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परिक्रमा लंदन पाती

यादों की गलियों में

—शैल अग्रवाल

तारीख एक मानस पटल पर तारे सी उभर आई है – तारीखों की भी तो अपनी एक पहचान होती है, ताकत होती है। हम इन्हें पलट या बदल नहीं सकते पर यह पलट सकती हैं– इतिहास तक का रूख बदल सकती हैं यह तो, जैसे कि ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत पहुंचने की तारीख ने कभी भारत का वक्त पलट दिया था।

तेरह सितम्बर सन सत्तानवें – बरमिंघम का पहला हिंदी दिवस – दिन निश्चय ही संभावनाओं से भरपूर था। कवि सम्मेलन के पहले चन्द चुनिन्दा श्रोताओं और वक्ताओं के साथ एक साहित्यिक सत्र का भी आयोजन यानी कि मन ही नहीं बुद्धि के लिए भी छप्पन भोग। वैसे भी किसी भी पहले की बात ही कुछ और होती है – सबकुछ थोड़ा और ज़्यादा स्पष्ट और तीव्र – थोड़ा और ज़्यादा कोमल और मधुर। आज जब हिन्दी दिवस यहां एक वार्षिक महोत्सव का रूप ले चुका है, नई नई शाखों में प्रस्फुटित और पल्लवित हो चुका है। भारतीयों की तरह ही, हिन्दी भी खुदको स्थापित कर चुकी है, अतीत के झुरमुट से झांकते चन्द चेहरे मन के साथ अक्सर आंख मिचौली खेलते हैं और यादों की सियाही में डूबी कलम एक बार फिर से कागज पर चित्र बनाने को बेचैन है।

सितम्बर की वह दुपहर खुशनुमा थी। खुली धूप मेहमानों के स्वागत के लिए पूरे बरमिंघम पर टूटकर बिखरी हुई थी और ठंडी ताज़ी जाड़े की प्रखर धूप ने पूरे शहर को जगमग रत्नों सा निखार दिया था, मानो मेहमानों के स्वागत के लिए हमने ही नहीं, मौसम ने भी पूरी तैयारी कर ली हो। धड़कते दिल के साथ सब पहुंच ही गए जॉर्ज कैडबरी हॉल में – न जाने किस प्रिय कवि, साहित्यकार, विद्वान और सुजन के दर्शन हो जाएं – मन किशोरियों सा उत्साहित और आतुर था।

परन्तु हॉल का माहौल किसी छोटे गांव के रेल्वे स्टेशन जैसा ही था – संभावनाओं से भरपूर पर यथार्थ में बिल्कुल ही खाली। गाड़ी अपने गन्तव्य से अभी भी काफी दूर थी। विशिष्ट मेहमान महाकवि शेक्सपियर की जन्मस्थली घूमते हुए आ रहे थे। सिंघवी जी के हाथों शेक्सपियर की जन्मस्थली में महामना टैगोर की मूर्ति लोकार्पित हो रही थी, यानी की पर्यटक अब न सिर्फ उस पश्चिम के बार्ड से ही मिल पाएंगे वरन पूर्व का प्यारा सितारा भी यहां पर झिलमिल होगा। शेक्सपियर के घर में टैगोर – इंग्लैंड की गौरव भूमि और महाकवि नाटककार शेक्सपियर के जन्मस्थल पर भारत का गौरव – दोनों देशों के साहित्य और साहित्य प्रेमियों के लिए निश्चय ही यह एक अद्भुत और आन्दोलक संधि–पल था। क्या वाकई में पुराने फिल्मी गानों के रिमिक्स या हिन्दी पॉप की तरह टैगोर और प्रेमचन्द भी अब घर घर में गूंजेंगे, तुलसी और कबीर पढ़े व समझे जाएंगे (हिंगलिस्तानी में ही सही, रोमन लिपि में ही सही) भारत से भारतीयों का परिचय हो पाएगा?

पौने पांच बजे तक कैडबरी हॉल भर चुका था और शुरू हो गई उस यादगार दिन की अविस्मरणीय शुरूआत (मेरे लिए विशेषतः क्योंकि पूरे पच्चीस साल बाद हिन्दी में निजी पत्रों के अलावा कुछ और लिख पाई थी)। गीतांजलि बहुभाषीय समाज के संस्थापक डॉ•कुमार ने सभी उपस्थित अतिथियों का बरमिंघम में स्वागत किया और प्रमुख अतिथि की कुरसी संभाली संस्कृत के प्रकांड पंडित श्री वाचस्पति उपाध्याय जी ने। थके और थोड़ा अस्वस्थ होने के बावजूद भी श्री सिंघवी जी आए और अपने प्रोत्साहक व प्रेरणा दायक शब्दों से हम हिन्दी प्रेमियों का उत्साह वर्धन करके आराम करने लौट गए। एक बार फिर से श्री पद्मेश गुप्त ने संचालक की कुरसी सम्भाली और वाचस्पति जी ने अध्यक्ष पद की। अब बारी थी यॉर्क से आए श्री महेन्द्र वर्मा जी की जिन्होंने हिन्दी के उद्गम और विभिन्न भाषाओं के समागम पर प्रकाश डाला।

इस सत्र में बरमिंघम के प्रतिनिधित्व का भार मेरे कमज़ोर कन्धों पर था। नारी और साहित्य दोनों ही विषय रोचक और हृदय के करीब थे। बरसों बाद कुछ पढ़ा जाना और लिखा था और जोशीला आलेख बीस मिनट की सीमा तोड़ पैंतीस मिनट पर पहुंच गया। धैर्य के साथ कुशल शिल्पी की तरह फिरसे कांट–छांट की। फिर से पढ़ा – पूरे बीस मिनट – अब आलेख और मैं, दोनों ही वाकई में तैयार थे। पहुंचते ही संचालक जी फुसफुसाए, घड़ी देख रही हैं न! ठीक दस मिनट पर बन्द कर दीजिएगा ऐसे ही सारा प्रोग्राम बहुत लेट चल रहा है। थोड़ा चौंकी पर वह पल ही क्या जो चुनौती से भरा न हो। सोचा पढ़ते–पढ़ते ही संक्षिप्त कर लूंगी। छह मिनट बाद ही पुनः आवाज आई "अब प्रश्नोत्तर होंगे" बुद्धि ने आत्मसमर्पण कर दिया। हताश् मुख से निकला – लेकिन आखिर किस विषय पर, अभी तो बात ही पूरी नहीं हुई है? श्रोताओं ने बगावत कर दी, हम आलेख पूरा ही सुनेंगे।

माहौल भारत की राजनीति जैसा था। जितने मुंह उतने नारें। श्रोताओं के अनवरत आग्रह पर समय सीमा को तुड़ना और मुड़ना पड़ा। संकुचित परन्तु प्रत्यक्ष स्नेह से अभिभूत हो चालीस वर्षीय वयस्क आलेख को दो वर्ष की शिशु अवस्था में ही बुजुर्गियत की चप्पलें पहना दीं और विदा कर दिया। चाहे जैसे भी जोड़ें तोड़ें अर्ध नारीश्वर की तरह साहित्य और समाज भी तो एक दूसरे के पूरक ही हैं। एक ही वजह से दूसरा असमंजस में आए ऐसा कैसे हो सकता था? मन का हाल अब उस बदली की तरह था जो उमड़ी घुमड़ी तो खूब बस बरस ही नहीं पाई। पंद्रह दिन की अनवरत तपस्या अंग–भंग हो सबके बीच खुले आम बिखरी तड़प रही थी और लोग उसकी सुन्दरता और सफलता की बधाई दे रहे थे। नार्वे से आए प्रिय भाई सुरेश चन्द्र शुक्ल जी (शरद आलोक) की आंखों में आत्मीयता और सहानुभूति थी। उन्होंने न सिर्फ नारी के महत्व और योगदान पर अपने वक्तव्य में प्रकाश डाला, नारी जाति को हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का आवाहन तक दे डाला। यही नहीं, प्रिय सतिन्दर बहन ने तो अकेले ही हिम्मत के साथ नारी उद्धार का ध्वज ही उठा लिया। अब कोई रेडिओ पर आने का आमंत्रण दे रहा था तो कोई आलेख पत्रिका में छापना चाहता था। मन ने कहा इस आलेख पर यदि किसी का अधिकार है तो भाई जैसे संरक्षक सुरेश जी का ही। अगले पल ही आलेख उनके संरक्षण में था।

आकस्मिक प्रसिद्धि और शोर गुल से घबराया मन अदृश्य होने की प्रार्थना कर रहा था, अदृश्य इसलिए कि कवि सम्मेलन तो सुनना ही था। भगवान ने भी तुरंत ही सुन ली और मंच पर श्री अन्वर रिज़वी जी को भेज दिया। वर्षों से चली आई उदार भारतीय संस्कृति ने कैसे विभिन्न भाषाओं और सभ्यताओं को खुली बाहों से अपनाया – हिन्दी उर्दू की निकटता आदि जैसे कई विषम विषयों पर उन्होंने बड़े ही रोचक ढंग से प्रकाश डाला। सत्र का समापन किया श्री दाऊ जी गुप्त ने भाषा सम्बन्धी कुछ और प्रश्न और प्रसंगों के साथ।

गोधूलि की लालिमा में सरस्वती वंदना के साथ शाम के उस दूसरे और अति प्रतिक्षित सत्र – कवि सम्मेलन का शुभारंभ हुआ। काव्य प्रेमियों से हॉल खचाखच भरा हुआ था। बारह वर्षीय दिवंगत गीतांजलि की एक ही कविता के हिन्दी अंग्रेजी दोनों ही अनुवाद सुनाने की परंपरा को कायम रखने के बाद बरमिंघम के बहुभाषीय समाज के वयस्क, बुजुर्ग और बाल कवियों ने विभिन्न भाषाओं में स्वरचित काव्य का सरस पाठ किया। इस बार कुशल संचालन श्री दाऊ जी गुप्त का था, जिन्होंने अपनी भीनी भीनी शेर शायरी की पुरवाई से श्रोता और कविगण दोनों को ही अंत तक स्निग्ध और रसमय रखा। परन्तु हमारे अपने बरमिंघम के डॉ•के•के•श्रीवास्तव खुद अपने ही शब्दों के जाल में फंसे और लटक गए जब उन्होंने कवियों का परिचय देते हुए कहा कि 'भाइयों और बहनों हमें पूरी उम्मीद है कि आज की शाम आपके लिए मनोरंजन से भरपूर होगी।' अभी उनकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि काव्य पुजारी बैरागी जी को चुभ गई। तुरंत ही माइक हाथ से लेकर श्रोताओं को संबोधित करते हुए बोले 'कविता कोई मनोरंजन नहीं, साधना है और यदि आप लोग मनोरंजन के लिए आए हैं तो कृपया वापस लौट जाइए।'

स्तब्ध श्रोता अब वाकई में एक रंग और रस में डूबी शाम की चुनौती के लिए तैयार हो चुके थे। कुंवर बेचैन जी की बिजली की पायल बांधे, लहरों की चूड़ियां पहने और चंदा की टिकुली लगाए सजी संवरी कविता अभिसारिका सी मंच पर आई और आते ही अपने रूप और सज्जा से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर गई। जो गीत की उपमाओं के लावण्य से बच पाए वह कुंवर जी के सुरीले गले के जादू में डूब गए। 'नदी बोली समुन्दर से' गीत आज भी जाने कितनों की यादों में गूंजता होगा कहना मुश्किल है। वरिष्ठ कवि श्री राम दरश मिश्र जी का काव्य दर्शन तीखा और बुद्धि उत्तेजक था। सांप और चंदन की सशक्त लगन ही नहीं, खुशबू और डंक भी लिए हुए।

शीन कॉफ निजाम की उदास और बेचैन नज़्में मन को छूने वाली थीं और बार बार याद दिला रही थीं कि 'घर की सुबह ही सुबह यारों/घर की शाम ही शाम।' अनवर रिज़वी की शायरी सुर और भावों का एक सुन्दर सा गुलदस्ता थी। बाल कवि बैरागी का फक्कड़ और मस्ती से भरा व्यक्तित्व जहां कविताओं को एक रंगमंचीय नाटकीयता दे रहा था, उनका आत्म विश्वास और गहरी सोच कविता को एक दूसरे ही धरातल पर ले जा रही थी। रूढ़िवादी समाज का पूर्ण उपहास करती ये कविताएं उनके जीवन की तरह ही अस्मिता में पूर्ण आस्था की ओजस्वी और यादगार कविताएं थीं।

श्रीमती कमला सिंघवी जी की गुलाबी साड़ी में लिपटी, सबकुछ सुनती समझती, महसूस करती कविता नारी संवेदनाओं के बहुत ही करीब थी – वही जानी पहचानी निशब्द निष्ठा 'क्या अब भी कुछ कहने की ज़रूरत है।' मीठी मीठी कविताओं की रिमझिम सभी को रसान्वित कर चुकी थी और शायद तृप्त और तरोताजा भी। रात्रि के दस बज चुके थे। सभी श्रोता अपने अपने घर जा रहे थे और शुरू हो रहा था हमारी बरमिंघम गोष्ठी का समापन सत्र।

डॉ• कृष्ण कुमार और चित्रा कुमार दम्पति के घर कवि श्रेष्ठों का अभिनन्दन था और साथ में था स्वादिष्ट भोजन का आमंत्रण। सम्पूर्ण कवि समुदाय का रात का डेरा भी वहीं था। सुनते हैं काव्य का यह अन्तिम सत्र रात के दो तीन बजे तक चला। परन्तु हम प्रसाद की तरह श्री विक्रम सिंह जी को मांगकर घर वापस आ गए। उनकी किताब 'प्रिंटिंग मिस्टेक' का भी उसी दिन विमोचन हुआ था। जिसमें उन्होंने बड़े कौशल के साथ कई कवियों और सन्तों की यादगार पंक्तियों को अपनी कसौटी पर कसा था और कई आपत्तिजनक गलतियों को मात्र प्रिंटिंग मिस्टेक कहकर नए अर्थ दे दिए थे। जैसे कि तुलसीदास के ढोल गंवार शूद्र पशु और नारी ताड़न नहीं तारन के अधिकारी थे और उनके अनुसार तारन का र प्रिंटिंग मिस्टेक में ड़ बन गया था। भावों के साथ–साथ विक्रम भाई का व्यक्तित्व भी रोचक और युवा अनूठापन लिए हुए लगा परन्तु मन की ललक और काव्य–पिपासा संकोच में डूबी ही रह गई – विक्रम जी थके होंगे, सोने ही दिया जाए कहकर मन खुद को समझा चुका था।

सुबह–सुबह चिड़ियों के पहले कलख के साथ ही चंदन जी का फोन आ गया। विक्रम जी को तुरंत उनके घर छोड़ना होगा। जल्दी जल्दी कुछ कविताएं और परिचय की आत्मीयता का नाश्ता कर हम दोनों झटपट हाजिर थे। वहां पर अभी भी नाश्ता ही चल रहा था। प्लेट में रखी गरम जलेबी की तरह ही वाचस्पति जी की स्नेहयुक्त स्मिति में भी ऊष्मा और माधुर्य था, 'तब तू हमरे गांव की बाटू?' 'हां गुरूजी।' बनारस ने हज़ारों मील दूर विदेश में भी हमें एक दूसरे से जोड़ दिया था। आशीर्वाद लेने के लिए मन खुद–ब–खुद ही नत मस्तक हो गया और शब्दों का वह व्यापारी एक प्यारा सा आशीर्वाद देकर आगे बढ़ गया। मीठी यादों की पोटली उठाए जब कार में वापस लौटी तो मन की उथल पुथल से अनभिज्ञ रेडिओ गा रहा था 'तुम तो ठहरे परदेसी, साथ क्या निभाओगे।' स्नेह से नम आंखों को पोंछते हुए सोचा – गलत, परदेसी ही तो लौटकर आते हैं – जरूरत है तो बस एक प्यार भरे आग्रह और आवाहन की और बरमिंघम तो वैसे भी ब्रिटेन का दिल कहा जाता है। फिर दिल ही तो दिल की बात समझता है। इन्तज़ार रहेगा इस दिल को, इस बरमिंघम को अपने सभी विशिष्ट मेहमानों का – ललक रहेंगी भविष्य में भी कई और अविस्मरणीय रस और रंग में डूबी शामों की – नई कविता और नई सोच के गुलदस्तों के साथ सजी व गमकती, प्रेरित और मुखरित शामों की – – ।

सितंबर 2004

 
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