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पर्यटन
 

कालिंजर बाँदा जनपद का ऐतिहासिक गौरव है। कहा जाता है कि यहाँ शंकर ने कालकूट विष पीकर शांति प्राप्त की। अनेक पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंग जुड़े हैं कालिंजर से। कालिंजर के दुर्ग ने देखे हैं अनेक युद्ध। अनेक आक्रमण झेले हैं उसने।

कालिंजर बाँदा जिले के दक्षिण पूर्व में बाँदा से पचपन किलो मीटर दूर है। बाँदा से बस द्वारा गिरवाँ होते हुए नरौनी और फिर कालिंजर पहुँचा जा सकता है। कालिंजर दुर्ग का प्रथम द्वार सिंह द्वार के नाम से पुकारा जाता है। दूसरा द्वार गणेश द्वार तथा तीसरा द्वार चंडी द्वार कहलाता है। चौथा बुद्धगढ़ द्वार (स्वर्गारोहण द्वार) है जिसके पास भैरवकुंड नामक सुंदर जलाशय है, जो गंधी कुंड नाम से प्रसिद्ध है। दुर्ग का पाचवाँ द्वार अत्यंत कलात्मक है जिसे हनुमान द्वार कहते हैं। यहाँ कलात्मक पत्थर की मूर्तियाँ और शिलालेख उपलब्ध हैं। इन शिलालेखों का संबंध चंदेल शासकों से है। जिनमें मुख्यतः कीर्ति वर्मन और मदन वर्मन मुख्य हैं। यहाँ श्रवण कुमार का चित्र भी देखने को मिलता है। छठा द्वार लाल द्वार है जिसके पश्चिम में हम्मीर कुंड है। चंदेल वंश की कला की प्रतिभा इस द्वार के समीप की दो मूर्तियों से भली भाँति व्यक्त हुई है। सातवाँ द्वार अंतिम द्वार है जिसे नेमि द्वार कहा जाता है। इसे महादेव द्वार भी कहते हैं।

कालिंजर दुर्ग में नीलकंठ महादेव का प्राचीन मंदिर है। यह दुर्ग के पश्चिम कोने में स्थित है। नीलकंठ महादेव कालिंजर के अधिष्ठाता देवता हैं। नीलकंठ मंदिर जाने के लिए दो द्वारों से होकर जाना पड़ता है। यहाँ पर अनेक गुफ़ाएँ तथा मूर्तियाँ पर्वत को काट कर बनाई गई है। नीलकंठ मंदिर का मंडप चंदेल वास्तुशिल्प की अनुपम कृति है। मंदिर के प्रवेशद्वार पर चंदेल शासक परिमाद्रदेव द्वारा शिवस्तुति है। मंदिर के अंदर स्वयंभू लिंग स्थापित है। मंदिर के ऊपर पर्वत को काटकर दो जलकुंड बनाए गए हैं। जिन्हें स्वर्गारोहण कुंड कहते हैं। इसके नीचे पर्वत को काटकर बनाई गई कालभैरव की प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त मंदिर परिसर में ही सैकड़ों मूर्तियाँ पर्वत को काट काट कर उत्कीर्ण की गई हैं।

दुर्ग के दक्षिण मध्य की ओर मृगधारा है। यहाँ पर पर्वत को तराश कर के दो कक्ष बनाए गए हैं। एक कक्ष में सप्तमृगों की मूर्तियाँ हैं यहाँ पर निरंतर जल बहता रहता है। यह स्थान पुराणों में वर्णित सप्त ऋषियों की कथा से समृद्ध माना जाता है। यहाँ पर गुप्त काल से मध्यकाल के अनेक तीर्थयात्री अभिलेख हैं। सबसे ज्यादा दुर्गम स्थान पर शिला के अंदर वह खोदकर बनाई भैरव व भैरवी की मूर्ति बहुत सुंदर तथा कलात्मक है।

कालिंजर दुर्ग के अंदर ही पाषाण द्वारा निर्मित एक शैय्या और तकिया है। इसे सीता सेज कहते हैं। यहाँ पर शैलोत्तीर्ण एक लघु कक्ष है। जन श्रुति के अनुसार इसे सीता का विश्राम स्थल कहा जाता है। यहाँ पर तीर्थ यात्रियों के आलेख हैं। एक जलकुंड है जो सीताकुंड कहलाता है। वृद्धक क्षेत्र में दो संयुक्त तालाब हैं। इसका जल चर्म रोगों के लिए लाभकारी कहा जाता है। ऐसी अनुश्रुति है कि यहाँ स्नान करने से कुष्टरोग दूर हो जाता है। चंदेल शासक कीर्ति वर्मन का कुष्ट रोग यहाँ पर स्नान करने से दूर हो गया है। कोटि तीर्थ अर्थात जहाँ पर सहस्रों तीर्थ एकाकार हों यहाँ के ध्वंसावशेष अनेक मंदिरों का आभास कराते हैं। वर्तमान में यहाँ पर एक तालाब तथा कुछ भवन हैं।

यहाँ पर गुप्त काल से लेकर मध्य काल के अनेक अभिलेख विद्यमान हैं। शंखलिपि के तीन अभिलेख भी दर्शनीय हैं। बुंदेलवंश शासक अमानसिंह ने अपने रहने के लिए कालिंजर दुर्ग के कोटि तीर्थ तालाब के तट पर एक महल बनवाया था। यह बुंदेली स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। अब यह ध्वस्त अवस्था में है तथा यहाँ पर पुरातत्त्व विभाग द्वारा दुर्ग में बिखरी हुई मूर्तियों का संग्रहालय बना दिया गया है। यहाँ पर रखी मूर्तियाँ शिल्प कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। दुर्ग के प्रथम द्वार के पहले आकर्षक महल है जो सन १५८३ ईस्वी में अकबर द्वारा निर्मित किया गया था।

कालिंजर दुर्ग में पातालगंगा, भैरवकुंड, पांडुकुंड, सिद्ध की गुफ़ा, राम कटोरा, चरण पादुका, सुरसरि गंगा, बलखंडेश्वर, भड़चाचर आदि अन्य स्थल भी दर्शनीय हैं। कालिंजर दुर्ग में एक भव्य महल है। जिसे चौबे महल के नाम से जाना जाता है। इसे चौबे बेनी हजूरी तथा खेमराज ने निर्मित कराया था। कालिंजर के संबंध में यह जनश्रुति प्रचलित है कि जो व्यक्ति कालिंजर के प्रसिद्ध देवताओं की झील में स्नान करेगा उसे एक हज़ार गायों के दान के समान पुण्य प्राप्त होगा।

 १४ जून २०१०

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