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                         कल्पगंगा घाटी में 
                        कल्पेश्वर  
                        
                        केदार खंड में पुराण में उल्लेख मिलता है कि कल्पस्थल में 
                        दुर्वासा ऋषि ने कल्पवृक्ष के नीचे तपस्या की थी। देवताओं 
                        ने असुरों से त्रस्त होकर यहीं पर नारायणस्तुति की और 
                        भगवान शिव-कल्पेश्वर के दर्शन कर अभय प्राप्त किया था। 
                        कल्पेश्वर (२९२९ मीटर) कल्प गंगा घाटी 
                        में अवस्थित है। कल्प गंगा पूर्वकाल में हिरण्यवती कही 
                        जाती थी, जिसमें दाएँ तट पर विस्तीर्ण बंजर भूमि दुरबसा 
                        कही जाती है। वहाँ ध्यान बदरी का मंदिर है। देवग्राम के 
                        केदार मंदिर के स्थान पर पहले कल्पवृक्ष था। 
                        कल्पेश्वर, विशाल चट्टान के पाद में, 
                        गुहा के गर्भ में, स्वयंभू शिवलिंग रूप में विराजमान हैं। 
                        जनश्रुति है, कि यहाँ इंद्र ने दुर्वासा ऋषि के शाप से 
                        मुक्ति पाने हेतु शिव-आराधना कर कल्पतरु प्राप्त किया था। 
                        कल्पेश्वर दो मार्गों से पहुँचा जा सकता है। प्रथम-मंडल से 
                        अनुसूया देवी होकर, द्वितीय-जोशीमठ से हेलंग न उर्गम होकर। 
                        प्रथम मार्ग अनुसूया देवी से आगे रुद्रनाथ होकर जाता है। 
                        द्वितीय हेलंग तक मोटर मार्ग द्वारा व तत्पश्चात ''६ 
						किमी.'' सँकरे सामान्य तीव्र ढाल से गुज़रनेवाले पैदल 
						मार्ग को तय कर, उर्गम आरक्षित वन क्षेत्र के निकट, ''७६ मीटर'' ऊँचा 
                        एक प्रपात देखकर, मार्ग की थकान दूर हो जाती है। 
                        सर्वाधिक आकर्षक- मध्यमहेश्वर 
                        मार्कंडेय गंगा व मध्यमहेश्वर के जल 
                        विभाजक के पूर्वी ढ़लान पर मंदिर स्थित है, जो कि स्थापत्य के दृष्टिकोण 
                        से पंच केदारों में सर्वाधिक आकर्षक है। मंदिर शिखर स्वर्ण 
                        कलश से अलंकृत है। मंदिर के पृष्ठभाग में कालीमठ व रांसी 
                        की भाँति हर-गौरी की आकर्षक मूर्तियाँ विराजमान हैं, साथ 
                        ही छोटे मंदिर में पार्वती जी की मूर्ति विराजित है। मंदिर 
                        के मध्य भाग में नाभि क्षेत्र के सदृश्य एक लिंग है, जिसके 
                        संबंध में केदारखंड पुराण में शिव पार्वती जी को समझाते 
                        हुए कहते हैं कि मध्यमहेश्वर लिंग त्रिलोक में गुप्त रखने 
                        योग्य है, जिसके दर्शन मात्र से मनुष्य सदैव स्वर्ग में 
                        निवास करना प्राप्त करता है।  
                        मध्यमहेश्वर से 
						२ किमी. के मखमली घास व 
                        पुष्प से अलंकृत ढालों को पार कर बूढ़ा मध्यमहेश्वर पहुँचा 
                        जाता है। यहाँ पर क्षेत्रपाल देवता का मंदिर भी है, जिसमें 
                        धातु निर्मित मूर्ति विराजित है। इसी से आगे ताम्रपात्र 
                        में प्राचीन काल के सिक्के भी रखे हैं। मध्यमहेश्वर 
                        पहुँचने के लिए गुप्तकाशी (१४७९ मीटर) से ७ किमी. जीप 
                        मार्ग तयकर कालीमठ (१४६३ मीटर) पहुँचना होता है, जहाँ काली 
                        माँ का गोलाकार मंदिर है। कालीमठ से मध्यमहेश्वर दूरी २३ 
                        किमी. है। 
                        सप्तऋषियों की तपोभूमि-तुंगनाथ 
                        चंद्रशिला शिखर (३६८९ मीटर) के नीचे, जल 
                        विभाजक पर, तुंगनाथ (३५९९ मीटर) स्थित है। निकटवर्ती 
                        स्थलों से सर्वोच्च स्थल पर अवस्थित होने के कारण इसे 
                        तुंगनाथ कहा जाता है। केदारखंड पुराण में इसे तुंगोच्च 
                        शिखर कहा गया है। जनश्रुति है कि यहाँ पर सप्तऋषियों 
                        द्वारा तपस्या की गई थी। सप्तऋषियों के तप से प्रफुल्लित 
                        हो भगवान शिव ने उन्हें आकाश गंगा में स्थान प्रदान करवाया 
                        था। यहाँ पूर्वकाल में तारागणों (सप्तऋषि) ने उच्च पद की 
                        प्राप्ति हेतु घोर तप किया था। सत्वभाव से गणों द्वारा 
                        आराधना करने के कारण इस पर्वत का नाम भी सत्यतारा हो गया 
                        और शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें तुंगपद दे दिया। अतः इस 
                        क्षेत्र का नाम तुंग हो गया। उसे तुंगनाथ महादेव कहा गया। 
                        यह परम क्षेत्र देवताओं को भी दुर्लभ है।
                          
                        तुंगनाथ मंदिर तराशे हुए पाषाणों द्वारा 
                        निर्मित लगभग ग्यारह मीटर ऊँचा है। एक मीटर ऊँची 
                        काष्ठवेष्ठनी के मध्य पत्थरों से निर्मित बड़ा आमलक है। 
                        शिखर पर १.६ मीटर ऊँचा स्वर्णकलश सुशोभित है। 
                        सभा मंडप के ऊपर गज-सिंह को स्थापित 
                        किया गया है। मंदिर काले रंग के पिंडाकार शिवलिंग से 
                        सुशोभित है। साथ ही सोने-चाँदी की पाँच अन्य मूर्तियाँ भी 
                        रखी गई हैं, जिन्हें कपाट बंद होने पर मक्कूमठ ले जाया 
                        जाता है। दो द्वारपालों की धड़विहीन मूर्तियाँ दोनों 
                        हिस्सों में हैं, जिनके निकट कुछ खंडित मूर्तियाँ, ताँबे 
                        का कलश, डोरी व अनेक घंटे रखे हैं। मंदिर के पश्चिमी भाग 
                        में रावण शिला है। जिससे रावण के इस स्थल पर शिव की आराधना 
                        करने संबंधी जनश्रुति जुड़ी है। तुंगनाथ से १९ किमी. की 
                        दूरी पर अंडाकार देवरियाताल है, जिसके पवित्र जल में 
                        बद्रीनाथ शिखर का दृश्य प्रतिबिंब, ताल की छटा में चार 
                        चाँद लगा देता है। केदारनाथ का सर्वाधिक महत्व यहाँ शिव के 
                        नंदी रूप के लुप्त होने के कारण है। भिन्न-भिन्न अंगों के 
                        भिन्न-भिन्न स्थलों पर पूजन-महत्व में भिन्नता के कारण 
                        कल्पेश्वर, मध्यमहेश्वर, रुद्रनाथ व तुंगनाथ का महत्व व 
                        आस्था की नींव भी अलग-अलग हैं। कहा गया है भक्ति-पूर्वक जो 
                        पंचकेदार के दर्शन मात्र से पापी भी पाप से मुक्त हो जाते 
                        हैं।  
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