| 
                             
                    
							 1 दसों पापों को हरने का त्योहार दशहरा
 -- मनोहर पुरी 
					--
 
 
							त्योहार लोक जीवन की प्रगाढ़ता के केन्द्र बिन्दु माने 
							जाते हैं। यह न केवल हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक एवं 
							धार्मिक जीवन को प्रभावित करते हैं वरन इनके साथ हमारी 
							आर्थिक गतिविधियाँ भी पूरी तरह से जुड़ी हुई हैं। 
							त्योहार पग पग पर व्यक्ति को समाज के साथ जोड़ते हैं। 
							प्रकृति के बदले परिधानों के साथ जुड़े त्योहार फूलों 
							के बदलते रंगों की भाँति व्यक्ति को लुभाते रहते हैं। 
							इनकी विविधता मानव को अपने मोहपाश में बाँधे 
							रखती है।
 त्योहार के एक एक क्षण को प्रत्येक व्यक्ति पूरे 
							उत्साह के साथ जीना चाहता है। वैदिक परम्परा में जीवन 
							का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण अज्ञान से बाहर निकल कर 
							ज्ञान प्राप्ति अथवा मुक्ति का क्षण माना गया है। इसी 
							क्षण को मुहूर्त भी कहा गया है। इस परम्परा के 
							सर्वोपरि मुहूर्तों में सबसे महत्त्वपूर्ण मुहूर्त 
							दशहरा है। दशहरा का अर्थ है, वह पर्व जो दसों प्रकार 
							के पापों को हर ले। इस दिन को विजय दशमी का दिन भी 
							स्वीकार किया गया है। एक मान्यता के अनुसार आश्विन 
							शुक्ला दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक काल 
							होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। यह वह 
							क्षण है जब दशेंद्रियों पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर 
							मानव जीवन की सीमाओं का उल्लंघन कर ज्ञान प्राप्त करता 
							है। इसीलिए दशहरे के पर्व को ‘सीमोल्लंघन’ के नाम से 
							भी पुकारा जाता है। पूर्वी भारत में यह ‘बिजोया’ नव 
							वर्ष की भाँति उल्लास से नवरात्रि के रूप में मनाया 
							जाता है। यहाँ इसे मां भगवती की महिषासुर पर विजय का 
							प्रतीक माना जाता 
							है।
 
 विजयदशमी का त्योहार वर्षा ऋतु की समाप्ति तथा शरद के 
							आगमन की सूचना देता है। ब्राह्मण इस दिन सरस्वती का 
							पूजन करते हैं जबकि क्षत्रिय शास्त्रों की पूजा करते 
							हैं। अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में यह त्योहार 
							सदियों से भारत के कोने कोने में मनाया जाता है। सीधे 
							सरल रूप से भारतीय जनमानस ने यह स्वीकार कर लिया है कि 
							इस दिन भगवान राम ने असुर रावण पर विजय पाई थी जबकि 
							अनेक विद्वान इस बात को भ्रामक मानते हैं। कुछ का मत 
							है कि रावण का वध कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हुआ। किसी 
							भी धर्मग्रन्थ में क्वार शुक्ल विजयदशमी को रावण के वध 
							का उल्लेख नहीं मिलता। वैदिक शास्त्रों में वर्णित 
							ब्राह्मण परम्पराओं के त्योहारों में दशहरे का कहीं 
							उल्लेख नहीं मिलता इस। प्रकार यह वैदिक या ब्राह्मण 
							परम्परा का उत्सव नहीं है। लगता है कि रामायण कि 
							लोकप्रियता के कारण क्षत्रियों ने इसे अपने विजयाभिमान 
							का प्रतीक बना कर मनाना प्रारम्भ किया होगा इसीलिए इस 
							उत्सव को अधिकार राजघरानों का संरक्षण प्राप्त हुआ। 
							अनेक विद्वानों ने इस पर्व को महाभारत के साथ जोड़ा है। 
							उनका मत है कि जब पाण्डव अज्ञातवास के दौरान विराट 
							नगरी में रह रहे थे तब कौरवों ने विराट के महाराजा की 
							गाओं का हरण करके पाण्डवों को अज्ञातवास से बाहर आने 
							के लिए बाध्य किया। क्वार सुदी दशमी के दिन वृहन्नला 
							के रूप में अर्जुन ने पहली बार कौरवों से युद्ध करके 
							उन्हें हराया। यह अधर्म पर धर्म की विजय का द्योतक 
							माना गया और दशमी के इस दिन को विजय दशमी के रूप में
							मनाया जाने लगा।
 
 एक अन्य कथा के अनुसार परशुराम की माता रेणुका ने 
							शापग्रस्त देवताओं के आग्रह पर उनके कुष्ठ रोग दूर 
							करने के लिए अपने पति ‘भृगु’ की आज्ञा के बिना नौ दिन 
							तक देवताओं की सेवा की फलतः दसवें दिन उनका कोढ़ दूर हो 
							गया। शाप मुक्त होने के कारण देवताओं ने यह दिवस दुःख 
							मुक्ति अथवा विजय दिवस के रूप में मनाया। इस दिन 
							आश्विन शुक्ला दशमी थी अतः तभी से यह दिन विजय दशमी के 
							रूप में मनाया जाने लगा। इसी प्रकार इस दिन को नरकासुर 
							राक्षस के वध के साथ भी जोड़ा जाता है। कहते हैं कि 
							नरकासुर ने अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए १६०० 
							स्त्रियों की बलि देने का निश्चय किया। उसे वरदान 
							प्राप्त था कि उसका वध केवल नारी द्वारा ही होगा। 
							भगवान श्री कृष्ण ने ‘सत्यभामा’ के हाथों उसका वध 
							करवाया। नरकासुर के हाथों बच जाने के कारण नारियों ने 
							इसे विजय पर्व के रूप में मनाया। चाहे राम ने रावण का 
							संहार किया हो अथवा अर्जुन द्वारा कौरवों पर विजय पाई 
							गई हो-यह दिवस सर्वत्र निर्विवाद अधर्म पर धर्म की जीत 
							के रूप में मनाया जाता है। स्थानीय रीति रिवाजों, वेश 
							भूषाओं और परम्पराओं के कारण इस त्योहार का 
							बाह्य रूप पृथक पृथक हो 
							सकता है परन्तु इसकी भावना एक ही है।
 
 दशहरा एक प्रतीक पर्व है। राम-रावण के युद्ध में जिस 
							रावण की कल्पना की गई है वह है मन का विकार और विकार 
							रहित परम पुरुष हैं राम। सीता आत्मा है जबकि राम स्वयं 
							परमात्मा। आत्मा का अपहरण जब रावण ने किया तो चारों ओर 
							धर्म नष्ट होने लगा लोग वानरों की भाँति चंचल और 
							उच्छृंखल होने लगे तब राम ने उनको अर्थात उनके 
							काम-क्रोध-मोह आदि को अनुशासित किया तभी रावण का वध 
							संभव हो पाया। राम और रावण विपरीतार्थ के बोधक हैं। 
							रावण का अर्थ है रुलाने वाला जबकि राम का अभिप्राय है 
							लुभाने वाला। रावण के दस सिर कहे गए हैं। उसका सिर तो 
							एक ही है शेष 
							काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर, लोभ, मन, बुद्धि और 
							अहंकार को उसके सिरों के रूप में स्वीकार किया गया है।
 
 राम को दशरथ का पुत्र माना गया है। उपनिषदों में शरीर 
							को रथ कहा गया है। शरीर की दशेन्द्रियों को योगी साधना 
							द्वारा वश में कर सकते हैं। ऐसे संयमी योगी साधक ही 
							होते हैं दशरथ। इस प्रकार राम दशरथी हैं। रावण भी 
							दशमुखी है। वह ब्राह्मण है। शास्त्र कहते हैं, 
							‘ब्रह्मं जानाति ब्राह्मण’ जो ब्रह्म को जानता है वहीं 
							ब्राह्मण है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उच्च आचार 
							विचार द्वारा ब्रह्म को प्राप्त न करके दशग्रन्थों को 
							मुखाग्र कर, दशेंन्द्रियों के पराधीन होकर स्वयं को 
							ब्राह्मण घोषित करना केवल पाखंड ही है। ऐसे पाखंडियों 
							को ही रावण कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार, 
							‘‘रवैतीति रावण’ जो अपने कथित ज्ञान का स्वयं ढोल 
							पीटता है। वहीं रावण है। यही वृत्ति राक्षसी है। जिस 
							पर नियंत्रण करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम की 
							आवश्यकता होती है। इसी वृत्ति पर विजय प्राप्त करने का 
							त्योहार है विजयदशमी। महाभारत की कथा का भी आशय यही 
							है। वेद व्यास जी ने पाण्डवों के बारह वर्ष के वनवास 
							के बाद एक वर्ष के अज्ञातवास की बात की है। इस का 
							अभिप्राय है कि साधक बारह वर्ष तक साधना की सफलता से 
							इतना अहंकारी न हो जाए कि अपनी साधना का ढिंढोरा पीटने 
							लगे इसलिए साधक को एक वर्ष के अज्ञातवास का प्रावधान 
							किया गया। यहाँ भी दुर्योधन अर्थात् बुरी वृत्तियों 
							वाला तथा बृहन्नला जिसने अपनी बृहत वृत्तियों को 
							संयमित कर रखा है, में परस्पर 
							युद्ध होता है और अच्छी 
							वृत्तियों की विजय होती है।
 
 महाराष्ट्र और उससे लगे भू प्रदेशों में दशहरे के दिन 
							आपटा अथवा शमी वृक्ष की पत्तियाँ अपने परिजनों एवं 
							मित्रों में सवर्ण के रूप में वितरित करने की प्रथा 
							है। आपटा वृक्ष की पत्तियाँ मध्य से दो समान भागों में 
							विभक्त रहती हैं। यह वृक्ष गाँव की सीमा से बाहर ही 
							होते थे। इस पत्ती को गाँव की सीमा से बाहर जा कर 
							तोड़ना ही सीमोल्लंघन है। यह पत्ती द्वैत वृत्ति पार कर 
							अद्वैतवृत्ति में जा कर दशेंन्द्रियों पर विजय प्राप्त 
							करने का प्रतीक है। इसी प्रकार शमी की पत्तियाँ सुवर्ण 
							मान कर वितरित की जाती हैं। शमी वृक्ष की पत्तियाँ 
							बुद्धि के देवता गणेश जी को अर्पित की जाती हैं। शम् 
							अर्थात् कल्याणकारक। ‘शमीं’ वह कल्याणकारी अवस्था है 
							जो बुद्धि के देवता की शरण में जाने पर प्राप्त होती 
							है। बुद्धि के देवता की शरण में जाने का अर्थ भी 
							दशेन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही है। कई 
							शताब्दीयों से मनाये जाने वाले इस त्योहार को मध्य 
							युगीन राजाओं, महाराजाओं ने नए आयाम दिए, कुल्लू, 
							कोटा, और कर्नाटक में आज भी १५वीं शताब्दी की कई बातों 
							की झलक मिल जाती है। कुमाउँ का दशहरा भी उत्तर भारत 
							में रामायण के पात्रों के पुतलों के 
							कारण काफी चर्चित है।
 
 कुल्लू में दशहरा देवताओं के मिलन का मेला मान कर 
							मनाया जाता है। विश्वास किया जाता है कि देवता जमलू ने 
							देवताओं को एक टोकरी में उठा कर किन्नर कैलाश की ओर से 
							कुल्लू पहुँचाया था। तभी से कुल्लू देवताओं की भूमि 
							मानी जाती है और यहाँ पर देवताओं का मिलन प्रति वर्ष 
							होता है। कुल्लू घाटी के प्रत्येक गाँव का अपना ग्राम 
							देवता होता है। प्रत्येक देवता का अपना मेला लगता है। 
							देश के दूसरे भागों में विजय दशमी के समाप्त होते ही 
							आश्विन शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक कुल्लू के ढाल मैदान 
							में सभी देवता सज धज कर, गाजे बाजे के साथ लाये जाते 
							हैं। परम्परागत वेश भूषा में सजे स्त्री पुरुष देवता 
							की सवारी के साथ आते हैं। कुल्लू की घाटी के कण कण में 
							लोक नृत्य, संगीत और मस्ती भरी हुई है फलतः यह मिलन 
							स्थली विभिन्न प्रकार के बाह्य यंत्रों के स्वरों एवं 
							लोक नर्तकों की थापों पर थिरक उठती है। इन्हीं लोगों 
							के उल्लास भरे नृत्यों एवं रंग बिरंगे परिधानों की छटा 
							ने कुल्लु के दशहरे की महक को विदेशों तक पहुँचा दिया 
							है। अब आधुनिकता का प्रभाव भी इस मेले में दिखाई देने 
							लगा है जिसके फलस्वरूप इसका परम्परागत रूप बदलने लगा 
							है। पहले इस मेले में भाग लेने के लिए तीन सौ पैंसठ 
							देवता कुल्लू आया करते थे अब इनकी संख्या घट 
							कर साठ सत्तर रह गई है।
 
 कुल्लू के राजाओं ने इस मेले को वर्षों गरिमा प्रदान 
							की है। देवताओं की मिलन स्थली ढाल पुर का नामकरण भी 
							१६वीं शताब्दी में राजा बहादुर सिंह ने अपने छोटे भाई 
							ढाल सिंह के नाम पर किया था। 17वीं शताब्दी में राजा 
							मानसिंह ने इसे व्यावसायिक रूप दिया और कुल्लू दशहरा 
							अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का संगम बन गया। हिमालय पर्वत 
							के दुर्गम दर्रे लांघ कर रूस, चीन, लद्दाख, तिब्बत, 
							समरकन्द, यारकन्द और लौहल स्पिति के व्यापारी यहाँ पर 
							ऊन और घोड़ों का व्यापार करने आते थे। आज भी यहाँ दूर 
							दूर से व्यापारी आ कर अच्छा व्यापार करते हैं। इस अवसर 
							पर यहाँ पशु मेलों का भी आयोजन होता है। मेले का मुख्य 
							आकर्षण रघुनाथ जी की यात्रा होता है जिसमें राजपरिवार 
							के सदस्य राजसी वेश भूषा में सम्मिलित होते हैं। इस 
							अवसर पर द्वापर युग की राक्षसी, भीम की पत्नी हिडिंबा 
							की उपस्थिति को अनिवार्य माना जाता है। पांडु पुत्र 
							भीम के संसर्ग से हिडिंबा को मानवी स्वीकार कर लिया 
							गया था। अब मनाली स्थित हिडिंबा मन्दिर में उनकी पूजा 
							एक देवी के रूप में की जाती है।
 
 कुल्लू दशहरे में रघुनाथ जी की यात्रा हिडिंबा की 
							उपस्थिति के बिना नहीं निकल सकती। इसके लिए हिडिंबा 
							देवी को निमंत्रण भेजने का एक विशेष विधान है। मनाली 
							से चल कर देवी कुल्लू के पास रामशिला नामक स्थान पर 
							ठहरती है। यहीं उन्हें राजा की ओर से छड़ी भेज कर 
							बुलावा भेजा जाता है। देवी का धूप जलाने का पात्र 
							स्वयं राजा उठाता है। इस मेले में जहाँ हिडिंबा की 
							उपस्थिति अनिवार्य है वही विश्व के सबसे प्राचीन 
							लोकतंत्र मलाना के संस्थापक देवता जमलू तथा कमाद की 
							पराश्र भेखली देवी इसमें शामिल नहीं होते। झाड़ फूस की 
							लंका दहन के साथ दशहरा पूर्ण होता है और रघुनाथ जी की 
							यात्रा वापिस लौटती है। लौटते समय रघुनाथ जी के साथ 
							सीता जी की मूर्ति भी विराजमान कर दी जाती है। 
							यह राम द्वारा लंका से सीता को छुड़ा कर लाने का प्रतीक 
							माना जाता है।
 
 दक्षिण भारत में कर्नाटक प्रान्त के मैसूर नगर का 
							दशहरा भी अपनी भव्यता और तड़क भड़क के लिए विश्व 
							प्रसिद्ध है। कन्नड़ में दशहरे को नांदहप्पा अर्थात 
							राज्य का त्योहार कहा जाता है। १५वीं शताब्दी में 
							मैसूर के लोकप्रिय एवं कलाप्रेमी राजा कृष्ण देव राय 
							ने इस उत्सव को राजकीय प्राश्रय दिया, नवरात्रि उत्सव 
							के अन्तिम दिन राजा हाथी पर सवार हो कर नागरिकों के 
							मध्य जाते और उनके द्वारा सम्मानपूर्वक दिए गये उपहार 
							प्रेम से स्वीकार करते। राजमहल से चल कर राजा की 
							यात्रा नगर सीमा बाहरबली मंडप तक जाती। यहाँ पर दशहरे 
							के साथ महाभारत काल से ही जुड़े शमी वृक्ष की पूजा की 
							जाती और इस वृक्ष की पत्तियों को सुर्वण मान कर 
							परिजनों में वितरित किया जाता है। महाराष्ट्र में भी 
							दशहरे पर आपटा वृक्ष की पत्तियों को स्वर्ण मान कर 
							बाँटने की प्रथा है। वास्तव में आपटा वृक्ष की 
							पत्तियाँ मध्य से दो समान भागों में विभक्त रहती हैं। 
							दिखने में अत्यन्त सुन्दर यह पत्ती अद्वैत और 
							बुद्धिमत्ता का प्रतीक मानी जाती है। इन्हें अभिवादन 
							और उज्ज्वल भविष्य का सूचक माना जाता है। इसी कारण इसे 
							मित्रों में वितरित करने की प्रथा है।
 
 शमी वृक्ष के संबंध में विद्वानों का मत है कि पांड़वों 
							ने अपने एक वर्ष के अज्ञातवास में इसी वृक्ष पर अपने 
							अस्त्र शस्त्र छिपा कर रखे थे। इस वृक्ष को न्याय, 
							अच्छाई और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। कर्नाटक के 
							निवासियों का मत है कि जिस प्रकार पांडवों ने धर्म की 
							रक्षा की उसी प्रकार से यह वृक्ष उनकी तथा उनके 
							परिजनों की रक्षा करेगा।
 
 इस त्योहार को प्राश्रय देने वाला विजय नगरम राज्य 
							अपने अपार वैभव के लिए विश्व प्रसिद्ध था फलतः राजा की 
							सवारी बहुत ही भव्यता के साथ निकाली जाती थी। आजकल 
							जुलूस में राजा का स्थान महिषासुरमर्दिनी चांमुडेश्वरी 
							देवी की प्रतिमा 
							ने ले लिया है। चामुंडेश्वरी देवी का मन्दिर मैसूर महल 
							से थोड़ी ही दूर एक सुन्दर पहाड़ी पर बना हुआ है।
 
 मैसूर में दशहरे के अवसर पर एक विशाल प्रदर्शनी का 
							आयोजन किया जाता है। इसमें देश भर से व्यापारी पहुँचते 
							हैं। राज्य के महत्त्वपूर्ण कला-शिल्प यहाँ पूरी सज धज 
							के साथ रखे जाते हैं। चन्दन की लकड़ी से बनी 
							कलाकृतियाँ, अगरबत्तियों और रेशमी साड़ियों के लिए लोग 
							इस उत्सव की वर्ष भर प्रतीक्षा करते हैं। सांस्कृतिक 
							गतिविधियों की चहल पहल 
							से भरे वातावरण में मैसूर का राजमहल जब विद्युत के 
							प्रकाश से जगमगाता है तो उसकी छटा देखते ही बनती है।
 
 कुल्लू और कर्नाटक की ही भाँति कोटा, राजस्थान का 
							दशहरा भी पिछले पांच सौ वर्ष से हडौती संभाग की जनता 
							के लिए आकर्षक का केन्द्र बना हुआ है। उत्तर भारत का 
							यह सबसे प्राचीन दशहरा माना जाता है। कोटा के महाराजा 
							इसे शक्ति पर्व के रूप में मनाते आये हैं। १५वीं 
							शताब्दी में राव नारायण दास ने मालवा सुल्तान महमूद को 
							परास्त करने के उपलक्ष में इसे प्रारम्भ किया था। कोटा 
							में दशहरा का प्रारम्भ आश्विन मास से शक्तिपर्व मनाने 
							से होता है और इसका समापन विजय पर्व के रूप में विजय 
							दशमी के दिन राजाओं द्वारा प्राश्रय प्राप्त यह मेला 
							१९९५ से स्थानीय नगर परिषद् द्वारा आयोजित िकया जाता 
							हैं गत पांच सौ वर्षों में इस मेले के रंग रूप में 
							समयानुकूल परिवर्तन होते रहे हैं।
 
 १५७९ में कोटा राज्य की स्थापना के साथ राव माधे सिंह 
							ने यहाँ लंका पुरी का निर्माण कराया और पुतलों के 
							स्थान पर मिट्टी के रावण-वध की प्रथा डाली। स्वतंत्रता 
							प्राप्ति तक यहाँ १५.२० फुट ऊंचे रावण, मेघनाथ और 
							कुम्भकर्ण के मिट्टी के पुतले बनाये जाते थे। उनके गले 
							में बंधी जंजीर को खींच कर राजदरबार का शाही हाथी उनका 
							वध करता था। १७७१ में 
							जब महाराव उम्मेद सिंह 
							गद्दी पर बैठे तो उन्होंने इस उत्सव के सार्वजनिक रूप 
							को निखारा।
 
 नवरात्रि से पहले ही दिन दशहरा शुरू करने के लिए 
							ब्राह्मणों द्वारा डाढ़ देवी, अन्नपूर्णा, काल भैरव, 
							आशापुरा और बाला जी जैसे क्षेत्र के प्रतिष्ठित 
							मन्दिरों में पूजा की जाती थी। कोटा नरेश सज धज के साथ 
							हाथी की सवारी करके रावण वध के लिए निकलते थे। लंका 
							क्षेत्र और गढ़ की बुर्जियों पर रखीं तोपें दागी जाती 
							थीं। कोटा नरेश स्वयं लंका पुरी में प्रवेश करके रावण 
							वध करते थे। आज इस मेले में आकर्षण के बनाये रखने के 
							लिए नगर पालिका अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन 
							करती है। २० दिन तक लगने वाले इस मेले में देर रात तक 
							रौनक रहती है। मेला स्थल पर स्थाई रूप से 
							पक्की दुकानें बना दी गई 
							हैं और मेले में भाग लेने के लिए आए व्यापारियों को 
							चुंगी कर से मुक्त रखा गया है।
 
 मेले की अनेक पुरानी परम्पराएं समाप्त होती जा रहीं है 
							फिर भी अभी तक भगवान बृजनाथ की शोभा यात्रा निकाली 
							जाती है। राजा के स्थान पर अब भगवान लक्ष्मी नारायण 
							रावण की नाभि को लक्ष्य करके तीर चलाते हैं और कागज के 
							पुतलों में आग लगा दी जाती है। मैसूर और कुल्लू दशहरों 
							का आकर्षण आज भी बना हुआ है जबकि कोटा दशहरा अपना 
							आकर्षण खोता जा रहा है।
 
 कुमाऊं क्षेत्र में अल्मोड़ा के लोग दशहरा पुतलों के 
							उत्सव के रूप में मनाया जाता है। अल्मोड़ा के आस पास के 
							ग्रामीण क्षेत्रों के लोग रामायण के राक्षसी पात्रों 
							के विशाल पुतले बनाते हैं। यह सुनिश्चित किया जाता है 
							कि एक ही पात्र के दो पुतले न बनें। सभी धर्मों के लोग 
							मिल जुल कर पूरे उत्साह के साथ इन पुतलों का निर्माण 
							करते हैं। इन पुतलों का जुलूस निकाला जाता है और लोग 
							उनके विरूद्ध नारे लगाते हैं। चौधान में ला कर सभी 
							पुतलों के कीमती वस्त्र और आभूषण उतार कर उन्हें जला 
							दिया जाता है। इस उत्सव में स्थानीय लोगों का उत्साह 
							देखते ही बनता है।
 
 इस प्रकार भारत के प्रत्येक क्षेत्र में धूम धाम के 
							साथ अधर्म पर धर्म की विजय का यह पर्व लोगों के उत्साह 
							में वृद्धि करता है और एक विजय दशमी के सम्पूर्ण होते 
							ही लोग अगले वर्ष की प्रतीक्षा करने लगते हैं।
 |