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पर्यटन

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सिवनी का जैन मंदिर
-संजय जैन


महिमामय अतीत की आभा से आलोकित मध्य प्रदेश में हर प्रकार के यात्री की प्यास, चाहे वह प्रकृति का प्रेमी हो या मूर्ति एवं वस्तुकला का पारखी, बुझती है। हर आँख के लिए यहाँ सौंदर्य है और हर क्षेत्र के जिज्ञासुओं के लिए समाधान। देश के इस हृदय प्रांत में सभी धर्मों, संस्कृतियों एवं कला का अपूर्व संगम दिखायी देता है। प्रांत का प्रत्येक नगर और उसके आँचल की पग-पग भूमि अपने स्वर्णिम अतीत की कहानी कहती है। प्रदेश का अतीत गौरवपूर्ण है। मध्य प्रदेश अतीत और वर्तमान में एक साथ जीता है। यहाँ हमें विभिन्न धर्म, सभ्यता और अतीत संस्कृतियों के केंद्र मिलते हैं। इस प्रदेश में जहाँ हमें बौद्ध संस्कृति के प्रतीक साँची के तीर्थ स्तूप के दर्शन होते हैं वहीं हमें हिंदू और जैन धर्म के तीर्थक्षेत्र भी मिलते हैं। जैन धर्म की जब चर्चा की जाती है तो सिवनी के जैन मंदिर के नाम को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

कलात्मक समग्रता का प्रतीक

मंदिरों के महिम सोपानों पर क्रमशः चढ़ती हुई प्रेरणा शिखाएँ अनायास ही अंतर्मन को आलोकित कर देती हैं और अंतरचेतना की उर्ध्ववृत्तियाँ शिखरों के साथ-साथ अगम आकाशीय ऊँचाइयाँ छूने लगती हैं। शिल्पियों ने यहाँ कलात्मक समग्रता से जीवन की सृष्टि की है।

सिवनी नगर में दो दिगंबर जैन मंदिर हैं-बड़ा और छोटा। स्थापत्यकला की दृष्टि से बड़े मंदिर का ही सर्वाधिक महत्व है। बड़े जैन मंदिर में अठारह वेदियाँ हैं। संपूर्ण बड़ा मंदिर,विभिन्न मंदिर समूह, एक समय में ही बना होगा, कहीं जोड़ नहीं, कहीं कोई दरार नहीं। सबसे प्राचीन है यहाँ के बड़े बाबा का मंदिर।

बड़े बाबा का मंदिर

इसमें भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है इस प्रतिमा की स्थापना स्व. श्री सुखलालजी शाह ने माघ शुक्ला २,१९१० को की थी। इस मूर्ति के मुखमंडल पर शांति और आध्यात्मिक भाव का अपूर्व सम्मिश्रण है। प्रतिमा श्यामवर्ण पाषाण की पद्मासन है। जैन धर्म के २३ वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की इस प्रतिमा के ऊपर नाग की फणाबली शोभा दे रही है। बड़े बाबा के द्वार को रजत पत्र से भूषित किया गया है। मंदिर में सबसे प्राचीन प्रतिमा चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की है। प्रतिमा काले भूरे पाषाण की है। यह मूर्ति यहाँ धंसौर से लायी गयी थी, मूर्ति में कलचूरि कला का प्रभाव परिलक्षित होता है।

विरक्ति की अभिव्यक्ति

सिवनी से निकटस्थ ग्राम चावड़ी से जैन प्रतिमा लाकर मंदिर में स्थापित की गयी है। सबसे अर्वाचीन सात फुट दो इंच ऊँची खड़गासन प्रतिमा भगवान बाहुबली की है। यह प्रतिमा श्वेत प्रस्तर की है तथा प्रस्तर सरोज पर स्थित है। उसके पृष्ठ भाग को इस तरह चित्रित किया गया है कि भगवान एक नीलवर्ण पहाड़ी पर शांत मुद्रा में ध्यानस्थ खड़े दिखते हैं। शिल्पी ने त्याग की भावना को अपनी छेनी से अंग-अंग में भर दिया है। मंदिरों में प्रवेश करते ही दीवारों पर अंकित तीर्थराज सम्मेद शिखरजी, दूसरी ओर सोनागिरजी तथा गिरनारजी का मानचित्र बनाया गया है। साथ ही रखे तीर्थंकर नेमिनाथजी की बारात और उसके भोज के लिए एकत्र पशुओं का कारागार चित्रित है, जिसे देखकर क्षणभंगुर संसार से विरक्ति पैदा हो जाती है। ऊपर के मंदिर में शीशे का जड़ाऊ काम विशेष दर्शनीय है। जहाँ दीवारों के साथ-साथ ही दरवाजों और खिड़कियों को भी रंग-बिरंगे काँच से अलंकृत कर दिया गया है। एक मंदिर की वेदी काष्ठ निर्मित है। काष्ठ कितनी कुशलता से तराशा जा सकता है। इसका अनुमान इसे देखकर ही लगाया जा सकता है।

जिनेन्द्र भगवान का रजत रथ

बड़े मंदिर के सामने ही लंदन की वेस्ट मिन्स्टर 'ऐबे' के नमूने की सुंदर इमारत खड़ी है। यह इमारत श्री जिनेंद्र भगवान के रजत रथ (जिसका निर्माण बनारस में सन् १९३० में हुआ था) को रखने के लिए बनायी गयी है। इमारत की तीसरी मंजिल का नाम 'चंद्रलोक' है। भवन का मुख्य द्वार दक्षिण में है। इसके ही भीतर रथ रखा जाता है। भगवान का रथ 'रथ' मोटर के ऊपर बनाया गया है। रथ को जोतने के लिए अश्व जुते हुए हैं। रथ का संचालन सारथी करता है। काष्ठ निर्मित सिंहासन पर चाँदी एवं स्वर्ण के पत्र चढ़े हैं।

 

 ६ जनवरी २०१४

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