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कला दीर्घा


दक्षिण पूर्व एशिया के रामायण शिलाचित्र
देवेन्द्रनाथ ठाकुर


संसार के जिन महाकाव्यों को सार्वत्रिकता, सार्वकालिकता और गौरव प्राप्त है उनमें रामायण का विशिष्ट स्थान है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से ही एशिया के विभिन्न देशों में रामायण का प्रचार-प्रसार आरंभ हो गया था और उससे प्रभावित होकर अनेक एशियाई भाषाओं में रामकथा पर आधारित उत्कृष्ट मौलिक रचनाओं का सृजन हुआ, जो वर्तमान काल में भी अपने-अपने देश के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक हैं। आदिकाव्य की लोकप्रियता के चश्मदीद गवाह दक्षिण-पूर्व एशिया की शिलाचित्र शृंखलाएँ हैं, जिनमें रामकथा रूपायित हुई है। आश्चर्य की बात तो यह है कि दक्षिण-पूर्व एशिया के शिलाचित्रों में रामकथा की जितनी विस्तृत अभिव्यक्ति हुई है उतनी रामायण की जन्मभूमि भारत में भी दुर्लभ है।

दक्षिण-पूर्व एशिया के रामायण शिलाचित्रों के कालक्रमानुसार इंडोनेशिया स्थित प्रंबनान की शिलाचित्रावली को प्रथम स्थान प्राप्त है, जिसमें सम्पूर्ण रामकथा उत्कीर्ण है। इंडोनेशिया के एक अन्य स्थल पनातरान में एक सौ छह शिलाचित्रों में पवनपुत्र के लंका प्रवेश से कुंभकर्ण-वध तक की कथा है। इंडोनेशिया के अतिरिक्त कंबोडिया के अंकोरवाट, अंकोथॉम आदि स्थलों पर रामकथा के आकर्षक शिलाचित्र हैं। इन शिलाचित्र शृंखलाओं में थाईलैंड का भी महत्वपूर्ण स्थान है, जहाँ राजभवन परिसर के एक बौद्ध विहार में एक सौ बावन संगमरमरी शिलापटों पर रामकथा के चित्र उत्कीर्ण हैं।

इंडोनेशिया-प्रंबनान के रामायण शिलाचित्र

इंडोनेशिया के एक प्रमुख द्वीप जावा के हरे-भरे मनमोहक मैदान के मध्य प्रंबनान का भग्नावशेष है, जिसे लोग चंडी लारा जोंगरांग भी कहते हैं। इस परिसर के मध्य उत्तर से दक्षिण पंक्तिबद्ध तीन मंदिर हैं। शिव मंदिर बीच में है। इसका मध्यवर्ती शिखर एक सौ चालीस फीट ऊँचा है। शिव मंदिर के उत्तर में ब्रह्मा और दक्षिण में विष्णु मंदिर है। कैयलन के अनुसार, शिव मंदिर में बयालीस और ब्रह्मा मंदिर में तीस रामायण शिलाचित्र हैं। विष्णु मंदिर में कृष्ण कथा के शिलाचित्र हैं। इन मंदिरों का निर्माण दक्ष नामक राजकुमार ने नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में करवाया था। शिवालय के शिलाचित्रों में सर्वप्रथम प्रभामंडल से युक्त चतुर्भुज भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की पीठ पर आसीन दृष्टिगत होते हैं। उनके समक्ष दाईं ओर गरुण हाथ में पुष्प लिये इष्टदेव की प्रार्थना में लीन हैं और बाईं ओर पाँच देवता अनुग्रह की आशा में बैठे प्रतीत होते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि देवगण रावण के अत्याचार से मुक्ति हेतु विष्णु से निवेदन कर रहे हैं।

शिलाचित्रों की शृंखला में दूसरे स्थान पर राजा दशरथ के दरबार का दृश्य है, जहाँ रानी के अतिरिक्त उनके चारों पुत्र उपस्थित हैं। इसके आगे दशरथ के दरबार में विश्वामित्र की उपस्थित दर्ज की गई है परवर्ती शिलाचित्रों में ताड़का, सुबाहु और मारीच प्रकरण उत्कीर्ण है। सीता स्वयंवर का दृश्य बड़ा मनमोहक है। राम धनुष ताने खड़े हैं। उनके समक्ष वस्त्राभूषण से सुसज्जित जानकी दो अन्य राजकुमारियों के बीच खड़ी हैं। लक्ष्मण अपने अग्रज की बगल में घुटने टेककर बैठे हैं। विवाहोपरांत अयोध्या वापसी के मार्ग में परशुराम प्रकरण को बहुत रोचक ढंग से प्रदर्शित किया गया है।

इंडोनेशिया प्रंबनान के एक शिलाचित्र में राम मारीचि और स्वर्णमृगअयोध्याकांड की कथा के आरंभिक चित्र में राजा दशरथ राम के राजतिलक के संदर्भ में प्रजाजनों से बात करते दिखाई पड़ते हैं। अगले शिलाचित्र में राम और सीता के ऊपर पवित्र जल छींटा जा रहा है। परवर्ती शिलाचित्र में दशरथ और कौशल्या के संताप को बड़े मार्मिक ढंग से उकेरा गया हैं इसके बाद राम वनवास का दृश्य है। राम, लक्ष्मण और सीता रथ पर आरूढ़ हैं। इस चित्र की पृष्ठभूमि में जंगल, पहाड़ एवं वन्य प्राणियों को प्रदर्शित किया गया है। अगले शिलाचित्र में राजा दशरथ के अंतिम संस्कार का दृश्य है।

दशरथ के स्वर्गारोहण के बाद भरत और शत्रुघ्न घोड़े पर सवार होकर चित्रकूट की ओर जाते दिखाई पड़ते हैं। वे वन के बीच पैदल चलते भी दृष्टिगत होते हैं। शिलाचित्र के अंतिम छोर पर श्रीराम आसन पर विराजमान हैं और भरत झुककर उनकी चरण-पादुका ग्रहण कर रहे हैं। राम के दंडकारण्य गमन-क्रम में विराध-वध और जयंत को दंडित करने के दृश्य हैं। परवर्ती शिलाचित्र में शूर्पणखा राम को रिझाने के लिए उन्हें पुष्प और थैली अर्पित करती हुई दिखाई पड़ती है। इस शिलाचित्र के दूसरे चरण में निराश शूर्पणखा एक वृक्ष के नीचे खड़ी है। रावण के दरबार में शूर्पणखा की उपस्थिति के उपरांत सीता-हरण के संदर्भ में रामाश्रम की शोभा दर्शनीय है। आश्रम के बाहर ब्राह्मण वेशधारी रावण सीता का हाथ पकड़कर खींच रहा है। सीता पूरी शक्ति से मुक्ति का प्रयत्न कर रही हैं। तदुपरांत जटायु रावण के सिर पर चंगुल-प्रहार कर रहा है।

राम के वियोग को बहुत मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है। वे लक्ष्मण के कंधे पर बाँह रखकर बैठे हैं और उनके समक्ष आहत जटायु की चोंच में उनकी मुद्रिका दिखाई पड़ती है। इसके बाद कबंध-बध का दृश्य है, जिसके पेट में एक भयानक मुख है। शबरी मिलन का दृश्य निश्चय ही बहुत विचित्र है। यहाँ राम तालाब के किनारे धनुष ताने खड़े हैं। एक घड़ियाल का बाण-विद्ध सिर जल के बाहर दिखाई पड़ता है। उसके सिर पर एक सुंदरी अंजलि में पुष्प लिये भक्तिभाव से घुटने के बल झुकी हुई है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि इसपर महाभारत का प्रभाव है, किंतु इसका संबंध कालनेमि प्रकरण से भी हो सकता है। शिलाचित्रों की इस शृंखला में सुग्रीव-मिलन का दृश्य दक्षिण-पूर्व एशिया की रामकथाओं पर आधारित है। सीता की खोज के क्रम में प्यासे राम के लिए लक्ष्मण तरकस में जल भरकर लाते हैं, जो आँसुओं की तरह खारा है। जल के स्त्रोत तलाशने पर सुग्रीव से राम की भेंट होती है, जो एक वृक्ष पर बैठा है और उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही है।

राम की बल-परीक्षा के दृश्य में भी विचित्रता है। साँप की पीठ पर नारियल के सात वृक्ष पंक्तिबद्ध खड़े हैं। राम अपने बाण से उसे बेधते हुए दृष्टिगत होते हैं। बालि-सुग्रीव युद्ध के दृश्य में राम पेड़ की ओट से बालि पर बाण-प्रहार करते हैं। सुग्रीव के राज्यारोहण का दृश्य अत्यधिक उल्लासपूर्ण और मनोरंजक है। इस शृंखला में एक विचित्रता यह भी है कि राम और लक्ष्मण एक सुसज्जित गृह में सुग्रीव के साथ बैठे हैं। अगले दृश्य में राम कमल पुष्प से आच्छादित एक सरोवर के तट पर बंदरों की सभा में उपस्थित हैं। यह संपूर्ण दृश्य इतना जीवंत है कि भाव-भंगिमा से ही सबकुछ स्पष्ट हो जाता है। ऐसा लगता है कि वानरों की सभा में सीता की खोज पर विचार हो रहा है।

सीतान्वेषण क्रम में पवनपुत्र के प्रयाण तथा उनके द्वारा समुद्र लाँघने का प्रसंग यहाँ उत्कीर्ण नहीं है, किंतु अशोक वाटिका में उनकी उपस्थिति बहुत मनोरंजक ढंग से दर्ज की गई है। लंका-दहन और हनुमान की वापसी यात्रा भी उनके लंकाभियान की तरह संक्षिप्त है। वे देवी सीता की चूड़ामणि के साथ श्रीराम के समक्ष उपस्थित होते हैं। श्रीराम के लंकाभियान क्रम में सागर शरणागति और सेतु निर्माण के दृश्य बहुत जीवंत हैं। सेतु निर्माण में मछलियों द्वारा बाधा उत्पन्न करने का दृश्य है, जिसकी दक्षिण-पूर्व एशिया की रामायणों में विस्तार से चर्चा हुई है। शिवालय के अंतिम शिलाचित्र में वानरी सेना के लंका पहुँचने का दृश्य अंकित है।

ब्रह्मा मंदिर के शिलाचित्रों में उत्कीर्ण रामकथा लंका के सैन्य शिविर में आयोजित सभा से आरंभ होती है। इसके आगे विभीषण शरणागति का दृश्य है। अंगद के दूतत्व के संदर्भ में दानवराज के आदेश से उसके कान काटने का वृत्तांत है, जिसके परिणामस्वरूप युद्ध आरंभ हो जाता है। राम-रावण युद्ध का वर्णन परंपरागत, किंतु जीवंत है। इसके अंतर्गत नागपाश प्रसंग और कुंभकर्ण के जगाने के दृश्य अत्यधिक आकर्षक हैं। युद्ध के अंत में मंदोदरी के विलाप का बड़ा मार्मिक चित्रण हुआ है। दानवराज की मृत्यु के बाद विभीषण का राज्यारोहण, राम-सीता का पुनर्मिलन, उनकी अयोध्या वापसी और राम राज्याभिषेक के चित्र हैं।

सीता के निर्वासन क्रम में लव-कुश प्रकरण के उपरांत सीता के महाप्रस्थान का दृश्य उत्कीर्ण है। लव-कुश के अयोध्या गमन, वाल्मीकि की उपस्थिति में उनका रामायण गान और उनके राज्यारोहण के साथ प्रंबनान के शिलाचित्रों की शृंखला में रूपायित रामकथा समाप्त हो जाती है। इस शृंखला के शिलाचित्र हिंदू-जवानी शैली में उत्कीर्ण हैं।

पनातरान के शिलाचित्रों की रामकथा

प्रंबनान के शिलाचित्रों की स्थापना के चार सौ वर्ष बाद जावा द्वीप के ही चंडी पनातरान में पुनः एक विशाल शिवालय के शिलाचित्रों में रामकथा रूपायित हुई। इसका निर्माण कार्य मजपहित वंश के राजकुमार हयमबुरुक की माता महारानी जयविष्णु वद्धिनी के राजत्व काल में १३४७ ई. में पूरा हुआ था। पनातरान के एक सौ छह शिलाचित्रों में मुख्य रूप से पवनपुत्र के पराक्रम को प्रदर्शित किया गया है।

पनातरान के प्रथम शिलाचित्र में पवनपुत्र हनुमान सर्प का उपवीत धारण किए खड़े हैं। उनका मुकुट शुद्ध जावानी शैली का है। अगले शिलाचित्र में रावण अपनी दो रानियों के साथ सोया हुआ है। इसी क्रम में रावण के कोषागार का भी चित्रण हुआ है। अशोक वाटिका के दृश्य में हनुमान वृक्ष के ऊपर बैठे हैं और रावण सीता के समक्ष तलवार लिये खड़ा है। परवर्ती शिलाचित्र में सीता के हाथ में राम की अँगूठी है और हनुमान उनके समक्ष हाथ जोड़कर बैठे हैं।

अशोक वन विध्वंस का यहाँ विस्तार से चित्रण हुआ है। आक्रमण-प्रत्याक्रमण में अनेक दानव मरे पड़े हैं। हनुमान मृत दानवों के ढेर पर खड़े हैं। वाटिका के वृक्ष उखड़े हुए हैं। डालें टूटकर लटकी हुई हैं। लंका-दहन के दृश्य को भी बहुत कलात्मक ढंग से उकेरा गया है। महल की छत पर खड़े हनुमान की पूँछ से आग की लपटें उठ रही हैं। अनेक दानव भाग रहे हैं। कुछ पीछे मुड़कर अग्नि की भयावहता को देख रहे हैं रावण हाथ में तलवार लिये रानियों के साथ महल से पलायन करता दृष्टिगत होता है। एक दानवी जमीन पर गिरी हुई और एक ठिगना राक्षस आगे-आगे भाग रहा है। इस दृश्य के अंत में हनुमान दो आकाशगामी राक्षसों का पीछा करते दिखाई पड़ते हैं। यहाँ दोनों राक्षसों का बड़ा कलात्मक चित्रण हुआ है।

राम-रावण युद्ध का एक दृश्यदेवी सीता से मिलने के बाद हनुमान आकाश मार्ग से समुद्र पार कर उस स्थल पर पहुँचते हैं जहाँ जामवंत, अंगदादि वीर उनकी प्रतीक्षा में खड़े हैं। किष्किंधा पहुँचने पर वे वृक्ष के नीचे बैठे श्रीराम से मिलते हैं सीता का संदेश मिलते ही राम की लंका यात्रा आरंभ हो जाती हें श्रीराम के लंकाभियान और सेतु निर्माण के दृश्य बहुत मनोरंजक हैं। लंका पहुँचने पर राम और लक्ष्मण बंदरों के साथ भोजन करते हैं। भोज्य पदार्थ में विभिन्न प्रकार के फल भी परोसे गए हैं।

रावण के दरबार में संभावित युद्ध पर विचार हो रहा है। रावण आसन पर बैठा है और अस्त्र-शस्त्र धारे अनेक दानववीर दाँत किटकिटा रहे हैं। उनके बीच एक दाढ़ीवाला दानव भी है। इस सभा के बाद आसुरी सेना युद्ध क्षेत्र की ओर प्रस्थान करती है। दानवदल में अनेक दानव बिलकुल नंगे हैं। शिलाचित्रों की इस शृंखला में राम-रावण युद्ध का विस्तार से चित्रण हुआ है। कुछ वानर दानवों के कंधों पर चढ़ कर उन्हें नोच रहे हैं। कहीं दानवों के द्वारा बंदरों के भक्षण के दृश्य हैं। युद्ध के अंत का दृश्य अत्यंत भयावह है, जिसमें लक्ष्मण के बाण से कुंभकर्ण मारा जाता है और इसी के साथ पनातरान की रामायण चित्रावली समाप्त हो जाती है। पनातरान के शिलाचित्र पूरी तरह जावानी शैली में उत्कीर्ण हैं।

इंडोनेशिया के अन्य रामायण शिलाचित्र

प्रंबनान और पनातरान की विस्तृत शिलाचित्र शृंखलाओं के अतिरिक्त जावा द्वीप में अन्य कई स्थलों पर भी शिलापटों पर रामकथा के कुछ प्रसंगों का चित्रण हुआ है। पूर्वी जावा के जलतुंड में एक रामायण शिलाचित्र है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह कैकय नरेश युद्धजित् का संदेशवाहक अंगिरापुत्र गार्ग्य के अयोध्या गमन से संबद्ध है। इस शिलाचित्र में राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के साथ हनुमान, अंगद, सुग्रीव और गार्ग्य की उपस्थिति दर्ज की गई है।

पूर्वी जावा में ही छह अन्य रामायण शिलाचित्र हैं, जिनकी तिथि सोलहवीं शताब्दी के आस-पास आँकी जाती है। इनमें से एक में सीता हरण का दृश्य उकेरा गया है। यहाँ का वाहन एक राक्षस है जो कोहनियाँ टेककर उड़ने को उद्यत है। इसके ऊपर एक व्याघ्रमुखी दानव सीता को दृढ़ता से पकड़े हुए है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बाल्मीकि रामायण के किष्किंधाकांड में जावा का उल्लेख हुआ है। जावा में रामायण शिलाचित्रों की बहुलता आदिकवि के कथन की प्रासंगिकता को रेखांकित करती है।

कंबोडिया के रामायण शिलाचित्र

रामकथा को उजागर करनेवाले शिलाचित्रों का सिलसिला दक्षिण-पूर्व एशिया के कई अन्य देशों में भी देखने को मिलता है। भारतीय संस्कृति के गढ़ कंबोडिया स्थित अंकोरवाट के विश्व प्रसिद्ध विशाल मंदिर के गलियारे में स्थापित शिलाचित्रों में रामकथा का संक्षिप्त, किंतु महत्वपूर्ण विवरण प्राप्त होता है। एक किलोमीटर लंबे और आठ सौ मीटर चौड़े अहाते में निर्मित पाँच गुंबजों वाले इस अद्वितीय मंदिर को शिलालेखों में परम विष्णुलोक कहा गया है। इसका निर्माण सम्राट सूर्यववर्मन द्वितीय (१११२-५३ ई.) के राजत्वकाल में हुआ था।

अंकोरवाट के शिलाचित्रों के रूपायित रामकथा का आरंभ रावण के विनाश हेतु देवताओं द्वारा की गई विष्णु आराधना से होता है, किंतु इसके उपरांत यहाँ सीता स्वयंवर का ही दृश्य देखने को मिलता है। बालकांड की इन दो प्रमुख घटनाओं की प्रस्तुति के पश्चात् विराध एवं कबंध-बध का चित्रण हुआ है। इसके बाद श्रीराम धनुष-बाण लिये स्वर्णमृग के पीछे दौड़ते हुए दृष्टिगत होते हैं। तदुपरांत राम-सुग्रीव मैत्री और बालि-सुग्रीव के द्वंद्वयुद्ध के चित्र हैं। परवर्ती शिलाचित्रों में अशोक वाटिका में हनुमान की उपस्थिति, राम-रावण युद्ध, सीता की अग्निपरीक्षा और राम की अयोध्या वापसी को दरशाया गया है। अंकोरवाट के शिलाचित्रों का महत्व इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि इसकी प्रस्तुति वाल्मीकि रामायण के अनुरूप हुई है।

कंबोडिया के अंकोरथॉम में यशोवर्मन ८८९-९१० ई. द्वारा स्थापित वेयोन मंदिर में रामकथा के चार शिलाचित्र हैं। प्रथम शिलाचित्र में देवगण विष्णु की प्रार्थना करते दृष्टिगत होते हैं। तदुपरांत राम और लक्ष्मण विश्वामित्र के यज्ञ रक्षार्थ सुबाहु, मारीचादि दानवों से युद्धरत प्रतीत होते हैं। अन्य दो शिलाचित्रों में धनुर्भंग और जानकी परिणय के अतिरिक्त रावण द्वारा कैलास पर्वत के उखाड़ने का दृश्य है।

अंकोरवाट से इक्कीस किलोमीटर उत्तर-पूर्व स्थित वांतेस्त्रेई में पुनः रावण द्वारा कैलास पर्वत के उठाने का दृश्य है। अंकोथॉम के वाफुआन मंदिर के गोपुरों पर अशोक वाटिका में सीता, नागपाश प्रकरण और अग्निपरीक्षा के शिलाचित्र हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ राम-सुग्रीव मिलन, बालि-सुग्रीव युद्ध और सीता द्वारा हनुमान को चूड़ामणि प्रदान करने के दृश्य हैं। यहाँ राम-रावण युद्ध और हनुमान के पराक्रम को भी प्रदर्शित किया गया है।

थाईलैंड की रामकथा शिलाचित्रावली

रामकथा के शिलाचित्रों की शृंखला में थाईलैंड का भी महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ भी कई स्थलों पर रामायण शिलाचित्र हैं। थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक के राजभवन परिसर के दक्षिणी किनारे स्थित वाट-पो या जोतुवन बौद्ध विहार में रामकथा के एक सौ बावन शिलाचित्र हैं। इनका चित्रण संभवतः अठारहवीं शताब्दी में हुआ था। इन शिलाचित्रों में उत्कीर्ण रामकथा थाई रामायण ‘रामकियेन’ पर आधारित है। इस शृंखला की कथा सीता-हरण से शुरू होती है और हनुमान द्वारा सहस देज (सहस्त्र तेज) बध के साथ समाप्त हो जाती है। इनमें कुछ चित्र यदि हास्य रस से परिपूर्ण हैं तो कुछ उत्कृष्ट शिल्पकारी के नमूने।

जे. एम. कैडेट की पुस्तक ‘रामकियेन’ मुख्यतः ‘वाटपो’ के शिलाचित्रों पर आधारित है या जिसमें चित्रों के साथ उसकी व्याख्या भी है। इसे ग्रंथ में पूरी चित्र शृंखला को नौ खंडों में विभाजित किया गया है-(१) सीता हरण, (२) हनुमान की लंका यात्रा, (३) लंका दहन, (४) विभीषण निष्कासन, (५) छद्म सीता प्रकरण, (6) सेतु निर्माण, (७) लंका सर्वेक्षण, (८) कुंभकर्ण और इंद्रजित् वध और (९) अंतिम युद्ध।

थाईलैंड के शिलाचित्रों में रूपायित रामकथा में कुछ विचित्रताएँ हैं। छद्म सीता प्रकरण के आठ शिलाचित्रों में विभीषण-पुत्री बेंजकाया की भूमिका प्रदर्शित की गई है। इसमें सर्वप्रथम रावण बेंजकाया को सीता का छद्म रूप धारण करने का आदेश देता है। बेंजकाया रथ पर आरूढ़ होकर सीता के पास जाती है। वह सीता के रूप का निरीक्षण करती है और वहाँ से लौटने पर मृत सीता का स्वाँग रचाती है। छद्म सीता को यह मृतावस्था में देखकर राम विचलित हो जाते हैं। वे उसके सिर को गोद में रखकर विलाप करने लगते हैं किंतु जब उसके शरीर को चिता पर रखकर अग्नि प्रज्वलित की जाती है, तब वह उठकर भाग चलती है। हनुमान उसे पकड़ लेते हैं सुग्रीव उससे पूछताछ करता है। अंत में राम के आदेश से उसे छोड़ दिया जाता है।

रामकियेन में एक-से-एक विचित्र और अनूठी कथाएँ हैं। लंका युद्ध के पूर्व माया वाटिका का वर्णन हुआ है। लंका सर्वेक्षण खंड में इस प्रसंग को चित्रित किया गया है। प्रर्कोतन के नेतृत्व में हनुमान माया वाटिका का निरीक्षण करते हैं इसी क्रम में पनुतरन दानव मिलता है, जिसका सिर पवनपुत्र द्वारा खंडित कर दिया जाता है। इस घटना के बाद अंगद रावण के पास जाता है, जहाँ चार राक्षस उसे पकड़ लेते हैं। अंगद राजभवन का द्वार तोड़कर लौट जाता है। तत्पश्चात् रावण का भतीजा पाताल लोक जाता है। जहाँ उसकी भेंट मयरव (महिरावण) से होती है। महिरावण अपने रथ का भंजन कर ऐंद्रजालिक अनुष्ठान करता है। अनुष्ठान समाप्ति के बाद वह हनुमान के मुख में प्रवेश करता है और राम का अपहरण कर पाताल लौट जाता है। राम को तलाशने के क्रम में मच्छन्नु के संकेत पर हनुमान पिरुअन के सहयोग से राम के पास पहुँचते हैं। वे महिरावण का वध कर उसके खंडित सिर और राम के साथ लंका लौट जाते हैं।

‘रामकियेन’ की कथा के अनुसार राम स्वप्न देखते हैं कि सूर्य अचानक गायब हो गया है और उनके पाँव पाताल में घँस गए हैं। भविष्यद्रष्टा विभीषण स्वप्न का विश्लेषण करने के बाद कहता है कि श्रीराम पर कोई गंभीर संकट आ सकता है; किंतु प्रातःकाल तक उसका निवारण भी हो जाएगा। अनिष्ट की आशंका से हनुमान अपने मुख का विस्तार कर संपूर्ण शिविर को उसके अंदर छिपा लेते हैं।

वाट-पो के शिलाचित्रों में रूपायित ‘युद्धकांड’ की कथा थाईलैंड में अत्यधिक लोकप्रिय है; क्योंकि थाईवासी परंपरागत युद्धकला में माहिर होते हैं। शिलाचित्रों की इस विशाल शृंखलाओं के अतिरिक्त थाईलैंड में अन्य अनेक रामायण शिलाचित्र यत्र-तत्र उपलब्ध हैं। पीमाई स्थित एक मंदिर में राम-रावण युद्ध का चित्र है। उसी मंदिर के एक दरवाजे के ऊपर नागपाश प्रसंग उकेरा गया है। बैंकॉक में सम्राट् प्राग नारई द्वारा लाख निर्मित प्राचीर के निचले भाग में राम की अयोध्या वापसी से भरत-शत्रुघ्न द्वारा दानवों के नाश तक की कथा का चित्रण हुआ है।

अंततः यहाँ एक तथ्य उल्लेखनीय है कि भारत में वैष्णव-शैव विचारधाराओं के समन्वय की परंपरा यदि मध्यकाल में आरंभ होती है तो दक्षिण-पूर्व एशिया में यह प्रवृत्ति प्रंबनान के शिवालय के शिलाचित्रों में ही देखने को मिल जाती है, जिसकी तिथि नौवीं शताब्दी है। पुनः इसकी संपुष्टि पनातरान के शिवालय के रामायण शिलाचित्रों से भी होती है। एशिया के इस क्षेत्र की एक और विशिष्टता है कि यहाँ वैष्णव एवं शैव के साथ बौद्ध आस्था का भी समन्वय हुआ है। अतः वैष्णव, शैव और बौद्ध विश्वासों के त्रिकोण पर स्थापित दक्षिण-पूर्व एशिया के रामायण शिलाचित्र भाव विचार और शिल्प के अनूठेपन को रेखांकित करते हैं।

२२ अप्रैल २०१३

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