| 
                   शिवरात्रि 
					के अवसर पर 
                  
					चाँदनी रात में मानसरोवरबुद्धिनाथ मिश्र
 
 
 
                  कैलाश और मानसरोवर सांस्कृतिक 
					दृष्टि से प्रत्येक भारतीय के मनोमय जगत का अभिन्न अंग हैं, 
					लेकिन राजनीतिक दृष्टि से आज वे चीन के कब्जे में हैं। इसलिए 
					जो भी भारतीय भगवान शिव और माता पार्वती के लीला-स्थल कैलाश 
					पर्वत का दर्शन करना चाहते हैं, उन्हें चीन से वीजा लेना पड़ता 
					है। कैलाश-मानसरोवर की यात्रा भी बदरीनाथ या गंगोत्री की तरह 
					सहज-सरल नहीं थी कि कोई भी व्यक्ति बैग उठाकर चल पड़े। वहाँ 
					जाने के लिए सक्षम यात्रियों का चुनाव गृह मंत्रालय करता था। 
					तीर्थयात्रियों का दल निर्धारित शुल्क जमाकर और डाक्टरों की 
					टीम द्वारा विस्तृत स्वास्थ्य-परीक्षण के बाद ही जत्थों में 
					सरकारी प्रबंध में भेजे जाते थे। प्रायः जून के मध्य में यह 
					विशिष्ट तीर्थयात्रा शुरु होती थी और लौटने में एक महीना लग 
					जाता था।
 यह यात्रा अमरनाथ गुफा की यात्रा से कई गुना ज्यादा कठिन थी। 
					प्रतिकूल परिस्थिति में अनेक यात्री बीमार पड़ जाते थे और कई 
					तो घर भी नहीं लौट पाते थे। इसलिए कैलाश-मानसरोवर की यात्रा 
					करने के लिए भक्तों में गाँठ के मजबूत होने साथ-साथ जबर्दस्त 
					हौसला भी होना चाहिए था। भारत सरकार के प्रबंधन में होनेवाली 
					कैलाश-मानसरोवर यात्रा भारत तिब्बत सीमा पुलिस की देखरेख में 
					होती है। यात्री दल कुमाऊँ मंडल विकास निगम के वाहन से भारत 
					तिब्बत सीमा पर पहुँचने के बाद आगे की यात्रा के लिए चीनी सेना 
					को सुपुर्द कर दिये जाते थे।
 
 
  मानसरोवर 
					जाने का एक और रास्ता काठमांडू (नेपाल) होकर है, जो अपेक्षाकृत 
					सुविधाजनक है। पिछले अगस्त मास में मेरे कुछ सहकर्मी उसी 
					रास्ते से मानसरोवर गये थे। यह यात्रा नेपाल के टूर आपरेटरों 
					की सहायता से उनकी देखरेख में ही की जाती है। इसके लिए वे 
					प्रति यात्री 68 हजार रु.लेते हैं, जिसमें चीन का वीजा-शुल्क 
					भी शामिल है। यात्री दल दिल्ली से विमान से काठमांडू पहुँचे। 
					वहाँ टूर आपरेटिंग कम्पनी ने उन्हें पाँचसितारा होटल में 
					ठहराया और कैलाश यात्रा सम्बंधी आवश्यक जानकारी और ट्रेकिंग 
					किट उन्हें प्रदान की। काठमांडू में ही भारतीय यात्री आगे के 
					खर्च के लिए रुपये से चीनी मुद्रा युवान बदलते हैं। नेपाल-चीन 
					सीमा पर बने 23०० मीटर की ऊँचाई पर बने ‘फ़्रेंडशिप ब्रिज’ 
					पारकर यात्री तिब्बत की सीमा में प्रवेश करते हैं। वहाँ चीनी 
					आव्रजन कार्यालय के अधिकारी उनके पासपोर्ट-वीजा की जाँच करते 
					हैं और विधिवत् जामा तलाशी लेते हैं। इसके बाद चीनी गाइड के 
					नेतृत्व में सभी यात्री, पाँच-पाँच के दल में 4५०० सीसी के 
					लैंडक्रूजर पर सवार होकर, 
					तिब्बत के मुख्य प्रवेशद्वार झंगमो के लिए रवाना होते हैं। 
 झंगमो से नायलम-देबुला होते हुए मानसरोवर जाना होता है। रास्ते 
					में तिसंग्पो नदी (हमारा ही ब्रह्मपुत्र नद) का प्रबल प्रवाह, 
					नीले आकाश के नीचे तिब्बत के के हरे पठारों पर उन्मुक्त विचरण 
					करते याक के झुंड विभिन्न आकृतियों की अगणित चट्टानों का 
					विहंगम दृश्य प्रतिकूल मौसम में यात्रा कर रहे भारतीयों को 
					अलौकिक जगत् में ले जाता है। शायद तिब्बत की इसी दिव्य सुषमा 
					से प्रभावित होकर हमारे पूर्वजों ने स्वर्ग की परिकल्पना की 
					थी। पूर्णिमा की रात में मानसरोवर के अलौकिक रूप का दर्शन करना 
					बड़े सौभाग्य और जन्म-जन्मान्तर के संचित पुण्य का फल ही माना 
					जाता है।
 
 कैलाश पर्वत के प्रति भारत-नेपाल के जन-मानस में जो अपार 
					श्रद्धा है, उससे बाध्य होकर चीन ने भी कैलाश पर पर्वतारोहण 
					प्रतिबन्धित कर रखा है। उसकी परिक्रमा तो आप कर सकते हैं, मगर 
					उसपर चढ़ नहीं सकते। कुछ विदेशी पर्वतारोहियों ने चोरी छिपे 
					उसपर चढ़ने का उद्यम किया, मगर रास्ते में ही वे मर-मरा गये।
 
 मानसरोवर का रास्ता ऊबड़-खाबड़ पठारों से गुजरता है, जिसपर 
					लैंडक्रूजर १०० किमी की रफ़्तार से दौड़ता है और वह भी
  यूरोपीय 
					देशों की तरह रास्ते की दायीं ओर से । मानसरोवर के पास स्थित 
					प्रसिद्ध राक्षस ताल पहुँचने के पहले रास्ते में खूमन, त्सो 
					आदि कई झीलें पड़ती हैं, जिनका निर्मल जल धूप में आइने की तरह 
					चमकता है। राक्षस ताल रावण की तपस्थली रहा है, इसीलिए उसका यह 
					नाम पड़ा। मान्यता है कि भगवान शिव ने रावण को अमरत्व का वरदान 
					इसी ताल के किनारे दिया था। इस तालमें स्नान नहीं किया जाता। 
					इसके बाद पूर्व में कुछ दूर चलने पर मानसरोवर आता है, जहाँ तक 
					पहुँचने के लिए चीन की सरकार ने डामर वाली पक्की सड़क बना रखी 
					है। लैंड्क्रूजर में बैठकर तीन घंटे में मानसरोवर की परिक्रमा 
					की जा सकती है। 
                  लगभग १५ हजार फुट की ऊँचाई पर 
					स्थित मानसरोवर ७० वर्ग किमी में फैला हुआ है। इसमें दिव्य जल, 
					जिसका स्वाद जामुन के रस की तरह है, गुरला मान्धाता पर्वत 
					शृंखला से प्रवाहित होकर आता है। कभी मान्धाता ऋषि ने यहाँ 
					दीर्घ तपस्या की थी। इसीलिए उनके नाम से यह पर्वत प्रसिद्ध है। 
					कभी सरोवर के किनारे मात्र एक तिब्बती धर्मशाला होती थी। कुछ 
					वर्ष पहले ऋषिकेश के विश्वप्रसिद्ध परमार्थ निकेतन के स्वामी 
					चिदानंद जी महाराज (मुनिजी) के सत्प्रयास से वहाँ एक और 
					छोटी-सी धर्मशाला भी बन गयी है। वैसे, मानसरोवर में तेज गति से 
					चल रही बेहद ठंढी हवा किसी को भी ज्यादा देर तक उसके किनारे 
					वास करने की अनुमति नहीं देती। भारतीय संत मोरारी बापू ने भी 
					राक्षस ताल के किनारे ही रामकथा का आयोजन किया था।
 मानसरोवर में आक्सीजन की कमी से साँस जल्दी-जल्दी लेनी पड़ती 
					है और रक्तचाप भी बहुत घट जाता है। इस समस्या से या तो निरंतर 
					प्राणायाम करके या डाइमॉक्स टेबलेट खाकर निबटा जाता है। चूँकि 
					डाइमॉक्स किडनी पर बुरा असर डालता है, इसलिए प्राणायाम बेहतर 
					विकल्प है। मानसरोवर का जल शान्त और अत्यन्त निर्मल है। इसकी 
					लहरों पर तैरते, लम्बी गर्दन वाले राजहंस तपस्वी ऋषि-मुनियों 
					की तरह ही ध्यान-मग्न दिखते हैं। वैसे तो वहाँ का पूरा परिवेश 
					धवल है, जिसकी उपमा शिव के अट्टहास से संस्कृत के महाकवियों ने 
					दी है, मगर मानसरोवर के लकदक पानी पर तैरते राजहंस अपने 
					अद्वितीय सौन्दर्य के कारण सदियों नहीं, सहस्राब्दियों से 
					भारतीय मानस को आकर्षित करते रहे हैं।
 
 
  वह 
					श्रावण पूर्णिमा की रात थी। रात में हवा कम चलने के कारण 
					वातावरण सुखद लग रहा था। पूर्णिमा का चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं 
					से आकाश को मद्धिम आलोक से सुशोभित कर रहा था। उसका प्रतिबिम्ब 
					मानसरोवर के विशाल जल-दर्पण पर पड़ रहा था। धर्मप्राण तिब्बती 
					लोगों की मान्यता है कि पूर्णिमा की रात मानसरोवर में स्नान 
					करने के लिए देवगण उतरते हैं। इसलिए, उस रात भारतीय यात्रियों 
					के दल के साथ तिब्बती लोग भी मानसरोवर के तट पर आ डटे थे। आकाश 
					में विभिन्न प्रकार के अद्भुत दृश्य उपस्थित हो रहे थे, 
					जिन्हें सभी यात्री मुग्ध भाव से, सुध-बुध बिसराकर, देख रहे 
					थे। एक-दो यात्रियों को साक्षात् शिव-पार्वती आकाश से उतर कर 
					सरोवर के पवित्र जल में प्रवेश करते दिखाई पड़े। किसी को आसमान 
					से सरोवर में जोरदार आवाज़ के साथ कुछ गिरता दिखाई दिया। यह 
					आवाज इतनी झन्नाटेदार थी कि बहुतों का माथा सूना हो गया। सभी 
					यात्री एक दिव्य आध्यात्मिक अनुभूति से रोमांचित थे। वैसे भी, 
					श्रावणी पूर्णिमा की सुबह आचारवान ब्राह्मण नदी के नये जल में 
					स्नान कर देव-पितरों, ऋषि-मुनियों, आचार्यों, नदी-पर्वतों का 
					स्मरण करते हैं। यह दिन यदि कोई मानसरोवर के तट पर गुजारे और 
					रात में देवों की अदृश्य लीला की झलक पा ले, तो उससे भाग्यशाली 
					और कौन हो सकता है! 
 मानसरोवर में स्नान करना यद्यपि सबके वश की बात नहीं होती, 
					क्योंकि सौ किमी की रफ़्तार से चलनेवाली बर्फ़ीली हवा यदि शरीर 
					के अंदर घुस गयी, तो हृदयाघात (हार्ट अटैक) होने का डर है। पानी 
					में डुबकी लगाते ही पूरा शरीर अकड़ जाता है। मगर जो पूरी तरह 
					स्वस्थ हैं और साहसी भी, और अपनी आध्यात्मिक शक्ति पर भरोसा 
					रखते हैं , उनके लिए उस बर्फ़ीले पानी में नहाना असम्भव भी 
					नहीं है। सामान्यतः धूप निकलने के बाद ही लोग स्नान करते हैं। 
					स्नान के बाद लोग सरोवर के पास गुफा में जाकर पूजा-हवन करते 
					हैं । कोई पंडा-पुजारी नहीं, कोई पुरोहित नहीं। आप स्वयं ईश्वर 
					के इतने समीप हैं कि उनतक पहुँचने के लिए आपको किसी बाहरी 
					माध्यम की आवश्यकता ही नहीं। यात्रियों के हवन आदि से बचे 
					सामान तिब्बती स्त्रियाँ उठाकर अपने घर ले जाती हैं। मानसरोवर 
					के पवित्र जल अपने घर के लिए अवश्य ले आइये, मगर ध्यान रहे कि 
					काठमांडू में विमान पर चढ़ते समय उसे बैगेज में डाल दीजिये। 
					यदि उसे अपने हैंडबैग में डाला तो सेक्योरिटी वाले उसे निकाल 
					कर बाहर फेंक देंगे और आपका सारा श्रम व्यर्थ हो जाएगा।
 
                  मानसरोवर में कुछ देर भोजन-विश्राम 
					के बाद यात्री कैलाश पर्वत के दर्शन करने के लिए अष्टपद की ओर 
					रवाना होते हैं। अष्टपद में दुर्लभ रत्नवाले पत्थर बिखरे पड़े 
					होते हैं, जिन्हें यात्री स्मृति-चिह्न के रूप में बटोरकर घर 
					ला सकते हैं। इन पत्थरों पर देवी-देवताओं के चित्र भी उत्कीर्ण 
					मिल जाते हैं। अष्टपद से दारचेन और यमद्वार होते हुए कैलाश 
					पर्वत जाया जाता है। मान्यता भी है और लोग अनुभव भी करते हैं 
					कि जो व्यक्ति यमद्वार के भीतर से गुजरता है, उसके मन से 
					मृत्यु का भय हमेशा के लिए निकल जाता है। 
					 
                  
					 यहीं 
					से कैलाश पर्वत की परिक्रमा प्रारम्भ होती है, जो जोखिम भरी 
					है। आगे बढ़ने पर  दिरापुक में चीन 
					सरकार द्वारा यात्रियों के विश्राम की सुविधा के लिए आधार शिविर (बेस 
					कैम्प) बनाया गया है। इस घाटी में अनेकों गुफाएँ हैं, जिनमें 
					साधक योगी वर्षों से तपस्यारत हैं। कैलाश पर्वत शिव का निवास 
					स्थान माना जाता है। उसके सान्निध्य में तपस्या करने से सिद्धि 
					प्राप्त करना सहज है। हमारा दुर्भाग्य है कि हिमालय पर्वत 
					शृंखला का गौरव और करोड़ों भारतीयों की आस्था का केन्द्र 
					कैलाश-मानसरोवर आज पराये घर में बंधक पड़ा है। अपने सबसे पावन 
					तीर्थ की यात्रा करने के लिए हमें चीन जैसे अविश्वसनीय पड़ोसी 
					की अनुकम्पा पर निर्भर रहना है। |