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रंगमंच

हिंदी नाटकों में परिवार
-रवींद्र त्रिपाठी

जब सातवें दशक में मोहन राकेश ने 'आधे अधूरे' लिखा था तब उत्तर भारत का, खासकर दिल्ली का पंजाबी मध्यवर्ग नई सामाजिक वास्तविकताओं के प्रति मुखर होना सीख रहा था। ये वो दौर था जब भारत में पहली बार स्त्री-पुरुष के पारंपारिक संबंधों के बीच दरार पैदा हो रही थी। चूँकि यह दरार का शैशवकाल था इसलिए संस्कारित भारतीयों में से बहुतों को यह सारा कुछ बेमानी भी लगता था।

कई साहित्यकार और बुद्धिजीवी मानते थे कि स्त्री-पुरुष संबंधों के बीच तनाव की जिस कहानी को लेकर 'नई कहानी' के कथाकार आए हैं वह खयाली ज़्यादा है वास्तविक कम। 'आधे अधूरे' भी दरअसल उस दौर की लिखी जा रही कहानियों का ही विस्तार था इसलिए उसपर भी यह आरोप लगा कि सावित्री और महेंद्रनाथ जैसे व्यक्तित्व या चरित्र भारतीय समाज में अपवाद हो सकते हैं नियम नहीं। भारतीय विवाह संस्था और परिवार पर विश्वास कायम था। यह बात सोचना बेमानी लगती थी कि ये दोनों संस्थाएँ अंदर ही अंदर दरक रही हैं।

लेकिन आज ये दावे के साथ कोई नहीं कह सकता कि अक्षुण्ण समझी जाने वाली इकाई परिवार पहले की तरह मज़बूत है। कम से कम महानगरों में मध्यवर्गीय परिवार उस तरह से मज़बूत नहीं रह गया है जिस तरह पहले था। 'आधे अधूरे' अब पूरी सच्चाई की तरफ़ बढ़ रहा है। इसका अहसास महेंद्र भल्ला द्वारा लिखे और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल द्वारा खेले गए नाटक 'उस चीज़ के ऐन आमने-सामने' देखने के बाद फिर से हुआ। हालाँकि रंगमंडल द्वारा ही कुछ साल पहले खेले गए उनके नाटक 'दिमागे हस्ती-दिल की बस्ती है कहाँ है कहाँ' में भी भारतीय परिवार के टूटने और बिखराव को दिखाया गया था (या है) लेकिन 'उस चीज़ के ऐन आमने-सामने' में यह समस्या ज़्यादा मुखर है। 'दिमागे हस्ती दिल की बस्ती है कहाँ है कहाँ' में भारतीय परिवार के ऊपर पड़ते उस दबाव को रेखांकित किया गया था जिसमें नई पीढ़ी पश्चिम या अमेरिका की तरफ़ आकर्षित होकर वहाँ रह रही हैं या बसने को उत्सुक हैं। वहाँ रहते-रहते उसके जीवन मूल्य बदल गए हैं जिनका पारंपारिक भारतीय मूल्यों से टकराव है।

लेकिन 'उस चीज़ के ऐन आमने-सामने' में भल्ला समस्या को ठेठ स्थानीय संदर्भ में दिखाते हैं। 'सुप्रिया बत्रा' नाम की जिस लड़की के इर्द-गिर्द यह नाटक घूमता है वह एक जवान मगर स्वतंत्रचेता लड़की है। वह शादी करना चाहती है लेकिन चयन की स्वतंत्रता का भी इस्तेमाल करना चाहती है। जिस लड़के से वह शादी करना चाहती है उसे पहले से ठोक बजाकर देख लेना चाहती है कि वह उसकी मानसिक व भावनात्मक ज़रूरतों को भी पूरी कर पाने को उत्सुक है या नहीं। लेकिन चयन की स्वतंत्रता उसकी ज़िंदगी को लगातार कठिन बनाती चलती है। वे तमाम लड़के जो उससे शादी के लिए प्रस्ताव लेकर उसके घर आते हैं या उससे मिलते हैं। उसकी कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। आखिरकार जिस लड़के से वो शादी करती है वह भी अच्छा पति साबित नहीं होता। दोनों की शादी टूट जाती है। सुप्रिया बत्रा अपनी टूटी शादी और बच्चे के लिए अपने पिता के घर लौट आती है। यही नहीं उसकी छोटी बहन नीना भी अपने पति के घर को छोड़कर अपने पिता के घर लौट आती है। हालाँकि सुप्रिया और नीना के माता-पिता के संबंध आपस में मधुर नहीं हैं। वे भी लगातार आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं।

हालाँकि महेंद्र भल्ला भी सातवें दशक में उभरे कथाकार हैं और उनके लेखन में नई कहानी के तत्व मौजूद हैं लेकिन ये भी नहीं कहा जा सकता कि उनका यह नाटक या इसका कथ्य नई कहानी के दौर का ही है। हालाँकि उसकी अनुगूँज को अनदेखा नहीं किया जा सकता। दरअसल जो समस्या छठे और सातवें दशक में पैदा हुई थी वह आज वयस्क और जवान हो गई है। कई चीज़ें हैं जो एक ही साथ हुई हैं। जैसे शिक्षा और आर्थिक विकास के प्रसार के कारण औरत की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। उसे शहरों में आर्थिक आज़ादी मिली है, अगर वह नौकरीपेशा है तो। विचारों और विचारधाराओं से उसका रिश्ता बना है जिसके कारण वह स्वतंत्रचेता हुई है। लेकिन सामाजिक बनावट में ज़्यादा तबदीली नहीं हुई है। पुरुष का दिमाग जिस ढंग और दिशा में बदलना चाहिए था वह नहीं हुआ है। इस वजह से दोनों की टकराहटें बढ़ी हैं। लेकिन स्त्री के सामने पहले नियति के सामने झुक जाने की जो अनिवार्यता थी वह अब नहीं है। पर इसी प्रक्रिया में वह भी हुआ है कि उसे अपनी चयन की स्वतंत्रता की कीमत चुकानी पड़ी है। सुप्रिया बत्रा भी नाटक के आखिर में अकेली हो जाती है। वह इस बात की कीमत चुकाती है कि उसने परिस्थितियों से समझौता नहीं किया। सामाजिक और आर्थिक विकास की एक प्रक्रिया ने उसे बहुत कुछ ऐसा दिया जो आज से पचास साल पहले की भारतीय औरत के नसीब में नहीं था। लेकिन इतना मिलने पर भी उसे आखिर क्या मिला? अकेलापन?

जैसा कि इस नाटक के निर्देशक देवेंद्र राज अंकुर ने लिखा है और खतरा इस बात काहै कि इस नाटक के आलेख को मोहन राकेश, सुरेंद्र वर्मा, रमेश बक्षी या लक्ष्मी नारायण लाल के असर से लिखा बताया जा सकता है। बल्कि हिंदी में जिस तरह का माहौल है उसमें इसी तरह की टिप्पणियों की अपेक्षा की जा सकती है। लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि भारतीय परिवार पर पड़ रहा दबाव एक निरंतर प्रक्रिया है। दुहराए जाने का खतरा लेकर भी यह बार-बार कहा जाना चाहिए कि आधुनिकता, उद्योगीकरण और अब नव उदारवादी आर्थिक दौर में भारतीय परिवार पर पड़ने वाला दबाव पहले से ज़्यादा तीव्रतर हुआ है। ऊपर उल्लिखित जिन लेखकों, नाटककारों ने अपने समय में जिस बात को महसूस किया था आज उसकी भंगिमाएँ ज़रूर बदल गई हों पर वास्तविकता नहीं बदली हैं। बदली भी हैं तो इस अर्थ में कि वे पहले की अपेक्षा विकराल हुई हैं। यह समस्या अब सिर्फ़ 'चिख-चिख' तक सीमित नहीं है बल्कि उसकी चौहद्दी बढ़ चुकी है। 'आधे अधूरे' में सावित्री और महेंद्रनाथ के बीच तमाम झगड़ों के बावजूद दोनों अलग नहीं होते। महेंद्रनाथ अंततः लौट आता है सावित्री के पास। लेकिन आज के नाटककार के सामने इस तरह का सुखद परिदृश्य नहीं है। यहाँ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इतिहास में किसी सामाजिक बदलाव का दौर पाँच-दस-बीस साल का नहीं होता, बल्कि वह एक लंबी प्रक्रिया में चलती रहने वाली चीज़ है। अगर ऐसा न होता तो यथार्थवाद कब का मर चुका होता।

अब ज़रा प्रस्तुति की ओर लौंटें तो सबसे ख़ास बात जो इस नाटक की है वह है इसकी कसावट कहीं धीमी या ढीली नहीं होती। और ऐसा संभवतः इसलिए हुआ है कि चरित्रों पर निर्देशकीय पकड़ अच्छी है। अखबार की भाषा में जिसे सबिंग या संपादन कहा जाता है, वह चुस्त है। किसी भी अभिनेता या अभिनेत्री ने कोई अनावश्यक ड्रामा नहीं किया है। इस कारण नाटक क्षिप्रता से आगे बढ़ता है। लेकिन जिस एक और चीज़ को यहाँ रेखांकित किया जाना चाहिए वह है इसकी मंच व प्रकाश परिकल्पना। मंच पर अनावश्यक चीज़ें नहीं हैं। सुप्रिया बत्रा की भूमिका में राज शर्मा तो असरदार हैं ही लेकिन जो चरित्र अभिनय की दृष्टि से प्रभावित करते हैं वे हैं सुप्रिया और नीना की माँ की भूमिका में नसरीन इसहाक और पिता की भूमिका में निर्मल कांत चौधरी। नसरीन और चौधरी की भूमिका को देखकर या उनके अभिनय के बेहतरीन होने के कारण नाटक देखते समय कई बार ये अहसास होता है कि कहीं इसके मुख्य किरदार यही दोनों तो नहीं। लेकिन यह ऐसा लगना तात्कालिक होता है। जब आप तात्कालिकता के असर से मुक्त होकर और इनके बेहतरीन अनुभव की थोड़ी देर के लिए भूलकर (और ऐसा करना कई बार ज़रूरी होता है।) ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझेंगे तो आप यह महसूस कर सकते हैं कि विवाह का बेमेलपन तो शायद तब से है जब से ये संस्था बनी। तब भी स्त्री और पुरुष के झगड़े होते थे। लेकिन ये सार्वजनिक बहस के मुद्दे नहीं होते थे। और वह इसलिए कि औरत के पास आज़ादी नहीं थीं। आज जब उसे आज़ादी मिली है, उसके सामने विकल्प की खिड़की खुली है (दरवाज़ा भले न खुला हो) तो अपने हक के प्रति गंभीर हो गई है। इसी से झगड़ा बढ़ रहा है। बहस तेज़ हो रही है। यह आज की समस्या का, या कहें कि सनातन समस्या के मौजूदा पहलू का विशेष पक्ष है।

इसलिए बेशक नसरीन इसहाक और निर्मल कांत चौधरी ने जिन किरदारों को जिया हो वो आज की किसी कहानी के मुख्य पात्र न बन पाएँ, लेकिन वही किरदार वेशभूषा बदलकर, भाषा बदलकर, भंगिमा बदलकर नए-नए रूप में हमारे सामने आते हैं। वही 'आधे अधूरे' में सावित्री और महेंद्र नाथ हैं, सुरेंद्र वर्मा के 'कैद ए हयात' में गालिब और उसकी बेगम, रमेश बक्शी के 'देवयानी का कहना है' में तिवारी जी और तिवराइन जी. यानी वक्त बदला। लोग बदले। लेकिन समस्या नहीं बदली। उसके नए-नए रूप ज़रूर बने।

लेकिन सवाल ये भी है कि क्या एक लेखक को कहीं एक बिंदु पर रुक जाना चाहिए। महेंद्र भल्ला ने अपने उपन्यासों- 'दूसरी तरफ़', 'उड़ने से पेश्तर', आदि में पश्चिम और पूर्व के टकरावों को एक नए अंदाज़ में रखा था। उनके अभी तक के नाटक की संवेदना 'नई कहानी' के दौर की है। यह अपने में कोई कमी नहीं है। लेकिन हर लेखक से यह भी अपेक्षा की जाती है कि कई संसारों की सैर कराए। शायद उनके अगले नाटकों से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि उसमें 'नई कहानी' नहीं बल्कि सचमुच की नई कहानी लेकर आएँगे। एक बार फिर से यह कहते हुए कि उनके दोनों नाटक एक मुक्कमल अनुभव को सामने लाते हैं, यह माँग तो उनसे की ही जानी चाहिए कि कुछ ऐसा भी दिखाइए जिससे लगे कि आप जो उपन्यासों में कर सकते हैं वह नाटक में भी कर सकते हैं।

२२ सितंबर २००८

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