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यू के मे हिन्दी

हस्तलिखित पाठों से हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता तक

हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता में पुरस्कार ग्रहण करती एक विजेता

ब्रिटेन में हिन्दी शिक्षण का इतिहास जरा छोटा ही है। अन्य इतिहासों की तरह न तो उसमें बहुत सनसनीपूर्ण घटनाएं हैं और न ही शूरवीरता के कारनामों के विवरण। फिर भी जब ब्रिटेन में रहने वाले भारतवंशियों का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें हिन्दी शिक्षण की गाथा एक गौरवपूर्ण स्थान अवश्य पाएगी। आप संभवतः इस वक्तव्य पर चौंके और सोचें कि कुछ सिरफिरे लोगों द्वारा हिन्दी सिखाने के छोटे–मोटे प्रयत्न ऐसे उल्लेखनीय इतिहास का अंग कैसे बन सकते हैं। अपने इस कथन की सार्थकता सिद्ध करने के लिए पहले तो मैं कुछ मूलभूत तथ्य आपके सामने रखूंगा और फिर उन चक्कदार राहों से आपका परिचय कराऊंगा जिनसे होकर हिन्दी शिक्षण को गुजरना पड़ा है।

असहिष्णु भाषाक्षेत्र : ब्रिटेन

ब्रिटेन की भाषा अंग्रेजी न केवल एक प्रभावकारी भाषा है, एक असहिष्णु भाषा भी है। ब्रिटेन एक ऐसा भाषाक्षेत्र हैं जहां अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा को सहन नहीं किया जाता। हिन्दी की तो बात ही छोड़िए वैल्श, गैलिक और कॉर्निश जैसी इसी देश की भाषाएं यहां दम तोड़ती नज़र आती हैं। आप यदि उत्तरी वेल्स जाएं और किसी वैल्शभाषी से बात करें तो आपका हृदय चीत्कार कर उठेगा यह देखकर कि वैल्श में बोलने पर कुछ लोग उससे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे वह कोई विदेशी हो। कॉर्निश भाषा इस तरह विध्वन्स्व कर दी गई है कि उसके एक–दो वाक्य भी बोलने का अर्थ है उपहास को निमंत्रण देना। गैलिक बोलने का अर्थ है पिछड़ा, अलग–थलग पड़ा व्यक्ति। वैल्श भाषियों के घनघोर आन्दोलन चलाने पर राजमार्गों पर मार्गपट्ट अंग्रेजी के साथ वेल्श में दिया जाने लगा है। इसी तरह जब हिन्दी भाषियों ने सहायता की मांग की, तो कुछ विद्यालयों को हज़ार–दो हज़ार पाउन्ड अनुदान के रूप में देकर उनका मुंह बन्द कर दिया गया। जहां लेस्टर, नौटिंघम, साउथहाल जैसी नगरपालिकाएं सचमुच हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के विद्यालयों की वास्तविक सहायता और संसाधन उपलब्ध कराती हैं, वहां इस देश की अधिकांश उदासीन नगरपालिकाएं हिन्दी की तुलना में बहुत कम महत्व के अभियानों के लिए कई गुना अधिक राशियां अनुदान में देती हैं। हिन्दी शिक्षण वस्तुतः यदि आज ब्रिटेन में जीवित है, तो वह है उन स्वयंसेवी अध्यापकों के अनथक प्रयासों से जिनके नाम तक उनके विद्यालयों की दीवारों से बाहर लोग नहीं जानते। ऐसे सभी निःस्वार्थी और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापकों को मैं नमन करता हूं।

रोटी–रोजी बनाम भाषा और संस्कृति

बहुधा यह आरोप लगाया जाता है कि हमसे पिछली पीढ़ी के लोग रोजी–रोटी की चिन्ता में इतने डूब गए थे कि वे अपनी भाषा और संस्कृति की ओर ध्यान देना ही भूल गए। यह आरोप एक अधूरा सत्य है। पूर्ण सत्य तो यह है कि उन विषम परिस्थितियों में भी सैंकड़ों लोग इस देश में हिन्दी की ज्योति जगाने में जुटे हुए थे। उनके पास न पुस्तकें थीं, न ही कोई विद्याभवन। वे अपने निवास स्थानों के द्वार खोले रखते उन नन्हें–मुन्नों के लिए जो हिन्दी वर्णमाला से परिचित होना चाहते हों और कुछ साधारण प्रश्नों के उत्तर हिन्दी में देने की इच्छा रखते हों। ऐसे अधिकांश अध्यापक अपने हाथ से लिख कर पाठ तैयार करते थे। उस समय फोटोकापी करने की मशीनें भी उन्हें उपलब्ध नहीं थीं। जितने विद्यार्थी, उतनी ही हस्त–लिखित प्रतियां पाठों की। कुछ अध्यापक विद्यार्थियों के घर जाते। घर–घर जाकर रामचरित मानस का पाठ करके प्रो• श्याम मनोहर पांडे, पं विष्णु नारायण शास्त्री, रामजी, हरिकृष्ण जोशी, डॉ• कृष्ण कुमार, चित्रा पांडे व पं• निरूपमदेव शास्त्री जैसे विद्वानों की टोलियों ने ऐसी गतिविधियों से हिन्दी की अद्भुत सेवा की। रामचरित मानस की चतुःशति के समय डा• जगदीश कौशल और उनके साथियों द्वारा इस देश के दस बड़े नगरों में रामायण के उपलक्ष्य में बड़े उत्सव रचा कर इस लहर को पूरे देश में पहुंचा दिया। कुछ अन्य लोग हिन्दी को ब्रिटेन के विद्यालयों में पाठ्यक्रम का अंग बनाने के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहे। यॉर्क विश्वविद्यालय के प्रो• महेन्द्र वर्मा और अमरदीप के सम्पादक जगदीश मित्र कौशल जैसे अनेक जाने–अनजाने हिन्दी सेवियों के अनथक प्रयत्नों के फलस्वरूप हिन्दी ओ लैवल का विषय बन गई। यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि तो अवश्य थी लेकिन उसकी जड़ें खोखली थीं। पाठ्यक्रम हवा में खड़ा था। न कहीं पढ़ने की सुविधा, न ही कोई निर्धारित पाठ्यक्रम। बस पढ़ लो घर पर। थोड़ा अक्षर ज्ञान, थोड़ा अनुवाद, बन गया ओ लैवल।

एक बार फिर हिन्दी सड़क पर

लेकिन यहां के शिक्षा जगत से वह भी सहन न हुआ। यद्यपि ब्रिटेन के विभिन्न स्वयंसेवी विद्यालयों में हज़ारों बच्चे हिन्दी सीख रहे थे और उनमें से सैंकड़ों विद्यार्थी प्रतिवर्ष जी•सी•एस•ई• परिक्षा में अच्छे स्तर प्राप्त कर रहे थे, 1996 में लन्दन विश्व विद्यालय के परीक्षा मंडल ने हिन्दी परीक्षाएं लेना बन्द कर दिया। एक बार फिर हिन्दी को सड़क पर फेंक दिया गया।

अनेक लोगों के प्रयासों से केम्ब्रिज विश्व विद्यालयों ने हिन्दी को ओ लैवल परीक्षा का विषय बना लिया। विद्यार्थियों को अनुवाद, आशय समझना, पत्र–लेखन और निबन्ध लेखन में कुशलता दिखानी थी। यद्यपि कोई पाठ्यपुस्तक नहीं थी फिर भी अध्यापकों ने उस चुनौती को स्वीकार करके उस परीक्षा के लिए विद्यार्थियों को तैयार करना आरम्भ कर दिया। लेकिन शीघ्र ही शिक्षा अधिकारियों के हाथ खुजलाने लगे। उन्होंने एकबार फिर पाठ्यक्रम में परिवर्तन करने की ठान ली। ब्रिटेन में रहने वाले अनेक हिन्दी विद्वानों की अवहेलना करके और भारत के विश्वप्रसिद्ध भाषाशास्त्रियों की योग्यता को अनदेखा करके सिंगापुर के शिक्षा मंत्रालय से 2001 में हिन्दी परीक्षा का पाठ्यक्रम तैयार कराया गया। इस समय तो वही पाठ्यक्रम लागू है। उसे फिर कब बदल दिया जाएगा या बिल्कुल ही बन्द कर दिया जाएगा, कोई नहीं जानता।

स्वावलंबन के अंकुर

ये तमाम बातें हिन्दी भाषियों के लिए नितान्त अपमानजनक हैं। इन सभी से तंग आकर कुछ लोगों ने निश्चय किया कि वे इस देश के किसी शिक्षण संस्थान पर निर्भर रहने के बदले स्वयं अपनी परीक्षा प्रणाली का विकास करेंगे। यू•के• हिन्दी समिति के पद्मेश गुप्त और भारतीय दूतावास के हिन्दी अधिकारी अनिल शर्मा के नेतृत्व में परीक्षाओं के पाठ्यक्रम बनाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर डाली गई। इन पाठ्यक्रमों को गौतम सचदेव, आचार्य तानाजी, रामचन्द्र शास्त्री और सुदर्शन भाटिया की पैनी नज़रों से गुज़रना पड़ा। मेरे इन प्रस्तावित पाठ्यक्रमों पर विस्तृत रूप से चर्चा करने के लिए 2002 के मध्य में ब्रिटेन के हिन्दी अध्यापकों का एक सम्मेलन लन्दन में आयोजित हुआ। उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष डा• केशरीनाथ त्रिपाठी और प्रख्यात निबन्धकार डॉ• निर्मला प्रसाद उपाध्याय इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए विशेष रूप से भारत से आए थे। इन दोनों विद्वानों ने पाठ्यक्रमों से सम्बन्धित चर्चा में सक्रिय रूप से भाग लेकर न केवल सम्मेलन की गरिमा को बढ़ाया बल्कि अपने सुझावों के माध्यम से प्रस्तावित पाठ्यक्रमों का परिष्कृत रूप तैयार करने में अमूल्य योगदान भी दिया। अंततः सम्मेलन ने इन पाठ्यक्रमों को सर्वसम्मति से पारित किया।

हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता

अध्यापकों के इस सम्मेलन से पहले प्रयोग के रूप में 2001 में केवल लन्दन और उसके आसपास के क्षेत्रों में प्रथम हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता की गई थी। बहुत सीमित क्षेत्र होते हुए भी लगभग डेढ़ सौ विद्यार्थियों ने उस प्रतियोगिता में भाग लिया था। इस आशातीत सफलता से प्रेरणा पाकर यू•के• हिन्दी समिति ने इस प्रतियोगिता को देश के अन्य भागों तक ले जाने का निश्चय किया। 2002 में यह प्रतियोगिता लन्डन के अतिरिक्त मैनचेस्टर, वुलवरहैम्पटन, नौटिंघम, लैस्टर, बरमिंघम और बैलफास्ट आदि नगरों के तीस परीक्षा केन्द्रों में सम्पन्न हुई। प्रतियोगिता के व्यवस्थापकों और विभिन्न शिक्षण केन्द्रों के संचालकों और अध्यापकों के प्रयत्नों के फलस्वरूप 2002 में 500 से अधिक विद्यार्थियों ने भाग लिया जो वस्तुतः न केवल प्रशंसनीय है बल्कि अति संतोष और गर्व का विषय है।

प्रेरणा स्त्रोत श्रीमती मोहिन्द्रा

हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता के लिए कुछ परीक्षा केन्द्रों ने बड़ी संख्या में अपने विद्यार्थियों को भेजा। इनमें नौटिंघम का कला निकेतन सर्वोपरि रहा। वहां अनेक वर्षों से श्रीमती मोहिन्द्रा बहुत बड़ी संख्या में बच्चों को हिन्दी पढ़ाती रही हैं। शायद ही किसी ने उनकी हिन्दी सेवाओं का उल्लेख किया हो। हिन्दी समिति ने उनकी संस्था कला केन्द्र को विशेष पुरस्कार दे कर श्रीमती मोहिन्दा को भी सम्मानित किया। यह एक अच्छी शुरूआत है। मैं आशा करूंगा कि यह शुरूआत एक परिपाठी का रूप ले सकेगी।

कला केन्द्र की ही तरह विश्व हिन्दु मन्दिर, साउथ हाल और बरमिंघम व लैस्टर स्थित गीता भवनों को भी विशेष पुरस्कार दिए गए। आशा है अब अन्य परीक्षा केन्द्र इस पुरस्कार को पाने के लिए होड़ लगाएंगे और बड़ी संख्या में विद्यार्थियों को हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए प्रोत्साहन देंगे।

भारतीय उच्चायोग में हिन्दी शिक्षण

इस संदर्भ में भारतीय उच्चायोग के प्रयत्नों का उल्लेख न करना न्यायसंगत नहीं होगा। उनका अपना ही परीक्षा केन्द्र हैं। अपने ही विद्यार्थी हैं। परीक्षा लेते समय यह माना गया था कि वे सीधे भारत से यहां आए हैं और इस कारण उनकी हिन्दी बहुत परिष्कृत होगी। लेकिन वस्तुस्थिति बहुत भिन्न है। भारतीय दूतावासों के अनेक कर्मी एक देश से दूसरे देश में स्थानान्तरित किए जाते हैं। उनके बच्चे बहुता भारत में अति अल्प काल के लिए जाते हैं। उन्हें हिन्दी पढ़ने का अवसर जरा कम ही मिलता है।  

ऐसे बच्चों को हिन्दी पढ़ाना जो बाद में चल कर शायद भारत का सेवातंत्र संभाले, अपने आप में भारत की महत्वपूर्ण सेवा है। भारतीय उच्चायोग में हिन्दी पढ़ाने वालों का योगदान किसी अन्य केन्द्र के प्रयासों से कम मूल्यवान नहीं हैं; वे हमारे आभार के अधिकारी हैं।

इससे पहले कि हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता की उपलब्धियों का विवेचन किया जाए, संभवतः उसके स्वरूप और पाठ्यक्रम पर दृष्टि डालना उपयुक्त होगा। हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। वे हैं – हिन्दी प्रवेश, हिन्दी परिचय और हिन्दी प्रबोध।

हिन्दी प्रवेश –

हिन्दी प्रवेश ऐसे विद्यार्थियों के लिए हैं जिन्हें हिन्दी वर्णमाला का ज्ञान हो। दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं के लिए उपयुक्त हिन्दी शब्दों की उन्हें जानकारी होनी चाहिए। जानवरों, पक्षियों, फलों और तरकारियों के नामों और शरीर के प्रमुख अंगों के नामों से उन्हें परिचित होना चाहिए। रंगों के नाम उन्हें ज्ञात हों। समय से जुड़े शब्दों की जानकारी उन्हें हो। मात्राओं का ज्ञान भी उन्हें होना चाहिए।

हिन्दी परिचय –

हिन्दी परिचय ऐसे विद्यार्थियों के लिए हैं जिन्हें हिन्दी की वाक्य संरचना का ज्ञान हो। उन्हें संज्ञा और सर्वनाम में भेद और उनका सही प्रयोग आना चाहिए। 'कहां' प्रश्न का उत्तर देने के लिए उपयुक्त शब्दों का वे उपयोग कर सकें। स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, एकवचन–बहुवचन और विपरीत भाव दिखाने वाले शब्दों को वे समझ सकें। इसके अतिरिक्त वे चुने हुए विषयों पर पांच सरल वाक्यों में लिख सकें। .

 

हिन्दी प्रबोध –

हिन्दी प्रबोध ऐसे विद्यार्थियों के लिए हैं जो हिन्दी भाषा और हिन्दी व्याकारण के सरल नियमों से परिचित हों और वर्तमान की रचना कर सकें। संज्ञा और सर्वनाम के अतिरिक्त क्रियाओं, विशेषणों और क्रिया विशेषणों का उपयुक्त प्रयोग कर सकें। छोटे वाक्यों को अंग्रेजी से हिन्दी में, और हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद कर सकें। दैनिक व्यवहार में हिन्दी का प्रयोग करने की उनमें क्षमता हो। चुने हुए विषयों पर उन्हें 100 शब्दों में लिखने की क्षमता उन्हें हो। एक चित्र या विज्ञापन पढ़ कर उसके आशय के आधार पर कुछ प्रश्नों के उत्तर वे दे सकें।

समदर्शी परीक्षक : गौतम सचदेव और तेजेन्द्र शर्मा

हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता से जुड़े सभी लोग यह तो जानते थे कि हिन्दी प्रवेश वर्ग में अन्य दोनों वर्गों की तुलना में काफी अधिक विद्यार्थी भाग लेंगे, लेकिन परीक्षक विद्यार्थियों के उत्तरों के स्तर से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। 'ए' और 'बी' ग्रेड पाने वालों की संख्या तीनों वर्गों में बहुत ऊंची रही। प्रत्येक विद्यार्थी समूह में से सर्वोत्तम अंक पाने वाले विद्यार्थियों का चुनाव करना बड़ा कठिन काम बन गया। अनेक विद्यार्थी मात्र 1 या 2 अंक कम पाने के कारण पुरस्कार से वंचित रह गए। अनेक वयस्कों को पुरस्कार केवल इसलिए नहीं दिए गए कि परीक्षकों ने उनके बराबर अंक पाने वाले बच्चों को प्राथमिकता देने का निश्चय किया। कई विद्यार्थी बर्तनी में लापरवाही या सुलेख के अभाव के कारण भी पुरस्कार से वंचित रह गए। प्रतियोगिता कड़ी थी। नियमों का पालन कठोरता से किया गया। किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखा गया। परीक्षकों को उनकी समदर्शिता के लिए मैं साधुवाद दिए बिना नहीं रह सकता। हां, इस संदर्भ में केवल इतना ही कहूंगा कि जहां गौतम सचदेव और तेजेन्द्र शर्मा जैसे परीक्षक हों, वहां योग्यता के आधार पर चुनाव होने के अतिरिक्त और कुछ संभव ही नहीं। विभिन्न केन्दों के लगभग पच्चीस विद्यार्थियों को साधारण पुरस्कार दिए गए।

इन साधारण पुरस्कारों के अतिरिक्त हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता के विभिन्न समर्थकों के सौजन्य से सात विद्यार्थियों को विशिष्ट पुरस्कारों को पाने वाले विद्यार्थियों को अगस्त माह में दो सप्ताह के लिए भारत यात्रा के लिए भेजा जाएगा। लिखित परीक्षा से संतुष्ट न होकर परीक्षकों ने विद्यार्थियों से भेंट–वार्ताएं भी की हैं। इस समस्त परख प्रणाली पर खरे उतरे विद्यार्थी विशिष्ठ पुरस्कारों के लिए चुने गए हैं। उनके नामों की सूचना इस सम्मेलन के एक विशेष सत्र में की जा रही है। फिर भी इस लेख में उनके नामों का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। वे हैं :–
नीरज पाल, गैब्रियल सिंगर, आशा वालिया, अनुज अग्रवाल, करिश्मा सेठी, रोशनी गोगना

ये विद्यार्थी बॉलीवुड, दिल्ली और लखनऊ आदि नगरों में जाएंगे जहां वे फिल्म, संगीत व कला के कुछ जाने–माने लोगों से भेंट करेंगे। आशा है उनकी भारत यात्रा उन्हें हिन्दी से जोड़ने में सहायक होगी।

श्रीमती सावित्री देवी पुरस्कार

किसी भी भाषा में व्यक्ति चाहे कितना भी पारंगत न हो जाए, जब तक वह उस भाषा में प्रभावकारी ढंग से बोल नहीं पाता, तब तक उसकी क्षमता कुछ अभावग्रस्त ही मानी जाती है। विद्यार्थियों की वाक्पटुता की परख के लिए डॉ• सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने अपनी स्वर्गीय माता श्रीमती सावित्री देवी की स्मृति में भाषण प्रतियोगिता के पुरस्कार प्रदान किए थे। भाषण कर्ताओं को दो वर्गो में बांटा गया – पहले थे 14 वर्ष तक की आयु के प्रतिभागी और दूसरे उससे अधिक आयु वाले। दोनों वर्गों के वक्ताओं का स्तर बहुत ऊंचा था। उनकी वाक्पटुता और प्रस्तुतिकरण सचमुच बहुत रोमांचकारी था, तर्क शक्ति से पूर्ण थी।

चुने हुए विषय पर की उनकी शोध की गहराई देखते ही बनती थी। पुरस्कृत वक्ताओं को बधाई।

हिन्दी पुरस्कार बने गर्व का विषय

हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता का वर्ष 2002 में आयोजन करने वाले हिन्दी प्रेमियों को प्रतियोगिता की सफलता के लिए साधुवाद दिया जाना अप्रासंगिक नहीं होगा। लेकिन मेरा नम्र निवेदन है कि हम सभी इस सफलता से संतुष्ट होकर अपने आप को थपकी देने के बदले इसे एक लम्बी यात्रा के पहले पड़ाव के रूप में देखें। आगामी वर्ष 2003 के लिए प्रतिभागियों की संख्या 500 से बढ़ाकर 1000 तक करने का लक्ष्य आज इसी समय हमें निर्धारित करना चाहिए। आज तक हमने कहा यह प्रतियोगिता है, आकर इसमें भाग लो। 2003 में हम कहें – 'आप जहां भी हैं, यदि हिन्दी में आपकी रूचि हैं, हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता आपके पास आएगी।' और यदि आप वयस्क हैं, तो 2003 से आपके लिए विशेष पुरस्कार सुरक्षित रखे जाएंगे। उन पुरस्कारों को अपने घर ले जाइए और अपने नाती–पोतों को गर्व से दिखाइए ताकि वे स्वयं उन पुरस्कारों को पाने के लिए लालायित हो जाएं।

आगामी चार–पांच वर्षों में इस देश के हर नगर के विद्यालयों के विद्यार्थी हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता में भाग लें, ऐसा हमारा संकल्प होना चाहिए। और यदि अभारतीय लोग प्रतियोगिता में भाग लेना चाहें, तो उनका स्वागत हमें बाहें फैला कर करना चाहिए।

ले जाएं हिन्दी यूरोप में

पिछले माह अनिल शर्मा, छुट्टियों के लिए इटली गए। मेरे जैसे सैलानी की तरह वे रोम की ऐतिहासिक इमारतों को देखने में ही नहीं लगे रहे। वे एक विश्वविद्यालय में जा पहुंचे और उनसे हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता की चर्चा कर बैठे। आश्चर्य! आश्चर्य! उन लोगों ने निश्चय किया है कि 2003 में उनके कुछ विद्यार्थी इंग्लैंड में होने वाली हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता में भाग लेंगे। अब यदि एक छोटी–सी छुट्टी में एक व्यक्ति इटली में हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता को ले जा सकता है, तो क्या हम सब मिलकर यूरोप के चार–छः देशों में हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता नहीं करा सकते। इस सम्मेलन में यूरोप के अनेक विद्वान आए हुए हैं। इस सत्र के बाद हमें उनके साथ मिलकर बैठना चाहिए। हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता को उनके देश में कराने की संभावनाओं को देखना–परखना चाहिए। मैं अपने विदेशी मेहमानों से कहूंगा कि आइए हमारी प्रतियोगिता को देखिए। हमारे पास ढांचा है। उस पर अपने देश की परिस्थितियों के अनुकूल सज्जा कीजिए। और बना लीजिए इंग्लैंड की हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता को अपने देश की प्रतियोगिता। विश्वास कीजिए हमारे लिए भी यह इतना ही सरल हो सकता है जितना अनिल शर्मा के लिए था। आवश्यकता है मात्र हिन्दी प्रेम की। उसके लिए कुछ कर दिखाने की।

हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें

ब्रिटेन में हिन्दी शिक्षण से जुड़ा है उपयुक्त पाठ्य पुस्तकों का प्रश्न। भारत में हिन्दी सामान्यतः विद्यार्थी की प्रथम भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है। वहां के परिवेश के अनुरूप पाठ्य पुस्तकें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। यद्यपि हेम कुण्ट प्रेस, नीता प्रकाशन, गुप्ता प्रकाशन तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद आदि ने अनेक स्तरीय पुस्तकें छापी हैं किन्तु इस देश में उनकी उपादेयता कुछ सीमित ही है।
विद्यार्थियों को दूसरी भाषा के रूप में हिन्दी सिखाने वाली पुस्तकें संभवतः इस देश में अधिक उपयोगी हैं। दस–पंद्रह वर्ष पूर्व भले ही ऐसी पुस्तकों का अभाव रहा हो, अब स्थिति नितांत निराशाजनक नहीं हैं। ऐसी पुस्तकों में वी•आर•जगन्नाथन की 'स्वयं हिन्दी सीखें' (प्रकाशक जनेपा पब्लिशिंग हाउस, हैदराबाद) एक प्रामाणिक पुस्तक मानी जाती है। पुस्तक के साथ सुनने वाले टेप भी उपलब्ध हैं। यह पुस्तक मूलतः वयस्कों के लिए होते हुए भी ब्रिटेन तथा पूर्वी यूरोप के अनेक विश्वविद्यालय इसके कुछ भागों को अपने पाठ्यक्रम का अंग बनाते हैं। मोहिनी राव की 'टीच य्ओरसेल्फ हिन्दी' (प्रकाशक हिन्द पॉकेट बुक्स, दिल्ली) बहुत लोकप्रिय रही है। इसी नाम की पुस्तक रूपर्ट स्नैल ने भी लिखी है। रूपर्ट स्नैल की पुस्तक ब्रिटेन के बाहर भी अनेक विद्यालय प्रयोग करते हैं। बी•बी•सी• की 'हिन्दी उर्दू बोलचाल' मूलतः दैनिक उपयोग में आने वाली बोली के रूप में प्रस्तुत की गई हैं। अनेक विद्यालय इस पुस्तक को सहायक शिक्षण सामग्री के रूप में प्रयोग करते हैं।

जे•एम नागरा ने इस देश के विद्यार्थियों के लिए विशेष रूप से लिखी एक पुस्तक 'ओ लैवल हिन्दी'। यद्यपि यह पुस्तक पुराने पाठ्यक्रम पर आधारित है, इस देश के विद्यालय इस पुस्तक को व्यापक रूप से प्रयोग करते हैं।

वेद मित्र की 'समूची हिन्दी शिक्षा' (प्रकाशक पीताम्बर प्रकाशन, दिल्ली; ब्रिटेन में वितरक – रीड इंडिया, 356 वेल रोड, ऐश वेल, सरे, जी यू 12 5 एल डब्ल्यू) अंग्रेजी भाषियों को हिन्दी सिखाने का पूर्ण पाठ्यक्रम हैं। इस पुस्तक के पाठ इस तरह तैयार किए गए हैं कि विद्यार्थी प्राथमिक अक्षर ज्ञान से आरम्भ करके अंततः ओ लैवल परीक्षा के लिए तैयार हो जाता है। 'समूची हिन्दी शिक्षा' के दूसरे संस्करण में केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के नवीनतम ओ लैवल के पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया है। पुस्तक के चौथे भाग के अधिकांश पाठ उपरोक्त परीक्षा के लिए विशेष रूप से तैयार किए गए हैं जिनमें मुहावरों का प्र्रयोग, पत्रलेखन, आशय समझना और निबन्ध तथा रिपोर्ट लेखन के पाठ प्रमुख हैं। 'समूची हिन्दी शिक्षा' इन पाठों के कारण एक ऐसी एकमात्र पुस्तक बन गइ हैं जो ओ लैवल के नवीनतम पाठ्यक्रम की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।

यह पुस्तक इस समय दुनिया के चालीस देशों में प्रयोग हो रही है। रंगीन चित्रों से भरी होने के कारण 'समूची हिन्दी शिक्षा' के प्रथम तीन भाग छोटी आयु के विद्यार्थियों को बहुत आकर्षित करते हैं। यद्यपि इस देश के अनेक विद्यालयों में इस पुस्तक का उपयोग किया जाता है, पुस्तक का विज्ञापन कम होने के कारण अनेक अध्यापक इसके अस्तित्व से अनभिज्ञ जान पड़ते हैं। इस पुस्तक के वितरकों को इस कमी को दूर करने के प्रयत्न करने चाहिएं।

परिकलक (कम्प्यूटर) के माध्यम से हिन्दी सीखने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए लीला प्रबोध जैसी सी•डी• और उससे जुड़ी पुस्तक भी अब ब्रिटेन में उपलब्ध है। शिक्षण के एक और औजार के रूप में यह बहुत उपयोगी सामग्री है।.

हिन्दी समिति दे मान्यताप्राप्त प्रमाण पत्र

पाठ्यक्रमों, पुस्तकों तथा टेप व सी•डी• आदि की व्यावहारिक जानकारी की चर्चा से हट कर मैं अन्त में आपको स्वप्नलोक में ले जाना चाहूंगा। वह स्वप्न है हिन्दी शिक्षण और परीक्षणों को स्वावलंबी बनाने का। मेरा स्वप्न है कि हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता का स्तर इतना ऊंचा हो कि उसे ओ लैवल और जी•सी•एस•ई• परीक्षाओं के विकल्प के रूप में खड़ा किया जा सके। मेरा स्वप्न है कि यू•के• हिन्दी समिति हिन्दी परीक्षा का ऐसा प्रमाणपत्र दे जिसकी मान्यता न केवल ब्रिटेन में हो, बल्कि भारत की शैक्षणिक संस्थाएं उसे मानक योग्यता के रूप में स्वीकारें। निश्चय ही यह एक स्वप्न है। परन्तु यदि हम सभी इस स्वप्न में विश्वास करें, तो वह साकार भी हो ही जाएगा, ऐसी मेरी धारणा है।

— वेद मित्र

 
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