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सामयिकी


 ओबामा की भारत यात्रा :
कूटनीतिक कुशलता का कदम
- नितिन मिश्रा


भारतीय जनता पार्टी अपनी ऐतिहासिक जीत का जश्र मना रही है और कांग्रेस और उसके खेमे के कई ऐसे बड़े दल जो खुद को सत्ता की चाबी समझते थे पूरी तरह साफ हो चुके हैं-सत्ता दूर हो चुुकी है और सत्ता की चाबी बनने का ख्वाब टूट चुका है। भाजपा को भी शायद इस सफलता का अंदाज नहीं था, इसलिए एक सवाल बडा प्रासंगिक है कि यह जीत किसकी है? इसीके समानान्तर यह सवाल भी उतना ही प्रासंगिक है कि यह किसकी हार है? क्या यह सिर्फ भाजपा और उसके सहयोगियों की जीत है या यह सिर्फ कांग्रेस और उसके सहयोगियों की हार है?

दरअसल जीत और हार के ये समीकरण उतने सरल नहीं हैं जितने दिखाई देते हैं, ये थोड़े से ज्यादा विश्लेषण और ज्यादा सोच का तकाजा रखते हैं और यहीं से यह बात बता चलती है कि यह जीत भाजपा की अकेली जीत नहीं है और कांग्रेस की अकेली हार नहीं है।

यह जीत भारतीय जनता की उन उम्मीदों की जीत है जिनमें सुकून के दो पल, जिनमें महंगाई से राहत, आत्माभिमान सम्पन्न देश का गौरव, भ्रष्टाचार के दंश से मुक्ति और सबसे ज्यादा उसे जानवर समझ लेने वाले नेताओं का वजूद खत्म कर देने की चाह शामिल है। भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में इन उम्मीदों को परवान चढाया, इन उम्मीदों को पंख दिए और ऐसी कोई बात करीब-करीब नहीं की जो उसे दकियानूसी पार्टी के नजरिये से देखे जाने के आदी लोगों को ताली बजाने का मौका दे।

इस देश की आजादी के बाद से करीब साठ साल तक राज करने वाली कांग्रेस और उसके इकलौते वारिस गांधी परिवार के पास विकास को लेकर अतीत के भ्रामक महिमागान के अलावा कुछ नहीं था, भविष्य की सस्ती लोकप्रियता वाली फौरी योजनाओं के अलावा ऐसा कुछ नहीं था जिसमें एक उज्जवल भारत की शानदार तस्वीर के लिए कोई जगह हो। कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी पर हमेशा सांप्रदायिक होने का आरोप लगाती रही और अपनी समझ में मुसलमानों को डराने के लिए उसे एक भूत की तरह प्रस्तुत करती रही। भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेद्र मोदी इस मामले में पिछले एक दशक से ज्यादा समय से संगीन आरोपों से घिरे हुए हैं, इसके बावजूद मोदी ने अपने भाषणों में एक नए भारत का चित्र उकेरा-एक ऐसे भारत का चित्र जिसमें देश के आम आदमी के लिए विकास की अपार संभावनाओं के आकर्षक रंग थे, जिसमें देश को बदलते वक्त के साथ आगे ले जाने के उपाय थे, जिसमें देश को दुनिया के किसी भी देश के सामने गौरव के साथ खड़ा होने के जतन थे, जिसमें एक चिंता थी और एक त्वरा भी। यह बात उल्लेखनीय थी लेकिन एकाध चर्चा के अलावा किसी ने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि मोदी ने अपने भाषण में जो उम्मीदें जगाईं वे कभी अटल बिहारी वाजपेयी भी नहीं जगा सके, न ही किसी और पार्टी का कोई और नेता, इंदिरा गांधी भी नहीं। मोदी ने यदि यह कहा कि वे चाहते हैं कि भारत में रेलवे की अपनी यूनिवर्सिटी हो, स्वर्ण चतुष्टय की तरह पूरे भारत में बुलेट ट्रेन का वर्तुल बनाया जाए तो ऐसी और ऐसी अन्य अनेकों योजनाओं-सपनों की बातें और उनका दमदार उल्लेख क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

मोदी ने एक और काम ऐसा किया जिससे उनकी गरिमा बढी, एक तरफ कांग्रेस के तमाम नेता मोदी के बारे में जहर उगलते रहे तो दूसरी ओर कुछेक अपवादों को छोड़कर मोदी लोगोंं तक अपनी बात पहुंचाने-समझाने की कोशिश में लगे रहे मोदी की तरफ से ऐसा एक भी घटिया बयान नहीं आया जैसा कांग्रेस के सभ्य नेताओं की नुमांइदगी करने वाले एलीट क्लास के सलमान खुर्शीद और बेनी प्रसाद वर्मा जैसे नेताओं की ओर से आए।

राहुल गांधी अपनी सभाओं में कहते रहे कि गुजरात की सरकार ने टॉफी के दाम पर उद्योगपति अडानी को जमीन दी दूसरी तरफ उनकी ही यूपीए सरकार ने माना कि गुजरात सरकार की भू नीति देश में सबसे बढिय़ा है। राहुल की बहन प्रियंका ने तो यहां तक कहा कि मोदी आरोप लगाने की बजाय देश के विकास के बारे में अपने विचार रखें-यह बयान हास्यास्पद था क्योंकि मोदी अपनी हर सभाओं में यही कर रहे थे। अंतत: इसी तरह के बयान और आधारहीन भ्रामक आरोप, भ्रामक बातें कहीं न कहीं लोगों में एक तरह का गुस्सा पैदा करती रहीं, उन्हें कहीं न कहीं यह सब अपनी उन आकांक्षाओं पर आघात भी लगा जिनके पूरा होने की अभिलाषा उनके मन में मोदी की जीत से जुडकर पल रही थी। इसलिए यह जीत सिर्फ भाजपा या उसके सहयोगी दलों की जीत नहीं है यह उस बहुसंख्य जनता की जीत है जो उम्मीदों पर जीती है और जिसने इस बार अपनी उम्मीदें भाजपा -विशेषकर मोदी के साथ जोड़कर रखी थीं।

इसी तरह यह हार कांग्रेस की अकेले हार नहीं है, यह हार बडबोलेपन की हार है, यह हार उलटा चोर कोतवाल को डांटे जैसे मुहावरे रचनेवाले जबर लोगों, जबर नेताओं और जबर पार्टी की हार है। यह देखा जाना चाहिए कि यूपीए सरकार के दस साल के राज में महंगाई किस तरह जानलेवा हो गई, किस तरह भ्रष्टाचार बेलगाम हो गया, किस तरह उसके प्रधानमंत्री एक के बाद एक घटिया और गैर जिम्मेदार बयान देते रहे और किस तरह जनता खुद को निरीह, अकेला और लुटा-पिटा समझती रही-ये परिणाम इसी जनता की इन्हीं तकलीफों की अभिव्यक्ति हैं जिसमें वह कह रही है कि उसे कमजोर समझा जा सकता है लेकिन उसे अपने साथ हिकारत से पेश आने वालों को सबक सिखाना आता है, जिसमें वह कह रही है कि वह भ्रामक व्याख्याएं यथावत दोहराने के लिए तैयार नहीं है जिसमें वह लोगों की उस समझ पर सवाल खडा कर रही है कि जनता को बेवकूफ बनाया जा सकता है।

उम्मीद करना नासमझी नहीं है, उम्मीदें पूरी न करना नासमझी है क्योंकि हर पांच साल बाद उसी जनता के दरबार में जाना है जो भाग्यविधाता है और जिसे अब इसके बारे में पता भी चल चुका है, इसलिए यह सोच कि जनता से वोट हासिल कर सरकार बना ली जाए और उसे भुला दिया जाए-ऐसा सोचने वालों के अस्तित्व पर सवाल खडा कर देगी यह इस चुनाव का निहितार्थ है। इसीलिए जो जीता है उसे समझ जाना चाहिए कि यह जनता की उम्मीदों की जीत है और अब इन उम्मीदों को पूरा करने का वक्त शुरू हो गया है और जो हारा है उसे सोचना होगा कि उसने जनता की उम्मीदेां को किस तरह मटियामेट किया है।

२ फरवरी २०१५

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