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                                दसों दिशाएं झिलमिल पर अगर
            वह मर गया तो कौन था यह जो बाली के 'सारी' नाइट क्लब
            में बम फोड़ आया।  सैंकड़ों अबोध, अनजानों को
            मार आया।  कौन है यह जो गांधी नगर के अक्षरधाम
            मन्दिर में भक्तों को प्रसाद में मौत दे आया। 
            मनीलाजकार्ता एक के बाद एक अमानवीय पटाकों का यह जघन्य
            खेल आखिर कहांकहां और कब तक? आज पूरा विश्व शोक में
            डूबा है।  सामूहिक श्रद्धांजलि दी जा रही हैं।
                                 जैसे यह झरतीगिरती पत्तियां
            एकएक शाख को नंगा करती हैं, इन असामयिक अलविदा कहती
            आत्माओं ने एकबार फिर हमारे विश्व की अमानवीय हिंसक
            स्वार्थलिप्सा का मुखौटा उघाड़ दिया है  नंगा और
            जघन्य सब उजागर कर दिया है।  एकबार फिर से अंधेरा
            गहराकर मनों में उतरता जा रहा है।  बाहर घिर आए अंधेरे
            को तो हम दिवाली और क्रिसमस के दियों और मोमबत्तियों
            से कम कर लेंगे पर इस अदृश्य उदास अंधेरे से उबरने के लिए
            किन दियों को जलाएं, सबको मिल बैठकर सोचना होगा  
                                कहते हैं इतिहास खुदको बारबार
            दोहराता है ताकि हम उससे कुछ सीख सकें, समझें। 
            गलतियां दोबारा न हों पर गलतियां होती रहती हैं  इतिहास
            साक्षी हैं  11 सितंबर साक्षी हैं  अनगिनत इसी सदी के पल
            साक्षी हैं।  गिनते बैठें तो कागज कम पड़ जाएंगे। 
            दुनिया अश्रुप्रलय में डूब जाएगी।  कागज के पुतले
            जलाकर रावण नहीं मारा जा सकता।  कामदेव की तरह यह भी
            तो अशरीर और अदृश्य हो चुका है।  मनों के अन्दर रहने
            लगा है।  सर्व व्यापी होकर भी छुप गया है। 
                                दशहरा यानी कि दशमुख रावण पर
            विजय  अभिमान, ईर्षा, स्पर्धा और वासना जैसे रावण
            के दस मुखदस विकारों के इस संभावित जमघट का विखंडन। 
            बच्चे, बड़े सभी कागज के उस रावण और उसके सहयोगी,
            अनुयाइयों को जलाते हैं, जलते देखते हैं।  मेले का
            सा माहौल हो जाता है  फिरसे वही उल्लास, वहीं उमंग। 
            व्यस्त खाते, गातेबजाते हम हर्षोल्लास में डूब जाते हैं
            क्योंकि सैंकड़ों वर्ष पहले हमारे नायक राम ने पापियों का
            संहार कर पृथ्वी को पापमुक्त किया था।  और आज भी
            हम उन्हीं राम के अनुयायी, राम के वंशज, बस उस दीप्त
            यादों को मन में संजोए, उस आभा में नहाए,
            रामविजय का उत्सव दिवाली और दशहरे के रूप में मना
            निवृत्त हो जाते हैं, मानवता के प्रति अपने उत्तदायित्व और
            कर्तव्य दोनों से  बिना सोचे, जाने कि क्या यह रावण
            सचमें कभी मरा या हारा  ? 
                                रोजरोज का यह नरसंहार। 
            पाप यज्ञ में आएदिन अबोध और अनजानों की यह क्रूर
            प्राणआहुतिसिर्फ इसलिए कि वह उस लीला स्थल पर
            दुर्भाग्यवश थे  गलत जगह गलत समय पर अनजाने ही जा
            पहुंच गए थे।  मन को जकड़ता लगातार का यह भय। 
            हर दिन एक नई असुरक्षित भावना, अशुभ आशंका।  मंदिर,
            घूमने की जगह, घरबाजार सभी असुरक्षित।  ये आजके
            बच्चे कल अपना जीवन जी भी पाएंगे या नहीं, और यदि हां
            तो कितनी देर के लिए  ऐसे सवालों की अनगिनित काली
            आंधियों से ढका यह डरावना भविष्य अब किस सुनहरी किरन
            को ढूंढ़े? 
                                शायद ये कागज के पुतले नहीं
            अब हमें मनों में छुपे रावण को जलाना होगा।  थमकर
            सोचना होगा कि क्या चीज है जो साधारण लोगों को भी
            इतना वहशी बना सकती है?  दूसरों का दुखदर्द और
            नजरिया भी सुनना व समझना पड़ेगा।  समझना और
            समझाना होगा कि हम सब एक ही मनुश्रद्धा या आदमहौवा
            के वंशज हैं  नाम चाहे जो भी देंदें, हमारे वे
            पूर्वज आदि पुरूष और आदि नारी एक ही थे।  कपड़ों की तरह
            रोज नए नाम और तरीके बदलने से असलियत नहीं बदल जाती। 
            क्यों इच्छाएं कामनाएं ही हमेशा विजय पाती हैं आदर्शों पर? 
            शायद आदर्शवाद भी एक नशा हो सकता है और नशे की तरह इसका
            भी टूटना ही कभीकभी अच्छा होता है।  भ्रम की भी तो लत
            पड़ सकती हैं। 
                                दुनिया का कोई भी मजहब हमें
            बैर करना नहीं सिखाता।  किसी भी ताकत से हम उस
            सर्वव्यापी ईश्वर को मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारों में
            नहीं बांट सकते।  कभीकभी शायद अराजकता की बातें 
            भी कहने वालों के लिए एक तरह का आदर्श ही बन जाती हैं। 
            एक घबराया और हारा आदर्श जो सबकुछ तोड़फोड़कर फिरसे
            शुरू करना चाहता हैं।  क्या गलत को सही करने की इच्छा को
            ही हम मूल्य या आदर्श नहीं कहते  बस शायद कभीकभी
            लोगों के तरीके गलत हो जाते हैं।  विश्वास हार चुका
            होता है।  भूल जाते जाते हैं वे कि इस टूटफूट से उड़ती
            रेत तो सबकुछ मटियामेट कर देगी।  जो बचाने और
            संभालने लायक हैं वह भी  जिन्हें वे सुहाने सपने और
            आदर्श समझते हैं वह सब भी।  हवा में उड़ती रेत तो
            सोने और मिट्टी की तश्तरी नहीं देखती।  वह तो बस कौर
            किरकिरा करना ही जानती हैं। 
                                अमीरगरीब, समृद्ध और असहाय
            आज सभी असुरक्षित हैं।  शायद इसीलिए अब पहली बार
            खुदको सशक्त मानने वाले देशों का ध्यान भी इस तरफ गया
            है और कुछ हद तक आपस में जुड़े भी हैं।  भौतिकता
            उपलब्धि जैसे शब्द आजके इस युग के बहु प्रचिलित शब्द हैं
            और सदैव ही हमारी चेतना पर हावी रहते हैं।  लगता हैं
            जैसे आज का समाज अवसरवादी धर्म पर ही खड़ा है।  यही
            नए प्रतीक हैं  आदर्श हैं इस समाज के।  इसमें कुछ भी
            सही या गलत नहीं हैं।  किसी के लिए किसी को भी लूट
            लेना, नंगा कर देना संभव हैं, या गलत नहीं हैं 
            संपत्ति, प्राण, इज्जत सभी कुछ।  व्यक्ति और समाज का
            रिश्ता टूट रहा है।  एक दूसरे के प्रति दायित्व टूट रहा है। 
                                कांच की नली से उपजा यह मानव
            कृतिम ही होगा यह कहने से पहले हमें थमना होगा क्योंकि
            आज पहलीबार मानव के मन की संरचना बदल रही हैं। 
            बंदर से आदमी तक हमारा शरीर तो कई बार बदला था पर आज
            पहली बार हमें अपने अंदर छुपी कई नई शक्तियों का बोध हो
            पा रहा है।  इस नए मानव को अभीसे सही या गलत कहना
            गलत होगा क्योंकि आदर्शों को तो हम व्यक्तिगत स्वार्थ के
            लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, परन्तु विज्ञान या सच को नहीं। 
            और हर आदर्श के नीचे एक सच की बुनियाद जरूर ही होती हैं। 
            यही व्यक्तिगत बोध सही क्रान्ति लाता है।  यही नए मूल्य
            और नए आदर्श दोनों ही लेकर आता है।  यह बात दूसरी है
            कि उसकी सफलता या असफलता को तुरंत निर्धारित करना संभव
            नहीं।  पर इतना ज्ञान तो हमारे पास होना ही चाहिए कि
            अपना और दूसरों का भलाबुरा सोच सकें और बदलती
            जरूरतों और मौसम के साथ खुदको, अपनी सोचको अवगत और
            सक्षम रख सकें। 
                                लगता है जैसे हम भूलते जा रहे
            हैं कि व्यक्ति का हित ही समाज का हित हैं और समाज का हित
            इसमें हैं कि वह व्यक्ति के हित के बारे में सोचे। 
            खाली आदर्शों की बात या सिर्फ व्यक्तिगत सुख की बात दोनों
            ही गलत होंगी।  कोरे आदर्शवाद से कुछ नहीं होता 
            पड़ोसी यदि भूखा हैं तो हम भूखे नहीं रह सकते पर उसके लिए
            खाने की व्यवस्था कर सकते हैं।  भूखा और त्रसित
            कभीनकभी तो पागल होगा ही  पत्थर फेंकेंगा ही। 
            फिर यह अराजकता का आरोप किसकिसपर और कैसे? 
                                एक आदर्श समाज में व्यक्ति और
            समाज के हित में मतभेद नहीं होना चाहिए पर ऐसा जब
            रामराज्य में भी संभव नहीं हो पाया, खुद सीता को भी
            अपनी आहुति देनी पड़ी तो आजके इस युग में कैसे हम इसे
            प्रतिपादित कर सकते हैं?  शायद यथार्थ और आदर्श को साथ
            लेकर चलना होगा।  पापी से नहीं पाप से घृणा करके ही
            शायद हम इस पृथ्वी को पापहीन कर सकते हैं।  समस्या का
            तृणमूल ढूंढ़ना होगा वरना यह नित नए रूप लेकर जनमता
            रहेगा  हमारे ईदगिर्द ही  हमारे अपनों के बीच में। 
                                आजका यह विद्रोह या
            तोड़फोड़ करनेवाला व्यक्ति या तथ्य कौन है उसका मुखौटा
            उघाड़ना पड़ेगा।  भूल कर कि हम किस देश या महाद्वीप से
            हैं।  हर उद्देश्य को हासिल करने के लिए एक पद्धति अपनानी
            पड़ती हैं पर यह पद्धति संतुलित होनी चाहिए।  जन हित और
            जन संतुलन की होनी चाहिए, जन संतुलन की पूर्णतः
            अवहेलना करके नहीं।  मेलमिलाप के साथ सही विकल्प
            ढूंढ़ने पड़ेंगे।  जनमत और जनहित ढूंढ़ना पड़ेगा 
            व्यक्तिगत इकाई को कुचले बगैर  जन साधारण को बौना
            बनाए बगैर।  इस रास्ते में विवाद भी हैं और संघर्ष
            भी।  इसीलिए जरूरी है कि आजके इस नए और खुशहाल समाज
            का सपना देखनेवाले हर मानव का सशक्त होने के
            साथसाथ नीरक्षीर विवेकी होना भी बहुत जरूरी हैं। 
            रंगमंच और कर्मक्षेत्र का अंतर समझना जरूरी है।  वरना
            हमारी अपनी कमजोरियां ही हमें निगलने को तैयार रहेंगी
             बाहर का कोई तो बाद में नुकसान पहुंचा पाएगा। 
            शायद इसी स्थिति को समझदार चुल्लू भर पानी में डूबकर
            मरना कहते थे वरना आज इस इक्कीसवीं सदीं में भी इतनी
            वैज्ञानिक और भांतिभांति की अन्य उपलब्धियों के बाद भी
            क्यों हम उसी विनाश और संहार के कगार पर खड़े नज़र आ रहे
            हैं  कौनसा है वह तत्व जो हमें उबरने नहीं देता  ? 
                                कहते हैं कि शिव और शव का फरक
            बस इतना है कि जब ईश्वरीय तत्व यानी कि ई निकल जाए तो
            शिवरूपी शरीर शव बन जाता है।  इन हिंसक खबरों से तो
            बस यही लगता है कि आज वह दैवीय तत्व सच में शरीर से ही
            नहीं, चारोतरफ से टूटता और खोता जा रहा है और शव से हम
            संवेदनाहीन व निष्कर्म होते जा रहे हैं।  जड़ और
            चेतना का फर्क मिटता जा रहा है।  वह वनस्पति भी सांस
            लेती हैं और हम भी।  वह भी लाचार और असहाय है, हम
            भी।  पर शायद हम तो इनसे भी निष्क्रिय हो चुके हैं। 
            वे अपने पर्यावरण का प्रदूषण मिटाते हैं और हम बढ़ाते हैं। 
            वे उसे रहने लायक और सुन्दर बनाते हैं और हम
            दिनप्रतिदिन कुरूप कर रहे हैं।  धरती को तो छोड़िए अब तो
            आकाश की परतों में भी छेद कर आए हैं हम तो।  जब तक हम
            आपस में प्रकृति और पुरूष का सामंजस्य करके रहना नहीं सीख
            पाएंगे न पृथ्वी बच पाएगी न पुरूष।  और फिर शायद जड़
            से जुड़ने की यह प्रक्रिया हमें आपस में भी जुड़ना सिखा दे। 
            हमारे ज्ञान चक्षु खोल दें।  प्रकृति से विच्छेदन और
            विघटन जितना हमारे लिए हानिकारक हैं, आपसी सामंजस्य और
            संतुलन उतना ही सुखज्ञान और आयुवर्धक। 
            ज्ञानीवैज्ञानिक सभी इस तथ्य को जानते और मानते
            हैं।  वरना एक पेड़ से गिरा सेब न्यूटन को गुरूत्व उर्जा
            का बोध न करा जाता और एक बरगद का पेड़ राजकुमार सिद्धार्थ
            को समस्त बोध दे महात्मा बुद्ध न बना जाता।  शायद यही
            वजह है कि सभी विचारक और संत जब भी कुछ सोचना या
            समझना चाहते थे तो प्रकृति की शरण लेते थे।  पहाड़ों
            की चोटी पर, पेड़ के नीचे या नदी के किनारे।  थके से
            थका मन भी स्वच्छ पानी और खुली हवा में निर्मल और
            तरोताजा हो जाता है।  सरल पर्यावरण ही हमें सरल और
            सजल बना सकता है  शर्त बस इतनी है कि हम स्वयं को कठोर
            होने से बचाए रखें क्योंकि 'मन हारे ही हार है मन जीते की
            जीत' 
                                अंधेरे और पतझड़ के इस मौसम
            में जब अंधेरा नभ से उतर आंखों में भरता जाता है, मन की
            तहों में जमता जाता है, हर समाज दीप और ज्योति के पर्व
            मनाता है जिससे कि हम याद रख सकें कि हर अंधेरे को दूर करना
            जरूरी हैं।  कीचड़ से भी कमल उग आता है  जरूरत है बस
            थोड़े से आत्मविश्वास की।  फिर हमारे पास तो पूर्वजों
            की जगमग यादें और ज्ञान की एक अनमोल धरोहर हैं। 
            एक लौ सा दीप्त सजग और कर्मठ इतिहास हैं।  आइये हम आप
            भी आस्था और विश्वास के कुछ नए दीप जलाएं  एक दूसरे से
            गले मिल, एक नया दशहरा, नई दिवाली, नई ईद, नया क्रिसमस
            मनाएं।  सोचेंगे तभी तो कोईनकोई राह
            निकलेगी  कहींन कहीं, कुछन कुछ तो बदलेगा ही। 
            सामूहिक सोच की ताकत कम नहीं होती।  बस  
                                 
            जलता रहना चाहिए दीप वह प्यार का विश्वास का 
            तेरीमेरी जीतका और तेरीमेरी एकएक  हार का  
                                 
            अपनी आज की बात खतम करना चाहूंगी पानी से बेहद सरल और
            पारस से व्यक्तित्व वाले अपने बड़े भाई सत्येन्द्र श्रीवास्तव
            की कविता 'बारबार भारत' की चन्द लाइनों से, जो उन्होंने
            हाल ही में लंडन में अनिल भाई के घर एक गोष्ठी में पढ़ी
            थी  
            'जो वहां दूसरी बार लौटना चाहते हैं 
            वे अब विचित्रताओं की तलाश में नहीं 
            बल्कि खंडखंड सच्चाइयों को जोड़ती हुई 
            जीवन की किसी अखंडता का तत्व पाने 
            सच्चाई जानने, क्योंकि 
            वे कहते हैं भारत देश में अब भी वैसा कुछ है 
            जो पंक में उगा हुआ होकर भी 
            हृदय को कहीं छूता हैं 
            जैसे कमल! 
                                शायद यही बात हज़ार कमियों के
            बाद भी इस मानव जीवन और मानव समाज के बारे में भी
            कही जा सकती है, ज़रूरत है तो बस इस तक बारबार लौटने
            की, इसे समझने की  प्यार करने की। 
                                अक्टूबर  2002
                                  |