसके लिये भी बिजली-विभाग का शुक्रिया अदा करना चाहिए।“
“लगता है, बुख़ार टूट रहा है तेरा।“ कहकर चारु ने सूप का प्याला महक को पकड़ा दिया।
फिर जाकर ट्रे में अपने दोनों के लिये भी खाना ले आई। बेहद सादा, बेस्वाद सा खाना। अब घर में कुछ ही चीजें पकती हैं और वह भी बिना तेल-मसालों के।

तीनो चुपचाप खाते रहे। बाहर बर्फ पूरी रफ्तार से गिरती रही। हवा की साँय-साँय शीशे के दरवाजों पर सर पटक जाती। लगा ठंड ने घर के भीतर घुसपैठ करना शुरु कर दिया। बाहर धुँधलका था।
“कितने बजे हैं?” चारु ने रुक गई घड़ी को देखते हुए हेमंत से पूछा।
“छह बजकर दस मिनट”, उन्होंने कलाई-घड़ी से पढ़ दिया। वह जल्दी-जल्दी पलकें झपक रहे थे। उठ कर इधर-उधर चलते पर कमरे की सीमा के भीतर ही।
चारु ने कई मोमबत्तियाँ एक ही प्लेट में जला दीं। फिर जाकर एक बाथरूम के अन्दर भी रख आई।
बाहर बर्फ की सफेदी ने शहर पर कब्जा कर लिया और भीतर अब अन्धेरा भी वही कोशिश कर रहा था।
“अगर आज रात-भर बिजली न आई तो?”
“हो सकता है आज रात क्या कल रात तक भी न आए। सुना नहीं पॉवर कम्पनी वाले इतने बड़े पॉवर फेलियर को संभालने के लिये तैयार नहीं हैं।“
“यह भी तो हो सकता है कि थोड़ी देर में आ ही जाए। पहले भी तो ऐसा होता है।“ चारु आशावादी थी।

“पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। यहाँ अक्तूबर में इतना बड़ा बर्फीला तूफान कभी नहीं आया। यह बे-मौसम की बर्फ है।“ प्रकृति के स्वाभाविक नियम और क्रम के विपरीत जाने से वह नाराज थे। जैसे हर क़दम पर कह रहे हों, ग़लत है, यह गलत है। ऐसा नहीं होना चाहिए। महक चुपचाप आँखे बन्द किए लेटी थी और वह प्रकृति से जूझ रहे थे।

चारु चुपचाप उन्हें देखती रही। धीरे से पास आकर बैठ गई। सिर उनके कंधे पर रख दिया। दोनो चुपचाप आग की लपटों को देखते रहे। कितना कुछ सुलगा, बुझा, जलती चिन्गारियों से भर गई जिन्दगी। घर में अन्धेरा गहरा गया था और वह तीनो निश्चल बैठे सोख रहे थे उस अन्धेरे को। जलती मोमबत्तियों को, जो पिघल-पिघल कर किनारों से नीचे बह चुकी थीं और अन्दर उनके गहरे गड्डे बनते जा रहे थे।

“डैडी, ठंड लग रही है।“ महक कुनमुनायी।
चारु ने उस पर एक और कम्बल डाल दिया। अपने और हेमन्त के ऊपर भी।
थोड़ी देर बाद हेमंत सब झटक कर उठ खड़े हुए।
“ऐसे नहीं चलेगा।“ उन्होंने सेल-फोन उठाया, काम कर रहा था।
“रमेश, तुम्हारे यहाँ क्या अभी पॉवर है?
“तो ठीक, हम आ रहे हैं।“ संक्षिप्त सी बात करके फोन रख दिया।

“चारु, रमेश और लीना के यहाँ चलना होगा। तुम दोनो पूरी तरह गर्म कपड़े पहन लो और महक की सभी दवाइयाँ भी ले लो। मै गाड़ी बाहर निकालने के लिये ड्रॉइव-वे की बर्फ हटाता हूँ।“
चारु उन्हें खिड़की से बाहर फावड़े से बर्फ हटाते देख रही थी। पिंडलियों तक बर्फ मे धँसा एक प्रौढ़ आदमी फावड़े के साथ बर्फ से जूझ रहा है। झुकता है, बर्फ उठाता है और अपनी दाँयी- बाँयी ओर फेंकता जाता है। मुँह पर बर्फ की मार तमाचों की तरह पड़ रही है पर उसे रास्ता बनाना है। सिर्फ इतना कि अपनी जवान बीमार बेटी को यहाँ से निकाल भर सके।

चारु का मन भीग आया। जरा सा दरवाजा खोला. “मै आऊँ, मदद के लिये।“
“तुम अन्दर रहो, महक के पास।“ वह जवाब मे चिल्लाये।
गाड़ी हेमंत बहुत ध्यान से चला रहे थे - इंच-इंच करके। गाड़ी फिसल-फिसल जाती। जाहिर था कि नगरपालिका का ट्रक अभी बर्फ हटाने नहीं आया था।
मोड़ पर आने से पहले ही गाड़ी रुक-सी गई। सामने एक पेड़ गिरा पड़ा था- रास्ता बन्द। गाड़ी को पीछे मोड़ने में फिसलने का ख़तरा था। धीरे-धीरे उन्होंने गाड़ी को थोड़ा बाँये मोड़कर गोलाई काटते हुए वापिस कर लिया। दूसरी सड़क से लीना- रमेश के घर का रास्ता लिया। एकदम सूनी सड़क। पैदल दस मिनट का और गाड़ी से तीन मिनट का रास्ता इतना बीहड़ भी हो सकता है, कभी अनुमान भी नहीं लग सकता था।

चारु दम साधे, महक को पकड़कर पिछली सीट पर बैठी रही। रमेश की सड़क पर घरों में बिजली नजर आई। हेमंत धीरे-धीरे गाड़ी को ड्रॉइव-वे पर लाए। ख़ुद पहले उतर कर दरवाजा खोला। महक को दोनों पति-पत्नी सहारा देकर दरवाजे तक ले आए।
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खाने की मेज पर बैठे हुए भी सबकी आँखें टेलीविजन पर ही चिपकी थीं। इस इलाक़े में एक फुट से ज्यादा बर्फ गिर चुकी है। सड़कों पर पेड़ों की शाखाएँ या पूरे के पूरे पेड़ ही जड़ से उखड़ कर गिरे पड़े हैं। बिजली की तारों ने कई इलाक़ों में बिजली आपूर्ति को क्षति पहुँचायी है। विद्युत विभाग मुस्तैदी से काम कर रहा है। रास्ते अभी पूरी तरह से अवरुद्ध हैं। एम्बुलैंस भी कई रास्तों तक पहुँचने में असमर्थ है। राज्य के गवर्नर ने आपातकालीन स्थिति घोषित कर दी है। अत्यन्त जरूरी काम के बिना घर से बाहर मत निकलें।

“लो अभी तक तो मौसम सम्बंधी परामर्श ही दे रहे थे और अब वह चेतावनी में बदल गया। रमेश बोला।
हेमंत ने कोई उत्तर नहीं दिया जैसे उनके दिमाग़ में गणित की पहेलियाँ चलती हों।
“तुम लोग हमारे बेटे वाले कमरे में सो जाओ और महक के सोने के लिये भी साथ वाला कमरा खोल देती हूँ।“ लीना पूरी तरह से उन्हें आराम देने की क़ोशिश कर रही थी।
“अभी देखते हैं। बर्फ पड़नी तो शायद रुक गई है।“ हेमंत टेलीविजन के बिल्कुल पास जाकर बैठ गए। सभी समाचारों में डूबे थे।
“बेचारे ये रिपोर्टर! इनकी नौकरी भी कितनी कठिन है।“ लीना एक लाल रंग के भारी कोट और हुड से ढके पत्रकार को देखकर बोली । जो इस बर्फीले तूफान में अकेला कैमरे के सामने खड़ा था और बोलते वक्त उसके मुँह से भाप निकल रही थी ।

“ऐसी बर्फ में तो जहाँ चाहे स्कीइंग करो, कोई रोक-टोक नहीं।“ महक की आवाज में चहक आ गई।
“तो कर लेना इस आने वाली सर्दियों में।“ लीना ने भी उसी उत्साह से कहा।
“मैं कोलाराडो जाऊँगी डैडी। ठीक?”
“जरूर जाना।“ कहकर उन्होंने मुँह घुमा लिया।
चारु उनके चेहरे देख रही थी । हालात कैसे हमें इतना अच्छा अभिनय करना सिखा देते हैं।
कमरे में सिर्फ टेलीविजन पर चलती ख़बरें ही जीवन्त थीं- आवाज और गति में। बाक़ी सब स्थिर था।
चारु उठी और उसने लीना के फोन से अपने घर का नम्बर मिलाया। दूसरी ओर घंटी बज रही थी फिर उसी की आवाज में रिकॉर्ड किया हुआ संदेश था।

“बिजली आ गई।“ उसने खुशी से ऊँची आवाज में कहा।
हेमंत उठ खड़े हुए। “बस, अब चलते हैं।“
“यार, रात काफी हो गई है और सड़कों पर इतनी बर्फ है। रात यहीं रुक जाओ।“ रमेश ने आग्रह किया।
“दो ब्लॉक तो हैं मुश्किल से। अपना घर ठीक रहता है।“ हेमंत ने रमेश की पीठ थपथपाकर समझा दिया।
दरवाजे पर रुककर लीना से बोले, “ज्यादा निश्चिंत मत होइएगा, जरूरत पड़ी तो हम दोबारा भी आ सकते हैं।“
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हेमंत महक को कंधों से यों छूकर अपने घर के अन्दर लाए जैसे वह बहुत नाजुक सी धातु की बनी हो। चारु बाहर ही रुक गई। देखती रही असीमित श्वेत विस्तार को। उस श्वेत निस्तब्धता को महसूस करती रही। नीचे फैली बर्फ की प्रतिच्छाया से सब जगमग था। आधी रात का समय और ऐसा उजाला जैसे चाँदनी का ब्याह रचा हो। हवा, शोर, बर्फ, सब कुछ थम चुका था। वह मुग्ध होकर इस शीतलता को, रजत सौंदर्य को अपने में भर लेना चाहती थी। देखा उसके स्टडी-रूम की खिड़की के सामने जैसे कोई छोटा-सा बर्फ का टीला उठ आया हो। कुछ क़दम आगे बढ़ आई।
मैग्नोलिया का पेड़ जड़ से उखड़कर, पछाड़ खाकर औंधे मुँह गिरा पड़ा था।

चारु वहीं जम गई। लगा सीने के खोखल में, कोई चीख एक अन्धे चमगादड़ की तरह सर पटक रही है। वह पथरायी आँखों से देखती रही। एक जवान हरा-भरा पेड़, बन्द कलियों समेत धराशायी था। वह स्तब्ध थी। एक त्रास-सा छा गया उस पर। महक सुबह उठकर क्या देखेगी?
वह रोकना चाहती थी उस सब को जो उसके बस में नहीं था। लगा, कोई भारी अपशगुन हो गया। वह महक को यह सब कतई नहीं देखने देगी।
पीछे से आकर किसी ने कन्धे पर हाथ रख दिया, देखा हेमंत थे।
“ठंड लग जाएगी, अन्दर चलो।“ मनुहार से कहा।
“देखो ! अभी तो यह कलियाँ पूरी तरह खिली भी नहीं।“ चारु की आवाज भर्रा रही थी।
हेमंत ने चारु को अपने सीने में समेट लिया। उसके सीने का फड़फड़ाना अपने भीतर भी महसूस करते रहे। चारु को बाँहों में समेटे पता नहीं कब तक यों ही खड़े रहे। उन दोनों की साझी, लम्बी-सी परछाईं बर्फ पर बड़ी दूर तक खिंच गई।

धीरे से उन्होंने चारु के सिर को चूमा और बाँहे ढीली कर दीं।
“महक अन्दर अकेली है, चलो।’ उन्होंने चारु को बाँह से सहारा दिया।
दरवाजे के बाहर आकर चारु फिर रुक गई।
“आती हूँ।“ कहकर वह बर्फ में पैर धँसाती घर के पिछवाड़े तक चली गई। सब कुछ वैसा ही था। देखती रही, फिर पलटी।
चारु अन्दर आकर कमरे के एक कोने में खड़ी हो गई। महक को आँखें मूँदे सोफे पर लेटे देखा तो बस देखती रही। कितना कुछ अन्दर हाहाकार करता रहा। वह जवान पेड़ जैसे उसके सीने पर ही गिरा था और जूझते हुए वह धँस रही थी।
हेमंत ने हाथ बढ़ाकर बेटी को सहारा दिया। “चलो, तुम्हें बेडरूम तक ले चलूँ।“

महक अधनींदी ही स्टडी-रूम की ओर जाने लगी।
माँ लपक कर खड़ी हो गई।
“रुको, वहाँ नहीं।“
हेमंत के माथे पर त्यौरियाँ उभरीं, एक प्रश्नचिन्ह झिलमिलाया।
“आज महक ऊपर सोएगी, अपने सोने के कमरे में।“ चारु ने दृढ़ता के साथ कहा।
फिर हौले से बुदबुदायी, “वहाँ से सदाबहार दिखता है।“

 

१ अक्टूबर २०२३

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